शनिवार, जुलाई 20, 2024

जगीरा का काम तो हो गया, आप लाठी पीटते रहें

 

जगीरा का काम तो हो गया, आप लाठी पीटते रहें

वीरेन्द्र जैन

किसी फिल्म का डायलाग था कि तुम हमारे [जगीरा, फिल्म का खलनायक] जैसे कपड़े तो पहिन लोगे किंतु हमारे जैसा कमीनापन कहाँ से लाओगे?

वे बहुत दिनों से प्रयासरत थे कि कांवड़ यात्रा की परम्परा को ढोने वाले युवा बेरोजगार वर्ग को कैसे बजरंग दली बनायें, लगता है वे इस बार सफल हो गये। एक बार भाजपा के एक पदाधिकारी रहे मित्र से पूछा था कि आप लोग यह कैसे तय करते हैं कि किसको विश्व हिन्दू परिषद में रखना है, किसको पार्टी में रखना है, किसको बजरंग दल में भेजना है इत्यादि। उत्तर में उन्होंने नगर के कुछ चर्चित व्यक्तियों के उदाहरण दिये थे जिससे स्पष्ट हो गया था कि किंचित बौद्धिक व्यक्ति को विश्व हिन्दू परिषद में और जो बुद्धि विवेक का स्तेमाल नहीं करता उसे बजरंग दल में भेज देते हैं। उससे वैसा ही काम लेते हैं जैसे वैलंटाइन डे पर लाठी लेकर प्रेमी जोड़ों को प्रताड़ित करके ‘संस्कृति’ की रक्षा करना या धार्मिक प्रापर्टी को हथियाना। दंगों में आगजनी करना या विधर्मियों के धर्मस्थलों को तोड़ना आदि। उनका काम झूठे सच्चे उदाहरणों से तर्क करना नहीं होता।

उनका प्रयास कई वर्षों से चल रहा था, जब उन्होंने देवी और गणेश पंडालों के लिए समितियां गठित कीं तथा लागत के रूप में पीछे से खुद आर्थिक मदद करके उन्हें धर्म भीरु या भीड़ भीरुओं से चन्दा उगा कर उसे स्तेमाल करने की स्वतंत्रता दे दी थी। इसमें जुटने वाले लड़के ज्यादातर बेरोजगार थे, निम्न आय वर्ग के थे और पिछड़ी व दलित जातियों से आते थे। कथित धार्मिक कार्य में योगदान देने में उन्हें अपनी जाति के उत्थान का भ्रम हुआ और वे उसके लिए जुटने लगे। समितियों का नेतृत्व सवर्णों या सवर्ण जैसे पिछड़ों के हाथों में रहा किंतु चन्दे का उपयोग सामूहिक रूप से हुआ। इसी प्रयोग को आगे बढाने के लिए कांवड़ यात्रा के यात्रियों के लिए जगह जगह भंडारे आयोजित करवाये गये और क्रमशः उनमें पकवानों, मिष्ठानों की वृद्धि की गयी और इनका वित्त पोषण भी संघ परिवार के समर्थक व्यापारी समुदाय के सहयोग से या उनके नाम से कराया गया। पिछले कई वर्षों से उनको एक विशेष रंग की टीशर्टें भेंट करके उनका रेजीमेंटेशन कराया जाने लगा। इन पोषाकों का वित्त पोषण भी उसी रास्ते से हुआ। दूसरे राजनीतिक दल इसे धार्मिक कार्य मान कर उदासीन रहे किंतु भाजपा की सरकारों ने उन्हें इतनी सुरक्षा दी कि उ.प्र. के पुलिस अधिकारियों को उनके पांव धोने और पैर दबाने के नमूने प्रस्तुत करने के आदेश दिये गये। उन पर हैलीकाप्टर से पुष्प वर्षा करायी गयी। उन्हें खुले में शौच जाने से नहीं रोका गया।

लोकसभा चुनाव 2024 में पिछड़े व दलित वर्ग का व्यापक समर्थन न मिलने से उत्तर प्रदेश में पर्याप्त सफलता नहीं मिल सकी। इसलिए उन्होंने हिन्दू मुस्लिम टकराव का पुराना तरीका निकाला और पूर्व से कार्यरत समूहों के साथ नये प्रयोग प्रारम्भ किये। मुजफ्फरनगर जैसे संवेदनशील जिले में जहाँ कभी हिन्दू मुस्लिम दंगे हो चुके थे स्ट्रीट वैंडरों को अपना नाम लिखने के फूहड़ आदेश निकाल कर छेड़ने का काम किया क्योंकि अधिकांश वैंडर मुस्लिम समुदाय से आते हैं। जैसा के स्वाभाविक था इसके विरोध में बयानबाज विपक्षी दल मुखर हो गये जिससे एक राजनीतिक ध्रुवीकरण हो गया। हिन्दू मुस्लिम के बीच निरंतर दरार पैदा करने का काम तो ये लोग करते ही रहते हैं और उस संवेदनशील वातावरण में कोई चिनगारी लग जाती है तो उसे आग बनते देर नहीं लगती। गुजरात में 2002 में ऐसे ही बहिष्कार ने वहाँ के बेकरी उद्द्योग को बर्बाद करके मुस्लिम समुदाय को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। वैसे कोर्ट के किसी आदेश से यह प्रयास अवैध घोषित हो सकता है किंतु जो विभाजन रेखा खिंच जाती है वह मुश्किल से मिटती है। विशेषरूप से जब सोशल मीडिया के सहारे नफरत की फैक्ट्रियां चल रही हों।

यह इकलौता षड़यंत्र नहीं है। ये लोग बहुत बारीकी से काम करते हैं। जैसे इन्होंने स्कूलों में सूर्य नमस्कार का प्रयोग किया था। प्रथम दृष्ट्या यह योगासन अच्छा और स्वास्थ के लिए लाभदायक है और इसमें कोई बुराई नहीं है किंतु जब ऐसे काम, इतिहास को विकृत कराने वाली सरकार करती है, तो मुस्लिम समुदाय को आशंका होने लगती है और वे विरोध करने लगते है। केवल मुँह चलाने वाले विपक्षी भी पीड़ित पक्ष का साथ देने लगते हैं जिससे बहुसंख्यक वर्ग के समर्थन का लाभ उन्हें मिल जाता है। पर खेल तो अब शुरू होता है जब वे मासूमियत से कह देते हैं कि जिसे सूर्य नमस्कार ना करना हो वह ना करे। इससे छात्रों और अध्यापकों में एक स्पष्ट विभाजन रेखा खिंच जाती है। एक, सूर्य नमस्कार करने वाले और दूसरे मना  करने वाले, अर्थात एक हिन्दू दूसरा मुसलमान जिनके खिलाफ पहले से ही विषबीज बोया हुआ होता है। अब कोई सूर्य नमस्कार करे या ना करे, उनका काम तो हो जाता है। ऐसा ही प्रयोग वे सरकारी स्कूलों में बच्चे के प्रवेश के समय तिलक लगा कर करने से करते हैं, और बच्चों को प्राइमरी से ही विभाजित करने लगते हैं। वन्दे मातरम गाने, न गाने को भी इसी तरह स्तेमाल किया जाता है।

वे लोगों की अनभिज्ञता का लाभ उठाते हैं और लोग समझते हैं कि डेढ सौ साल पहले शुरू हुयी रावण जलाने की प्रथा या सौ साल पहले गणेश जी की सार्वजनिक झांकी सजाना उनके धर्म और परम्परा का हिस्सा है और पर्यावरण की रक्षा में पटाखे फोड़ने से रोकना उनके धर्म में अनुचित हस्तक्षेप है। वे परम्परा को समाज हित में स्तेमाल करने की जगह उससे चुनावी लाभ हानि का गणित बैठाते हैं और उन्हें लाभ देने वाली हर गलत परम्परा को भी जारी रखना चाहते हैं। वे जनता को अंधेरे में ही रखना चाहते हैं। उजाला देने की कोशिश करने वाले नरेन्द्र दाभोलकर, गोबिन्द पंसारे या गौरी लंकेश की सरे आम हत्या हो जाती है व उनकी सुपारी देने वाले पकड़े नहीं जाते। अपराधियों को पकड़ने वाले करकरे के खिलाफ मुम्बई बन्द यही लोग बुलाते हैं किंतु उससे पहले उनकी हत्या हो जाती है। आतंकी हिंसा के आरोपियों को बचाने में मदद की जाती है, उन्हें लोकसभा का टिकिट देकर उनकी छवि सुधारी जाती है। गुजरात के बिल्किस कांड के आरोपियों को जल्दी छोड़ कर उनकी बाकी की सजा माफ कर के अपनी पक्षधरता का सन्देश दिया जाता है। दूसरे कांड की आरोपी को सजा घोषित होने तक मंत्री पद से उपकृत किया जाता है।

कानून अपनी सीमाओं में रह कर साक्ष्य मिलने पर सन्देह का लाभ या सजा देता है किंतु समाज में जिसकी छवि आरोपी की है उसकी पक्षधरता,पक्ष लेने वालों के चरित्र को प्रकट करती है। चुनावों तक सीमित विपक्ष ना आन्दोलन कर सकता है और ना ही जैसे को तैसा जबाब देने में सक्षम है। षड़यंत्र रच सकने की उसकी उनके जैसी सांगठनिक क्षमता भी नहीं है, इसलिए जगीरा जीत जाता है।   

 वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.]  

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