श्रद्धांजलि : राम मेश्राम
उन्होंने कभी गलत के साथ समझौता नहीं किया
वीरेन्द्र जैन
गत ग्यारह जनवरी 2025 को गज़लकार पूर्व प्रशासनिक अधिकारी राम मेश्राम का 80 वर्ष की आयु में निधन हो गया। उन्होंने सरकारी पद पर रहते हुए इस समय में नियमों का पालन करते हुए शुचिता के जो मानक स्थापित किये वे उन्हें अपनी तरह का अकेला साबित करते थे। साहित्य और संगीत के प्रति उनका समर्पण बे मिसाल था। मेरा परिचय उनसे साहित्यिक गोष्ठियों के माध्यम से ही हुआ।
बहुत से लोग अपनी पहचान बनाने के लिए युवा अवस्था में साहित्य और कलाओं से जुड़ते हैं किंतु कोई पद प्राप्त करने के बाद उसे पीछे छोड़ देते हैं पर इसके विपरीत राम मेश्राम उन लोगों में से जिनका साहित्य अनुराग, पद के साथ साथ गहरा होता गया। मेश्राम जी और मेरे दूसरे प्रशासनिक अधिकारी मित्र जब्बार ढाकवाला एक ही बैच के थे किंतु जब्बार जी अधिक सक्रिय व युग अनुकूल व्यवहारिक थे इसलिए उनका आई ए एस में चयन हो गया था और मेश्राम जी पीछे रह गये थे। उन्होंने ना तो कभी सिफारिश करवायी और ना ही अपने पद के निर्वहन में किसी की अनुचित सिफारिश मानी इसलिए भी वे राजनेताओं से गठजोड़ नहीं कर सके।
उन्होंने हिन्दी गज़ल की विधा में रचनाएं कीं और संगीत आयोजनों की समीक्षाएं लिखते लिखते खुद भी संगीत का शौक पाल लिया था। मैंने एक लेख लिखा था ‘ हिन्दी गज़ल को गज़ल [उर्दू] से भिन्न विधा मानें’। यह लेख उस समय लिखा गया था जब उर्दू के उस्ताद शायर हिन्दी गज़ल को गज़ल के मानदण्डों से नाप कर उसे कमजोर बताने में लगे थे। मेरा कहना था कि जैसे नई कविता ने छन्द से मुक्त होकर अपनी अलग राह पकड़ी और बात ज्यादा सरल तरह से कह कर अपना स्थान थोड़ा ऊपर बना लिया है उसी तरह हिन्दी गज़ल ने अनावश्यक बन्धनों से मुक्ति लेकर अपने कथ्य पर ध्यान केन्द्रित किया, लोगों के दिलों को छुआ और लोकप्रियता प्राप्त की। हिन्दी गज़ल नवगीत की तरह है जो निजी दुख दर्द की जगह समाज की बात अधिक करती है। दुष्यंत आदि इसके सबसे प्रमुख उदाहरण हैं। यह विचार अनेक उन लोगों को पसन्द आया जो हिन्दी गज़ल के नाम से रचनारत थे। मेश्राम जी भी उनमें से एक थे। प्रकाशन से पूर्व जिन मित्रों को रचना सुना कर प्रतिक्रिया ली जाती है, उन्होंने उनमें मुझे भी शामिल कर लिया था। मैं भी उनको यह कह कर अपनी सलाह देता था कि यह अच्छी रचना अगर मैंने लिखी होती तो इन शब्दों का प्रयोग करता। उन्हें दूसरे मित्रों की तुलना में मेरा यह अन्दाज पसन्द आता जिसमें कहीं ऊंच नीच का भाव नहीं होता।
मेश्राम जी सरकारी नौकरी के आरक्षित वर्ग की उस पीढी से आते थे जिनके परिवारीजनों ने संविधान लागू होने के बाद इस सुविधा का पहले पहले लाभ लिया था इसलिए अगली पीढी व उनके पूरे परिवारीजन और रिश्तेदार शिक्षित थे व सरकारी नौकरी में थे। उन्होंने बुद्ध और अम्बेडकर को पढा ही नहीं समझा भी था, व अपनाया भी था। मैं वामपंथी राजनीति से प्रेरित था व लेखन का शौक पूर करने के लिए स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले चुके होने के कारण भरपूर लिख व छप रहा था। मेरे ज्यादा छपने का एक कारण यह भी था कि प्रकाशन संस्थानों के लायक लिखने के बाद भी उनसे पारश्रमिक का कोई दुराग्रह नहीं करता था। मेरा लिखना मेश्राम जी को पसन्द आता था।
उन्होंने पत्रकारिता में डिग्री ली थी और प्रारम्भ में म.प्र. के जनसम्पर्क विभाग में जनसम्पर्क अधिकारी के रूप में ही सेवायें दीं। इस विभाग के बड़े अधिकारी उनके समकालीन रहे थे और वे इस मामले में सक्षम थे कि किसी भी पत्र पत्रिका को उसकी पात्रता व विभाग के नियमानुसार विज्ञापन दिलवा सकें। भोपाल ही नहीं दिल्ली आदि से प्रकाशित होने वाली पत्रिकाओं के सम्पादक प्रकाशक भी उनसे सहयोग की अपेक्षा रखते थे। कई समाचार साप्ताहिक पत्र पत्रिकाओं के सम्पादकों को उन्होंने मुझ से रचना मांगने के लिए कहा। उनके आग्रह पर मैंने उन्हें रचनाएं दीं जिसे उन्होंने सम्मान पूर्वक प्रकाशित भी कीं। उन दिनों मैं ताजा ताजा राज्यस्तरीय पत्रकार के रूप में मान्य हुआ था और इस मान्यता को सही सिद्ध करने में जी जान से जुटा हुआ था।
अगर भोपाल या भोपाल से बाहर किसी साहित्यिक कार्यक्रम का उन्हें आमंत्रण मिलता तो वे आयोजकों को मुझे भी निमंत्रित करने के लिए कहते और कनफर्म हो जाने के बाद वे अपने वाहन से साथ चलने के लिए कहते। इस बीच उक्त आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा नहीं होती। यह बात बाद में पता चली कि वे आयोजक को मना भी कर देते थे कि इस आमंत्रण में उनकी भूमिका की कोई चर्चा न हो।
सरल सहज और निराभिमानी होने के कारण साहित्यिक कार्यक्रमों के लिए शिखर के किसी साहित्यकार के न आ पाने की स्थिति में वे अच्छे विकल्प माने जाते थे। नौकरशाही में उलझे किसी भी सही मामले में वे अपने प्रभाव व सम्पर्क का लाभ उपलब्ध करा सकते थे, उसके पक्ष में दलील दे सकते थे। उनकी स्वच्छ छवि के कारण कोई उन पर अनावश्यक पक्षधरता का सन्देह नही करता था। सेवा निवृत्ति के बाद जब उनको नर्मदा बाँध में बांटे गये मुआवजों की शिकायत सुनने की जाँच समिति में पद का प्रस्ताव मिला तो मुझसे चर्चा हुयी। मैंने बिना मांगे सलाह दी कि यह पद स्वीकारना उनके लिए ठीक नहीं है, क्योंकि इसमें इतनी पोल और दबाव होंगे कि सिवाय झूठे आरोपों के कुछ हासिल नहीं होना है, व अंततः नीचे से ऊपर तक सभी असंतुष्ट रहेंगे। उस समय तो उन्होंने कुछ नहीं कहा पर अंततः उन्होंने वह पद नहीं स्वीकारा।
एक दिन उनका फोन आया और पूछा कि वो तुम्हारे अम्बेडकर वाले लेख की कापी तो है। मैंने हामी भरी तो बोले कल ज्ञानवाणी चले जाइए और उसे रिकार्ड करा दीजिए, मैं तो अम्बेडकर जयंती पर कई साल से जा रहा हूं और बार बार वही बात कहता आ रहा हूं, तुम्हारे उस लेख में एक नया कोण है। मैं चला गया रिकार्ड करा दिया जहाँ से हाथों हाथ पाँच सौ रुपयों का चैक भी मिल गया, जो मैंने सोचा भी नहीं था। एक बार दिल्ली प्रैस के मालिक परेशनाथ भोपाल आये तो उन्होंने स्थानीय लेखकों को मिलने के लिए बुलवाया जिनमें मेश्राम जी भी एक थे। वे भारतीय भाषाओं की पत्रिकाओं के सम्पादकों के संगठन के राष्ट्रीय अध्यक्ष भी थे तो उनसे बहुत सारी सूचनाएं भी मिलीं और देर तक बात हुयी। जब मेश्राम जी आये तो उन्होंने दिल्ली प्रैस की पत्रिकाओं की सामग्री की कठोर समीक्षा की व अपने बैग से ढेर सारी पत्रिकाएं निकाल कर दिखाते हुए कहा कि देखिए रचनाएं ये होती हैं। संयोग से उन्होंने जिन पत्रिकाओं के जो पृष्ठ दिखाये वे सब मेरी रचनाओं के थे। मैं अचम्भित था और सोच रहा था कि परेशनाथ जी क्या सोच रहे होंगे और उनको कैसे बताऊं कि इस सब में मेरी कोई भूमिका नहीं है।
आकाशवाणी के उद्घोषक राजुरकर राज ने अपने निजी प्रयासों से दुष्य़ंत कुमार के नाम पर एक पाण्डुलिपि संग्रहालय स्थापित किया था जो विस्तरित होकर पत्रिकाओं का प्रकाशन। लेखकों के पते, फोन नम्बर और उनके सुख दुख की सूचनाएं भी साझा करने का काम भी करता था। बाद में उन्होंने लेखकों को सम्मानित करना भी प्रारम्भ कर दिया था। बाहर से आने वाले विशिष्ट लेखकों को वे संग्रहालय देखने के लिए आमंत्रित करते थे और चुनिन्दा लोगों को उनसे बातचीत के लिए आमंत्रित करते थे। एक कार्यकाल में उन्होंने राम मेश्राम जी को ट्रस्ट का अध्यक्ष भी चुना था। जब पुष्पा भारती जी का भोपाल आगमन हुआ तो इस अवसर पर मेश्राम जी ने मुझे बुलवाया क्योंकि मैं धर्मयुग में काफी समय तक छपता रहा हूं। इस बातचीत में उनसे सार्थक संवाद हुआ। उन्होंने कुछ बहुत रोचक संस्मरण सुनाये जो भारती जी के साथ लोहियाजी, चन्द्रशेखर, लता मंगेशकर आदि के बारे में थे जो हम लोगों ने पहली बार सुने थे।
नवगीत के प्रति उनको कुछ विशेष लगाव था। हम दोनों ही नईम जी को पसन्द करते थे। जब वे अस्वस्थ हुये तो सरकारी सहायता दिलाने में उन्होंने बहुत प्रयास किये। बाद में भोपाल में भी उनकी स्मृति में एक नवगीत पर सम्मेलन आयोजित कराया व उन पर नवगीत को केन्द्रित कर एक स्मारिका भी प्रकाशित करायी जिसके विमोचन के अवसर आयोजित सम्मेलन में मुझे भी देवास ले गये थे। मैंने नईम जी के निधन पर हंस में जो श्रद्धांजलि लेख ‘ न हन्यते’ स्तम्भ में लिखा था उसमें मेश्राम जी के प्रयासों का उल्लेख भी किया था।
छोटी छोटी बहुत सी यादें हैं। पिछले कुछ वर्षों से वे होशंगाबाद रोड पर अपने नये मकान में रहने चले गये थे और मुलाकातें कम हो गयी थीं। उनके अस्वस्थ होने की जगह अखबार से सीधी उनके निधन की खबर मिली। विद्युत शवदाह गृह में बौद्ध रीति रिवाज से उनका अंतिम संस्कार हुआ। एक बात कई दिनों से सता रही है कि उन्होंने साहित्य संगीत व प्रकाशन के क्षेत्र में भोपाल के सैकड़ों लोगों की बिना किसी स्वार्थ के मदद की किंतु उनके अंतिम संस्कार के समय दुष्यंत संग्रहालय की करुणा राजुरकर व अध्यक्ष वामनकर जी के अलावा उनके साहित्यिक मित्रों में मैं अकेला था।
वीरेन्द्र जैन
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