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शुक्रवार, जनवरी 09, 2015

डा. सुरेश तन्मय का नया कविता संकलन -शेष कुशल है



डा. सुरेश तन्मय का नया कविता संकलन -शेष कुशल है
वीरेन्द्र जैन
                सुपरिचित कवि गीतकार सुरेश तन्मय के पाँचवें कविता संकलन-शेष कुशल है- का विमोचन जबलपुर में होने जा रहा है। वे साहित्य के प्रति समर्पित कवि हैं जो खड़ी बोली हिन्दी के साथ साथ निमाड़ी में भी रचना करते हैं, और निमाड़ी के शिखर के कवियों में गिने जाते हैं।
                इस नये संकलन में ‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ नामक लम्बी कविता के अलावा अठारह अन्य कविताएं हैं। संकलन में सम्मलित ज्यादातर कविताएं रिश्तों के बारे में हैं। ‘गाँव से बड़े भाई की चिट्ठी’ में जहाँ भाई भाभी और अन्य रिश्ते नाते दारों, गाँव वालों समेत गाँव की स्मृतियों को समेटा गया है वहीं नगरों के रिश्तों विहीन सम्बन्धों की शुष्कता पर दुख भी है। यह विस्थापन का समय है और पूरे देश में कहीं शिक्षा के नाम पर, नौकरी के नाम पर, कहीं बाँध के नाम पर, कहीं रेलमार्ग, हाईवे, उद्योग विकास के नाम पर तो कहीं धार्मिक टकरावों के चलते तो कहीं जातिवादी शोषण के कारण, तो कहीं डकैतों, दबंगों के कारण करोड़ों लोग अपने मूल स्थान को छोड़ कर विस्थापित हुये हैं और अपनी जड़ों से कट गये हैं। न उन्हें गाँवों में चैन था और न ही नगरों में सुकून मिल पा रहा है। कुँवर बेचैन के एक गीत की पंक्तियां हैं-
जब धागा था तो सुई न थी, जब सुई मिली तो डोर नहीं,
ना जाने कैसी स्थिति तक हम फटी कमीजें आ पहुँचीं
                इसी तकलीफ से प्रभावित जब कैलाश गौतम का नायक गाँव पहुँचता है तो उन्हें लिखना पड़ता है-
गाँव गया था गाँव से भागा.......
रामराज का हाल देखकर
पंचायत की चाल देखकर
आँगन में दीवाल देखकर
सिर पर आती डाल देखकर
नदी का पानी लाल देखकर
और आँख में बाल देखकर
गाँव गया था गाँव से भागा।   
                श्री तन्मय भी समय के इसी दर्द को पहचानने की कोशिश करते हैं जिससे आदमी की विवशताओं की कई पर्तें खुलती हैं। आखिरकार संकलन की अंतिम नुक्कड़ कविता- जाग जमूरे में उन्हें कहना ही पड़ता है-
चोर चोर मौसेरे भाई- हाँ उस्ताद  
डाकिन है घर की ही दाई- हाँ उस्ताद  
खेत में तूने फसल उगाई- हाँ उस्ताद  
और दबन्गों ने कटवाई- हाँ उस्ताद  
उठा दरांती भिड़ जा इनसे
ये कायर जायेंगे भाग
जाग जमूरे अब तो जाग
                संकलन में पिता, माँ, बेटियां, बहू, मित्र, के साथ साथ आत्मस्थ, और वृद्धराग जैसी कविताएं हैं जो सम्बन्धों की पुरानी आँच और उनमें आ रहे बदलावों को पहिचानने की कोशिश करती हैं। डा. तन्मय एक सिद्धहस्त रचनाकार हैं और ऐसा लगता है कि विषय का चुनाव करने के बाद उस पर रचना लिख डालने में उन्हें अधिक समय नहीं लगता होगा। उनकी भाषा और विम्ब सरल है, व किसी व्याख्या के मोहताज नहीं हैं। नीचे दी जा रही पंक्तियां उसका प्रमाण हैं।
किसमें कितनी पोल जमूरे
तोल मोल कर बोल जमूरे
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हाथ मिलाये हैं फसलों ने खरपतवारों से
मठों आश्रमों ने राजा के दरबारों से 
विद्या ने वैभव से मिलकर जुगत भिड़ाई
और कलम ने लफ्फाजों से प्रीति बढाई
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जो नहीं कुछ भी बोलते होंगे
दिल तो उनके भी खौलते होंगे
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मौन मन का मीत
मौन परम सखा है
..... बाँटने को व्यग्र हम
जो गांठ में बाँधे रखा है
***********
पाया जो जग से अब तक लौटाने की है बारी
देखें कर्ज चुकाने की क्या की हमने तैयारी
सींचें उन्हें और जिनसे जीवन रसधार बही है
*******
                तन्मय जी का रचना कर्म निरंतर जारी है और उनकी प्रत्येक नई रचना एक पायदान ऊपर की ओर जाती महसूस होती है। आशा की जाना चाहिए कि उनके अगले संकलन इसी क्रम में नई ऊँचाइयां स्पर्श करते जायेंगे।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629


      

शुक्रवार, अप्रैल 12, 2013

पुस्तक समीक्षा रमेश यादव के गीतों का नया संकलन- पीला वासंतिया चाँद


पुस्तक समीक्षा

रमेश यादव के गीतों का नया संकलन- पीला वासंतिया चाँद
वीरेन्द्र जैन

       हिन्दी के बहुत सारे कवि अपनी ढेर सारी रचनाओं के कारण लोकप्रिय हुए हैं किंतु उनकी कोई एक रचना इतनी लोकप्रिय हो जाती है कि वह उसके उपनाम की तरह उसके साथ जुड़ जाती है। उदाहरण के रूप में कह सकते हैं कि बच्चन जी को ‘मधुशाला’ से, नीरज जी को ‘कारवां गुजर गया गुबार देखते रहे’ से सोम ठाकुर को ‘मेरे भारत की माटी है चन्दन और अबीर’ से मुकुट बिहारी सरोज को को ‘इन्हें प्रणाम करो, ये बड़े महान हैं’ से बुद्धिनाथ मिश्र को ‘एक बार और जाल फेंक मछेरे’ आदि से पहचाना जाता है तथा प्रत्येक कवि सम्मेलन में ये प्रतिनिधि रचनाएं उन्हें सुनाना ही पड़ती थीं। ठीक इसी तरह भोपाल के समर्थ गीतकार रमेश यादव को को उनकी लम्बी कविता ‘पीला वासंतिया चाँद’ से देश भर में पहचाना जाता है। इसे ऎतिहासिक घटना ही कहेंगे कि इस गीत को कभी धर्मवीर भारती ने धर्मयुग के पूरे पृष्ठ पर छापा था। अब उनका तीसरा काव्य संग्रह इसी नाम से प्रकाशित हुआ है जिसमें उनके 21 गीत संकलित हैं और सन्दर्भित गीत प्रमुख रूप से पुस्तक के 66 पृष्ठों को शीतल प्रकाश दे रहा है।
       रमेश यादव गीत लेखन में अपनी वरिष्ठता, लोकप्रियता, और गीतों में सम्प्रेषणीयता की कुशलता के बाद अति लेखन के शिकार नहीं हुये। उन्होंने मुकुट बिहारी सरोज की तरह यद्यपि मात्रा में अपेक्षाकृत कम लिखा है पर जो भी लिखा है वह चुनिन्दा की श्रेणी में आता है। उनके गीतों की विषयवस्तु में ही नहीं अपितु उनके कहन व उपमाओं में अनूठापन और ताजगी महसूस होती है। जिन लोगों ने उन्हें अपने सधे गले से गीत पढते हुए देखा-सुना है वे इन गीतों को और भी गहराइयों से महसूस कर सकते हैं। यह सच्चाई है कि जब प्रेम पनपता है तो वह कोई नाम चाहता है और हमारे यहाँ ये नाम नाते रिश्तों के रूप में सामने आता है। मनमोहक चाँद के प्रति सदियों से  धरतीवालों का जो प्रेम रहा है उसकी शुरुआत बचपन से ही हो जाती है और वह बच्चों के मामा की संज्ञा ग्रहण कर लेता है। हुआ यह है कि यह उपमा ही प्रेम का प्रतीक बन गयी है और हर तरह के प्रेम प्रतीक के रूप में इसका प्रयोग होता रहा है।
मां कहती है- बेटा चन्दा
बहिना कहती- भैया चन्दा
सजनी साजन को चाँद कहे
भौजी कहती- दिवरा चन्दा
कितने प्यारे नाते बन कर 
हम तुम में घूमा किया चाँद
यह पीला वासंतिया चाँद
रमेशजी ने मानव जीवन ही नहीं अपितु प्रक्रति, परम्परा और पुराणों के प्रतीकों में चाँद की प्रेममयी उपस्थिति को खोज कर मन में गुदगुदी पैदा करने वाली गीत कविता रची है।
गंगा का साथ मिला इसको
शंकर की दीर्घ जटाओं में
पर आजादी का दीवाना
कब रह पाया बाधाओं में
जिद कर बैठा, प्रलयंकर ने
नभ के माथ मढ दिया चाँद
यह पीला वासंतिया चाँद
या
इस धरती का हर अंग आज
हिंसा की माला जपता है
उत्थान नहीं है यह तो बस
धरती का रोग पनपता है
कितनी बदसूरत है धरती
इसने कैसे वर लिया चाँद
       अपने कटु समय से साक्षात्कार करते हुए भी रमेश यादव की भाषा नीरज जी की तरह गीतात्मक बनी रहती है-
आदमी के लहू का जिसे स्वाद है
वो ही नीयत रथों में बिठायी गयी
जंगली आचरण संहिता के लिए
आदमीयत मसीहा बनायी गयी
हंस की मुस्कराहट तलक में यहाँ
भेड़ियों का असर है, सम्हल कर चलो
सच्चे कलमकार दारुण दशाओं में भी अपना स्वाभिमान नहीं बेचते। वे लिखते हैं-
कलम बेच देते तो राजधानियों की
मदभरी ग़ज़ल होते हम भी
व्यक्ति नहीं दल होते हम भी
पोखर को कर लिया प्रणाम अगर होता
आजकल कमल होते हम भी
आज के आदमी का दोहरापन महसूस कर वे व्यंजना में लिखते हैं-
संचय की क्षमता न रही तो त्यागी हो गये
नंगा किया समय ने तो वैरागी हो गये
या
हूं व्यवस्था का विरोधी और ऊहापोह भी है
संत रहना भी जरूरी और सुविधा मोह भी है
किसी दल विशेष का झंडा उठाये बिना भी जब कवि अपनी बात कहता है तो उसकी पक्षधरता छुप नहीं सकती। सर्वहारा की चिंताएं उसकी कविता में उसकी राजनीति के संकेत दे देती हैं।
बिटिया हुयी जवान पिता की निर्धनता की छाँव में
ज्यों कोई फुलझड़ी लिए हो घासफूस के ठांव में
वेणु गोपाल कहते थे कि प्रेम और युद्ध की कविता आपस में विरोधी नहीं होती है, हम युद्ध इसीलिए तो करते हैं ताकि प्रेम सुरक्षित रहे। संकलन में कई मनमोहक गीतों के साथ साथ वे समाज को शुभकामनाएं देते हैं तो कहते हैं कि-
जिसके पास घुटन हो, उसको हवा मिले
दुख के बीमारों को सुख की दवा मिले
नया वर्ष ऐसा देना मेरे भगवन
जिसके पास एक हो उसको सवा मिले
ऐसी पंक्तियां मुक्तिबोध की उन पंक्तियों की याद दिलाती हैं जो कहती हैं कि – जो है उससे और बेहतर चाहिए ।
जब प्रकाशकों ने गीतों की पुस्तकें छापना बन्द कर दिया हो और गीतकार कहलाने पर साहित्य से बाहर का आदमी प्रचारित कर दिया गया हो, ऐसी दशा में गीतों का संकलन लाने के लिए रमेश यादव के गीतों जैसे गीतों का संकलन ही पूरे साहस के साथ आकर कह सकते हैं कि गीत अभी जिन्दा हैं और रहेंगे।
चर्चित पुस्तक- पीला वासंतिया चाँद
गीतकार     - रमेश यादव
पृष्ठ      -    88
मूल्य           रु.200/- सिर्फ
प्रकाशक – चन्द्रमा प्रकाशन
कावेरी-64 महेन्द्र टाउनशिप-1
ई-8 एक्स्टेंशन, गुलमोहर भोपाल 462039
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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