श्रद्धांजलि : डा सीताकिशोर खरे
वे लोकचेतना में आधुनिकता के अग्रदूत थे
वीरेन्द्र जैन
गत 24जून 2009 की रात्रि में डा सीता किशोर खरे नहीं रहे। वे दतिया जिले की सेंवढा तहसील में गत पचास वर्षों से साधना रत थे। वे इस दौर के उन दुर्लभ साहित्यकारों में से एक थे जो अपनी प्रतिभा के ऊॅंचे दाम लगवाने के लिए सुविधा के बाजारों की ओर नहीं भागे अपितु अपने जनपद के लोगों के बीच कठिनाइयों से जूझते रहे। उनका गाँव ही नहीं अपितु वह पूरा इलाका ही डकैत ग्रस्त इलाका रहा है और अपने स्वाभिमान की रक्षा करने तथा नाकारा कानून व्यवस्था से निराश हो सिन्ध और चम्बल के किनारे जंगलों में उतर कर बागी बन जाना व अपना मकसद पाने के लिए सम्पन्नों की लूट कर लेना आम बात है। उन्होंने इस समस्या को राजधानियों के ए सी दफ्तरों में बैठने वाले नेताओं अधिकारियों की तरह न देख कर उसके सामाजिक आर्थिक पहलुओं को देखा और उन पर पूरी संवेदना के साथ कलम चलायी जो उनके सातसौ दोहों के 'पानी पानी दार है' संग्रह में संग्रहीत हैं-
तकलीफें तलफत रहत, मजबूरी रिरयात
न्याय नियम चुप होत जब, बन्दूकें बतियात
छल जब जब छलकन लगत, बल जब जब बलखात
हल की मुठिया छोड़ कें, हाथ गहत हथियार
और ऐसा इसलिए होता है क्योंकि-
दौलत के दरबार में, मचौ खूब अंधेर
खारिज करी गरीब की अर्जी आज निबेर
जे इनके ऊॅंचे अटा बादर सें बतियात
आसपास की झोपड़ी, इन्हें ना नैक सुहात
सारा का सारा वातावरण ही ऐसा हो गया है कि-
कछु ऐसौ जा भूमि के पानी कौ परताप
मिसरी घोरौ बात में भभका देत शराप
का पानी में घुर गयौ का माटी की भूल
गुठली गाड़त आम की कड़ कड़ भगत बबूल
इसमें जमीन की गुणवत्ता भी अपनी भूमिका अदा करती है-
माटी जा की भुरभुरी, उपजा में कमजोर
कैसें हुइऐं आदमी, मृदुल और गमखोर
3 दिसम्बर 1935 को दतिया जिले के ग्राम छोटा आलमपुर में जन्मे डा सीताकिशोर खरे का बचपन में पेड़ से गिरने पर एक हाथ टूट गया था व समय पर समुचित इलाज की सुविधा उपलब्ध न होने से बने जख्म के कारणा उसे काटना ही पड़ा था। अपने एक हाथ के सहारे ही वे मीलों साइकिल चलाते हुये शिक्षा ग्रहण करने जाते थे व अपनी प्रतिभा के कारण उन दिनों भी अध्यापक पद के लिए चुन लिये गये जब विकलांगता को चयन के लिए आरक्षणा का आधार नहीं माना जाता था। अध्यापकी करते हुये भी उन्होंने अध्ययन जारी रखा और एमए पीएचडी की व कालेज के लिए चुने गये जहाँ वे हिन्दी के विभागाध्यक्ष रहे। इस बीच उन्होंने न केवल अपने बन्धु बांधवों को ही पढाया अपितु अपने पूरे परिवेश में शिक्षा और ज्ञान की चेतना जगाने के अग्रदूत बने। अपने ज्ञानगुरू डा राधारमण वैद्य की प्रेरणा से उन्होंने अपने साथियों और सहपाठियों को आगे बढाया और सामूहिक विकास के साथ काम किया जबकि इस दौर में साहित्यकार दूसरों के कंधे पर सवार होकर अपना स्वार्थ हल करते पाये जाते हैं। शिक्षा के क्षेत्र में उन्होंने भाषा विज्ञान पर बहुत महत्वपूर्ण काम स्वयं किया तथा अपने साथियों सहयोगियों को भी शोध कार्य में मौलिक और महत्वपूर्ण काम करने के लिए प्रेरित किया। 'सर्वनाम, अव्यय और कारक चिन्ह' तथा 'दतिया जिले की पाण्डुलिपियों का सर्वेक्षण' उनके कार्यों की प्रकाशित पुस्तकें हैं। कभी उन्होंने अपने प्रिय कवि मुकुट बिहारी सरोज के गीतों पर ग्वालियर के एक दैनिक समाचार पत्र में स्तंभ लिखे थे जिनका नाम था- सूत्र सरोज के, टीका सीताकिशोर की । इन आलेखों का संकलन भी अभी हाल ही में प्रकाशित हुआ है।
डा सीताकिशोर के गीतों में मुकुट बिहारी सरोज वाली खनक और कड़क पायी जाती रही है, जैसे-
कल अधरों की अधरों से
कुछ कहासुनी हो गयी, तभी तो
ये मंजुल मुस्कान बुराई माने है
या
इतनी उमर हो गयी ये सब करते करते
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
हम तो ये समझे थे अनुभव
तुम से रोज मिला करता है
पूरा था विशवास कि सूरज
रोज सुबह निकला करता है
ये सब छल फरेब की बातें
तुमको सरल सुभाव हो गयीं
अब की कैसा बीज बो दिया सारी फसल खराब हो गयी
डा सीताकिशोर बेहद संकोची, विनम्र, पर स्पष्ट थे। उन्हें किसी तरह के भ्रम नहीं थे व उनके सपनों के पाँव सामाजिक यथार्थ की चादर से बाहर नहीं जाते थे। गलत रूढियों और परम्पराओं के बारे में उनकी समझ साफ थी पर वे उसे लोक चेतना पर थोपते नहीं थे अपितु उसमें स्वाभाविक विकास के पक्षधर थे। उनका जाना एक सामाजिक सचेतक लोकस्वीकृत साहित्य के अग्रदूत का जाना है। उनकी बात का महत्व था। आज के बहुपुरस्कृत और प्रकाशित स्वार्थी साहित्यकारों की भीड़ के बीच उन जैसी प्रतिभा के साथ इन्सानियत के धनी लोग दुर्लभ हो गये हैं।
वीरेन्द्र जैन
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राजनीतिक सामाजिक और साहित्यिक रंगमंच के नेपथ्य में चल रही घात प्रतिघातों का खुलासा
शनिवार, जून 27, 2009
शुक्रवार, जून 19, 2009
एक टिप्पणी
मेनें संजय ग्रोवर के ब्लॉग पर उनकी एक पोस्ट पर टिप्पणी लिखी है में इसे अपने पाठक मित्रों के लिय्स भी उपलब्ध करा रहा हूँ
रजनीश ने थोडा घुमा फिरा कर कभी कहा था की समग्र का योग ही ईश्वर है . आठ लाख मील दूर से सूरज की किरणें आती हैं और वृक्षों की पत्तियों पर पड़ती हैं जिसके क्लोरोफिल से आक्सीजन बनती है जिससे हमारी सांस चलती है और जीवन संभव हो पाता है . हम उस आठ लाख मील दूर की चीज से जुड़े हैं और तभी जीवन है पर हम अपने को स्वतंत्र मानते हैं . असल में यह जो नामकरण है यह बदमाशी है . हमें आइन्स्टीन की तरह मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों को समझना चाहिए . ये पूजा पाठ इबादत और इनके करने पर भौतिक पुरस्कार और न करने पर दंड सब धूर्तों के चोंचले हैं. मनुष्य ने सदैव अपने अपने समय में अज्ञात के बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ की हैं उसकी इस कल्पना वृत्ति का सम्मान करना चाहिए किन्तु हजारों साल पहले की गयी कल्पनाओं को मानना मुर्खता ही होगी जबकि आज हमारे पास अपेक्षाकृत अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हैं आइन्स्टीन ने ही कहा था की ज्ञान तो समुद्र की तरह अनंत है और में तो एक छोटा सा बच्चा हूँ जो घोंघे सीपियों से खेल रहा हूँ
रजनीश ने थोडा घुमा फिरा कर कभी कहा था की समग्र का योग ही ईश्वर है . आठ लाख मील दूर से सूरज की किरणें आती हैं और वृक्षों की पत्तियों पर पड़ती हैं जिसके क्लोरोफिल से आक्सीजन बनती है जिससे हमारी सांस चलती है और जीवन संभव हो पाता है . हम उस आठ लाख मील दूर की चीज से जुड़े हैं और तभी जीवन है पर हम अपने को स्वतंत्र मानते हैं . असल में यह जो नामकरण है यह बदमाशी है . हमें आइन्स्टीन की तरह मनुष्य और प्रकृति के रिश्तों को समझना चाहिए . ये पूजा पाठ इबादत और इनके करने पर भौतिक पुरस्कार और न करने पर दंड सब धूर्तों के चोंचले हैं. मनुष्य ने सदैव अपने अपने समय में अज्ञात के बारे में तरह तरह की कल्पनाएँ की हैं उसकी इस कल्पना वृत्ति का सम्मान करना चाहिए किन्तु हजारों साल पहले की गयी कल्पनाओं को मानना मुर्खता ही होगी जबकि आज हमारे पास अपेक्षाकृत अधिक जानकारियाँ उपलब्ध हैं आइन्स्टीन ने ही कहा था की ज्ञान तो समुद्र की तरह अनंत है और में तो एक छोटा सा बच्चा हूँ जो घोंघे सीपियों से खेल रहा हूँ
मंगलवार, जून 09, 2009
एक बहुत ख़राब दिन
दुर्घटना दर दुर्घटना -एक क्षोभ भरा दिन
वीरेन्द्र जैन
मैं जब सुबह घूमने जाता हूँ तब साथ में मोबाइल नहीं ले जाता ताकि कम से कम एक घंटा तो सुकून से गुजर सके। 8 जून की सुबह जब घूम कर लौटा तो ताला खोलते ही मोबाइल की घंटी सुनाई दी। इतने सुबह मोबाइल पर घंटी आना वैसा ही लगता है जैसे कभी लोगों को तार आने पर लगता होगा। दौड़ कर मोबाइल उठाया और बिना यह देखे कि किस नम्बर से घंटी आ रही है, सुनने के लिए बटन दबा दिया। दूसरी तरफ देश के विख्यात कवि पूर्वसांसद उदयप्रताप सिंह थे। उन्होंने पूछा कहां थे बहुत देर से घंटी कर रहा हूँ, अच्छा सुनो सुबह सुबह तुम्हारे भोपाल में एक कार एक्सीडेंट हो गया है जिसमें कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरजपुरी, और लाढसिंह गुर्जर नहीं रहे व ओम व्यास और जॉनी बैरागी गम्भीर रूप से घायल हैं। ये लोग विदिशा कवि सम्मेलन से लौट रहे थे। इसलिए तुरंत ही वहाँ के पीपुल्स हास्पिटल पहुँचो।
मैं सन्न रह गया मैंने पूछा आप कहाँ पर हैं? वे बोले मैं तो दिल्ली में हूँ, वहाँ से अभी अभी अशोक ने खबर दी है। इतना कह कर उन्होंने फोन बन्द कर दिया, संभवत: दूसरों को जरूरी सूचना देने के लिये। पता नहीं चला कि और कौन कौन था एक्सीडेंट किससे हुआ। मैंने अस्पताल जाने से पहले कविमित्र माणिकवर्मा जी की खोज खबर लेनी जरूरी समझी जो थोड़ी ही दूर पर रहते हैं। फोन उनके यहाँ काम करने वाले लड़के ने अटेैंड किया और नाम पूछने के बाद बताया कि वे बाथरूम में हैं। मैंने पूछा कि कल विदिशा तो नहीं गये थे तो उसने कहा नहीं। थोड़ी राहत की सांस लेकर मैंने कहा कि बाहर आ जायें तो बात करा देना। मैं तेजी से तैयार हुआ एक मिनिट के लिए अखबार के मुखपृष्ठ पर नजर डाली पर घटना एकदम सुबह की थी और अखबार छपने के बाद की थी इसलिए कहीं कोई खबर होने का सवाल ही नहीं उठता था। बाहर आकर देखा कि स्कूटर अचलनीय स्थिति में है इसलिए तुरंत ही सोचा कि क्यों न कवि मित्र राम मेश्राम से चलने का आग्रह किया जाये और उनकी कार से ही चलें। फोन किया तो वे तुरंत ही तैयार हो गये। किसी तरह उनके घर पहुँचा तो उनकी कार ने भी स्टार्ट हाने में थोड़े नखरे दिखाये पर अंतत: वह चल निकली। वहाँ बाहर प्रदीपचौबे अशोक चक्रधर पूर्व विधायक सुनीलम राजुरकर राज समेत कमिशनर भोपाल, संस्कृति मंत्री , संस्कृति सचिव, आईजी पूलिस आदि उपस्थित थे। पता चला कि मृत देहें तो पोस्टमार्टम और फिर उनके गृह नगर भेजे जाने के लिए सरकारी हमीदिया अस्पताल भेजी जा चुकी हैं और वहाँ पर घायलों को बचाने के भरसक प्रयत्न हो रहे हैं। घायलों में ओम व्यास की हालत काफी गम्भीर है तथा जानी बैरागी, भारत भवन के फोटोग्राफर विजय रोहतगी तथा गाड़ी का ड्राइवर खेमचंद खतरे से बाहर है। मंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्तिथि के कारण अस्पताल प्रबंधन भी सक्रिय होकर रूचि ले रहा था व अस्पताल के मैनेजिंग डायरेक्टर स्वयं वहाँ पर थे। लगभग सारे ही उपस्थित लोग लगातार फोन पर बात कर रहे थे इसका असर यह हुआ था कि हम जैसे अनेक लोग वहाँ पर पहुँच सके थे। लगभग एक घंटे वहाँ रूकने के बाद हम लोग हमीदिया अस्पताल की ओर आये जहाँ मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के डायरेक्टर श्रीराम तिवारी और अस्टिेंट डायरेक्टर सुरेश तिवारी समेत लगभग पूरा संस्कृति विभाग उपस्तिथ था। पोस्टमार्टम पूरा हो चुका था और ताबूतों में शव रखे जाने थे, पर ताबूत उठाने वाला कोई नहीं था, एक पुलिस कानिस्टबल झुंझला कर कह रहा था कि ताबूत भी पुलिस ही उठाये। मेंने उसे सहायता देते हुये समझाया कि ये दुर्घटना है और ये सब सरकारी अधिकारी हैं, ये अपने हाथ से ताबूत तो क्या पानी का गिलास भी नहीं उठाते इसलिए मदद तो करनी ही पड़ेगी। उसी समय सूचना मिली कि हबीब तनवीर साहब भी नहीं रहे तो हम लोग ताबूतों को वाहनों में रखवा कर सीधे श्यामला हिल्स के अंसल अपार्टमेंट्स की ओर तेजी से चल दिये। वहाँ हबीब साहब की मृत देह आ चुकी थी और कमला प्रसाद, लज्जाशांकर हरदेनिया मनोज कुलकर्णी, जया मेहता, समेत दसबीस रंगकर्मी उपस्थित थे। जानकर आशचर्य और दुख हुआ कि हबीबजी के साथ काम करने वाले रंगकर्मियों में से भी कुछ अब तक मजहबी बने हुये थे और कोई कह रहा था कि पैर काबे की ओर नहीं करते या गुशल कराना चाहिये। लगता था कि अगले दिन उनके अंतिम संस्कार होने तक वे लोग हबीब जी की देह के साथ वे सब मजहबी खिलवाड़ कर लेना चाहते थे जो उन्होंने जिन्दगी भर नहीं किये थे।
एक कामरेड की देह को साम्प्रदायिक मुस्लिम, मुसलमान बना कर साम्प्रदायिक हिंदुओं के इस तर्क को बल दे रहे थे कि हबीब तनवीर ने पाेंगा पंडित नाटक एक मुसलमान की तरह किया था और हिन्दू देवी देवतााओं का अपमान किया था।
आठ जून सचमुच मेरे लिए गहरे क्षोभ का दिन रहा।
वीरेन्द्र जैन
मैं जब सुबह घूमने जाता हूँ तब साथ में मोबाइल नहीं ले जाता ताकि कम से कम एक घंटा तो सुकून से गुजर सके। 8 जून की सुबह जब घूम कर लौटा तो ताला खोलते ही मोबाइल की घंटी सुनाई दी। इतने सुबह मोबाइल पर घंटी आना वैसा ही लगता है जैसे कभी लोगों को तार आने पर लगता होगा। दौड़ कर मोबाइल उठाया और बिना यह देखे कि किस नम्बर से घंटी आ रही है, सुनने के लिए बटन दबा दिया। दूसरी तरफ देश के विख्यात कवि पूर्वसांसद उदयप्रताप सिंह थे। उन्होंने पूछा कहां थे बहुत देर से घंटी कर रहा हूँ, अच्छा सुनो सुबह सुबह तुम्हारे भोपाल में एक कार एक्सीडेंट हो गया है जिसमें कवि ओमप्रकाश आदित्य, नीरजपुरी, और लाढसिंह गुर्जर नहीं रहे व ओम व्यास और जॉनी बैरागी गम्भीर रूप से घायल हैं। ये लोग विदिशा कवि सम्मेलन से लौट रहे थे। इसलिए तुरंत ही वहाँ के पीपुल्स हास्पिटल पहुँचो।
मैं सन्न रह गया मैंने पूछा आप कहाँ पर हैं? वे बोले मैं तो दिल्ली में हूँ, वहाँ से अभी अभी अशोक ने खबर दी है। इतना कह कर उन्होंने फोन बन्द कर दिया, संभवत: दूसरों को जरूरी सूचना देने के लिये। पता नहीं चला कि और कौन कौन था एक्सीडेंट किससे हुआ। मैंने अस्पताल जाने से पहले कविमित्र माणिकवर्मा जी की खोज खबर लेनी जरूरी समझी जो थोड़ी ही दूर पर रहते हैं। फोन उनके यहाँ काम करने वाले लड़के ने अटेैंड किया और नाम पूछने के बाद बताया कि वे बाथरूम में हैं। मैंने पूछा कि कल विदिशा तो नहीं गये थे तो उसने कहा नहीं। थोड़ी राहत की सांस लेकर मैंने कहा कि बाहर आ जायें तो बात करा देना। मैं तेजी से तैयार हुआ एक मिनिट के लिए अखबार के मुखपृष्ठ पर नजर डाली पर घटना एकदम सुबह की थी और अखबार छपने के बाद की थी इसलिए कहीं कोई खबर होने का सवाल ही नहीं उठता था। बाहर आकर देखा कि स्कूटर अचलनीय स्थिति में है इसलिए तुरंत ही सोचा कि क्यों न कवि मित्र राम मेश्राम से चलने का आग्रह किया जाये और उनकी कार से ही चलें। फोन किया तो वे तुरंत ही तैयार हो गये। किसी तरह उनके घर पहुँचा तो उनकी कार ने भी स्टार्ट हाने में थोड़े नखरे दिखाये पर अंतत: वह चल निकली। वहाँ बाहर प्रदीपचौबे अशोक चक्रधर पूर्व विधायक सुनीलम राजुरकर राज समेत कमिशनर भोपाल, संस्कृति मंत्री , संस्कृति सचिव, आईजी पूलिस आदि उपस्थित थे। पता चला कि मृत देहें तो पोस्टमार्टम और फिर उनके गृह नगर भेजे जाने के लिए सरकारी हमीदिया अस्पताल भेजी जा चुकी हैं और वहाँ पर घायलों को बचाने के भरसक प्रयत्न हो रहे हैं। घायलों में ओम व्यास की हालत काफी गम्भीर है तथा जानी बैरागी, भारत भवन के फोटोग्राफर विजय रोहतगी तथा गाड़ी का ड्राइवर खेमचंद खतरे से बाहर है। मंत्री और वरिष्ठ अधिकारियों की उपस्तिथि के कारण अस्पताल प्रबंधन भी सक्रिय होकर रूचि ले रहा था व अस्पताल के मैनेजिंग डायरेक्टर स्वयं वहाँ पर थे। लगभग सारे ही उपस्थित लोग लगातार फोन पर बात कर रहे थे इसका असर यह हुआ था कि हम जैसे अनेक लोग वहाँ पर पहुँच सके थे। लगभग एक घंटे वहाँ रूकने के बाद हम लोग हमीदिया अस्पताल की ओर आये जहाँ मध्यप्रदेश के संस्कृति विभाग के डायरेक्टर श्रीराम तिवारी और अस्टिेंट डायरेक्टर सुरेश तिवारी समेत लगभग पूरा संस्कृति विभाग उपस्तिथ था। पोस्टमार्टम पूरा हो चुका था और ताबूतों में शव रखे जाने थे, पर ताबूत उठाने वाला कोई नहीं था, एक पुलिस कानिस्टबल झुंझला कर कह रहा था कि ताबूत भी पुलिस ही उठाये। मेंने उसे सहायता देते हुये समझाया कि ये दुर्घटना है और ये सब सरकारी अधिकारी हैं, ये अपने हाथ से ताबूत तो क्या पानी का गिलास भी नहीं उठाते इसलिए मदद तो करनी ही पड़ेगी। उसी समय सूचना मिली कि हबीब तनवीर साहब भी नहीं रहे तो हम लोग ताबूतों को वाहनों में रखवा कर सीधे श्यामला हिल्स के अंसल अपार्टमेंट्स की ओर तेजी से चल दिये। वहाँ हबीब साहब की मृत देह आ चुकी थी और कमला प्रसाद, लज्जाशांकर हरदेनिया मनोज कुलकर्णी, जया मेहता, समेत दसबीस रंगकर्मी उपस्थित थे। जानकर आशचर्य और दुख हुआ कि हबीबजी के साथ काम करने वाले रंगकर्मियों में से भी कुछ अब तक मजहबी बने हुये थे और कोई कह रहा था कि पैर काबे की ओर नहीं करते या गुशल कराना चाहिये। लगता था कि अगले दिन उनके अंतिम संस्कार होने तक वे लोग हबीब जी की देह के साथ वे सब मजहबी खिलवाड़ कर लेना चाहते थे जो उन्होंने जिन्दगी भर नहीं किये थे।
एक कामरेड की देह को साम्प्रदायिक मुस्लिम, मुसलमान बना कर साम्प्रदायिक हिंदुओं के इस तर्क को बल दे रहे थे कि हबीब तनवीर ने पाेंगा पंडित नाटक एक मुसलमान की तरह किया था और हिन्दू देवी देवतााओं का अपमान किया था।
आठ जून सचमुच मेरे लिए गहरे क्षोभ का दिन रहा।
गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब
श्रद्धांजलि 'हबीब तनवीर'
गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब
वीरेन्द्र जैन
हबीब तनवीर नहीं रहे। वे उम्र के छियासीवें साल में भी नाटक कर रहे थे।अभी पिछले ही दिनो उन्होंने भारत भवन में अपना नाटक चरनदास चोर किया था तथा उसमें भूमिका की थी।
वे इतने विख्यात थे कि सामान्य ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति उनके बारे में सब कुछ जानता रहा है। कौन नहीं जानता कि उनका जन्म रायपुर में हुआ था और तारीख थी 1923 के सितम्बर की पहली तारीख। उनके पिता हफीज मुहम्मद खान थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर के लॉरी मारिस हाई स्कूल में हुयी जहाँ से मैट्रिक पास करके आगे पढने के लिए नागपुर गये और 1944 में इक्कीस वर्ष की उम्र में मेरिस कालेज नागपुर से उन्होंने बीए पास किया। बाद में एमए करने के लिए वे अलीगढ गये जहाँ से एमए का पहला साल पास करने के बाद पढाई छूट गयी। वे नाटक लिखते थे, निर्देशन करते थे, उन्होंने शायरी भी की और अभिनय भी किया। यह सबकुछ उन्होंने अपने प्रदेश और देश के स्तर पर ही नहीं किया अपितु अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित की। वे सम्मानों और पुरस्कारों के पीछे कभी नहीं दौड़े पर सम्मान उनके पास जाकर खुद को सम्मानित महसूस करते होंगे। 1969 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला तो 1972 से 1978 के दौरान वे देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा के लिए नामित रहे। 1983 में पद्मश्री मिली, 1996 में संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली तो 2002 में पद्मभूषण मिला। 1982 में एडनवर्ग में आयोजित अर्न्तराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टीबल में उनके नाटक 'चरनदास चोर' को पहला पुरस्कार मिला।
वे नाटककार के रूप में इतने मशहूर हुये कि अब कम ही लोग जानते हैं कि पेशावर से आये हुये हफीज मुहम्मद खान के बेटे हबीब अहमद खान ने शुरू में शायरी भी की और अपना उपनाम 'तनवीर' रख लिया जिसका मतलब होता है रौशनी या चमक। बाद में उनके कामों की जिस चमक से दुनिया रौशन हुयी उससे पता चलता है कि उन्होंने अपना नाम सही चुना था। कम ही लोगों को पता होगा कि 1945 में बम्बई में आल इन्डिया रेडियो में प्रोडयूसर हो गये, पर उनके उस बम्बई जो तब मुम्बई नहीं हुयी थी, जाने के पीछे आल इन्डिया रेडियो की नौकरी नहीं थी अपितु उनका आकर्षण अभिनय का क्षेत्र था। पहले उन्होंने वहाँ फिल्मों में गीत लिखे और कुछ फिल्मों में अभिनय किया। इसी दौरान उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया और वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ कर इप्टा ( इन्डियन पीपुल्स थियेटर एशोसियेशन)के सक्रिय सदस्य बन गये, पर जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इप्टा के नेतृत्वकारी साथियाें को जेल जाना पड़ा तो उनसे इप्टा का कार्यभार सम्हालने के लिए कहा गया। ये दिन ही आज के हबीब तनवीर को हबीब तनवीर बनाने के दिन थे। कह सकते हैं कि उनके जीवन की यह एक अगली पाठशाला थी।
1954 में वे फिल्मी नगरी को अलविदा कह के दिल्ली आ गये और कदेसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थियेटर में काम किया। इस दौरान उन्होंने चिल्ड्रन थियेटर के लिए बहुत काम किया और अनेक नाटक लिखे। इसी दौरान उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुयी जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। इस विवाह में ना तो पहले धर्म कभी बाधा बना और ना ही बाद में क्योंकि दोनों ही धर्म के नापाक बंधनों से मुक्त हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने गालिब की परंपरा के 18वीं सदी के कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटक 'आगरा बाजार' का निर्माण किया जिसने बाद में पूरी दूनिया में धूम मचायी। नाटक में उन्होंने जामियामिलिया के छात्रों और ओखला के स्थानीय लोगों के सहयोग और उनके लोकजीवन को सीधे उतार दिया। दुनिया के इतिहास में यह पहला प्रयोग था जिसका मंच सबसे बड़ा था क्योंकि यह नाटक स्थानीय बाजार में मंचित हुआ। सच तो यह है कि इसीकी सफलता के बाद उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ के लोककलाकारों के सहयोग से नाटक करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उनमें अपार सफलता मिली।
इस सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1955 में जब वे कुल इकतीस साल के थे तब वे इंगलैंड गये जहाँ उन्होंने रायल एकेडमी आफ ड्रामटिक आर्ट में अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण दिया। 1956 में उन्होंने यही काम ओल्ड विक थियेटर स्कूल के लिए किया। अगले दो साल उन्होंने पूरे यूरोप का दौरा करके विभिन्न स्थानों पर चल रहे नाटकों की गतिविधियों का अध्ययन किया। वे बर्लिन में लगभग अठारह माह रहे जहाँ उन्हें बर्तोल ब्रेख्त के नाटकों को देखने का अवसर मिला जो बर्नेलियर एन्सेम्बले के निर्देशन में खेले जा रहे थे। इन नाटकों ने हबीब तनवीर को पका दिया और वे अद्वित्तीय बन गये। स्थानीय मुहावरों का नाटकों में प्रयोग करना उन्होंने यहीं से सीखा जिसने उन्हें स्थानीय कलाकारों और उनकी भाषा के मुहावरों के प्रयोग के प्रति जागृत किया। यही कारण है कि उनके नाटक जडों के नाटक की तरह पहचाने गये जो अपनी सरलता और अंदाज में, प्रर्दशन और तकनीक में, तथा मजबूत प्रयोगशीलता में अनूठे रहे।
वतन की वापिसी के बाद उन्होंने नाटकों के लिए टीम जुटायी और प्रर्दशन प्रारंभ किये। 1958 में उन्होंने छत्तीसगढी में पहला नाटक 'मिट्टीी की गाड़ी' का निर्माण किया जो शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छिकटकम ' का अनुवाद था। इसकी व्यापक सफलता ने उनकी नाटक कम्पनी 'नया थियेटर' की नींव डाली और 1959 में उन्होंने संयक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इसकी स्थापना की। 1970 से 1973 के दौरान उन्होंने पूरी तरह से अपना ध्यान लोक पर केन्द्रित किया और छत्तीसगढ में पुराने नाटकों के साथ इतने प्रयोग किये कि नाटकों के बहुत सारे साधन और तौर तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर डाले। इसी दौरान उन्होंने पंडवानी गायकी के बारे में भी नाटकों के कई प्रयोग किये। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसबढ के नाचा का प्रयोग करते हुये 'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' की रचना की। बाद में शयाम बेनेगल ने स्मिता पाटिल और लालूराम को लेकर इस पर फिल्म भी बनायी थी।
हबीबजी प्रतिभाशाली थे, सक्षम थे, साहसी थे, प्रयोगधर्मी थे, क्रान्तिकारी थे। उनके 'चरणदास चोर' से लेकर, पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत रितु का अपना' जहरीली हवा, राजरक्त समेत अनेकानेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने पहचाना है। उन्होंने रिचर्ड एडिनबरो की फिल्म गांधी से लेकर दस से अधिक फिल्मों में काम किया है तो वहीं 2005 में संजय महर्षि और सुधन्वा देश पांडे ने उन पर एक डाकूमेंटरी बनायी जिसका नाम रखा ' गाँव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब'। यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी सख्सियत के बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
गाँव का नाम थियेटर मोर नाम हबीब
वीरेन्द्र जैन
हबीब तनवीर नहीं रहे। वे उम्र के छियासीवें साल में भी नाटक कर रहे थे।अभी पिछले ही दिनो उन्होंने भारत भवन में अपना नाटक चरनदास चोर किया था तथा उसमें भूमिका की थी।
वे इतने विख्यात थे कि सामान्य ज्ञान रखने वाला हर व्यक्ति उनके बारे में सब कुछ जानता रहा है। कौन नहीं जानता कि उनका जन्म रायपुर में हुआ था और तारीख थी 1923 के सितम्बर की पहली तारीख। उनके पिता हफीज मुहम्मद खान थे। उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा रायपुर के लॉरी मारिस हाई स्कूल में हुयी जहाँ से मैट्रिक पास करके आगे पढने के लिए नागपुर गये और 1944 में इक्कीस वर्ष की उम्र में मेरिस कालेज नागपुर से उन्होंने बीए पास किया। बाद में एमए करने के लिए वे अलीगढ गये जहाँ से एमए का पहला साल पास करने के बाद पढाई छूट गयी। वे नाटक लिखते थे, निर्देशन करते थे, उन्होंने शायरी भी की और अभिनय भी किया। यह सबकुछ उन्होंने अपने प्रदेश और देश के स्तर पर ही नहीं किया अपितु अर्न्तराष्ट्रीय ख्याति भी अर्जित की। वे सम्मानों और पुरस्कारों के पीछे कभी नहीं दौड़े पर सम्मान उनके पास जाकर खुद को सम्मानित महसूस करते होंगे। 1969 में उन्हें प्रतिष्ठित संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिला तो 1972 से 1978 के दौरान वे देश के सर्वोच्च सदन राज्य सभा के लिए नामित रहे। 1983 में पद्मश्री मिली, 1996 में संगीत नाटक अकादमी की फैलोशिप मिली तो 2002 में पद्मभूषण मिला। 1982 में एडनवर्ग में आयोजित अर्न्तराष्ट्रीय ड्रामा फेस्टीबल में उनके नाटक 'चरनदास चोर' को पहला पुरस्कार मिला।
वे नाटककार के रूप में इतने मशहूर हुये कि अब कम ही लोग जानते हैं कि पेशावर से आये हुये हफीज मुहम्मद खान के बेटे हबीब अहमद खान ने शुरू में शायरी भी की और अपना उपनाम 'तनवीर' रख लिया जिसका मतलब होता है रौशनी या चमक। बाद में उनके कामों की जिस चमक से दुनिया रौशन हुयी उससे पता चलता है कि उन्होंने अपना नाम सही चुना था। कम ही लोगों को पता होगा कि 1945 में बम्बई में आल इन्डिया रेडियो में प्रोडयूसर हो गये, पर उनके उस बम्बई जो तब मुम्बई नहीं हुयी थी, जाने के पीछे आल इन्डिया रेडियो की नौकरी नहीं थी अपितु उनका आकर्षण अभिनय का क्षेत्र था। पहले उन्होंने वहाँ फिल्मों में गीत लिखे और कुछ फिल्मों में अभिनय किया। इसी दौरान उनके जीवन में महत्वपूर्ण मोड़ आया और वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़ कर इप्टा ( इन्डियन पीपुल्स थियेटर एशोसियेशन)के सक्रिय सदस्य बन गये, पर जब स्वतंत्रता संग्राम के दौरान इप्टा के नेतृत्वकारी साथियाें को जेल जाना पड़ा तो उनसे इप्टा का कार्यभार सम्हालने के लिए कहा गया। ये दिन ही आज के हबीब तनवीर को हबीब तनवीर बनाने के दिन थे। कह सकते हैं कि उनके जीवन की यह एक अगली पाठशाला थी।
1954 में वे फिल्मी नगरी को अलविदा कह के दिल्ली आ गये और कदेसिया जैदी के हिन्दुस्तानी थियेटर में काम किया। इस दौरान उन्होंने चिल्ड्रन थियेटर के लिए बहुत काम किया और अनेक नाटक लिखे। इसी दौरान उनकी मुलाकात मोनिका मिश्रा से हुयी जिनसे उन्होंने बाद में विवाह किया। इस विवाह में ना तो पहले धर्म कभी बाधा बना और ना ही बाद में क्योंकि दोनों ही धर्म के नापाक बंधनों से मुक्त हो चुके थे। इसी दौरान उन्होंने गालिब की परंपरा के 18वीं सदी के कवि नजीर अकबराबादी के जीवन पर आधारित नाटक 'आगरा बाजार' का निर्माण किया जिसने बाद में पूरी दूनिया में धूम मचायी। नाटक में उन्होंने जामियामिलिया के छात्रों और ओखला के स्थानीय लोगों के सहयोग और उनके लोकजीवन को सीधे उतार दिया। दुनिया के इतिहास में यह पहला प्रयोग था जिसका मंच सबसे बड़ा था क्योंकि यह नाटक स्थानीय बाजार में मंचित हुआ। सच तो यह है कि इसीकी सफलता के बाद उन्होंने अपने नाटकों में छत्तीसगढ के लोककलाकारों के सहयोग से नाटक करने को प्रोत्साहित किया जिसमें उनमें अपार सफलता मिली।
इस सफलता के बाद उन्होंने कभी पीछे मुड़ कर नहीं देखा। 1955 में जब वे कुल इकतीस साल के थे तब वे इंगलैंड गये जहाँ उन्होंने रायल एकेडमी आफ ड्रामटिक आर्ट में अभिनय और निर्देशन का प्रशिक्षण दिया। 1956 में उन्होंने यही काम ओल्ड विक थियेटर स्कूल के लिए किया। अगले दो साल उन्होंने पूरे यूरोप का दौरा करके विभिन्न स्थानों पर चल रहे नाटकों की गतिविधियों का अध्ययन किया। वे बर्लिन में लगभग अठारह माह रहे जहाँ उन्हें बर्तोल ब्रेख्त के नाटकों को देखने का अवसर मिला जो बर्नेलियर एन्सेम्बले के निर्देशन में खेले जा रहे थे। इन नाटकों ने हबीब तनवीर को पका दिया और वे अद्वित्तीय बन गये। स्थानीय मुहावरों का नाटकों में प्रयोग करना उन्होंने यहीं से सीखा जिसने उन्हें स्थानीय कलाकारों और उनकी भाषा के मुहावरों के प्रयोग के प्रति जागृत किया। यही कारण है कि उनके नाटक जडों के नाटक की तरह पहचाने गये जो अपनी सरलता और अंदाज में, प्रर्दशन और तकनीक में, तथा मजबूत प्रयोगशीलता में अनूठे रहे।
वतन की वापिसी के बाद उन्होंने नाटकों के लिए टीम जुटायी और प्रर्दशन प्रारंभ किये। 1958 में उन्होंने छत्तीसगढी में पहला नाटक 'मिट्टीी की गाड़ी' का निर्माण किया जो शूद्रक के संस्कृत नाटक 'मृच्छिकटकम ' का अनुवाद था। इसकी व्यापक सफलता ने उनकी नाटक कम्पनी 'नया थियेटर' की नींव डाली और 1959 में उन्होंने संयक्त मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में इसकी स्थापना की। 1970 से 1973 के दौरान उन्होंने पूरी तरह से अपना ध्यान लोक पर केन्द्रित किया और छत्तीसगढ में पुराने नाटकों के साथ इतने प्रयोग किये कि नाटकों के बहुत सारे साधन और तौर तरीकों में क्रान्तिकारी परिवर्तन कर डाले। इसी दौरान उन्होंने पंडवानी गायकी के बारे में भी नाटकों के कई प्रयोग किये। इसी दौरान उन्होंने छत्तीसबढ के नाचा का प्रयोग करते हुये 'गांव का नाम ससुराल, मोर नाम दामाद' की रचना की। बाद में शयाम बेनेगल ने स्मिता पाटिल और लालूराम को लेकर इस पर फिल्म भी बनायी थी।
हबीबजी प्रतिभाशाली थे, सक्षम थे, साहसी थे, प्रयोगधर्मी थे, क्रान्तिकारी थे। उनके 'चरणदास चोर' से लेकर, पोंगा पंडित, जिन लाहौर नहिं देख्या, कामदेव का सपना, बसंत रितु का अपना' जहरीली हवा, राजरक्त समेत अनेकानेक नाटकों में उनकी प्रतिभा दिखायी देती है जिसे दुनिया भर के लोगों ने पहचाना है। उन्होंने रिचर्ड एडिनबरो की फिल्म गांधी से लेकर दस से अधिक फिल्मों में काम किया है तो वहीं 2005 में संजय महर्षि और सुधन्वा देश पांडे ने उन पर एक डाकूमेंटरी बनायी जिसका नाम रखा ' गाँव का नाम थियेटर, मोर नाम हबीब'। यह टाइटिल उनके बारे में बहुत कुछ कह देता है, पर दुनिया की इस इतनी बड़ी सख्सियत के बारे में आप कुछ भी कह लीजिये हमेशा ही कुछ अनकहा छूट ही जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, मई 27, 2009
न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बिना ये ममता मंहगी पढेगी
न्यूनतम साझा कार्यक्रम के बिना कहीं ये ममता मँहगी न पड़े
वीरेन्द्र जैन
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद न केवल काँग्रेस पार्टी और उसके सदस्य ही उत्साहित हैं अपितु देश भर में अस्थिरता के भय से आतंकित जनता ने भी एक संतोष की सांस ली है। पर यूपीए ने जिन चुनावपूर्व घटकों के मतों को मिला कर अपना बहुमत पाया है तथा जिनके होने के कारण वह अमरसिंह के इशारों पर चलने वाली समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजनसमाज पार्टी के उतावले बिना शर्त समर्थन को ठुकरा सकी है उसमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की उन्नीस सीटें भी सम्मिलित हैं। स्मरणीय है कि ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति बंगाल में काँग्रेस पार्टी की छात्र शाखा की सदस्यता से ही शुरू की थी तथा अपने जुझारूपन से पायी लोकप्रियता के आधार पर उन्होंने उस समय के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को भी जादवपुर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया था। 1991 की नरसिंहराव की सरकार में उन्हें मानव संसाधन विकास, युवामामले और खेल मंत्रालयों में राज्यमंत्री बनाया गया था। बाद में बंगाल के नेताओं के साथ मतभेदों के चलते केन्द्र की खेल विभाग की मंत्री होते हुये भी कलकता के ब्रिग्रेड मैदान में उस रैली का नेतृत्व किया था जो केन्द्र सरकार द्वारा खेलों के विकास पर ध्यान न देने के विरोध में बुलायी गयी थी, इसी कारण 1993 में उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर देना पड़ा था। वे बंगाल के काँग्रेस नेताओं को वहाँ की सीपीएम सरकार का पिछलग्गू बता कर सार्वजनिक निंदा करती थीं। उनके जीवन का इकलौता लक्ष्य बंगाल की सीपीएम सरकार का तीव्र विरोध करना रहा है और कांग्रेस के जिम्मेवार नेतृत्व को वे हमेशा कमजोर बताती रही हैं। 1996 में उन्होंने नारा दिया कि वे बंगाल में विरोध की इकलौती आवाज हैं तथा एक साफसुथरी काँग्रेस चाहती हैं। 1996 में उन्होंने कलकता में अलीपुर में आयोजित एक रैली में एक काले शाल को अपने गले में कस लिया था और फाँसी लगा लेने की धमकी दी थी। जुलाई 96 में पैट्रोलियम पदार्थों की दरों में वृद्धि के खिलाफ वे गर्भगृह में उतर आयी थीं जबकि उस समय वे सरकार चलाने वाली पार्टी में ही थीं। इसी तरह महिला आरक्षण विधेयक के सवाल पर उन्होंने लोकसभा के गर्भगृह में जाकर समाजवादी पार्टी के एक सांसद का गला पकड़ लिया था। फरबरी 1997 में उन्होंने रेलवे बजट में बंगाल के लिए रेल की समुचित सुविधाएं न देने के आरोप में तत्कालीन रेल मंत्री रामविलास पासवान पर अपना शाल फेंक कर मारा था और अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी थी। लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा ने उनका स्तीफा स्वीकार नहीं किया था तथा माफी मांगने को कहा था बाद में संतोषमोहन देव की मध्यस्थता पर वे वापिस लौटी थीं। अंतत: 1997 में उन्होंने बंगाल की काँग्रेस पार्टी में विभाजन करके आल इंडिया तृणमल काँग्रेस बना ली थी। इतना ही नहीं 1999 में कॉग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की विरोधी भाजपा सरकार में सम्मिलित हो गयीं व रेल मंत्री ही बन कर रहीं। समर्थन के लिए मजबूर अटल बिहारी की सरकार को उनकी शतें माननी ही पड़ीं। मंत्री बनते ही उन्होंने अपने पहले रेल बजट में बंगाल के लोगों से किये बहुत सारे वादे पूरे कर दिये जबकि देश के दूसरे हिस्से कुछ जरूरी मांगों की पूर्ति से वंचित रह गये। उन्होंने बंगाल के लिए नई दिल्ली सियालदहा राजधानी एक्सप्रैस, हावड़ा पुरलिया, सियालदहा न्यूजलपाईगुड़ी, शालीमार बांकुरा, पुणे हावड़ा आदि गाड़ियां चलायीं व अनेक के क्षेत्र में विस्तार किया। 2001 में भाजपा पर आरोप लगाते हुये उन्होंने राजग सरकार छोड़ दी। बाद में 2004 में वे फिर से सरकार में सम्मिलित हो गयीं व कोयला मंत्रालय स्वीकार कर लिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में वे तृणमूल काँग्रेस की ओर से जीतने वाली इकलौती सांसद थीं। अक्टूबर 2006 में उन्होंने बंगाल में घुसपैठियों की पहचान के सवाल पर अपना स्तीफा लोकसभा के उपाध्यक्ष चरण सिंह अटवाल के मुंह पर दे मारा।
ममता बनर्जी पर कभी भी भ्रष्टाचार और पद के दुरूप्योग के कोई गंभीर आरोप नहीं लगे तथा पद त्यागने का अवसर आने पर उन्होंने कभी देर नहीं की। उनकी राजनीति आन्दोलन की राजनीति रही जिसके द्वारा उन्होंने बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के विरोधियों का नेतृत्व सहज ही हस्तगत कर लिया। यह विरोध करते हुये उन्हें लगभग 25 साल हो गये हैं जिससे उनका पूरा व्यक्तित्व ही एक जुझारू नेता का व्यक्तित्व हो गया है। इतिहास बताता है कि ऐसे व्यक्तित्व के धनी लोगों का स्वभाव सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी हो जाता है व वे शासन करने में अनुकूलता महसूस नहीं करते है। ममता ने भी केन्द्रीय मंत्रिपद को कई बार छोड़ा है। इस बार भी उन्हें उनकी पसंद का मंत्रालय ही देना पड़ा है पर फिर सबके साथ शपथ ग्रहण करने के बाद भी उन्होंने चार्ज लेने में कोई उतावला पन नहीं दिखाया व अपनी पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के प्रति सम्मान प्रदशिर्त करते हुये बयान दिया था कि वे चार्ज तभी ग्रहण करेंगीं जब उनके अन्य साथियों को मंत्री पद मिल जायेगा। इसका एक अर्थ यह भी निकलता था कि यदि उनके साथियों की संख्या या मंत्रालय के चुनाव में कोइ असंतोष दिखा तो वे चार्ज लेने से इंकार कर सकती हैं। बाद में उन्होंने एक सर्वथा नई परंपरा स्थापित करते हुये अपने मंत्रालय का चार्ज दिल्ली की जगह कलकत्ता में ग्रहण किया। वे केन्द्रीय सरकार की मंत्री हैं न कि बंगाल की मंत्री हैं और उनका यह कृत्य सरकार के सामूहिक कृत्यों से अलग राह अपनाने की तरह दिखायी देता है जो एक खतरे की घंटी है। यदि उन्हें बंगाल में रह कर सीपीएम विरोध की राजनीति ही उचित लग रही थी तो उन्हैं केन्द्रीय मंत्री का पद ग्रहण नहीं करना चाहिये था पर जब ग्रहण कर लिया था तब बंगाल में चार्ज लेने का दिखावा नहीं करना चाहिये था, पर ना तो उन्हें इस काम से यूपीए की अध्यक्ष ही रोक सकीं और ना ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही रोक सके। यह एक गैर सैद्धांतिक मनमाना दबाव है जिसका संदेश एक स्थायी सरकार की वाहवाही की चमक को कम करता है। वे इस तरह एक बार फिर भविष्य में बंगाल की सरकार के खिलाफ किये जाने वाले अपने आंदोलनों से केन्द्रीय सरकार को संकट में डालने के संकेत दे रही हैं। स्मरणीय है कि चुनावों के दौरान काँग्रेस नेताओं और भाजपा नेताओं के बीच जो कटु बयानबाजी हुयी और अपशब्दों के प्रयोग तक बात पहुँची उस बीच भी काँग्रेस ने पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान वामपंथी सदस्यों से सैद्धांतिक विरोध के बाबजूद मिले समर्थन की तारीफ की थी और उनके सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया था। न्यूक्लीयर डील पर आये विशवास प्रस्ताव के दौरान भी काँग्रेस नेताओं ने वामपंथियों के योगदान की प्रशांसा की थी तथा उनके न्यूक्लीयर डील पर विरोध को समझ का फेर बताया था। जबकि इसके उलट वामपंथियों के तेवर तर्कों पर आधारित होते हुये भी तीखे थे। वे काँग्रेस की आर्थिक नीतियों से अपनी असहमति के कारण मंत्रिमंडल में सम्मिलित नहीं हुये थे और अपनी असहमतियों को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। यही कारण है कि अपना समर्थन देने से पहले उन्होंने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका सहयोग कितना और कहाँ तक है। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति व सहयोग की सीमाएं स्पष्ट नहीं की हैं और अपनी मनमानियां शुरू कर दी हैं।
अमरसिंह के संचालन में चलने वाली समाजवादी पार्टी भरासेमंद पार्टी नहीं है तथा मायावती की राजनीति सबसे निरंतर असहयोग कर अपना अस्तित्व बचाये रखने की राजनीति है इसलिए दोनों को ही सरकार में सम्मिलित न करने का निर्णय बहुत सही निर्णय रहा है। किंतु डीएमके का तरीका बहुत ही नग्न ब्लैकमेलिंग और सत्ता प्रतिष्ठानों पर चुने हुये पदों पर अधिकार जमाने का तरीका है। इसलिए जरूरी है कि ममता बनर्जी के साथ सहयोग और उनके काम करने के तरीके के प्रति काँग्रेस कुछ नीति व सिद्धांत तय कर ले ताकि उसे बीच रास्ते में गलत हाथों का साथ तलाशना व उन के उनकी शर्तों पर सौदा न करना पड़े। सबसे अच्छा होगा अगर वे न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाये और घोषित कर दें।
वीरेन्द्र जैन
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वीरेन्द्र जैन
लोकसभा चुनाव जीतने के बाद न केवल काँग्रेस पार्टी और उसके सदस्य ही उत्साहित हैं अपितु देश भर में अस्थिरता के भय से आतंकित जनता ने भी एक संतोष की सांस ली है। पर यूपीए ने जिन चुनावपूर्व घटकों के मतों को मिला कर अपना बहुमत पाया है तथा जिनके होने के कारण वह अमरसिंह के इशारों पर चलने वाली समाजवादी पार्टी और मायावती की बहुजनसमाज पार्टी के उतावले बिना शर्त समर्थन को ठुकरा सकी है उसमें ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस की उन्नीस सीटें भी सम्मिलित हैं। स्मरणीय है कि ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति बंगाल में काँग्रेस पार्टी की छात्र शाखा की सदस्यता से ही शुरू की थी तथा अपने जुझारूपन से पायी लोकप्रियता के आधार पर उन्होंने उस समय के वरिष्ठ नेता सोमनाथ चटर्जी को भी जादवपुर लोकसभा क्षेत्र से पराजित किया था। 1991 की नरसिंहराव की सरकार में उन्हें मानव संसाधन विकास, युवामामले और खेल मंत्रालयों में राज्यमंत्री बनाया गया था। बाद में बंगाल के नेताओं के साथ मतभेदों के चलते केन्द्र की खेल विभाग की मंत्री होते हुये भी कलकता के ब्रिग्रेड मैदान में उस रैली का नेतृत्व किया था जो केन्द्र सरकार द्वारा खेलों के विकास पर ध्यान न देने के विरोध में बुलायी गयी थी, इसी कारण 1993 में उन्हें मंत्री पद से मुक्त कर देना पड़ा था। वे बंगाल के काँग्रेस नेताओं को वहाँ की सीपीएम सरकार का पिछलग्गू बता कर सार्वजनिक निंदा करती थीं। उनके जीवन का इकलौता लक्ष्य बंगाल की सीपीएम सरकार का तीव्र विरोध करना रहा है और कांग्रेस के जिम्मेवार नेतृत्व को वे हमेशा कमजोर बताती रही हैं। 1996 में उन्होंने नारा दिया कि वे बंगाल में विरोध की इकलौती आवाज हैं तथा एक साफसुथरी काँग्रेस चाहती हैं। 1996 में उन्होंने कलकता में अलीपुर में आयोजित एक रैली में एक काले शाल को अपने गले में कस लिया था और फाँसी लगा लेने की धमकी दी थी। जुलाई 96 में पैट्रोलियम पदार्थों की दरों में वृद्धि के खिलाफ वे गर्भगृह में उतर आयी थीं जबकि उस समय वे सरकार चलाने वाली पार्टी में ही थीं। इसी तरह महिला आरक्षण विधेयक के सवाल पर उन्होंने लोकसभा के गर्भगृह में जाकर समाजवादी पार्टी के एक सांसद का गला पकड़ लिया था। फरबरी 1997 में उन्होंने रेलवे बजट में बंगाल के लिए रेल की समुचित सुविधाएं न देने के आरोप में तत्कालीन रेल मंत्री रामविलास पासवान पर अपना शाल फेंक कर मारा था और अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी थी। लोकसभा अध्यक्ष पी ए संगमा ने उनका स्तीफा स्वीकार नहीं किया था तथा माफी मांगने को कहा था बाद में संतोषमोहन देव की मध्यस्थता पर वे वापिस लौटी थीं। अंतत: 1997 में उन्होंने बंगाल की काँग्रेस पार्टी में विभाजन करके आल इंडिया तृणमल काँग्रेस बना ली थी। इतना ही नहीं 1999 में कॉग्रेस पार्टी की धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा की विरोधी भाजपा सरकार में सम्मिलित हो गयीं व रेल मंत्री ही बन कर रहीं। समर्थन के लिए मजबूर अटल बिहारी की सरकार को उनकी शतें माननी ही पड़ीं। मंत्री बनते ही उन्होंने अपने पहले रेल बजट में बंगाल के लोगों से किये बहुत सारे वादे पूरे कर दिये जबकि देश के दूसरे हिस्से कुछ जरूरी मांगों की पूर्ति से वंचित रह गये। उन्होंने बंगाल के लिए नई दिल्ली सियालदहा राजधानी एक्सप्रैस, हावड़ा पुरलिया, सियालदहा न्यूजलपाईगुड़ी, शालीमार बांकुरा, पुणे हावड़ा आदि गाड़ियां चलायीं व अनेक के क्षेत्र में विस्तार किया। 2001 में भाजपा पर आरोप लगाते हुये उन्होंने राजग सरकार छोड़ दी। बाद में 2004 में वे फिर से सरकार में सम्मिलित हो गयीं व कोयला मंत्रालय स्वीकार कर लिया। 2004 के लोकसभा चुनाव में वे तृणमूल काँग्रेस की ओर से जीतने वाली इकलौती सांसद थीं। अक्टूबर 2006 में उन्होंने बंगाल में घुसपैठियों की पहचान के सवाल पर अपना स्तीफा लोकसभा के उपाध्यक्ष चरण सिंह अटवाल के मुंह पर दे मारा।
ममता बनर्जी पर कभी भी भ्रष्टाचार और पद के दुरूप्योग के कोई गंभीर आरोप नहीं लगे तथा पद त्यागने का अवसर आने पर उन्होंने कभी देर नहीं की। उनकी राजनीति आन्दोलन की राजनीति रही जिसके द्वारा उन्होंने बंगाल की मार्क्सवादी सरकार के विरोधियों का नेतृत्व सहज ही हस्तगत कर लिया। यह विरोध करते हुये उन्हें लगभग 25 साल हो गये हैं जिससे उनका पूरा व्यक्तित्व ही एक जुझारू नेता का व्यक्तित्व हो गया है। इतिहास बताता है कि ऐसे व्यक्तित्व के धनी लोगों का स्वभाव सत्ता प्रतिष्ठान विरोधी हो जाता है व वे शासन करने में अनुकूलता महसूस नहीं करते है। ममता ने भी केन्द्रीय मंत्रिपद को कई बार छोड़ा है। इस बार भी उन्हें उनकी पसंद का मंत्रालय ही देना पड़ा है पर फिर सबके साथ शपथ ग्रहण करने के बाद भी उन्होंने चार्ज लेने में कोई उतावला पन नहीं दिखाया व अपनी पार्टी में सामूहिक नेतृत्व के प्रति सम्मान प्रदशिर्त करते हुये बयान दिया था कि वे चार्ज तभी ग्रहण करेंगीं जब उनके अन्य साथियों को मंत्री पद मिल जायेगा। इसका एक अर्थ यह भी निकलता था कि यदि उनके साथियों की संख्या या मंत्रालय के चुनाव में कोइ असंतोष दिखा तो वे चार्ज लेने से इंकार कर सकती हैं। बाद में उन्होंने एक सर्वथा नई परंपरा स्थापित करते हुये अपने मंत्रालय का चार्ज दिल्ली की जगह कलकत्ता में ग्रहण किया। वे केन्द्रीय सरकार की मंत्री हैं न कि बंगाल की मंत्री हैं और उनका यह कृत्य सरकार के सामूहिक कृत्यों से अलग राह अपनाने की तरह दिखायी देता है जो एक खतरे की घंटी है। यदि उन्हें बंगाल में रह कर सीपीएम विरोध की राजनीति ही उचित लग रही थी तो उन्हैं केन्द्रीय मंत्री का पद ग्रहण नहीं करना चाहिये था पर जब ग्रहण कर लिया था तब बंगाल में चार्ज लेने का दिखावा नहीं करना चाहिये था, पर ना तो उन्हें इस काम से यूपीए की अध्यक्ष ही रोक सकीं और ना ही प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ही रोक सके। यह एक गैर सैद्धांतिक मनमाना दबाव है जिसका संदेश एक स्थायी सरकार की वाहवाही की चमक को कम करता है। वे इस तरह एक बार फिर भविष्य में बंगाल की सरकार के खिलाफ किये जाने वाले अपने आंदोलनों से केन्द्रीय सरकार को संकट में डालने के संकेत दे रही हैं। स्मरणीय है कि चुनावों के दौरान काँग्रेस नेताओं और भाजपा नेताओं के बीच जो कटु बयानबाजी हुयी और अपशब्दों के प्रयोग तक बात पहुँची उस बीच भी काँग्रेस ने पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान वामपंथी सदस्यों से सैद्धांतिक विरोध के बाबजूद मिले समर्थन की तारीफ की थी और उनके सहयोग के लिए आभार व्यक्त किया था। न्यूक्लीयर डील पर आये विशवास प्रस्ताव के दौरान भी काँग्रेस नेताओं ने वामपंथियों के योगदान की प्रशांसा की थी तथा उनके न्यूक्लीयर डील पर विरोध को समझ का फेर बताया था। जबकि इसके उलट वामपंथियों के तेवर तर्कों पर आधारित होते हुये भी तीखे थे। वे काँग्रेस की आर्थिक नीतियों से अपनी असहमति के कारण मंत्रिमंडल में सम्मिलित नहीं हुये थे और अपनी असहमतियों को उन्होंने कभी छुपाया भी नहीं। यही कारण है कि अपना समर्थन देने से पहले उन्होंने न्यूनतम साझा कार्यक्रम बना कर यह स्पष्ट कर दिया था कि उनका सहयोग कितना और कहाँ तक है। दूसरी ओर ममता बनर्जी ने अपनी राजनीति व सहयोग की सीमाएं स्पष्ट नहीं की हैं और अपनी मनमानियां शुरू कर दी हैं।
अमरसिंह के संचालन में चलने वाली समाजवादी पार्टी भरासेमंद पार्टी नहीं है तथा मायावती की राजनीति सबसे निरंतर असहयोग कर अपना अस्तित्व बचाये रखने की राजनीति है इसलिए दोनों को ही सरकार में सम्मिलित न करने का निर्णय बहुत सही निर्णय रहा है। किंतु डीएमके का तरीका बहुत ही नग्न ब्लैकमेलिंग और सत्ता प्रतिष्ठानों पर चुने हुये पदों पर अधिकार जमाने का तरीका है। इसलिए जरूरी है कि ममता बनर्जी के साथ सहयोग और उनके काम करने के तरीके के प्रति काँग्रेस कुछ नीति व सिद्धांत तय कर ले ताकि उसे बीच रास्ते में गलत हाथों का साथ तलाशना व उन के उनकी शर्तों पर सौदा न करना पड़े। सबसे अच्छा होगा अगर वे न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाये और घोषित कर दें।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, मई 20, 2009
विजय मिली विश्राम न समझो
विजय मिली विश्राम न समझो
वीरेन्द्र जैन
लोकसभा के इन चुनाव परिणामों को राजनीतिक दलों और सत्ता के निहित स्वार्थों से जुड़े लोग भले ही किसी तरह देखें, पत्रकार और बुद्धिज़ीवी अपनी छवि की दृष्टि से कालिदास काल के पंडितों की तरह कुछ का कुछ भी अर्थ निकालते रहें पर सच तो यह है कि इन्हेें गहराई और सही परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। स्मरणीय है कि बड़े से बड़े चुनावी विशलेषक भी चुनाव परिणामों के आने से पूर्व कोई अनुमान नहीं लगा सके थे व जनता का मूड नहीं भांप सके थे। इस बिडम्बना का मुख्य कारण यह है कि समाज की लोकतांत्रिक राजनीतिक चेतना इतनी वैविध्यपूर्ण बनी हुयी है कि उसे किसी एक फैक्टर से नापा नहीं जा सकता।
कभी कभी अनायास घटी घटनाएं भी सुखद परिणाम दे जाती हैं। हाल में हुये लोकसभा चुनावों के जो परिणाम आये हैं वे राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से भले ही संतोषप्रद हों पर उनके बारे में यह निष्कर्ष निकालना कि जनता ने सोच समझ कर फैसला लिया है, विचारणीय है। वोट गुप्त होता है तथा वोटर के पास किसी व्यक्ति या दल को वोट देने के अपने अपने कारण होते हैं इसलिए सभी तरह के वोटरों के बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता कि देश भर में बहुमत लोगों ने एक सोची समझी विचार प्रक्रिया की तरह वोट दिया है। आइये चुनाव परिणामों पर निगाह डाल परख कर देखें।
इन चुनावों में श्रीमती इंदिरागांधी परिवार के चार सदस्य संसद में पहुँचे हैं वे श्रीमती सोनिया गांधी, श्रीमती मनेका गांधी, राहुल गांधी और वरूण गांधी हैं। जो लोग वंश परंपरा को दोष देते हुये विरोध करते हैं वे क्या इन विपरीत दिशाओं में जाने वाले लोगों के बीच कोई सामंजस्य तलाश सकते हैं
इन चुनावों में सिंधियावंश के तीन सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया, यशोधरा राजे सिंधिया, वसुंधराराजे सिंधिया के पुत्र दुष्यंत संसद में पहुँचे हैं। इनमें से एक काँग्रेस में हैं और दो भाजपा में पर तीनों की ही विजय का कारण उनका वंश है। श्री ज्योतिरादित्य तो उस क्षेत्र से जीते हें जिस क्षेत्र में आठ में से सात विघायक भाजपा के थे।
समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को माथे पर चंदन की तरह पोतने वाले मुलायमसिंह यादव की पार्टी के उम्मीदवारों में से उनके ही परिवार से चार सीटें जीती गयी हैं,ं जिनमेेंं मुलायमसिंह यादव, उनके पुत्र अखिलेश यादव, और भतीजे धर्मेंन्द्र एक साथ संसद में पहुँचे हें जबकि अखिलेश दो जगह से चुने गये हैं। उनके भाई पहले ही राज्यसभा में हैं।
इन चुनावों में चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीतसिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी अपनी वंश परंपरा की विरोधी पार्टी भाजपा के साथ्र समझौता करके संसद में पहुँचे हैं।
इन चुनावों में पचास से अधिक सदस्य किसी राजनीतिक खानदान से आये हुये लोग हैं।
इन चुनावों में रेल का अभूतपूर्व आर्थिक उत्थान करने वाले व नई नई सुविधाएं देकर भी किराया न बढाने वाले लालू प्रसाद को दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ना पड़ा था जिसमें से एक में वे बमुशकिल जीत सके हैं।
जिन शरद पवार के मंत्रालय ने किसानों के लिए सबसे बड़ी ऋण माफी योजना की घोषणा की थी उन शरद पवार की पार्टी की सीटें घट गयी हैं और जिन वित्तमंत्री चिदंबरम ने इसके लिए इतनी बड़ी राशि की अनुमति दी थी वे हारते हारते रह गये तथा पुर्नमतगणना से जीत सके हैं।
जिस ग्रामीण रोजगार योजना को काँग्रेस और यूपीए अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि की तरह बखान करती रही थी उसके मुख्य सूत्रधार वामपंथी आम चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गये हैं। सम्बंधित विभाग के मंत्री रघुवंश प्रसाद चुनाव नहीं जीत सके।
जिन वामपंथियों के हस्तक्षेप के कारण बैंक और बीमा के क्षेत्र में एफ डी आइ (सीधे विदेशी निवेश) नहीं होने दिया गया था जिससे विशव व्यापी भयंकर मंदी की चपेट में आने से देश की अर्थ व्यवस्था बची रह गयी उनकी संख्या एक तिहाई रह गयी है।
भाजपा शासन वाले उत्तराखण्ड में सभी सीटें शासक पार्टी हार गयी है और उन पाँच की पाँच सीटों पर काँग्रेस जीत गयी है।
वरिष्ठतम नेता और प्रखर वक्ता भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री व सांसद जार्ज फर्नांडीज चुनाव हार गये हैं। बिना प्रैस किये हुये कपड़े पहिनने वाले समाजवादी रहे नेता ने अपनी सम्पत्ति 15 करोड़ घोषित की थी।
जिस मध्यप्रदेश की जनता ने अभी चार महीने पहले जिस पार्टी को भरपूर समर्थन देकर राज्य में सरकार बनवायी थी तथा विकास के नाम पर उसे वोट दिया था उसी पार्टी को बुरी तरह नुकसान उठाना पड़ा है जबकि उसके मुख्यमंत्री ने इन चुनावों में पहले से अधिक मेहनत करके दिन रात एक कर दिया था।
जिस सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उत्तरप्रदेश में मायावती ने राज्य में सरकार बनायी थी और उसी घमंड में प्रधानमंत्री का सपना देखते हुये बिना किसी से समझौता किये पूरे देश में अपने स्वतंत्र टिकिट बेचे थे वे अपने प्रदेश में ही पिछड़ गयीं व पिछले विधानसभा चुनाव में प्राप्त मतप्रतिशत से उनके मत कम हो गये।
299 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले एल राजगोपाल आंध्र प्रदेश में विजयवाड़ा से काँग्रेस के टिकिट पर चुनाव जीत गये हैं किंतु बहुजन समाजपार्टी के टिकिट पर दक्षिणी दिल्ली से 150 करोड़ की सम्पत्ति रखने वाले करन सिंह कंवर चुनाव हार गये हैं
122 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले अबू असीम आजमी उत्त्र प्रदेश से चुनाव हार गये हैं।पर 173 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले नागेशवर राव आंध्र्रप्रदेश में खम्मम से तेलगूदेशाम के टिकिट पर चुनाव जीत गये हेैं उन्होंने रेणुका चौधरी जैसी हँसमुख वाकपटु महिला नेत्री को हराया
कर्नाटक से 105 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले सुरेन्द्र बाबू चुनाव हार गये हेैं।
जो वामपंथी अपनी ईमानदारी, जिम्मेवारी, विचारधारा, बौद्धिकता, अनुशासन तथा बैठकों में सबसे अधिक उपस्थिति व बहस में भागीदारी के लिए विख्यात रहे हैं वे संख्या में एक चौथाई रह गये हैं। वहीं संसद में सवाल पूछने के लिए रिशवत लेने वाले, सांसद निधि बेचने वाले, दलबदल करने वाले, संसद में एक करोड़ रूपये की रिशवत के रूप्ये सदन के पटल पर पटकने वाले, कबूतरबाजी द्वारा अपराधियों को अवैध रूप से विदेश भेजने वालाें के दल के कई लोग चुनाव जीत गये हैं।
एक स्टिंग आपरेशन में जाम के साथ पैसे लेते हुये और 'पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं' कहने वाले जू देव छत्तीसगढ से चुनाव जीत गये हैं।
यूपीए के पचास से अधिक सदस्य तामिलनाडु और आंध्र प्रदेश में दो अत्यंत लोकप्रिय अभिनेताओं द्वारा राजनीति में उतर कर पार्टी बना कर चुनाव में उतरने व शिवसेना की टूट से बनी मनसे द्वारा समुचित वोट काट लेने से जीते हैं।
1984 में सिखों के नरसंहार और 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के लिए जिम्मेवार पार्टी के लोग चुनाव जीत गये हैं तथा साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए निरन्तर प्रयास के लिए जाने जाने वाले पिछड़ गये हैं।
गत लोकसभा में आपराधिक आरोपों वाले 128 लोग चुन कर आये थे पर इस बार उनकी संख्या 150 तक पहुंच गयी है।
गत चुनावों में 543 के सदन में करोड़पतियों की संख्या 154 थी जो अब बढ कर 300 तक पहुँच गयी है पर फिर भी इनकी पार्टियां इनके आर्थिक सहयोग से नहीं चलतीं अपितु वे बड़े बड़े औद्योगिक घरानों से चंदा वसूल कर संचालित होती हैं। ये करोड़पति अपने वेतन को भी पार्टी को नहीं देते अपितु अपने घर ले जाते हैं और आजीवन पेंशन भी लेते हैं।ये पार्टी से लेते ही लेते हैं देते कुछ नहीं।
अगर सीटों की संख्या की जगह मतों की संख्या से मूल्यांकन करें तो भाजपा के वोट 2004 में 22.16 प्रतिशत से घट कर 18.80 प्रतिशत हो गये हैं और उसे 33.6 प्रतिशत का नुकसान हुआ है जबकि काँग्रेस के मत 26.53 प्रतिशत से बढ कर 28.55 प्रतिशत हो गये हैं और उन्हें 2.02 प्रतिशत का फायदा हुआ है। सीपीएम के मतों में कुल 0.33 प्रतिशात की कमी आयी है और वे 5.66 प्रतिशत से 5.33 प्रतिशत रह गये हैं पर सीपीआई के मत 1.41 प्रतिशत से बढ कर 1.43 प्रतिशत हो गये हैं। बीएसपी के वोट बढ कर 5.33 से 6.17 तक पहुँच गये हैं और राष्ट्रवादी काँग्रेस के वोट बढ कर 1.80 से बढ कर 2.04 प्रतिशत हो गये हैं। सबसे अधिक घाटा भाजपा को ही हुआ है।
ये बहुत थोड़े से उदाहरण हैं तथा निर्वाचन आयोग की समझदारी पूर्ण योजना के कारण चुनाव शांतिपूर्वक और अनुशासन के दायरे में हुये हैं। काँग्रेस चुनाव जीत गयी है पर अभी करने को बहुत कुछ बाकी है और यह प्रारंभ बिन्दु हो सकता है। चाहे तो इस अवसर का लाभ उठाते हुये अपने संगठन को पुर्नजीवित कर सकती है व युवा पीढी को राजनीति में सक्रिय कर सकती है जिससे साम्प्रदायिक ताकतों से उन्हीं की भाषा में सम्वाद किया जा सके। उनके सहयोग से भ्रष्टाचार के खिलाफ की गयी निरंतर कार्यवाहियाँ लोगों में एक नया विशवास पैदा कर सकती हैं।
जरूरत है सत्ता का मोह छोड़ कर पूरे देश में संगठन के आधार पर काम करने की।
(मेरे पिता ने स्वतंत्रता संग्राम के दौर में चन्द्रशेखर आजाद के साथ काम किया था तथा वे उस दौर का एक गीत अक्सर गुनगुनाते थे-
ओ विप्लव के थके साथियो
विजय मिली विश्राम न समझो
यह शीर्षक उसी स्मृति से लिया गया है)
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
वीरेन्द्र जैन
लोकसभा के इन चुनाव परिणामों को राजनीतिक दलों और सत्ता के निहित स्वार्थों से जुड़े लोग भले ही किसी तरह देखें, पत्रकार और बुद्धिज़ीवी अपनी छवि की दृष्टि से कालिदास काल के पंडितों की तरह कुछ का कुछ भी अर्थ निकालते रहें पर सच तो यह है कि इन्हेें गहराई और सही परिप्रेक्ष्य में देखने की जरूरत है। स्मरणीय है कि बड़े से बड़े चुनावी विशलेषक भी चुनाव परिणामों के आने से पूर्व कोई अनुमान नहीं लगा सके थे व जनता का मूड नहीं भांप सके थे। इस बिडम्बना का मुख्य कारण यह है कि समाज की लोकतांत्रिक राजनीतिक चेतना इतनी वैविध्यपूर्ण बनी हुयी है कि उसे किसी एक फैक्टर से नापा नहीं जा सकता।
कभी कभी अनायास घटी घटनाएं भी सुखद परिणाम दे जाती हैं। हाल में हुये लोकसभा चुनावों के जो परिणाम आये हैं वे राजनीतिक स्थिरता की दृष्टि से भले ही संतोषप्रद हों पर उनके बारे में यह निष्कर्ष निकालना कि जनता ने सोच समझ कर फैसला लिया है, विचारणीय है। वोट गुप्त होता है तथा वोटर के पास किसी व्यक्ति या दल को वोट देने के अपने अपने कारण होते हैं इसलिए सभी तरह के वोटरों के बारे में यह दावा नहीं किया जा सकता कि देश भर में बहुमत लोगों ने एक सोची समझी विचार प्रक्रिया की तरह वोट दिया है। आइये चुनाव परिणामों पर निगाह डाल परख कर देखें।
इन चुनावों में श्रीमती इंदिरागांधी परिवार के चार सदस्य संसद में पहुँचे हैं वे श्रीमती सोनिया गांधी, श्रीमती मनेका गांधी, राहुल गांधी और वरूण गांधी हैं। जो लोग वंश परंपरा को दोष देते हुये विरोध करते हैं वे क्या इन विपरीत दिशाओं में जाने वाले लोगों के बीच कोई सामंजस्य तलाश सकते हैं
इन चुनावों में सिंधियावंश के तीन सदस्य ज्योतिरादित्य सिंधिया, यशोधरा राजे सिंधिया, वसुंधराराजे सिंधिया के पुत्र दुष्यंत संसद में पहुँचे हैं। इनमें से एक काँग्रेस में हैं और दो भाजपा में पर तीनों की ही विजय का कारण उनका वंश है। श्री ज्योतिरादित्य तो उस क्षेत्र से जीते हें जिस क्षेत्र में आठ में से सात विघायक भाजपा के थे।
समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता को माथे पर चंदन की तरह पोतने वाले मुलायमसिंह यादव की पार्टी के उम्मीदवारों में से उनके ही परिवार से चार सीटें जीती गयी हैं,ं जिनमेेंं मुलायमसिंह यादव, उनके पुत्र अखिलेश यादव, और भतीजे धर्मेंन्द्र एक साथ संसद में पहुँचे हें जबकि अखिलेश दो जगह से चुने गये हैं। उनके भाई पहले ही राज्यसभा में हैं।
इन चुनावों में चौधरी चरण सिंह के पुत्र अजीतसिंह और उनके पुत्र जयंत चौधरी अपनी वंश परंपरा की विरोधी पार्टी भाजपा के साथ्र समझौता करके संसद में पहुँचे हैं।
इन चुनावों में पचास से अधिक सदस्य किसी राजनीतिक खानदान से आये हुये लोग हैं।
इन चुनावों में रेल का अभूतपूर्व आर्थिक उत्थान करने वाले व नई नई सुविधाएं देकर भी किराया न बढाने वाले लालू प्रसाद को दो चुनाव क्षेत्रों से चुनाव लड़ना पड़ा था जिसमें से एक में वे बमुशकिल जीत सके हैं।
जिन शरद पवार के मंत्रालय ने किसानों के लिए सबसे बड़ी ऋण माफी योजना की घोषणा की थी उन शरद पवार की पार्टी की सीटें घट गयी हैं और जिन वित्तमंत्री चिदंबरम ने इसके लिए इतनी बड़ी राशि की अनुमति दी थी वे हारते हारते रह गये तथा पुर्नमतगणना से जीत सके हैं।
जिस ग्रामीण रोजगार योजना को काँग्रेस और यूपीए अपनी सबसे प्रमुख उपलब्धि की तरह बखान करती रही थी उसके मुख्य सूत्रधार वामपंथी आम चुनाव में बुरी तरह पराजित हो गये हैं। सम्बंधित विभाग के मंत्री रघुवंश प्रसाद चुनाव नहीं जीत सके।
जिन वामपंथियों के हस्तक्षेप के कारण बैंक और बीमा के क्षेत्र में एफ डी आइ (सीधे विदेशी निवेश) नहीं होने दिया गया था जिससे विशव व्यापी भयंकर मंदी की चपेट में आने से देश की अर्थ व्यवस्था बची रह गयी उनकी संख्या एक तिहाई रह गयी है।
भाजपा शासन वाले उत्तराखण्ड में सभी सीटें शासक पार्टी हार गयी है और उन पाँच की पाँच सीटों पर काँग्रेस जीत गयी है।
वरिष्ठतम नेता और प्रखर वक्ता भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री व सांसद जार्ज फर्नांडीज चुनाव हार गये हैं। बिना प्रैस किये हुये कपड़े पहिनने वाले समाजवादी रहे नेता ने अपनी सम्पत्ति 15 करोड़ घोषित की थी।
जिस मध्यप्रदेश की जनता ने अभी चार महीने पहले जिस पार्टी को भरपूर समर्थन देकर राज्य में सरकार बनवायी थी तथा विकास के नाम पर उसे वोट दिया था उसी पार्टी को बुरी तरह नुकसान उठाना पड़ा है जबकि उसके मुख्यमंत्री ने इन चुनावों में पहले से अधिक मेहनत करके दिन रात एक कर दिया था।
जिस सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर उत्तरप्रदेश में मायावती ने राज्य में सरकार बनायी थी और उसी घमंड में प्रधानमंत्री का सपना देखते हुये बिना किसी से समझौता किये पूरे देश में अपने स्वतंत्र टिकिट बेचे थे वे अपने प्रदेश में ही पिछड़ गयीं व पिछले विधानसभा चुनाव में प्राप्त मतप्रतिशत से उनके मत कम हो गये।
299 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले एल राजगोपाल आंध्र प्रदेश में विजयवाड़ा से काँग्रेस के टिकिट पर चुनाव जीत गये हैं किंतु बहुजन समाजपार्टी के टिकिट पर दक्षिणी दिल्ली से 150 करोड़ की सम्पत्ति रखने वाले करन सिंह कंवर चुनाव हार गये हैं
122 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले अबू असीम आजमी उत्त्र प्रदेश से चुनाव हार गये हैं।पर 173 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले नागेशवर राव आंध्र्रप्रदेश में खम्मम से तेलगूदेशाम के टिकिट पर चुनाव जीत गये हेैं उन्होंने रेणुका चौधरी जैसी हँसमुख वाकपटु महिला नेत्री को हराया
कर्नाटक से 105 करोड़ की सम्पत्ति घोषित करने वाले सुरेन्द्र बाबू चुनाव हार गये हेैं।
जो वामपंथी अपनी ईमानदारी, जिम्मेवारी, विचारधारा, बौद्धिकता, अनुशासन तथा बैठकों में सबसे अधिक उपस्थिति व बहस में भागीदारी के लिए विख्यात रहे हैं वे संख्या में एक चौथाई रह गये हैं। वहीं संसद में सवाल पूछने के लिए रिशवत लेने वाले, सांसद निधि बेचने वाले, दलबदल करने वाले, संसद में एक करोड़ रूपये की रिशवत के रूप्ये सदन के पटल पर पटकने वाले, कबूतरबाजी द्वारा अपराधियों को अवैध रूप से विदेश भेजने वालाें के दल के कई लोग चुनाव जीत गये हैं।
एक स्टिंग आपरेशन में जाम के साथ पैसे लेते हुये और 'पैसा खुदा तो नहीं पर खुदा से कम भी नहीं' कहने वाले जू देव छत्तीसगढ से चुनाव जीत गये हैं।
यूपीए के पचास से अधिक सदस्य तामिलनाडु और आंध्र प्रदेश में दो अत्यंत लोकप्रिय अभिनेताओं द्वारा राजनीति में उतर कर पार्टी बना कर चुनाव में उतरने व शिवसेना की टूट से बनी मनसे द्वारा समुचित वोट काट लेने से जीते हैं।
1984 में सिखों के नरसंहार और 2002 में गुजरात में मुसलमानों के नरसंहार के लिए जिम्मेवार पार्टी के लोग चुनाव जीत गये हैं तथा साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए निरन्तर प्रयास के लिए जाने जाने वाले पिछड़ गये हैं।
गत लोकसभा में आपराधिक आरोपों वाले 128 लोग चुन कर आये थे पर इस बार उनकी संख्या 150 तक पहुंच गयी है।
गत चुनावों में 543 के सदन में करोड़पतियों की संख्या 154 थी जो अब बढ कर 300 तक पहुँच गयी है पर फिर भी इनकी पार्टियां इनके आर्थिक सहयोग से नहीं चलतीं अपितु वे बड़े बड़े औद्योगिक घरानों से चंदा वसूल कर संचालित होती हैं। ये करोड़पति अपने वेतन को भी पार्टी को नहीं देते अपितु अपने घर ले जाते हैं और आजीवन पेंशन भी लेते हैं।ये पार्टी से लेते ही लेते हैं देते कुछ नहीं।
अगर सीटों की संख्या की जगह मतों की संख्या से मूल्यांकन करें तो भाजपा के वोट 2004 में 22.16 प्रतिशत से घट कर 18.80 प्रतिशत हो गये हैं और उसे 33.6 प्रतिशत का नुकसान हुआ है जबकि काँग्रेस के मत 26.53 प्रतिशत से बढ कर 28.55 प्रतिशत हो गये हैं और उन्हें 2.02 प्रतिशत का फायदा हुआ है। सीपीएम के मतों में कुल 0.33 प्रतिशात की कमी आयी है और वे 5.66 प्रतिशत से 5.33 प्रतिशत रह गये हैं पर सीपीआई के मत 1.41 प्रतिशत से बढ कर 1.43 प्रतिशत हो गये हैं। बीएसपी के वोट बढ कर 5.33 से 6.17 तक पहुँच गये हैं और राष्ट्रवादी काँग्रेस के वोट बढ कर 1.80 से बढ कर 2.04 प्रतिशत हो गये हैं। सबसे अधिक घाटा भाजपा को ही हुआ है।
ये बहुत थोड़े से उदाहरण हैं तथा निर्वाचन आयोग की समझदारी पूर्ण योजना के कारण चुनाव शांतिपूर्वक और अनुशासन के दायरे में हुये हैं। काँग्रेस चुनाव जीत गयी है पर अभी करने को बहुत कुछ बाकी है और यह प्रारंभ बिन्दु हो सकता है। चाहे तो इस अवसर का लाभ उठाते हुये अपने संगठन को पुर्नजीवित कर सकती है व युवा पीढी को राजनीति में सक्रिय कर सकती है जिससे साम्प्रदायिक ताकतों से उन्हीं की भाषा में सम्वाद किया जा सके। उनके सहयोग से भ्रष्टाचार के खिलाफ की गयी निरंतर कार्यवाहियाँ लोगों में एक नया विशवास पैदा कर सकती हैं।
जरूरत है सत्ता का मोह छोड़ कर पूरे देश में संगठन के आधार पर काम करने की।
(मेरे पिता ने स्वतंत्रता संग्राम के दौर में चन्द्रशेखर आजाद के साथ काम किया था तथा वे उस दौर का एक गीत अक्सर गुनगुनाते थे-
ओ विप्लव के थके साथियो
विजय मिली विश्राम न समझो
यह शीर्षक उसी स्मृति से लिया गया है)
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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रविवार, मई 03, 2009
हिन्दी संस्कृत और सांप्रदायिक राजनीति
हिन्दी संस्कृत और साम्प्रदायिक राजनीति
वीरेन्द्र जैन
संस्कृत हमारे देश की प्राचीन भाषाओं में से एक है तथा देश के अधिकतर भूभाग में बोली जाने वाली भाषाओं में से अधिकांश का विकास संस्कृत से हुआ है। प्राचीन काल के धर्मग्रन्थ ही नहीं आयुर्वेंद आदि जनहितैषी ज्ञान के अनेक ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हुये पाये जाते हैं। हमारे देश के प्राचीन काल के धर्म आध्यात्म इतिहास पुरातत्व चिकित्साविज्ञान, समाजशास्त्र अर्थशास्त्र साहित्य आदि के सटीक अध्ययन के लिए संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि का ज्ञान आवशयक है। इसलिए इन क्षेत्रों में कार्य करने वालों के लिए संस्कृत अध्ययन के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी किसी भी अध्ययनशील एवं शोध विद्वान को अनेक भाषाओं का ज्ञान होने पर उसके कार्य की गुणवत्ता कई गुनी बढ जाती है, इसलिए भाषाओं के अध्ययन के लिए बनने वाले अधिकतम संस्थानों का स्वागत किया जाना चाहिये।
संस्कृत के एक शलोक में कहा गया है-
विद्यायां विवादाय, धनं मदाय, शक्तिं परेशां परपीडनाय
खलस्य साधूनाम विपरीत बुद्धि, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय
(अर्थात दुष्ट प्रकृति के लोगों की विद्या विवाद के लिए धन घमंड के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है जबकि साधु प्रकृति के लोगों की विद्या ज्ञान के लिए धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।)
गत दिनों संस्कृत भाषा के अध्ययन के नाम पर जो कुछ भी, जिस अंदाज से, और जिन लोगों द्वारा किया जा रहा है उससे ऐसा नहीं लगता कि उनको इस प्राचीन भाषा के अघ्ययन के महत्व से कुछ लेना देना है। खेदजनक है कि कुछ राजनीतिक ताकतों द्वारा संस्कृत विशवविद्यालय की स्थापना ही नहीं, माध्यमिक कक्षाओं में संस्कृत शिक्षकों की भरती के लिए उसे अनिवार्य विषय बनाना, अतिरिक्त घूमधाम से संस्कृत दिवस मनाना, संस्कृत के लेखकों को भारी भरकम पुरस्कार देना आदि अनेक दिखावे केवल विभाजनकारी साम्प्रायिक राजनीति को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से किये जा रहे हैं। जैसे एक तरह की साम्प्रदायिक राजनीति ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाने की शातिर कोशिश की है उसी तरह प्रतिक्रियावादी राजनीति संस्कृत को उसके सामने रखने का प्रयास कर रही है। ये दोनों ही प्रयास न केवल कुत्सित हैं अपितु हास्यास्पद भी हैं। उर्दू हिंदुस्तान में पैदा हुयी हिंदुस्तान की भाषा है जिसे सारे देश से आये हुये विभिन्न भाषा भाषी सैनिकों के बीच एक साझा भाषा के रूप में विकसित कर के उस समय के बादशाहों ने अपने साम्राज्य प्रसार अभियान में व्यवस्था बनायी थी। बाद में दो तीन सौ साल यह दरबार और अदालती व सरकारी काम काज की भाषा बनी रही। आज भी तथाकथित हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पचास प्रतिशत से अधिक शब्द उर्दू के होते हैं। हिन्दी और उर्दू दोनों का ही विकास संस्कृत के शब्दों से हुआ है। दोनों ही भाषाओं में कभी कोई टकराहट नहीं रही, हो भी नहीं सकती। पर अब जब साम्प्रदायिक राजनीति जीवन के हर पक्ष को विभाजित करना चाह रही है उसने उर्दू और संस्कृत को आमने सामने करने के तीखे प्रयास प्रारंभ कर दिये हैं, जिससे अंतत: देश की बहुसंख्य जनता की बोलचाल की भाषा हिन्दी के पक्षधर भ्रमित हो रहे हैं।
भाषा संवाद का माध्यम होती है। जब एक व्यक्ति अपने मन में पैदा हुये विचार को दूसरे के सामने प्रकट करना चाहता है तो उसे भाषा का सहारा लेना होता है। एक सही और सफल संवाद उस भाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है जो दो या दो से अधिक लोगों को समान रूप से आती हो। यदि साझा भाषा का विकास होगा तो लोगों के बीच में संवाद का भी विस्तार होगा पर यदि हम लोग अलग अलग भाषाएं ही पढेंगे लिखेंगे और बोलेंगे तो एक दूसरे से कट जायेंगे और संवादहीनता की स्थितियाँ बढेंगीं। जो लोग समाज के लोगों में बंटवारा करने में ही अपनी राजनीति की सफलता देखते हैं वे भाषा के क्षेत्र में भी ऐसे प्रयास करते हैं ताकि लोगों के बीच बंटवारा हो। संस्कृत हिन्दी उर्दू मराठी गुजराती तेलगु तामिल कन्नड़ पंजाबी बंगाली आदि सभी भाषाओं का आवशयकतानुसार समुचित पठन पाठन होना चाहिये ताकि अधिक से अधिक अनुवादक पैदा हों और अधिक से अधिक संवाद हो सके। आज बोलचाल की हिन्दी इस बात में समर्थ है कि वह अधिक से अधिक लोगों के बीच संवाद बना सके क्योंकि उसमें संस्कृत उर्दू अंग्रेजी समेत ढेर सारी दूसरी भारतीय भाषाओं के हजारों शब्द प्रयुक्त होते हैं, इसीलिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना करने वाले गांधीजी उसे हिंदुस्तानी कहते थे व हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचन्द इसी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे जिसमें हिन्दी उर्दू व संस्कृत के शब्द उपयोग के अनुपात में प्रयुक्त होते हैं। यह समाज को जोड़ने की भाषा है।
संस्कृत हमारी पुरानी भाषा होते हुये भी आज देश में संवाद की भाषा नहीं है। जन भाषा तो वह कभी भी नहीं रही अपितु सदैव ही 'देव भाषा' रही। कालिदास के ग्रन्थों में भी जब दास दासी अपनी आपस की बात करते हैं तो पाली प्राकृत जैसी भाषा का प्रयोग करते हैं पर जब प्रभुवग(इलीटक्लास) के पात्र संवाद करते हेैं तो वे संस्कृत में करते हैं। तुलसी ने जब पहली बार जनभाषा में रामचरित मानस की रचना की तो उन्हें बनारस के ब्राम्हणों का हिंसक प्रतिरोध झेलना पड़ा था जिनका कहना था कि कहीं प्रभु चरित्र 'भाखा' (आम लोगों की बोलचाल की भाषा) में लिखा जा सकता है जिसे शूद्र बोलते हैं! बाद में उन्हें रामचरित मानस को जनजन तक पहुँचाने के लिए अखाड़ों की मदद लेना पड़ी थी, जिससे रामचरित मानस पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र का सामाजिक संविधान बन सका। आज देश के प्रधानमंत्री जब लालकिले से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हेैं तो वे हिन्दुस्तानी में ही बोलना जरूरी समझते हेैं।
हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों का प्रयास रहता है कि देश को मुगलकाल से पीछे ले जायें और उस काल को स्वर्णिम काल सिद्ध करने का प्रयास करें ताकि ऐसा लगे कि देश में मुगलों के आने से पहले सब कुछ अच्छा था,जब कि सच यह है कि राजतंत्र में शासक वर्ग और शासित वर्ग की दशाओं में बहुत अधिक अंतर नहीं रहा। समय के साथ साथ मनुष्यता ने क्रमश: ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विकास किया है व समाज और जीवन को निरंतर अधिक सुविधाएं व समान अधिकार देने का कार्य किया है। जो सबसे अधिक दलित और वंचित था उसकी दशा में उल्लेखनीय सुधारात्मक परिवर्तन का लक्ष्य बनाया गया है तथा शोषितवर्गों के अधिकारों में कटौतियां करने के प्रयास हुये हैं।
संस्कृत जैसी पुरानी सम्मानित भाषा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले आज मोटर चालित वाहनों को रथ बताने लगते हैं व स्कूलों को मन्दिर (सरस्वती शिशु मन्दिर) कहने लगते हैं। उनके झन्डे ध्वज कहलाने लगते हैं व यूनीफार्म गणवेश होने लगते हैं। संस्कृत विद्यालयों के नाम पर वे हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में भेद न समझने वाले भावुक लोगों की भरती करके उन्हें अपनी राजनीति के सिपाही बना लेना चाहते हैं। कालेजों में संस्कृत में एडमीशन के लिए प्राघ्यापक छात्रों से अनुरोध करते पाये जाते हेैं ताकि उनका स्थान बना रहे। वे अयोग्य से अयोग्य छात्रों को भी प्रथम श्रेणी दिलाने का आशवासन देते हैं तथा उसे पूरा भी करते हैं। मेरे गृहनगर के महाविद्यालय के प्राचार्य अपने संस्कृत प्राध्यापक के बारे में व्यक्तिगत बातचीत में बताते थे कि वह संस्कृत में पचास पंक्तियां भी नहीं बोल सकता और शुद्ध तो चार पंक्तियां भी नहीं बोल सकता।आज पूरे देश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके दैनिंदिन कार्यों की मुख्य भाषा संस्कृत हो
संस्कृत के एक प्राचीन भाषा के रूप में यथायोग्य पठनपाठन हेतु सुविधाएं सुनिशचित करने की जगह उसका हिन्दी(हिन्दुस्तानी) के समानान्तर मार्केटिंग करने से वह बोलचाल की भाषा नहीं बन जायेगी पर हिन्दी के आन्दोलन को अवशय ही नुकसान पहुँचेगा जो राष्ट्रीय स्तर के संवाद और उससे जनित होने वाली राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएं अवशय ही खड़ी करेगा। आज के ग्लोबलाइजेशन के जमाने में भाषाएं आपस में गले मिल कर अपनी कठोर मुद्राओं को विसर्जित करके तरल हो रही हैं तब एक अतीत की भाषा को जनभाषा के रूप में थोपने के प्रयास बिडम्बनापूर्ण हैं।सन 2008 में भारत सरकार ने चीन के सबसे बड़े हिन्दी विशोषज्ञ जियालिन को पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया था तथा हमारे विदेशमंत्री प्रणवमुखर्जी ने स्वयं चीन जाकर 96 वर्षीय विद्वान को सम्मानित किया था। उनका कहना है कि दुनिया में एकता और शांति में अनुवाद और भाषाओं के मेल जोल का योगदान सबसे महत्वपूण्र् है। इसी के उलट कहा जा सकता है कि भाषाओं के बीच में टकराव पैदा करने वाले लोग सामाजिक शांति के सबसे बड़े शत्रु हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629
वीरेन्द्र जैन
संस्कृत हमारे देश की प्राचीन भाषाओं में से एक है तथा देश के अधिकतर भूभाग में बोली जाने वाली भाषाओं में से अधिकांश का विकास संस्कृत से हुआ है। प्राचीन काल के धर्मग्रन्थ ही नहीं आयुर्वेंद आदि जनहितैषी ज्ञान के अनेक ग्रन्थ संस्कृत में लिखे हुये पाये जाते हैं। हमारे देश के प्राचीन काल के धर्म आध्यात्म इतिहास पुरातत्व चिकित्साविज्ञान, समाजशास्त्र अर्थशास्त्र साहित्य आदि के सटीक अध्ययन के लिए संस्कृत, पाली, प्राकृत आदि का ज्ञान आवशयक है। इसलिए इन क्षेत्रों में कार्य करने वालों के लिए संस्कृत अध्ययन के महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता। वैसे भी किसी भी अध्ययनशील एवं शोध विद्वान को अनेक भाषाओं का ज्ञान होने पर उसके कार्य की गुणवत्ता कई गुनी बढ जाती है, इसलिए भाषाओं के अध्ययन के लिए बनने वाले अधिकतम संस्थानों का स्वागत किया जाना चाहिये।
संस्कृत के एक शलोक में कहा गया है-
विद्यायां विवादाय, धनं मदाय, शक्तिं परेशां परपीडनाय
खलस्य साधूनाम विपरीत बुद्धि, ज्ञानाय दानाय च रक्षणाय
(अर्थात दुष्ट प्रकृति के लोगों की विद्या विवाद के लिए धन घमंड के लिए और शक्ति दूसरों को पीड़ा पहुँचाने के लिए होती है जबकि साधु प्रकृति के लोगों की विद्या ज्ञान के लिए धन दान के लिए और शक्ति दूसरों की रक्षा के लिए होती है।)
गत दिनों संस्कृत भाषा के अध्ययन के नाम पर जो कुछ भी, जिस अंदाज से, और जिन लोगों द्वारा किया जा रहा है उससे ऐसा नहीं लगता कि उनको इस प्राचीन भाषा के अघ्ययन के महत्व से कुछ लेना देना है। खेदजनक है कि कुछ राजनीतिक ताकतों द्वारा संस्कृत विशवविद्यालय की स्थापना ही नहीं, माध्यमिक कक्षाओं में संस्कृत शिक्षकों की भरती के लिए उसे अनिवार्य विषय बनाना, अतिरिक्त घूमधाम से संस्कृत दिवस मनाना, संस्कृत के लेखकों को भारी भरकम पुरस्कार देना आदि अनेक दिखावे केवल विभाजनकारी साम्प्रायिक राजनीति को प्रोत्साहित करने की दृष्टि से किये जा रहे हैं। जैसे एक तरह की साम्प्रदायिक राजनीति ने उर्दू को मुसलमानों की भाषा बनाने की शातिर कोशिश की है उसी तरह प्रतिक्रियावादी राजनीति संस्कृत को उसके सामने रखने का प्रयास कर रही है। ये दोनों ही प्रयास न केवल कुत्सित हैं अपितु हास्यास्पद भी हैं। उर्दू हिंदुस्तान में पैदा हुयी हिंदुस्तान की भाषा है जिसे सारे देश से आये हुये विभिन्न भाषा भाषी सैनिकों के बीच एक साझा भाषा के रूप में विकसित कर के उस समय के बादशाहों ने अपने साम्राज्य प्रसार अभियान में व्यवस्था बनायी थी। बाद में दो तीन सौ साल यह दरबार और अदालती व सरकारी काम काज की भाषा बनी रही। आज भी तथाकथित हिन्दीभाषी क्षेत्रों में पचास प्रतिशत से अधिक शब्द उर्दू के होते हैं। हिन्दी और उर्दू दोनों का ही विकास संस्कृत के शब्दों से हुआ है। दोनों ही भाषाओं में कभी कोई टकराहट नहीं रही, हो भी नहीं सकती। पर अब जब साम्प्रदायिक राजनीति जीवन के हर पक्ष को विभाजित करना चाह रही है उसने उर्दू और संस्कृत को आमने सामने करने के तीखे प्रयास प्रारंभ कर दिये हैं, जिससे अंतत: देश की बहुसंख्य जनता की बोलचाल की भाषा हिन्दी के पक्षधर भ्रमित हो रहे हैं।
भाषा संवाद का माध्यम होती है। जब एक व्यक्ति अपने मन में पैदा हुये विचार को दूसरे के सामने प्रकट करना चाहता है तो उसे भाषा का सहारा लेना होता है। एक सही और सफल संवाद उस भाषा के माध्यम से ही संभव हो सकता है जो दो या दो से अधिक लोगों को समान रूप से आती हो। यदि साझा भाषा का विकास होगा तो लोगों के बीच में संवाद का भी विस्तार होगा पर यदि हम लोग अलग अलग भाषाएं ही पढेंगे लिखेंगे और बोलेंगे तो एक दूसरे से कट जायेंगे और संवादहीनता की स्थितियाँ बढेंगीं। जो लोग समाज के लोगों में बंटवारा करने में ही अपनी राजनीति की सफलता देखते हैं वे भाषा के क्षेत्र में भी ऐसे प्रयास करते हैं ताकि लोगों के बीच बंटवारा हो। संस्कृत हिन्दी उर्दू मराठी गुजराती तेलगु तामिल कन्नड़ पंजाबी बंगाली आदि सभी भाषाओं का आवशयकतानुसार समुचित पठन पाठन होना चाहिये ताकि अधिक से अधिक अनुवादक पैदा हों और अधिक से अधिक संवाद हो सके। आज बोलचाल की हिन्दी इस बात में समर्थ है कि वह अधिक से अधिक लोगों के बीच संवाद बना सके क्योंकि उसमें संस्कृत उर्दू अंग्रेजी समेत ढेर सारी दूसरी भारतीय भाषाओं के हजारों शब्द प्रयुक्त होते हैं, इसीलिए राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना करने वाले गांधीजी उसे हिंदुस्तानी कहते थे व हिन्दी के सबसे बड़े कथाकार प्रेमचन्द इसी हिन्दुस्तानी के पक्षधर थे जिसमें हिन्दी उर्दू व संस्कृत के शब्द उपयोग के अनुपात में प्रयुक्त होते हैं। यह समाज को जोड़ने की भाषा है।
संस्कृत हमारी पुरानी भाषा होते हुये भी आज देश में संवाद की भाषा नहीं है। जन भाषा तो वह कभी भी नहीं रही अपितु सदैव ही 'देव भाषा' रही। कालिदास के ग्रन्थों में भी जब दास दासी अपनी आपस की बात करते हैं तो पाली प्राकृत जैसी भाषा का प्रयोग करते हैं पर जब प्रभुवग(इलीटक्लास) के पात्र संवाद करते हेैं तो वे संस्कृत में करते हैं। तुलसी ने जब पहली बार जनभाषा में रामचरित मानस की रचना की तो उन्हें बनारस के ब्राम्हणों का हिंसक प्रतिरोध झेलना पड़ा था जिनका कहना था कि कहीं प्रभु चरित्र 'भाखा' (आम लोगों की बोलचाल की भाषा) में लिखा जा सकता है जिसे शूद्र बोलते हैं! बाद में उन्हें रामचरित मानस को जनजन तक पहुँचाने के लिए अखाड़ों की मदद लेना पड़ी थी, जिससे रामचरित मानस पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र का सामाजिक संविधान बन सका। आज देश के प्रधानमंत्री जब लालकिले से राष्ट्र के नाम संदेश प्रसारित करते हेैं तो वे हिन्दुस्तानी में ही बोलना जरूरी समझते हेैं।
हिन्दू साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों का प्रयास रहता है कि देश को मुगलकाल से पीछे ले जायें और उस काल को स्वर्णिम काल सिद्ध करने का प्रयास करें ताकि ऐसा लगे कि देश में मुगलों के आने से पहले सब कुछ अच्छा था,जब कि सच यह है कि राजतंत्र में शासक वर्ग और शासित वर्ग की दशाओं में बहुत अधिक अंतर नहीं रहा। समय के साथ साथ मनुष्यता ने क्रमश: ज्ञानविज्ञान के क्षेत्र में विकास किया है व समाज और जीवन को निरंतर अधिक सुविधाएं व समान अधिकार देने का कार्य किया है। जो सबसे अधिक दलित और वंचित था उसकी दशा में उल्लेखनीय सुधारात्मक परिवर्तन का लक्ष्य बनाया गया है तथा शोषितवर्गों के अधिकारों में कटौतियां करने के प्रयास हुये हैं।
संस्कृत जैसी पुरानी सम्मानित भाषा के नाम पर साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले आज मोटर चालित वाहनों को रथ बताने लगते हैं व स्कूलों को मन्दिर (सरस्वती शिशु मन्दिर) कहने लगते हैं। उनके झन्डे ध्वज कहलाने लगते हैं व यूनीफार्म गणवेश होने लगते हैं। संस्कृत विद्यालयों के नाम पर वे हिंदुत्व और साम्प्रदायिकता में भेद न समझने वाले भावुक लोगों की भरती करके उन्हें अपनी राजनीति के सिपाही बना लेना चाहते हैं। कालेजों में संस्कृत में एडमीशन के लिए प्राघ्यापक छात्रों से अनुरोध करते पाये जाते हेैं ताकि उनका स्थान बना रहे। वे अयोग्य से अयोग्य छात्रों को भी प्रथम श्रेणी दिलाने का आशवासन देते हैं तथा उसे पूरा भी करते हैं। मेरे गृहनगर के महाविद्यालय के प्राचार्य अपने संस्कृत प्राध्यापक के बारे में व्यक्तिगत बातचीत में बताते थे कि वह संस्कृत में पचास पंक्तियां भी नहीं बोल सकता और शुद्ध तो चार पंक्तियां भी नहीं बोल सकता।आज पूरे देश में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जिसके दैनिंदिन कार्यों की मुख्य भाषा संस्कृत हो
संस्कृत के एक प्राचीन भाषा के रूप में यथायोग्य पठनपाठन हेतु सुविधाएं सुनिशचित करने की जगह उसका हिन्दी(हिन्दुस्तानी) के समानान्तर मार्केटिंग करने से वह बोलचाल की भाषा नहीं बन जायेगी पर हिन्दी के आन्दोलन को अवशय ही नुकसान पहुँचेगा जो राष्ट्रीय स्तर के संवाद और उससे जनित होने वाली राष्ट्रीय एकता के मार्ग में बाधाएं अवशय ही खड़ी करेगा। आज के ग्लोबलाइजेशन के जमाने में भाषाएं आपस में गले मिल कर अपनी कठोर मुद्राओं को विसर्जित करके तरल हो रही हैं तब एक अतीत की भाषा को जनभाषा के रूप में थोपने के प्रयास बिडम्बनापूर्ण हैं।सन 2008 में भारत सरकार ने चीन के सबसे बड़े हिन्दी विशोषज्ञ जियालिन को पद्मभूषण सम्मान से सम्मानित किया था तथा हमारे विदेशमंत्री प्रणवमुखर्जी ने स्वयं चीन जाकर 96 वर्षीय विद्वान को सम्मानित किया था। उनका कहना है कि दुनिया में एकता और शांति में अनुवाद और भाषाओं के मेल जोल का योगदान सबसे महत्वपूण्र् है। इसी के उलट कहा जा सकता है कि भाषाओं के बीच में टकराव पैदा करने वाले लोग सामाजिक शांति के सबसे बड़े शत्रु हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
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