रविवार, सितंबर 26, 2010

उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा


उस फोड़े की पीड़ा जो नहीं फूटा

वीरेन्द्र जैन
फोड़ा शरीर में कहीं पर भी हो वह दर्द करता है। डाक्टर पहले कोशिश करता है कि फोड़ा दवाइयों से सूख जाये, इसलिए वह नाम बदल बदल कर दवाइयां लिखता रहता है। जब दवाइयों से फोड़ा ठीक नहीं होता तब उसकी शल्य चिकित्सा करनी होती है। शल्य चिकित्सा में मवाद निकल जाता है, कुछ रक्त भी बहाना पड़ता है, पर ठीक होने की सम्भावनाएं बढ जाती हैं। फोड़ा जब तक नहीं फूटता तब तक तकलीफ देता है। एक बार जी कड़ा कर के शल्य चिकित्सा के लिए तैयार होते ही उसकी जुगुप्सापूर्ण कार्यवाही के सम्पन्न हो जाने के बाद बहुत आराम मिलता है।
लगभग ऐसा ही अनुभव 24 सितम्बर 10 को पूरा देश अनुभव कर रहा था। अयोध्या के राम जन्मभूमि मन्दिर और बाबरी मस्जिद की जमीन के मालिकाना हक का विवाद गत साठ वर्षों से अदालत में लम्बित था किंतु उसके फैसले की तिथि पास आते आते संघ परिवारियों को अपने पक्ष के कमजोर होने का अहसास होने लगा और वे फैसला आने से पहले ही से कहने लगे थे कि यह आस्था का सवाल है और आस्था के सवालों का हल अदालत से नहीं हो सकता। वे सरकार से माँग करने लगे थे कि वह उनका पक्ष ले और उनके पक्ष में नया कानून बनाये। वे यह सब यह जानते हुए भी कह रहे थे कि संसद में कानून कैसे बनते हैं और उसके लिए कितने सदस्यों का समर्थन चाहिए होता है तथा इस मुद्दे पर उनके साथ कितने सांसद हैं। परोक्ष में यह शांति के लिए सौदेबाजी थी। संघ परिवार के राजनीतिक दल भाजपा को पिछले लोकसभा चुनाव में कुल 16% मत मिले थे। ये मत भी उन्हें अकेले हिन्दुत्व के नाम पर नहीं अपितु शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, स्मृति ईरानी, दारा सिंह, धर्मेन्द्र, हेमा मालिनी, नवजोत सिंह सिद्धु, दीपिका चिखलिया, अरविंद त्रिवेदी, वसुन्धरा राजे, यशोधरा राजे, आदि आदि आदि तरह तरह से लोकप्रिय माडलों द्वारा जुटायी गयी भीड़ के चुनाव प्रचार के आधार पर अनेक दलों के साथ गठबन्धन बना के बटोरे गये थे। साठ साल तक मुकदमा लड़ने के बाद, मुकदमे का फैसला आने के करीब यह माँग कितनी हास्यास्पद है कि अदालत से फैसला नहीं हो सकता और सरकार को इकतरफा उनके पक्ष में कानून बना कर विवादित जमीन उन्हें सौंप देना चाहिए। यदि आस्था का सवाल भाजपाई हिन्दुओं के लिए है, तो यह मुसलमानों, बौद्धों, जैनों आदि के लिए क्यों नहीं है? सुना तो यह भी गया है कि कुछ शैव, और शाक्त भी सामने आकर उस जमीन पर वैष्णवों के मालिकाना हक को चुनौती दे सकते हैं। अम्बेडकरवादी भी कह रहे हैं कि 6 दिसम्बर का दिन उन्होंने इसलिए चुना था क्योंकि उस दिन बाबा साहब का निर्वाण दिवस है और सवर्ण जातियों की पार्टियां सारे देश का ध्यान बाबा साहब पर केन्द्रित नहीं होने देना चाहती थीं।
इस विविधिता वाले देश में अलग अलग काल खण्डों में भिन्न भिन्न संस्कृतियां रही हैं और उन पर भिन्न भिन्न पूजा पद्धतियों वाले लोग अपनी अपनी पूजा उपासना करते रहे हैं। कभी विचार परिवर्तन से तो कभी राजतंत्र में राज्य की ताकत से भी लोगों की पूजा पद्धतियां और पूजा स्थलों के स्वरूप भी बदलते रहे हैं। इतिहास और पुरातत्व गवाह है कि कितने हजार बौद्ध मन्दिरों और मठों को ध्वस्त कर के हिन्दू मन्दिरों में बदल दिया गया है। दक्षिण के एक सुप्रसिद्ध शिव मन्दिर की पिण्डी भी एक बौद्ध शिलालेख को काट कर स्थापित की गयी है। इसलिए यदि किसी काल में किसी स्थल पर किसी धर्म विशेष का पूजा स्थल रहा भी हो और बाद में वह बदला भी गया हो तो भी उसके मालिकाना हक का फैसला एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में न्यायालय से ही सम्भव है जिसके निर्णय को सभी को मानना चाहिए। अब राजतंत्र के बर्बर युग में फिर से तो लौटा नहीं जा सकता जहाँ त्रिशूल, लाठी, भालों के आधार पर फैसला हो। यदि कोई ऐसा करने की कोशिश करेगा तो आश्चर्य नहीं कि बन्दूकें, बम और आणविक हथियार पूरे देश का वैसा ही नुकसान करें जैसा पाकिस्तान में हो रहा है।
स्मरणीय है कि 6 दिसम्बर 1992 को बाबरी मस्जिद ध्वंस के बाद अडवाणीजी ने संसद में कहा था कि बाबरी मस्जिद का टूटना उनके लिए सबसे दुख का दिन था तथा वे उन लोगों को रोक रहे थे जो मस्जिद तोड़ रहे थे किंतु मराठी भाषी होने के कारण वे हमारी भाषा समझ नहीं सके। बाद में उन्होंने यह भी कहा था कि लोगों का गुस्सा इसलिए फूट पड़ा क्योंकि अदालत ने फैसले को इतने अधिक समय तक लटका कर रखा। वही आडवाणीजी फैसले को सुनाने की तारीख तय होने के बाद कहने लगे कि यह आस्था का सवाल है और इसका फैसला अदालत से नहीं हो सकता। जब एक से अधिक आस्थाएं टकरा रही हों और एक धर्म निरपेक्ष देश में कानून बनाने वाली शक्तियाँ किसी एक आस्था के पक्ष में न हों तब फैसले का अदालत के अलावा दूसरा रास्ता केवल हिंसा का ही रास्ता होता है। जो लोग भी अदालत के फैसले को अमान्य कर रहे हैं वे परोक्ष में हिंसा का समर्थन कर रहे हैं। सवाल यह है कि इस हिंसा का परिणाम क्या होगा और क्या देश इस हिंसा के लिए तैयार है? आतंकवादियों ने देश में जगह जगह बम विस्फोट करके जो निरपराध लोगों को मारा था और मडगाँव बम विस्फोट की योजना बनायी थी जो अपने ही धर्म के लोगों को मारकर उन्हें हिंसा के लिए उकसाने की थी, तो क्या देश के लोग उत्तेजित हुए थे? यह साफ संकेत थे कि लोग हिंसा और हिंसा फैलाने वाले लोगों को पसन्द नहीं करते, तथा लाख भड़काने के बाद भी वे शांति और कानून के रास्तों को पसन्द करते हैं। आज देश यह भी जानता है कि सरकार के पास किसी भी संगठन से अधिक हिंसक ताकत होती है,और हिंसा को लम्बा नहीं खींचा जा सकता। देश में लाखों की संख्या में वैध और उससे भी कई गुना अवैध धर्मस्थल बने हैं जिन्हें सुप्रीम कोर्ट के आदेश और फटकार के बाद भी अभी तक हटाया नहीं जा सका है। ऐसी अवस्था में यह कहना कि अयोध्या में सरकार मन्दिर नहीं बनने देना चाहती हास्यास्पद है। राजनीति के लिए अफवाह फैलाने वालों ने राम जन्मभूमि मन्दिर विवाद को राम जन्मभूमि विवाद कह कर प्रचारित किया है। राम जन्मभूमि मन्दिर एक मन्दिर की पहचान के लिए विशिष्ट नाम है इससे यह कहीं तय नहीं होता कि राम का जन्म इसी स्थल पर हुआ था। अयोध्या में राम का विशाल मन्दिर बनने के लिए कौन मना कर सकता है! किंतु जब मामला वोटों के लिए बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों में ध्रुवीकरण का बना दिया जाये और केवल विवादित मन्दिरों पर संघर्ष उकसाने को धर्म बताया जाने लगे तो बात दूसरी हो जाती है। यह सवाल क्यों है कि यह भव्य मन्दिर बिल्कुल उसी स्थान पर बनना चाहिए जहाँ बाबरी मस्जिद बनी हुयी थी। स्मरणीय है कि मुम्बई के एक आर्कीटेक्ट ने कहा था कि वह ऐसी डिजायन बना सकता है जिसमें मस्जिद भी खड़ी रहे और उसके ऊपर या भूमिगत मन्दिर भी बन जाये तो भी विवाद बढाने में ही अपना लक्ष्य देखने वालों ने कहा था कि हमें तो बिल्कुल उसी स्थल पर मन्दिर चाहिए और वह भी मस्जिद को हटा कर।
पता नहीं ये राजनेता यह क्यों नहीं समझ रहे हैं कि यह सोलहवीं शताब्दी तो क्या 1992 भी नहीं है और आज मीडिया की ताकत ने पारदर्शिता को इतना बढाया है कि अब षड़यंत्रों को कूटनीति नहीं अपितु अपराध माना जाने लगा है।

वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629

1 टिप्पणी:

  1. "मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना" इकबाल बडे भोलेपन से इन जाहिलों को दोस्ती का पैगाम देते रहे, लेकिन कुत्ते की दुम सीधी होने से रही। उत्तर-आपाकालीन पिढी ने पिछली सदी में दो बडे नरसंहार सिंख विरोधी हिंसा व आयोध्या विवाद के रूप में देखे। कारण अलहदा रहे हो लेकिन दोनो ही मामलों में मजहब ने इंसान को इंसान की जा का दुश्मन बनाया। इन विवादों की जड़ धर्म नामक सस्था रही, जिसके कैंद्र में ईश्वर की अवैज्ञानिक अवधारणा है। लोगो में व्याप्त इस मनोविकार का पूंजीवाद बाजारवाद ने बढिया प्रबंधन करते हुवे बढिया माल बनाया। एसी जड़ संस्था जो इंसान को इंसान के खू का प्यासा बना दे भंग करने योग्य है। ये बुतशिकन इतिहास के कूडेदान में फेक दिये जाने योग्य है।

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