पाँचजन्य और
आर्गनाइजर, मुख पत्र या मुखौटा पत्र
वीरेन्द्र जैन
गत
दिनों राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के अखिल भारतीय सम्पर्क प्रमुख राम माधव ने भोपाल
में कहा कि पांचजन्य और आर्गनाइजर का संचालन स्वयंसेवक करते हैं लेकिन उनमें
प्रकाशित लेखों में व्यक्त विचार संघ के विचारों से मेल खाएं यह जरूरी नहीं है। वे
गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के बारे में आरएसएस के दो मुखपत्रों में छपे
अलग अलग विचारों के बारे में सफाई दे रहे थे।
विकीपीडिया
पर बताया गया है कि आर्गनाइजर राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ का “इन-हाउस पब्लिकेशन/न्यूज पेपर” है, जिसे ही हिन्दी
में मुख पत्र कहा जाता है। यही सूचना
पांचजन्य के बारे में है। दोनों ही साप्ताहिक पत्र एक ही स्थान से मुद्रित व
प्रकाशित होते हैं और दोनों का कार्यालय संस्कृति भवन देशबन्धु गुप्ता मार्ग
झंडेवालान दिल्ली में स्थित है। जो संघ के दिल्ली कार्यालय के समीप है। दोनों
साप्ताहिकों के समाचारों के सूचना माध्यम एक ही होते हैं, व दोनों के ही लेखों के
लेखक भले ही अलग अलग होते हों किंतु विषय और विचार एक ही होते रहे हैं। दोनों
साप्ताहिकों का पाठक वर्ग भी संघ समर्थक मध्यम वर्ग है। महात्मा गान्धी की हत्या
के बाद और इमरजैंसी में जब संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया तब इन समाचार पत्रों का
प्रकाशन भी प्रभावित हुआ और ये डूबा साध कर बैठ गये। दोनों के सम्पादक संघ से जुड़े
लोग रहे हैं।
देश
के स्वतंत्र होने के बाद प्रकाशित इन दोनों साप्ताहिकों के जीवन में यह पहली बार
हुआ है जब इनके सम्पादकीय लेखों के विचारों में वैसा ही भेद नजर आया जैसा कि संघ
समर्थित अडवाणी और मोदी के विचारों में दृष्टिगोचर हुआ। अपनी कमजोरी पर विचार
करने, उसे समझने, भूल स्वीकारने व उसके लिए क्षमाप्रार्थी होने, की परम्परा संघ
में नहीं रही है। वे दोषी व्यक्ति से अपने सम्बन्ध को ही नकार देते रहे हैं, जैसा
कि महात्मा गान्धी के हत्यारे गोडसे के मामले में किया था। इन्हीं से प्रशिक्षित
होकर निकले भाजपा के नेता भी इसी तरकीब का अनुसरण करते हैं। अडवाणीजी ने बाबरी
मस्ज़िद ध्वंस के बाद कहा था कि उसे तोड़ने वाले तो मराठी लोग थे जिन्हें मैं रोकता
रहा पर मेरी भाषा न समझने के कारण मेरी अपील का कोई असर नहीं हुआ। कर्नाटक के खनन
माफिया रेड्डी बन्धुओं से उपकृत और उन्हें आशीर्वाद देने वाली सुषमा स्वराज उनके
फँस जाने के बाद उनसे कोई भी सम्बन्ध होने से इंकार कर देती हैं। मध्य प्रदेश के
विधानसभा अध्यक्ष रोहाणी से लेकर ऐसे सैकड़ों अन्य प्रकरण गिनाये जा सकते हैं।
साध्वी की वेषभूषा धारण करने वाली प्रज्ञा सिंह और उसकी टीम से अपने सम्बन्ध भी
संघ परिवार ने साफ नकार दिये थे और सीडी सामने आने के बाद संजय जोशी से तुरंत दूरी
बना ली थी। इसलिए पाँचजन्य और आर्गनाइजर को संघ का मुख पत्र होने से इंकार करने पर
अचम्भित लोगों को सम्पादकों से संघ के
विचारों की असहमति वाले बयान से कोई आश्चर्य नहीं हुआ होगा।
विडम्बनापूर्ण स्थिति आ जाने पर संघ के बयानवीर कहने लगते हैं कि हम भाजपा के कार्यों में कोई दखल नहीं देते, केवल माँगने पर उन्हें सलाह देते हैं। इसके विपरीत सच यह है कि भाजपा में संघ की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता रहा और उसकी छोटी से छोटी घटना पर भी उसकी निगाह रहती रही है, जिसके लिए प्रत्येक स्तर के संगठन मंत्री का पद संघ प्रचारक के लिए आरक्षित रखा गया है। भारतीय लोकतंत्र में इस दूसरे सबसे बड़े दल की कार्यप्रणाली में संघ ही सबसे बड़ी बाधा रहा है। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मौल्लिचन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप से दुखी होकर ही स्तीफा दिया था। देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार संघ के साथ दुहरी सदस्यता के कारण ही बिखरी थी जिससे विकसित हो रही लोकतांत्रिक प्रणाली को बड़ा धक्का लगा था। एनडीए के गठबन्धन में और बाद में उसके निरंतर कमजोर होते जाने में सबसे बड़ा कारण संघ का हस्तक्षेप ही रहा है। संघ के कारण ही तेलगुदेशम अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में सम्मलित नहीं हुयी थी अपितु उसे अपनी शर्तों पर बाहर से समर्थन देना मंजूर किया था जिससे सरकार लगातार अस्थिरचित्त रही। लाल कृष्ण अडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता को अपना अध्यक्ष पद संघ के दबाव में ही छोड़ना पड़ा था जबकि कार्यकारिणी के दस प्रतिशत सदस्य भी ऐसा नहीं चाहते थे। यही कारण रहा कि आडवाणी ने 2005 सितंबर में चेन्नई में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये कहते हुए संघ को आईना दिखाने की कोशिश की थी कि, “बीजेपी के बारे में ये धारणा बन गई है कि इसके कोई राजनीतिक या सांगठनिक निर्णय आरएसएस की सहमति के बगैर नहीं होते, ऐसी धारणा से बीजेपी के साथ संघ का भी नुकसान हो रहा है।” भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने की कल्पना तक किसी भाजपा सदस्य ने नहीं की थी किंतु उन्हें न केवल संघ ने पूरी पार्टी पर थोप दिया अपितु राज्यों के चुनावों में खराब प्रदर्शन की बाबजूद दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है।
विडम्बनापूर्ण स्थिति आ जाने पर संघ के बयानवीर कहने लगते हैं कि हम भाजपा के कार्यों में कोई दखल नहीं देते, केवल माँगने पर उन्हें सलाह देते हैं। इसके विपरीत सच यह है कि भाजपा में संघ की अनुमति के बिना कुछ भी नहीं होता रहा और उसकी छोटी से छोटी घटना पर भी उसकी निगाह रहती रही है, जिसके लिए प्रत्येक स्तर के संगठन मंत्री का पद संघ प्रचारक के लिए आरक्षित रखा गया है। भारतीय लोकतंत्र में इस दूसरे सबसे बड़े दल की कार्यप्रणाली में संघ ही सबसे बड़ी बाधा रहा है। जनसंघ के सबसे पहले अध्यक्ष मौल्लिचन्द्र शर्मा ने संघ के अनावश्यक हस्तक्षेप से दुखी होकर ही स्तीफा दिया था। देश की पहली गैर कांग्रेसी सरकार संघ के साथ दुहरी सदस्यता के कारण ही बिखरी थी जिससे विकसित हो रही लोकतांत्रिक प्रणाली को बड़ा धक्का लगा था। एनडीए के गठबन्धन में और बाद में उसके निरंतर कमजोर होते जाने में सबसे बड़ा कारण संघ का हस्तक्षेप ही रहा है। संघ के कारण ही तेलगुदेशम अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार में सम्मलित नहीं हुयी थी अपितु उसे अपनी शर्तों पर बाहर से समर्थन देना मंजूर किया था जिससे सरकार लगातार अस्थिरचित्त रही। लाल कृष्ण अडवाणी जैसे वरिष्ठ नेता को अपना अध्यक्ष पद संघ के दबाव में ही छोड़ना पड़ा था जबकि कार्यकारिणी के दस प्रतिशत सदस्य भी ऐसा नहीं चाहते थे। यही कारण रहा कि आडवाणी ने 2005 सितंबर में चेन्नई में आयोजित बीजेपी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में ये कहते हुए संघ को आईना दिखाने की कोशिश की थी कि, “बीजेपी के बारे में ये धारणा बन गई है कि इसके कोई राजनीतिक या सांगठनिक निर्णय आरएसएस की सहमति के बगैर नहीं होते, ऐसी धारणा से बीजेपी के साथ संघ का भी नुकसान हो रहा है।” भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के अध्यक्ष बनने की कल्पना तक किसी भाजपा सदस्य ने नहीं की थी किंतु उन्हें न केवल संघ ने पूरी पार्टी पर थोप दिया अपितु राज्यों के चुनावों में खराब प्रदर्शन की बाबजूद दुबारा अध्यक्ष बनाये जाने का रास्ता साफ कर दिया गया है।
संघ परिवार का इस समय मूल संकट ही यह है कि
इस अति का विरोध प्रारम्भ हो गया है राजस्थान में वसुन्धरा राजे ने संघ के सबसे
चहेते गुलाब चन्द्र कटारिया की प्रस्तावित जनजागरण यात्रा को धूल चटा दी व संघ को
अपनी हरी झंडी को लाल में बदलना पड़ा। नरेन्द्र
मोदी स्वयं को गुजरात का प्रधानमंत्री समझते हैं और कुछ उद्योगपतियों द्वारा
स्वार्थवश उनकी अतिरंजित प्रशंसा कर देने के कारण वे अपने काल्पनिक पद का विस्तार
करने के सपने देखने लगे हैं। वे भी अपनी
उम्मीदवारी में पहली चुनौती संघ को मान रहे हैं इसीलिए उन्होंने समय रहते उसे
चुनौती दे दी है व उसके द्वारा नियुक्त संजय जोशी को निकालने के लिए अपने वीटो का
प्रयोग कर दिया। उत्तर प्रदेश में तो योगी आदित्यनाथ अपने क्षेत्र में अपने स्वयं
की “आरएसएस” चलाते हैं।
उत्तराखण्ड और हिमाचल में भी सुगबुगाहट है क्योंकि इन क्षेत्रों में
साम्प्रदायिकता का असर कमजोर है जो आरएसएस की जीवनी शक्ति है। मध्यप्रदेश जैसे राज्य में भी किसान संगठन के लोग
संघ की पकड़ से निकल भागे हैं।
प्रत्येक
मतभेद को आंतरिक लोकतंत्र कहने का तरीका अब घिस चुका है और प्रभावित नहीं करता।
संघ के लोगों को स्पष्ट करना चाहिए कि जिस विषय पर ये “आंतरिक लोकतंत्र” कौंध रहा है उस विषय पर उनका कहना क्या
है और वे किस तरफ हैं। उन्हें यह भी बताना चाहिए कि अगर ये दोनों पत्र केवल मुखौटापत्र
हैं त्तो उनके संगठन के मूल फैसले कहाँ पर उपलब्ध होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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मोबाइल 9425674629
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