शनिवार, जुलाई 07, 2012

पी. ए. संगमा से सहानिभूति


              पी ए संगमा जी से सहानिभूति
                                                                                   वीरेन्द्र जैन
       कुल चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति करने वाले श्री पी ए संगमा जी को जब लोकसभा के अध्यक्ष [1996-98]का महत्वपूर्ण पद मिला तब उनकी उम्र 49 वर्ष थी और वे इससे पहले मेघालय के मुख्यमंत्री समेत केन्द्र सरकार में उद्योग मंत्रालय[1080], वाणिज्य[1982] वाणिज्य और आपूर्ति मंत्रालय[1984], गृह मंत्रालय[1984], श्रम मंत्रालय[1986], कोयला मंत्रालय[1991-93], में राज्य मंत्री व बाद में श्रम मंत्रालय[1995], सूचना और प्रसारण मंत्रालय[1995-96] में केबिनिट मंत्री का पद सुशोभित कर चुके थे। वे 1988 में मेघालय के मुख्य मंत्री और 1990 में मेघालय विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर भी रह चुके हैं। डिब्रूगढ विश्वविद्यालय से  अंतर्राष्ट्रीय समबन्धों में स्नातकोत्तर श्री संगमा कानून के स्नातक भी हैं। 1973 में मेघालय प्रदेश युवा कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर पहुंचे संगमा 1975 से 1980 तक प्रदेश कांग्रेस के उपाध्यक्ष पद पर रहे। 1980 से लगातार सांसद या विधायक बने रहने वाले संगमा अनेक संसदीय समितियों के सदस्य रहे हैं। वे उत्तरपूर्व के उन राज्यों से संसद में प्रतिनिधित्व करते रहे हैं जहाँ की राजनीति शेष भारत की राजनीति से कुछ भिन्न है तथा जहाँ उग्रवाद और अलगाववाद को नियंत्रित करने के लिए भारतीय सेना कुछ विशेष अधिकारों के साथ नियुक्त है। अनुसूचित जाति जनजाति की सूची में से जनजाति में आने वाले संगमा धर्म से ईसाई हैं।
       सांस्कृतिक, धार्मिक, क्षेत्रीय, और भाषायी विविधिता वाले इस देश में जब केन्द्रीय सरकार मंत्रिमण्डल में प्रतिनिधित्व देती है तो उसकी कोशिश रहती है कि सभी क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व हो ताकि राष्ट्रीय एकता को बल मिले।  मेघालय जैसे सीमांत प्रदेश से प्रतिनिधित्व करने वाले श्री संगमा को केन्द्रीय राजनीति में उपरोक्त पदों पर प्रतिष्ठित होने में उनके आरक्षित जनजाति के होने और धर्म से ईसाई होने के कारण भी अतिरिक्त प्रोत्साहन मिलना सहज स्वाभाविक है। यही कारण है कि चौबीस वर्ष की उम्र से राजनीति में प्रवेश करने के बाद उन्होंने सदैव ही किसी न किसी पद को सुशोभित किया है। गैर कांग्रेसी सरकारों के दौरान भी वे संसदीय समितियों के सम्मानीय सदस्य रहे हैं। पद पर बने रहने की आदत भी दूसरी आदतों की तरह वैसी ही होती है जिसे गलिब के शब्दों में कहें तो ‘छुटती नहीं है गालिब ये मुँह को लगी हुयी यही कारण रहा कि कांग्रेस के सत्ता से बाहर होते ही श्री संगमा ने 1999 में सोनिया गान्धी को विदेशी मूल का होने का गैर राजनीतिक भाजपाई मुद्दा उठा दिया और ऐसा ही मुद्दा उठा रहे शरद पवार के साथ मिल कर एनसीपी का गठन कर लिया, पर जब श्री पवार को चुनावों में अपेक्षित सफलता नहीं मिली तो उन्होंने श्रीमती गान्धी का नेतृत्व स्वीकारते हुए कांग्रेस के साथ गठबन्धन कर लिया। तब उनसे असहमत श्री संगमा ने स्वयं को एनसीपी का असली अध्यक्ष मानते हुए शरद पवार के साथ चुनाव चिन्ह का मुकदमा लड़ा जिसे हार जाने के बाद वे ममता बनर्जी के साथ मिल गये और नैशनल तृणमूल कांग्रेस का गठन किया। 2004 के लोकसभा चुनाव में इस पार्टी के कुल दो सदस्य जीते जिसमें से एक वे स्वयं थे। बाद में उन्होंने उसे भी छोड़ दिया और फिर से एनसीपी में सम्मलित हो गये।  2009 में उन्होंने अपनी बेटी को लोकसभा में भेजा और यूपीए में मंत्री बनवाया। दूसरी ओर यह भी सच है कि अनेक पदों पर रहने और दो वर्ष तक लोकसभा अध्यक्ष पद को सुशोभित करने के बाद भी उनकी छवि एक राष्ट्रीय नेता की नहीं बन सकी भले ही उनकी महात्वाकांक्षाएं किसी भी सीमा को मानने के लिए तैयार नहीं हुयीं।
       पिछले दिनों जब श्री संगमा ने स्वयं को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित करने का हल्का काम किया था तो उसे बहुत प्रशंसा नहीं मिली थी क्योंकि उनके अपने तत्कालीन दल एनसीपी ने उन्हें अपना उम्मीदवार नहीं बनाया था और बाद में तो एनसीपी अध्यक्ष ने सार्वजनिक रूप से बयान भी दिया कि वे यूपीए में हैं और यूपीए द्वारा चयनित उम्मीदवार का ही समर्थन करेंगे। इस घोषणा के बाद भी उनका अपनी उम्मीदवारी को वापिस न लेना तब तक हास्यास्पद सा ही रहा जब तक कि एक कूटनीतिक कदम के रूप में बीजू जनता दल के नवीन पटनायक और एआईडीएमके की जयललिता ने उनके समर्थन पर विचार करने की घोषणा न कर दी थी। संयोग से एनडीए में सहमति न बनने और जीत सुनिश्चित न होने के कारण ममता बनर्जी और भाजपा द्वार प्रस्तावित पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब ने उम्मीदवार बनने से इंकार नहीं कर दिया, और विपक्ष प्रतीकात्मक चुनावी लड़ाई लड़ने लायक भी नहीं बचा, तब स्वयं उम्मीदवार बने घूम रहे श्री संगमा पर ध्यान गया और इन दिनों भाजपा को संचालित करने वाले चतुर चालाक सुब्रम्यम स्वामी की सलाह पर विभाजित एनडीए ने संगमा का समर्थन करने का फैसला ले लिया। इस मामले में राजनीति के चाणक्य और भाजपा के पूर्व प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी श्री लाल कृष्ण अडवाणी ने साफ कहा कि इस समर्थन के पीछे बीजू जनता दल और एआईडीएमके के साथ रिश्ते बनेंगे जिससे 2014 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने गठबन्धन की जमीन बढाने में मदद मिलेगी। उनके कथन से साफ है कि वे चुनाव परिणाम की असलियत को जानते हैं और श्री संगमा की हार के बारे में आश्वस्त हैं, पर इस हार से भी वे अगली 2014 की सम्भावनाओं का रास्ता बना रहे हैं। सुब्रम्यम स्वामी एक वकील हैं और देश की लोकतांत्रिक राजनीति को कानून की बारीकियों या उसके छिद्रों से चलाना चाहते हैं। यूपीए उम्मीदवार श्री प्रणव मुखर्जी के लाभ के पद पर होने की तकनीकी सम्भावना से चुनाव को विचलित करने का दाँव उन जैसों की सलाह पर ही लगाया गया होगा।
       जब आंकड़े साथ नहीं देते तो महात्वाकांक्षाओं से घिरा व्यक्ति यथार्थवाद से दूर होकर भाग्यवादी बन जाता है यही कारण रहा होगा कि आदिवासी राष्ट्रपति के नाम पर चुनाव लड़ने वाले, धर्म से ईसाई श्री संगमा किसी हिन्दू ज्योतिषी से तीन बज कर इकतीस मिनिट का महूर्त निकलवा कर फार्म भरते हैं और मतदाताओं से आत्मा की आवाज पर वोट देने की अपील करते हैं। पत्रकारों द्वारा जीत का आधार पूछे जाने पर कहते हैं कि कोई चमत्कार होगा। दूसरी ओर आंकड़ों के आधार पर जीत के प्रति आश्वस्त प्रणव मुखर्जी कहते हैं कि उन्हें चमत्कारों पर विश्वास नहीं है।  
       सब अपनी अपनी रोटियां सेंक रहे हैं ऐसे में संगमाजी से सहानिभूति ही प्रकट की जा सकती है।
वीरेन्द्र जैन
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