सोमवार, फ़रवरी 18, 2013

तीर्थ स्थलों में हादसे- बढते व्यक्तिवाद का दुष्परिणाम


तीर्थस्थलों में हादसे- बढते व्यक्तिवाद का दुष्परिणाम
वीरेन्द्र जैन
       हिन्दुओं में धर्म को मूलतयः व्यक्तिगत कर्म के रूप में ही विकसित किया गया था तथा सामूहिक रूप से किये जाने वाले धार्मिक कर्म बहुत ही कम रहे हैं। जब अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच टकराव पैदा किया तब प्रतिक्रिया में प्रभावित हिन्दुओं ने भी धार्मिक कर्मों में सामूहिकता की प्रतियोगिता शुरू की पर जिसका असर संघ परिवार के लगातार प्रयासों के बाद भी बहुत कम है।
       अपवाद स्वरूप कुम्भस्थलों या नदियों के तटों पर साधु समाज द्वारा किये जाने वाले सामूहिक स्नान और एक साथ एकत्रित साधु संतों के दर्शन व सानिध्य का लाभ लेने के लिए बड़ी संख्या में भक्त लोग कुम्भ स्नान के लिए जाते रहे हैं। इस अवसर पर एक ही स्थान पर ढेर सारे लोग एक साथ एकत्रित होकर स्नान करते रहे हैं, तथा अव्यवस्था केवल साधु संतों के पहले स्नान करने के अधिकार पर हुए झगड़ों के कारण ही फैलती रही है। पहले न केवल आबादी ही कम थी अपितु वर्ण व्यवस्था कठोर होने के कारण गैर सवर्ण लोग इस तरह के कामों में कम ही भाग लेते थे। दूसरी ओर चाह कर भी गैर सवर्णों की आर्थिक स्थिति उन्हें ऐसे अवसर कम देती थी। आजादी के बाद न केवल पिछड़ों और दलितों की आर्थिक स्थिति में ही सुधार हुआ है अपितु विभिन्न पदों पर आरक्षण मिलने के कारण उनका हीनता बोध भी कम हुआ है। यही कारण है कि अब ऐसे आयोजनों में भीड़ बड़ने लगी है। हमारी व्यवस्था ने जब दलितों पिछड़ों को सामाजिक बराबरी पर लाने के लिए आधी अधूरी जो व्यवस्थाएं कीं उसमें उन्हें नई सामाजिक चेतना से दीक्षित नहीं किया। उल्लेखनीय है कि अम्बेडकर जी ने कहा था कि मैं पैदा भले ही हिन्दू धर्म में हुआ हूं पर एक हिन्दू की तरह नहीं मरूंगा। इसीलिए उन्होंने अपनी म्रत्यु से कुछ पहले ही पाँच लाख लोगों के साथ धर्म परिवर्तन कर लिया था। दुर्भाग्य से लाभांवित गैर सवर्ण बराबरी का मतलब सवर्णों जैसे जीवन को जीने से नापने लगे व उन जैसे आचरण ही अपनाने लगे जबकि उनमें से बहुत सारे आचरणों में सुधार वांछित थे। जब भीड़ बढती है तो उसे नियंत्रित करने की जरूरत इसलिए भी होती है क्योंकि ये सारे लोग किसी सामूहिक कर्म के लिए एकत्रित नहीं होते हैं अपितु अपना व्यक्तिगत पुण्य अर्जित करने के लिए एक तय स्थान पर आ कर और तय महूर्त पर स्नान आदि के द्वारा पुण्य अर्जित करना चाहते रहे हैं। हिन्दू तीर्थ स्थलों पर जो भी हादसे हुए हैं वे दूसरों से पहले अपना धार्मिक काम सम्पन्न करने की होड़ में ही हुए हैं। स्मरणीय है कि दो वर्ष पहले नैना देवी के मन्दिर में जो हादसा हुआ था वह पहले पूजा करने के प्रयास में बलशाली लोगों द्वारा निर्बलों को कुचलते हुए आगे बढने की कोशिश में हुआ था व दुर्भाग्यपूर्ण यह भी था कि दर्जनों लोगों की मौत के बाद भी वैसी ही भगम भाग मची रही और लोग एक दूसरे से पहले पहुँचने की होड़ में लगे रहे।
       यह सचमुच बिडम्बनापूर्ण है कि जिस धार्मिक संस्कृति को दया करुणा और उदारता का जनक बताया जाता है वह घनघोर व्यकिवाद का शिकार होती जा रही है। वोट बैंक की राजनीति ने अपने अपने धर्म और जाति के लोगों की आबादी बढाने में अपना लाभ देखना शुरू कर दिया है। तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन ने तो अनेक सार्वजनिक सभाओं में हिन्दुओं को चार संतानें पैदा करने का आवाहन किया हुआ था और उसके बाद ही भाजपा शासित राज्यों में परिवार नियोजन का कार्यक्रम सुस्त पड़ गया था। यही हाल मुस्लिम समाज के नेताओं का भी है। एक ओर तो भीड़ बढने के कारण अवसरों का अभाव होता जा रहा है और दूसरी ओर धार्मिक क्षेत्र में भी व्यक्ति अपनी ताकत की दम पर दूसरों के स्वाभाविक अवसरों को नकार कर अपने लिए उन अवसरों को हथिया लेना चाहता है। इसी में कमजोर वर्ग हादसों का शिकार हो जाता है। यह बात ध्यानाकर्षण योग्य है कि ऐसे हादसों में आम तौर पर महिलाएं, वृद्ध और बच्चे ही शिकार बनते हैं। सड़कों पर होने वाले हादसों में भी यह देखा गया है कि व्यक्ति मार्गों के आकार उनकी दशा पर ध्यान न देते हुए दूसरों से आगे निकलने की होड़ में यातायात के नियमों की परवाह नहीं करते और सड़कों को वाहनों की रेस का मार्ग बना देते हैं। यातायात के इन्हीं उल्लंघनों के कारण अधिकतर सड़क हादसे होते हैं, या जाम लगते हैं।
       यह संक्रमण काल है जहाँ हमने पुरानी संस्कृति को बदले बिना नयी संस्कृति में प्रवेश कर लिया है जिससे हमारे ऊपर बोझ बढ गया है। हमारे पाँव पुरानी जमीन में गड़े हुए हैं और धड़ नई हवा में फड़फड़ा रहा है। नये वैज्ञानिक संसाधनों का प्रयोग करने वाली पीढी भी अनेक अवैज्ञानिक आचरण करती जाती है व अपनी बढी हुयी आय का एक हिस्सा अन्धविश्वासों और गलत रूढियों को बढावा देने में व्यय करती रहती है। धर्म के नाम पर कई करोड़ नाकारा पैदा हो गये हैं। ये लोग समाज पर जोंक बन कर चिपके हुए हैं तथा जो धन देश के विकास में लगना चाहिए था वह धार्मिक संस्थानों या आश्रमों में जाम होता जा रहा है। किसी धार्मिक संस्थान के पास इसकी कोई योजना नहीं है कि उन्हें उस धन का क्या करना है। इसी के परिणाम स्वरूप धार्मिक संस्थानों के आस पास अपराधों की बाढ आ गयी है व गलत राजनीति उसका दुरुपयोग कर रही है। यदि इन संस्थानों में एकत्रित धन को कुम्भ जैसे उत्सवों समारोहों की व्यवस्था में व्यय किया जाये तो दुर्घटनाएं घट सकती हैं और ये आयोजन अपेक्षाकृत अधिक सार्थकता पा सकते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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