कला-संस्कृति के
क्षेत्र में दुष्प्रवृत्तियां
आखिर ये किसे धोखा
दे रहे हैं?
वीरेन्द्र जैन
भारी
भरकम पृष्ठों वाले समाचार पत्रों में फिल्म और सांस्कृतिक गतिविधियों से सम्बन्धित
चार पृष्ठ सुरक्षित रहते हैं। इन पृष्ठों में सांस्कृतिक गतिविधियों से ज्यादा
लगातार दिये जाने वाले सम्मानों और पुरस्कारों के समाचार छपते हैं। इन समाचारों
में किसी संस्था के बैनर के समक्ष किसी मंत्री या वरिष्ठ अधिकारी के हाथों
पुरस्कार लेते देते ऐसे संस्कृतिकर्मियों के चित्र छपे होते हैं जिनके सांस्कृतिक
अवदान से अखबारों के अधिकांश पाठक ही नहीं अपितु नगर के संस्कृतिकर्मी तक अनभिज्ञ
होते हैं। पुरस्कार देने वाली संस्था के पदाधिकारियों तक पुरस्कृतों की प्रकाशित कृतियों
और रचनाकर्म के बारे में ठीक से नहीं जानते। ऐसे समारोहों का आमंत्रण देने आये
संस्था के पदाधिकारियों से मैंने जब भी जिज्ञासाएं व्यक्त कीं तब तब वे दायें
बायें करने लगे।
मध्यप्रदेश
से प्रारम्भ होकर यह बीमारी अब पूरे देश की राजधानियों में पहुँच गयी है। कभी
सरकारी सहायता से विख्यात संस्कृतिकर्मियों को सम्मानित करने का काम एक अच्छी
भावना से प्रारम्भ हुआ था। ये पुरस्कार सम्मान सुपात्रों को तब मिलते थे जब वे
अपने कलाकर्म से कलाप्रेमियों के बीच सम्मानित जगह बना चुके होते थे। देश के
प्रतिष्ठित और वरिष्ठ कला मनीषियों के द्वारा उनका चयन होता था और अपने प्रिय
कलाकार को सम्मानित व पुरस्कृत होते देख कलाप्रेमी खुद की परख और सुरुचि को
सम्मानित होता पाते थे। उन दिनों सम्मानों का एक क्रम भी होता था। बाद में कुछ
पक्षपात पैदा हुआ और क्रम बदल गया व पुरस्कार देने वाली सरकार व उसके अधिकारियों
के प्रति बफादारी उसका आधार बनता गया, पर इसमें भी पुरस्कृतों की पात्रता में
उन्नीस-बीस का ही फर्क होता था। बाद में जब पक्षपात और बफादारी का आधार बढता गया
तब हर ऐरा गैरा सरकारी पुरस्कार के रूप में प्राप्त होने वाले धन और सरकारी सम्मान
के सपने देखने लगा। कला के क्षेत्र में सभी यशप्रार्थी होते रहे हैं पर अपने से
वरिष्ठ की उपेक्षा करके पुरस्कार हथियाने की दुष्प्रवृत्ति इसी दौर में पैदा हुयी।
माहौल ये हो गया कि कलाओं के क्षेत्र में प्रतियोगिता द्वारा पुरस्कार पाने की जगह
सम्पर्कों, सम्बन्धों, और बफादारी प्रदर्शन से पुरस्कार हथियाने के लिए षड़यंत्र
किये जाने लगे और मीडिया के सहारे एक दूसरे पर ही नहीं अपितु सरकार पर भी कीचड़
उछाला जाने लगा। अपनी छवि की रक्षा में सरकार ने विभिन्न गैर सरकारी संस्थाओं को
सम्मान पुरस्कार देने के लिए अनुदान देना प्रारम्भ कर दिया ताकि उसकी आलोचनाओं को
रोका जा सके। इसके बाद तो पुरस्कार सम्मान बाँटने वाली गैर संस्थाओं की बाढ आ गयी
जिनके पदाधिकारी इन अनुदानों से अपना भला भी करने लगे।
कला
के क्षेत्र में इस व्यापार के आने के बाद पुरस्कार देने के लिए ऐसे सम्पन्न
व्यक्तियों और मलाईदार पदों पर बैठे अधिकारियों की तलाश होने लगी जो सम्मान के
बदले में संस्था या उसके पदाधिकारियों को लाभांवित कर सकें। धन हस्तगत करने के लिए
पुरस्कार के दौरान स्मारिका के नाम एक बुकलेट निकाली जाने लगी जिसमें विज्ञापन के
नाम पर सरकारी या पुरस्कृत अधिकारियों से सम्बन्धित व्यापारियों, ठेकेदारों, और
उद्योगपतियों से यथासम्भव राशियां जुटायी जाने लगीं। आजकल राजधानियों में यह अनेक
लोगों का धन्धा बन चुका है और इतनी बड़ी संख्या में इसे किया जा रहा है कि नगर का
कोई भी व्यक्ति एक बार में ऐसी सारी संस्थाओं के नाम याद नहीं कर सकता। पुरस्कार
और सम्मान बेचने के लिए एजेंट घूमते हैं जो पुरस्कार आकांक्षियों की सम्भावनाएं
तलाशते रहते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लिए बहुत बड़ी संख्या में पत्रिकाएं निकलने
लगीं जिनमें से कई तो कुल पचास की संख्या से आगे नहीं जातीं व कुछ में तो केवल कवर
ही बदल दिया जाता है। इन पत्रिकाओं के सम्पादकों ने भी व्यक्ति विशेष पर विशेषांक
निकालने का धन्धा प्रारम्भ कर दिया जो कलाकर्मी के चालीसवें, पचासवें, साठवें
जन्मदिन या कभी भी किसी अवसर के बहाने निकालने लगे। इसमें भी अधिकारियों, उनकी
पत्नियों आदि में ज्यादा सम्भावना देखी गयी। उनकी प्रशस्ति लिखने के लिए लेखक भी
पैदा हो गये व उनकी ‘कृतियों’ के समीक्षक भी विकसित हो गये। विमोचनों के आयोजन भी
किसी विवाह समारोह की तरह भव्य और व्ययसाध्य होने लगे।
साहित्य
के प्रकाशक भी अब ऐसे ही अधिकारियों की तलाश में राजधानी के चक्कर लगाते हैं जो
सरकारी खरीद में पुस्तकें खरीदवा सकें या भेंट देने के लिए स्वय़ं खरीद सकें। ये
प्रकाशक राजधानी से निराश नहीं लौटते हैं। परिणाम यह हो गया है कि खोटे सिक्कों ने
खरे सिक्कों को बाज़ार से बाहर कर दिया है। सरकारी धन का अपव्यय तो और भी अधिक
मात्रा में दूसरे क्षेत्रों में हो रहा है पर इस क्षेत्र की इन गतिविधियों ने
कलाजगत को नष्ट कर के रख दिया है। कब कौन किस बात के लिए पुरस्कृत या सम्मानित हो
रहा है कोई नहीं जानता। ऐसी प्रकाशित कृतियां केवल भेंट में देने के काम आती हैं
जिन्हें मुफ्त में पाने वाले भी नहीं पढते और इसी जुगुप्सा भाव के कारण कुछ अच्छी
कृतियां भी छूट जाती हैं। साहित्यिक गोष्ठियों की जगह पुरस्कार सम्मान के आयोजन कई
गुना होने लगे हैं जिनमें सम्मलित होने के लिए परिचितों, मित्रों को भी कई तरह के
प्रलोभन दिये जाते हैं जिनमें भव्य दावतें भी सम्मलित होती हैं।
विष्णु
नागर ने अपने एक कवि मित्र के बारे में लिखा था कि जब उन मित्र ने अपने पिता से
उनको सम्मान मिलने की बात कही तो पिता ने
कहा कि अगर इसके बाद तुम किसी पड़ोस की दुकान से पाँच रुपये का साबुन ही उधार लेने
की पात्रता अर्जित कर लो तब मैं मानूंगा कि इस सम्मान का कोई अर्थ है।
पता
नहीं कि ये लोग किसे धोखा दे रहे हैं, या आत्मछल के शिकार हो रहे हैं। प्रत्येक
बैठक में धातु जैसे दिखने वाले प्लास्टिक के ये स्मृतिचिंह भरे हुए हैं जिन पर कोई
अतिथि निगाह भी नहीं डालता न ही पूछता है कि ये आपको किसने किस बात के लिए दिया
है। जब उनके काल में ही इन सम्मानों का यह हाल है तो बाद में तो केवल हँसने के काम
ही आने वाले हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
bahot khoob
जवाब देंहटाएं