गुरुवार, जून 20, 2013

भाजपा में छाया स्वार्थ का आपातकाल

भाजपा में छाया स्वार्थ का आपातकाल
वीरेन्द्र जैन       
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       संघ परिवार के लोग न तो लोकतंत्रिक हैं, न सच्चे, न ईमानदार,और न ही निर्भय। हाल में ही घटित मोदी प्रकरण के बाद यह बात और अधिक पुष्ट हो चुकी है। वे अवसरवादी, लालची, सिद्धांतहीन, और भयजनित हिंसा से भरे हुये लोग हैं जो मौका लगने पर कमजोरों को मारकर अपनी बहादुरी बखानते रहते हैं, और उसमें भी दूसरों को उकसाने व स्वयं को खतरों से दूर रख कर अवसर पर भुजायें पुजवाने के लिए आगे खड़े मिलते हैं। इनका नेतृत्व सवर्णों या सम्पन्नों के पास रहता है किंतु हिंसक गतिविधियों के लिए ये दलितों, आदिवासियों या पिछड़ों को आगे करते रहते हैं। इतना सब साफ और स्पष्ट हो जाने के बाद भी कि भाजपा आरएसएस का ही आनुषांगिक संगठन है और छोटी से छोटी बात में भी उसी का फैसला अंतिम होता है, ये गलतबयानी करते हुये कहते हैं कि संघ तो केवल माँगने पर सलाह देता है।
       मोदी को इन दिनों इस तरह से भाजपा, एनडीए, के केन्द्र में ले आया गया है, गोया उनके बिना देश की संसद में  सबसे अधिक संख्या वाले विपक्षी दल का अनाथ हो जाना तय हो। 2002 में गुजरात के अन्दर घटित मुस्लिमों के नरसंहार से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम हुए मोदी को विकास पुरुष, लौह पुरुष, अच्छा प्रशासक, आदि आदि विशेषणों से मण्डित करके उनके करनामों पर परदा डालने का सोचा समझा काम किया गया तथा साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के शिकार हुए हिन्दुओं को मोदी के पीछे लामबन्द करने की चाल चली गयी। इस अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को अगर भाजपा के वरिष्ठ नेता, पूर्व उपप्रधानमंत्री लालकृष्ण अडवाणी और एनडीए के अध्यक्ष शरद यादव ने बीच में ही थाम नहीं लिया होता तो बहुत सम्भव था कि अडवाणी के रथ की तरह यह भी अपने पीछे पीछे एक खूनी लकीर खींचता हुआ निकल चुका होता।
       सच तो यह है कि मोदी के व्यक्तित्व का सारा महल झूठ पर खड़ा किया गया है और अभी भी अवसर के अनुकूल उनको वापिस खींचने के अनेक चोर रास्ते खुले रखे गये हैं। अभी तक भी उनको भले ही मीडिया में भाजपा की ओर से अगले प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के नाम से उछाला जा रहा हो, पर, पार्टी की किसी भी फोरम पर उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं किया गया है। अभी तक भी यह बहुत स्पष्ट नहीं है कि उन्हें इस साल होने वाले विधानसभा चुनावों के प्रचार का ही चेयरमैन बनाया गया है या अगले साल सम्भावित लोकसभा चुनावों के लिए प्रभारी बनाया गया है। यदि यह पद इतना ही महत्वपूर्ण है तो इसके ठीक से निर्वाह के लिए मोदी ने गुजरात के मुख्य मंत्री पद को छोड़ने या अपना उत्तराधिकारी तय करने का काम क्यों नहीं किया! क्या भाजपा इतनी ही नेतृत्वशून्य हो चुकी है कि कहीं भी मोदी का विकल्प संघ के पदाधिकारियों को नज़र ही नहीं आता! प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के लिए तो मोदी, प्रचार समिति के चेयरमैन पद के लिए भी मोदी और गुजरात के मुख्यमंत्री पद के लिए भी मोदी ही चाहिए! दुनिया में सबसे बड़ी क्रांति के नेता ने कहा था कि अच्छा नेता वह नहीं है जो बहुत सारे अनुयायी बनाये अपितु अच्छा नेता वह है जो और और अपने जैसे नेता विकसित करे। यह तब ही सम्भव है जब कोई पार्टी किसी सिद्धांत पर आधारित हो और सरकार के बनने, बिखरने की चिंता किये बिना अनुशासन से कोई समझौता नहीं करे। उचित नेतृत्व के अभाव में भाजपा को बंगारू लक्ष्मण जैसे नेताओं को अध्यक्ष बनाना पड़ता है जो किसी काल्पनिक रक्षा उपकरण की खरीद में मदद करने के नाम पर धन लेते और अगली बार डालर में माँगते हुए कैमरे में कैद हो जाते हैं तथा जिन्हें बाद में सजा और ज़ुर्माना भी होता है। पर इस बीच में उनकी पत्नी को सांसद का टिकिट देकर व राजस्थान के सुरक्षित क्षेत्र से सांसद बना कर उपकृत किया जाता है। रोचक यह है कि जरा जरा से स्वार्थों पर पार्टी के झगड़े उजागर हो जाने पर ये पार्टी के अन्दर लोकतंत्र की दुहाई देने से नहीं चूकते पर अध्यक्ष जैसे अति महत्वपूर्ण विषयों पर यह लोकतंत्र कहीं नज़र नहीं आता। जब संघ चाहता है तो गडकरी जैसे व्यापारी नेताओं को न केवल थोप देता है अपितु दुबारा भी थोपने के लिए संविधान बदलवा देता है। दूसरी बार अगर कहीं मामूली सा विरोध देखने में आता है तो वह उन वकील नेताओं की ओर से देखने में आता है जिन्हें बतौर मेहनताना राज्यसभा की सदस्यता और पार्टी में पद देकर उपकृत किया गया होता है। कभी अडवाणी के हनुमानों को अध्यक्ष पद दे दिया जाता है जो घबरा कर अपनी पत्नी की बीमारी के बहाने उसे छोड़ कर भाग जाते हैं पर बाद में बीमारी के रहते ही उपाध्यक्ष पद स्वीकार कर लेते हैं।
       आइए अब भाजपा के सर्वोत्तम प्रचारित किये जा रहे नेता मोदी की बात करें। नरेन्द्रमोदी स्वाभाविक नेता के रूप में उभरकर मुख्यमंत्री नहीं बने थे अपितु उन्हें ऊपर से थोपा गया था। यह पद उन्होंने दिल्ली में पार्टी प्रवक्ता का का र्य करते हुए और गोबिन्दाचार्य के साथ रहते हुये जुगाड़ जमा कर पाया था। यह पद पाने के लिए उन्होंने भाजपा के ही विधिवत चुने हुये मुख्यमंत्री को विस्थापित किया था। वे उस समय विधायक भी नहीं थे तथा जब उन्होंने उपचुनाव लड़ कर विधानसभा की सदस्यता प्राप्त की उस समय विधानसभा की चार सीटों के लिए उपचुनाव हुये थे जिनमें से तीन पर भाजपा हार गयी थी मुख्यमंत्री रहते हुये नरेन्दमोदी जिस सीट से जीते थे उसे उससे पूर्व जीते भाजपा प्रत्याशी ने  उन से दुगने मतों से जीता था। यह नरेन्द्रमोदी की कथित  'लोकप्रियता' का नमूना था कि उस सीट पर भाजपा की जीत आधी रह गयी थी । मोदी को लोकप्रियता गोधरा में साबरमती एक्सप्रैस की बोगी संख्या 6 में हुयी आगजनी और उसके बारे में किये गये गलत प्रचार के बाद मिली जिसके आलोक में उन्होंने साम्प्रदायिकता से दुष्प्रभावित हो चुके एक वर्ग को हिंसा और लूटपाट की खुली छूट देकर अपने प्रभाव में ले लिया तथा बाद में उनके अपराधबोध में उन्हें सुरक्षा का आश्वासन भी दिया, जिससे वे उनके गुलाम हो गये। जब गुजरात में पैदा कर दिये गये साम्प्रदायिक तनावों को देखते हुए तत्कालीन चुनव आयुक्त लिंगदोह ने चुनावों को कुछ समय के लिए स्थगित किया था तो इन्हीं मोदी ने उन जैसे ईमानदार प्रशासक के लिए जिस भाषा का प्रयोग किया था उसे याद करने के बाद अगर कोई उन्हें प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाने की सोचता भी है तो उसकी सोच पर शर्म आती है। आज तक देश का कोई प्रधानमंत्री ऐसा नहीं हुआ जिसने ऐसी भाषा बोली हो या जिसके इतिहास में मोदी जैसे आरोप लगे हों। आज भाजपा के लोग प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को मौनमोहन सिंह या मौनी बाबा कहते हैं किंतु अडवाणीजी बतायें कि भाजपा सरकार के ही एक वरिष्ठ मंत्री हरेन पंड्या की हत्या के बाद जब वह देश के गृह मंत्री रहते हुए शोक प्रकट करने गये थे तब हरेन पंड्या के पिता ने जोर शोर से नरेन्द्र मोदी पर हत्या के लिए जिम्मेवार होने का आरोप लगया था तब अडवाणी जी के मुँह में दही क्या इसलिए जम गया था क्योंकि वह गुजरात के गान्धी नगर से चुनाव लड़ने के लिए वहाँ के मुख्यमन्त्री की कृपा पर निर्भर रहते हैं। अडवाणीजी ही क्यों पाँच साल राज्यसभा में विपक्ष के नेता रहने के कार्यकाल में जिनकी सम्पत्ति 23 करोड़ से 256 करोड़ हो जाती है ऐसे एडवोकेट अरुण जैटली भी राज्य सभा में पहुँचने के लिए मोदी की दया पर रहते हैं। अपने और अपने मंत्रियों पर चल रहे आपराधिक मुक़दमों के लिए देश के सबसे अच्छे क्रिमिनल वकील राम जेठमलानी को भी मोदी  राजस्थान से राज्य सभा में भेजकर मेहनताने का एक भाग चुकाते हैं। ये वही जेठमलानी हैं जिन्होंने भाजपा के सर्वाधिक लोकप्रिय नेता अटल बिहारी वाजपेयी के खिलाफ चुनाव में खड़े होकर चुनौती दी थी, पर मोदी को अपने आगे कोई नहीं दिखता।  स्मरणीय है कि भाजपा के अनुशासन को ठेंगे पर रखने वाले मोदीप्रिय जेठमलानी को जब अनुशासनहीनता के आरोप में पार्टी से निकाल दिया गया तो उन्होंने धमकी भरे अन्दाज़ में कहा कि पार्टी में आने के लिए भाजपा के नेताओं ने ही हाथ जोड़े थे तब वे वापिस आये थे तथा अब भी अगर वे नहीं माने तो उनकी पोलपट्टी खोलकर देश को सच बता देंगे। ये वही मोदी मित्र जेठमलानी हैं जो इससे पहले भी तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के भ्रष्टाचार के मामलों पर सवाल उठा चुके हैं।
       यदि मोदी 2002 में हुए मुस्लिमों के नरसंहार के लिए स्वयं को और अपने लोगों को दोषी नहीं मानते हैं तो उन्होंने कभी अपने गर्वीले गुजरात के इन निर्दोष नागरिकों के मारे जाने पर चिंता और दुख व्यक्त क्यों नहीं किया व दोषियों को दण्ड दिलाने के लिए कुछ क्यों नहीं किया? इसके विपरीत माया कोडनानी और अमित शाह जैसे लोगों को अपने मंत्रिमण्डल में सम्मलित करने के अलावा उनके पास विकल्प क्यों नहीं था? अपनी ईमानदारी का ढोंग करने वाले इस व्यक्ति को क्या पता नहीं था कि उसके मंत्रियों गोरधन झड़पिया और बाबूभाई बुकारिया आदि ने क्या क्या काला पीला किया हुआ है। आज गुजरात सर्वाधिक कर्ज़दार राज्य क्यों है और क्यों कर्ज़ ले ले कर बाहर से बुलाये गये उद्योगपतियों को अटूट सुविधायें लुटाकर अपई छवि बनायी जा रही है?
       सत्ता के सुख का गुलाम और ज़मीनों जायज़ादों की भूख में लिप्त भाजपायी कभी भी सच बात नहीं बोल पाता जिसका पता बलराज मधोक, कल्याण सिंह, उमा भारती, मदनलाल खुराना, केशूभाई पटेल, शंकर सिंह बघेला, सुरेश मेहता, काँशीराम राणा, के बाद लाल कृष्ण अडवाणी तक को लग चुका है। जब उत्तर प्रदेश जैसे राज्य के वरिष्ठ नेता अमित शाह को प्रभारी बनाने के सवाल पर कुछ नहीं बोल पाते तो शायद वे कभी भी कुछ नहीं बोलेंगे। इस मौन का सबक तो अब जनता ही उन्हें सिखायेगी, जिसे अडवाणीजी समझ भी चुके हैं और कह भी चुके हैं।   
वीरेन्द्र जैन
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