मंगलवार, जुलाई 23, 2013

धार्मिक पहचान का बढता प्रयोग और धर्मनिरपेक्षता की चुनौती

धार्मिक पहचान का बढता प्रयोग और धर्मनिरपेक्षता की चुनौती
वीरेन्द्र जैन

       इस दौर में धर्मनिरपेक्षता ऐसा मानवीय मूल्य है जिसे कट्टर से कट्टर व्यक्ति भी नकार नहीं पाता और उसके दाँएं बाँएं होकर अपनी बचत करता है। देश में अपनी साम्प्रदायिक गतिविधियों के लिए जानी जाने वाली भारतीय जनता पार्टी भी अपने को ‘सच्चा धर्मनिरपेक्ष’ बतलाती है व अपने विरोधियों को ‘छद्म धर्मनिरपेक्ष’ कहती है। धर्म निरपेक्षता को गाली की तरह प्रयोग करने के बाद भी उसकी मूल्यवत्ता को वे भी नकार नहीं पाते। पर जो लोग धार्मिक प्रतीक चिन्हों का जानबूझ कर ऐसा प्रदर्शन करते हैं, जिससे कि बचा जा सकता है, वे अपनी धर्म निरपेक्षता के छद्म को स्वयं ही प्रकट कर रहे होते हैं।
       हमारे संत कवियों ने इन्हीं प्रतीक चिन्हों के प्रदर्शन पर गहरे प्रहार किये हैं किंतु आज जाने अनजाने हम इन्हें भूलते जा रहे हैं या बहुत कुटिल तरीके से समाज में साम्प्रदायिकता बोने वाले लोगों का शिकार बनते जा रहे हैं। स्मरणीय है कि कबीर दास ने बहुत मुखर होकर कहा था –
‘मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा’ या
‘मूड़ मुढाये हरि मिलें तो सब कोई लेय मुढाय, बार बार के मूढते, भेड़ न वैकुंठ जाय’
 ‘माला फेरत जुग गया, गया न मन का फेर, कर का मनका छांड़ि के मन का मनका फेर।
       प्रसिद्ध सूफी संत बुल्लेशाह कहते हैं-
चल बुल्लया अब उत्थे चलिए, जित्थे सारे अन्ने, ना कुई साढी जात पिचाने ना कुई सानूं मन्ने
– अर्थात कि अब तो वहाँ चल कर रहा जाये जहाँ पर सारे लोग अन्धे हों और जहाँ न तो कोई तुम्हारी जाति को पहचानता हो और न ही धर्म को। गुरु नानक देव ने भी अनेक तरह से उन आचरणों का विरोध किया है जिनसे कि किसी की ऊपरी धार्मिक पहचान टपकती हो और धर्म के मानवीय मूल्य पीछे छूटते जाते हों।
       हमारे समाज की सामाजिक संस्थाएं जिनमें राजनीतिक दल भी शामिल हैं, निरंतर धर्मभीरु संस्थानों में बदलते जा रहे हैं और वे अपने भय के कारण धार्मिक साइन बोर्ड वाले निहित स्वार्थों के दबाव में निरंतर चुप्पियां साधने लगे हैं, जिससे छद्म धार्मिक लोगों के हौसले बढते हैं। वे सर्वधर्म सम्भाव के नाम पर सर्वधर्म भयभीत समाज बनाते जा रहे हैं जो सारे धर्मों के बीच चल रहीं बेहूदगियों और भोंड़े प्रदर्शन की प्रतियोगिताओं पर मौन साधे रहते हैं, या प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष में उनमें सहयोग करते रहते हैं। अपने धर्म और समाज की पुरानी कुरीतियों को तो छोड़िये नई नई घर करती जा रही कुरीतियों का विरोध करने वाले लोग भी दिखायी नहीं देते। इसके विपरीत उन कुरीतियों से लाभ उठाने वाले लोग अधिक मुखर संगठित, और साधन सम्पन्न हैं व अपने स्वार्थों की रक्षा में किसी भी तरह के अनैतिक आचरणों से पीछे नहीं हटते।  
       पिछले दिनों से हमारे समाज में धार्मिक प्रतीकों का प्रयोग इस तरह से बढ गया है कि आप किसी भी वाहन में बैठते ही यह जान सकते हैं कि इस वाहन मालिक या उसके चालक का धर्म क्या है। घर के दरवाजे पर लटके तरह तरह के प्रतीकों या बने चिन्हों से घर में रहने वालों के धर्म का पता चल जाता है भले ही बाहर नेम प्लेट न लगी हो। दाढियां, चोटियां, तिलक, कलावे, बुर्के, जालीदार गोल टोपियां, आदि एक अलग पहचान बनाते हैं और जब यह पहचान किसी सरकारी संस्थान में कार्यरत कोई कर्मचारी बनाता है तो हमारा धर्मनिरपेक्षता का दावा कमजोर होता है। आज भ्रष्टाचार के कारण सरकारी कार्यालय प्रारम्भिक रूप से आम लोगों के काम अटकाने वाले संस्थानों के रूप में जाने जाते हैं, जहाँ जाने की जरूरत पड़ने पर आम आदमी को एक दहशत सी महसूस होती है व वह अपने मित्रों से पूछता है कि सम्बन्धित कार्यालय में क्या कोई परिचित व्यक्ति कार्यरत है। विकल्प के रूप में वह सम्बन्धित कर्मचारी अधिकारी की धर्म जाति या क्षेत्र की खोज करके उससे किसी तरह अपना काम निकलवाना  चाहता है। थानों और कई कार्यालयों तक में धर्मस्थल बना दिये गये हैं. जिनका धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है। धार्मिक काम, पूजा नमाज आदि के नाम पर कार्यालयीन समय से काम चोरी के रास्ते तलाशे जाते हैं और ये लोग कथित धार्मिक कार्यों के लिए चुराये गये ऐसे समय की भरपाई अतिरिक्त काम से नहीं करते। धर्म के डर से किये गये ये समझौते कार्यालयों की गुणवत्ता को प्रभावित करते हैं। व्रत, उपवास, रोजे आदि में कार्यालय आने वाले व्यक्ति अधिकार पूर्वक अपने साथ विशेष रियायत चाहते हैं और अपने अर्जित अवकाशों का नकदीकरण करा लेते हैं या उनका अलग उपयोग करते हैं, अपने धार्मिक कार्यों के लिए वे इन अवकाशों का उपयोग नहीं करते। सवाल उठता है कि जब सरकारी वेतन लेकर काम के समय में कथित धार्मिक कार्य सम्पन्न हो रहे हैं तो धार्मिक कट्टरता को उभरने से कथित धर्मनिरपेक्ष प्रशासन कैसे रोकेगा ! अपनी माँगों के हेतु भी अपने कर्मचारी संगठनों को मजबूत करने की जगह वे अपने धर्म या जाति के अधिकारी का प्रश्रय अधिक तलाशते हैं। कथित धार्मिक कर्मी अपने चरित्र में नैतिक नहीं होते यह भ्रष्टाचार के आंकड़ों से पता चलता है।
       एक कमजोर धर्मनिरपेक्ष प्रशासन साम्प्रदायिकता के लिए अनुकूलताएं पैदा करता है, अतः धर्म निरपेक्ष समाज की स्थापना के लिए व्यवस्था के सभी अंगों से कुछ राष्ट्रीय आदर्शों का कठोरता पूर्वक पालन सुनिश्चित कराना होगा, तथा जिनके लिए यह सम्भव न हो उनको अपने धार्मिक कर्तव्यों को पूरा करनेके लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति का अवसर देना होगा। आज धर्मनिरपेक्षता देश की राजनीति का एक प्रमुख मुद्दा है किंतु केवल मौखिक उच्चारण भर से धर्म निरपेक्ष समाज और व्यवस्था नहीं बन सकती, उसके लिए जड़ों से काम करना होगा, तब ही दूसरे ‘गुजरात 2002’ होने से रोके जा सकेंगे, जिसकी तैयारियां साफ दिखायी दे रही हैं ।
वीरेन्द्र जैन
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