बुधवार, फ़रवरी 19, 2014

तमाशों और षड़यंत्रों की राजनीति

तमाशों और षड़यंत्रों की राजनीति
वीरेन्द्र जैन

       अपने शैशव काल में बच्चे कपड़ों में ही मलमूत्र विसर्जन कर देते हैं जिसे उनकी गलती नहीं माना जाता, किंतु यही काम जब वे थोड़ा बड़ा होने पर करते हैं तो यह असहनीय होता है। खेद है कि हमारा लोकतंत्र एक लम्बा समय गुजार लेने के बाद भी वैसी ही भूलें कर रहा है जैसी वह अपनी शैशव काल में करता था। प्रारम्भिक चुनावों में स्वतंत्रता आन्दोलन की सेना के रूप में कार्यरत कांग्रेस देश में लोकतांत्रिक रूप से चुनी जाने की स्वाभाविक अधिकारी थी, और कांग्रेस के अलावा कम्युनिष्ट या समाजवादी धड़ों में भी कांग्रेस के स्वतंत्रता आन्दोलन से निकले लोग थे। मुझे अपने बचपन की याद है कि 1962 में कांग्रेस का प्रचार करने आये लोगों से राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त ने एक रोचक वाक्य कहा था कि वोट देने का अधिकार सबको है पर वोट लेने का अधिकार केवल कांग्रेस को है। प्रारम्भिक दिनों में हिन्दू महासभा एक प्रमुख दल हुआ करता था और उसकी लोकप्रियता जनसंघ से अधिक थी। मैंने सातवें दशक में इसके अध्यक्ष बृज नारायण बृजेश के कुछ भाषण सुने हैं जिनके अंश अब भी स्मृति में हैं। 1967 में श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के जनसंघ में चले जाने पर टिप्पणी करते हुये बृजेशजी का भाषण इस तरह का हुआ करता था- राजमाता ने आपको क्या दिया?
दिया [दीपक जो जनसंघ का चुनाव चिन्ह होता था]
ग्वालियर की जनता को क्या दिया?
दिया
बेटे को क्या दिया?
दिया [माधव राव सिन्धिया पहले जनसंघ के सदस्य थे]
और इस ‘दिया’ की लम्बी श्रंखला के बाद वे कहते थे कि कुछ लिया न दिया और तुम्हारे दरवाजे पर चिपका दिया। अरे तुम लोग क्या राजमाता को देखने भीड़ बना कर चले आते हो, एक पाँच रुपये की लक्स की बट्टी [साबुन] खरीदो और उससे अपनी घरवाली को नहलाओ तो वही राजमाता जैसी दिखने लगेगी।
       श्री बृजेश के भाषण आम जनता के बीच आकर्षण का केन्द्र होते थे और कहा जाता है कि इसी शैली की नकल जनसंघ के तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और हिन्दी पट्टी में उन्होंने भी भाषण की लगभग इसी परम्परा को आगे बढाया था। 1971 के आम चुनावों के दौरान उनके भाषण का एक अंश याद आता है- इन्दिरा गान्धी कैत्ती यें [कहती हैं] कि गरीबी हट्टाओ, अरे भाई हट्टान्ने का अर्थ है इधर से हट्टा कर उधर रख दी, उधर से हट्टा कर इधर रख दी। पर मैं नईं कैत्ता कि गरीबी हट्टाओ, मैं कैत्ता हूँ कि गरीबी मिट्टाओ। इन्दिराजी कैत्ती यें कि जब मैं दोनों हाथ उठाकर भाषण देता हूं तो उन्हें हिटलर की याद आती है, पर मुझे भाषण की कोई ऐसी शैली नहीं पता कि जिसमें टाँग उठाकर भाषण दिया जाता हो। इत्यादि। बाद में स्थानीय भाषा और मुहावरे के साथ विनोद के प्रयोग राजनारायण और लालू प्रसाद जैसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेताओं ने भी किये। परिणाम यह हुआ कि जिस तरह चुटकलेबाजों ने कविता के मंच से गम्भीर साहित्य को बाहर कर दिया, ठीक उसी तरह राजनीतिक मंच की इस चुटकलेबाजी ने वैचारिक राजनीति को हाशिये पर धकेल दिया।  
       देश में प्रारम्भिक आम चुनावों के बाद हम लोग एक दर्जन से अधिक आम चुनावों से गुजर चुके हैं और इस दौरान न केवल शिक्षा व साक्षरता में संख्यात्मक व गुणात्मक परिवर्तन आया है अपितु सूचना और संचार के साधनों का भी तेज विकास हुआ है किंतु हमारे कुछ राजनीतिक दल व राजनेता अभी भी जनता को तरह तरह के तमाशों और शब्द जालों में उलझा, वोट झटक कर सत्ता हथियाने की तरकीबों का प्रयोग करने में लगे हैं। दुर्भाग्य यह है कि भौतिक विकास के कई सोपान चढ जाने के बाद भी देश में राजनीतिक चेतना को विकसित करने की दिशा में समुचित काम नहीं हुआ और लटकों झटकों व तमाशों की राजनीति करने वाले व्यक्ति व दल दुनिया में हमें शर्मसार कर रहे हैं। अडवाणीजी एक डीजल चालित वाहन को रथ के रूप में परिवर्तित कराते हैं और एक विवादित मस्ज़िद को ध्वंश कराने के उद्देश्य से दशहरा आदि की शोभायात्राओं की तरह रामलीला के पात्रों जैसे पूरे देश की यात्रा करते हैं। इस तरह एकत्रित भीड़ की ओट में दूसरे समुदाय के खिलाफ अप्रिय नारे लगा उन्हें उत्तेजित कर दंगों की देशव्यापी श्रंखला बनायी जाती है। उनके उक्त वाहन पर उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह बना होता था। उनकी आम सभाओं में एक विशालकाय चित्र चलता था जिसमें वैष्णवों के आराध्य श्रीराम को सलाखों के पीछे कैद दिखाया जाता था और उनकी कल्पित मुक्ति के लिए संघर्ष का आवाहन होता था। वे एक-एक घर से मन्दिर निर्माण के लिए ईँट एकत्रित करने के बहाने अपना चुनाव प्रचार करते हैं और सर्वाधिक अविकसित बीमारू राज्यों के सीधे सरल धर्मप्राण लोगों को ध्रुवीक्रत करके लोकसभा में अपनी संख्या दो से दो सौ तक बढा लेते हैं, व क्रमशः देश की सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने प्रमुख मुद्दों को स्थगित करने का समझौता कर लेते हैं। आज भी नेता आदिवासी पट्टी पर जाकर तीरकमान उठा कर फोटो खिंचवाते हैं या तलवार लिए मंच पर खड़े हो जाते हैं। स्थानीय लोगों से एकजुटता दुखाने के लिए वे उनकी ढीली-ढाली पोषाक पहिन कर बागड़ बिल्ले की तरह दिखते हैं।
       उक्त रथयात्रा का दौर वही दौर होता है जब देश में एक निर्माणाधीन लोकतंत्र की इमारत कमजोर होने लगती है और आन्ध्र में तेलगुदेशम, उड़ीसा में बीजू जनता दल, तामिलनाडु में डीएमके, एआईडीएमके, केरल में केरल कांग्रेस, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकालीदल, कश्मीर व उत्तरपूर्व में स्थानीय व अलगाववादी दल, उ,प्र, में यादववादी समाजवादी पार्टी, मुस्लिम लीग, रामदेव की स्वाभिमान पार्टी, आदि दल, राष्ट्रीय दलों और राष्ट्रीय सोच का स्थान हथियाने लगते हैं और इसके लिए वैसे ही हथकण्डे अपनाने लगते हैं जैसे कि भाजपा अपना कर सफल हो चुकी होती है। अभी नवोदित आम आदमी पार्टी भी उसी रास्ते से आगे बढने का प्रयास कर रही है। वे चलन से दूर हो चुकी गान्धीवादी टोपी को सिंथेटिक पेंट शर्ट के साथ पहिन कर अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह को अपने प्रतीक चिन्ह की तरह स्तेमाल करते हुए झाड़ू लहरा रहे हैं। मंत्रिमण्डल के सदस्य स्वयं संविधान की शपथ लेकर गैर संवैधानिक काम कर रहे हैं और जो आन्दोलन उनके दल को करना चाहिए उसे सस्ती लोकप्रियता के लिए मुख्यमंत्री कर रहे हैं। दुखद है कि अधिकांश दल फिल्मी और खेल की दुनिया से लेकर तरह तरह के लोकप्रिय गैर राजनीतिक व्यक्तियों की लोकप्रियता को वोटों में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।         
       अगर सत्ता पाने हेतु चुनाव जीतने के लिए दंगे करवाना और तमाशे करना जरूरी लगने लगे तो हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर दुबारा विचार करने और अविलम्ब आवश्यक सुधार करने की जरूरत है। राजनीतिक दलों के लिए एक साझा आचार संहिता बनायी ही जाना चाहिए जिससे कि लोकतंत्र तमाशों से न चलकर राजनीति से संचालित हो।
वीरेन्द्र जैन
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