सोमवार, अप्रैल 21, 2014

हिन्दी गज़ल की नींव के पत्थर ; बलबीर सिंह रंग



हिन्दी गज़ल की नींव के पत्थर ; बलबीर सिंह रंग
वीरेन्द्र जैन 

                हिन्दी गज़ल की आज जो इमारत बुलन्द है उसकी नींव में भारतेन्दु हरिश्चन्द, निराला, शमशेर, आदि के अलावा सबसे महत्वपूर्ण नाम बलबीर सिंह रंग का है। हिन्दी गज़ल के नाम से जाना जाने वाला गज़ल का जो ताज़ा रूप है उसे हिन्दुस्तानी गज़ल कहा जाना चाहिए जिसमें हिन्दी उर्दू का भेद मिटा के दो लिपियों में लिखी जाने वाली एक भाषा की काव्य विधा में रचनाएं रची जा रही हैं, व सर्वाधिक लोकप्रिय विधा हो रही हैं। इस विधा ने कविता से दूर हो रहे पाठक व श्रोताओं को फिर से जोड़ने का महत्वपूर्ण काम किया है। रंग जी को देवनागरी लिपि में बोलचाल की भाषा में गज़ल लिखने वाले पहले कुछ गज़लकारों में गिना जा सकता है। उनकी इस पहचान के स्थापित न हो पाने का सबसे बड़ा कारण यह रहा कि उनकी लोकप्रियता गीतकार के रूप में भी उससे कुछ अधिक ही थी जितनी कि गज़लगो के रूप में। यही कारण रहा कि बाद में जयप्रकाश नारायण की सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन और इमरजैंसी विरोधी कवि दुष्यंत कुमार हिन्दी गज़ल के अग्रदूत माने गये।
       हर विधा के जन्मकाल और उसके जनमानस में व्याप्त होने के पीछे तत्कालीन सामाजिक परिवेश काम करता है। परिवेश में आने वाले परिवर्तनों के साथ उस विधा की कविता की विषय वस्तु भले ही बदल जाती है पर विधा की अपनी पहचान ज़िन्दा रहती है। रंग जी ने गज़ल में गज़लियत को बनाये रखा है।
आबोदाना रहे, रहे न रहे
चहचहाना रहे, रहे न रहे         
हमने गुलशन की खैर मांगी है
आशियाना रहे, रहे न रहे        
आखिरी बार सोच ले सय्याद
ये जमाना रहे, रहे न रहे        
शेखजी के मिज़ाज़ का क्या है
सूफियाना रहे, रहे न रहे        
रंग को अंजुमन से निस्बत है
आना-जाना रहे, रहे न रहे        
       आज लोग यह नहीं समझ रहे कि आशियाने की खैर तभी तक है जब तक कि गुलशन की खैर है। जो लोग गुलशन की कीमत पर अपना आशियाना बनाने में लगे हैं उन्हें रंगजी से सीख लेनी चाहिए। खुद अभावों में जीकर मिर्ज़ा ग़ालिब का फक्कड़पन और मस्ती रंगजी के जीवन ही नहीं कविताओं में भी मिलती है, अपने से ज्यादा ज़रूरतमन्द के लिए अपनी जेब खाली कर देने की सैकड़ों कथाएं रंग के समकालीन सुनाते रहे हैं।
चाँदनी रात क्या करे कोई
चन्द लमहात क्या करे कोई
सुन लिया और हो गये खामोश
आप से बात क्या करे कोई
आलमे दो जहां में रौशन हूं
फिर मुलाकात क्या करे कोई
हम तो अपने सनम के शैदां हैं
होंगे सुकरात क्या करे कोई
रंग से बज़्म को परेशानी?
वक्त की बात क्या करे कोई
       ग़ज़ल की सारी शर्तों का निर्वाह करते हुए भी वे अपनी ग़ज़लों को गीतात्मक ग़ज़ल कहते थे। दूसरी ओर उनके गीतों में भी ग़ज़ल जैसी भावप्रवणता और दुखदर्द है।
बहुत से प्रश्न ऐसे हैं, जो दुहराये नहीं जाते
मगर उत्तर भी ऐसे हैं जो बतलाये नहीं जाते
इसी कारण अभावों का सदा स्वागत किया मैंने
कि घर आये हुये मेहमान लौटाये नहीं जाते
बनाना चाहता हूं स्वर्ग तक सोपान सपनों का
मगर चादर से ज्यादा पाँव फैलाये नहीं जाते
हुआ क्या आँख से आँसू अगर बाहर नहीं निकले
बहुत से गीत भी ऐसे हैं जो गाये नहीं जाते
सितारों में बहुत मतभेद है इस बात को लेकर
ज़मीं पर रंग जैसे आदमी पाये नहीं जाते
       रंगजी की एक बहुत पसन्द की गयी ग़ज़ल है
ज़माना आ गया रुसवाइयों तक तुम नहीं आये
जवानी आ गयी तन्हाइयों तक तुम नहीं आये
धरा पर थम गयी आंधी गगन में कांपती बिजली
घटाएं आ गयीं अमराइयों तक तुम नहीं आये
नदी के हाथ निर्झर की मिली पाती समुन्दर को
सतह भी आ गयी गहराइयों तक तुम नहीं आये
किसी को देखते ही आपका आभास होता है
निगाहें आ गयीं परछाइयों तक तुम नहीं आये
समापन हो गया नभ में सितारों की सभाओं का
उबासी आ गयी अंगड़ाइयों तक तुम नहीं आये
न शमा है, न परवाने, ये है क्या रंग महफिल का
कि मातम आ गया शहनाइयों तक तुम नहीं आये
       रंगजी की गज़लों को याद करते रहें तो सिलसिला कभी खत्म होने का नाम नहीं लेता पर एक और मनमोहक ग़ज़ल से समाप्त कर रहा हूं।
अब मुझे प्यार से डर लगता है
उसके इज़हार से डर लगता है
वक्त का क्या है गुज़र जायेगा
उसकी रफ्तार से डर लगता है
अपनी तौबा पै एतबार मुझे
चश्मे इसरार से डर लगता है
जो पिये दूसरों के हिस्से की
ऐसे मैख्वार से डर लगता है
सुन के होशो-खिरद के अफ़साने
हर समझदार से डर लगता है
रंग को इस कदर हुए धोखे
हर समझदार से डर लगता है
       रंग जैसा बड़ा शायर सबसे आगे इंसानियत को रखता है और सीना ठोक कर कहता है कि वह अपने शायर से भी बड़ा इंसान है- शाइर नहीं है रंग मगर आदमी तो है। उनके विपरीत आज बड़े बड़े नाम और सम्मानों पुरस्कारों वाले कवियों शायरों ने इंसानियत को अपने सम्मानपत्र के पीछे छुपा कर रख दिया है। रंगजी समेत सारी छन्द कविता का कमजोर मूल्यांकन करने वाले आलोचकों के संवेदनहीन ज्ञान को रंग एक शे’र में चुनौती देते हैं-
रंग का रंग ज़माने ने बहुत देखा है,
क्या कभी आपने बलबीर से बातें की हैं?   
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629



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