गुरुवार, अगस्त 28, 2014

धर्मस्थलों के हादसे रुक सकते हैं



धर्मस्थलों के हादसे रुक सकते हैं
वीरेन्द्र जैन 

       धर्मस्थलों पर होने वाले हादसों की सूची में एक और वृद्धि हो गयी है। गत दिनों चित्रकूट के कामतानाथ मन्दिर के पास कामदगिरि में सोमवती अमावस्या के अवसर पर जुटी भीड़ में भगदड़ मच जाने से दस लोगों की मौके पर ही मृत्यु हो गयी और 25 से अधिक लोग गम्भीर रूप से घायल हो गये। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि उक्त घटना भी पिछली अनेक घटनाओं की तरह एक हिन्दू तीर्थ स्थल में  पूजा उपासना के लिए पवित्र मानी जाने वाली तिथि में उसी तरह से घटित हुयी जिस तरह से पिछली अनेक घटनाएं घटी थीं, फिर भी न तो शासन ने और न ही तीर्थस्थल के प्रबन्धकों ने ही कोई सावधानी बरती थी। इन स्थलों पर जाने वाले घटना के लिए जिम्मेवार लोगों ने भी गम्भीर अनुशासन हीनता और स्वार्थ का परिचय दिया जिस कारण से उक्त घटना घटित हुयी। ये सभी बातें गम्भीर चिंतन की माँग करती हैं क्योंकि जिस प्रदेश में ये घटना दुहरायी जा रही हैं वहाँ धर्म विशेष के आधार पर संगठित हुयी पार्टी का शासन है जो अपने राजनीतिक हित के लिए सरकारी खर्च पर वरिष्ठ नागरिकों को तीर्थ यात्रा कराने की ऐसी योजना संचालित करती है जिसकी जनता की ओर से कभी कोई माँग नहीं उठी थी।        
       कहा गया है कि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। तीर्थस्थलों पर घटने वाली घटनाओं के निरंतर दुहराव से इसकी पुष्टि होती है। इसी साल मध्य प्रदेश के  ही दतिया के रतनगढ माता मन्दिर के हादसे में 117 लोगों की मृत्यु हो गयी थी व इसके पहले-
11 फरवरी, 2013: इलाहाबाद महाकुंभ के समय रेलवे स्टेशन पर भगदड़ 36 लोगों की मौत हो गयी थी व करीब 40 लोग घायल हो गये थे।
20 नवम्बर, 2012: बिहार में भारी भीड़ के दबाव में छठ पूजा के लिए बना अस्थायी पुल टूट गया था जिससे 18 लोगों की मौत हो गयी थी व कई लोग घायल हो गये थे।
09 नवम्बर, 2011: हरिद्वार की हरकी पौड़ी के पार नीलाधरा के निकट भगदड़ मचने से 20 लोगों की मौत हो गयी थी।
14 जनवरी, 2011. केरल के धार्मिक स्थल शबरीमाला के नजदीक पुलमेदु में मची भगदड़ में कम से कम 102 श्रद्धालु मारे गए थे और 50 घायल हुये थे।
4 मार्च, 2010. उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ में कृपालुजी महाराज आश्रम में प्रसाद वितरण के दौरान मची भगदड़ में 63 लोग मारे गए थे व 15 घायल हो गये थे।
3 जनवरी, 2008. आंध्र प्रदेश के दुर्गा मल्लेस्वारा मंदिर में भगदड़ मचने से पांच लोगों की जान चली गई थी।
जुलाई 2008.  ओडिशा में पुरी के जगन्नाथ यात्रा के दौरान धकापेल में छह लोग मारे गए और 12 घायल हो गए थे।
3 अगस्त, 2008 हिमाचल प्रदेश में भारी बारिश के कारण नैना देवी मंदिर की एक दीवार ढह गई, व धक्कामुक्की में 160 लोगों की मौत हो गई, जबकि 230 घायल हो गए थे।
30 सितम्बर 2008. जोधपुर में चामुंडा देवी मंदिर में किसी अफवाह से मची भगदड़ में 250 श्रद्धालुओं की मौत हो गयी थी व  60 घायल हो गये थे।
27 मार्च, 2008.  मध्य प्रदेश के करिला गांव में एक मंदिर में भगदड़ मचने से आठ श्रद्धालु मारे गए थे और 10 घायल हो गए.
अक्टूबर
2007. गुजरात के पावागढ़ में धार्मिक कार्यक्रम के दौरान 11 लोगों की जान चली गई थी.
26 जून, 2005. महाराष्ट्र के मंधार देवी मंदिर में मची भगदड़ में 350 लोगों की मौत हो गई थी और 200 घायल हो गए थे.
अगस्त
2003. महाराष्ट्र के नासिक में कुम्भ मेले में मची भगदड़ में 125 लोगों की जान चली गई थी.
       पिछले दिनों तीर्थयात्रा के दौरान वाहनों की दुर्घटनाओं में मरने वालों की संख्या भी आश्चर्यजनक रूप से बढी है, जिसके लिए बढते वाहन और दिन प्रतिदिन खराब होती सड़कें ही नहीं अपितु ट्रैफिक नियमों के उल्लंघन में बढते भ्रष्टाचार से संरक्षित खराब परिवहन व्यवस्था भी जिम्मेवार है।
       जब आगे निकलने की होड़ से जनित ऐसी दुर्घटनाएं धर्मस्थलों, तीर्थस्थलों में बार बार दुहरायी जाती हैं और तीर्थस्थलों व उनके प्रबन्धन संस्थानों के पास समुचित धन व संसाधन मौजूद होते हैं तो वे इनके प्रबन्धन की व्यवस्था क्यों नहीं करते? इन दिनों धार्मिक प्रवचनों का धन्धा भी बहुत बढ गया है और स्थान स्थान पर प्रवचन कर्ताओं की कतारें लगी मिलती हैं तब उन प्रवचनों के श्रोता स्वयं में सहनशीलता, उदारता, और सहयोग की भावना क्यों विकसित नहीं कर पाते? जो पहले आया होता है उसे पहले अपना कार्य करने का अधिकार होना चाहिए, किंतु जब धर्म जैसे कार्यों में बाहुबल के आधार पर दूसरे का अधिकार छीनने की भावना पैदा हो रही हो तो यह इस बात का साफ संकेत है कि धर्म के बीच में कहीं अधर्म पैदा हो चुका है। जिस धर्म में धैर्य, परोपकार, अहिंसा, शांति, परदुखकातरता, और दया की भावना सिखाये जाने की बात हो उनमें दूसरे का अधिकार छीनने, और खून खौलाने की बातें कौन सी राजनीति बो रही है। विश्व बन्धुत्व की भावना को ऐसी आपसी होड़ में कौन बदल रहा है कि लोग दूसरों के शरीर पर पैर रखते हुये पहले धर्मस्थलों तक पहुँच जाना चाहते हैं। किस व्यवस्था ने लोगों के भौतिक जीवन को इतना नारकीय बना दिया है कि उससे मुक्ति पाने के लिए इतने सारे लोग धर्म की अंतिम आशा की ओर दौड़ लगा रहे हैं।
       ये हादसे दैवीय हादसे नहीं हैं अपितु हमारी मानवीय व्यवस्थागत भूलों का परिणाम हैं और व्यवस्था में सुधार करके इन्हें रोका जा सकता है। इन्हें रोका ही जाना चाहिये, बरना कमजोर मनुष्य की अंतिम आशा का सहारा भी टूट जायेगा।
वीरेन्द्र जैन
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