जन्मशताब्दी वर्ष पर
विशेष
ख्वाज़ा अहमद अब्बास राजनीतिक
कटाक्ष के मेरे पहले शिक्षक थे
वीरेन्द्र जैन
दतिया
में 1952 के आसपास मेरे पिता के पास एक पड़ोसी युवक आया था जिसने उनसे रोजगार के
लिए सलाह माँगी थी व उसकी योग्यता और क्षमताओं तथा खुद की रुचियों को देखते हुए
उन्होंने उसे समाचारपत्र की एजेंसी लेने की सलाह दी थी। इसका परिणाम यह हुआ था कि
उसकी एजेंसी में प्रारम्भ होने वाला प्रत्येक नया अखबार या पत्रिका सम्भावनाओं के
परीक्षण के लिए मेरे पिता के पास आती थी। बच्चों की पत्रिका पराग आयी तो उसके
प्रवेशांक से ही हम लोगों को मिल गयी थी जिसे मैंने और मेरी बहिन ने चौथी पाँचवीं
कक्षा के छात्र रहते हुए ही पढना शुरू कर दिया था। यही हाल 1961 या 1962 में
प्रारम्भ हुये हिन्दी ब्लिट्ज़ का हुआ जब मैं नौंवी दसवीं कक्षा का छात्र ही था।
हिन्दी ब्लिट्ज़ में आखिरी पन्ने पर ख्वाज़ा अहमद अब्बास का स्तम्भ आज़ाद कलम के नाम
से प्रकाशित होता था जिसे मैं सबसे पहले अनिवार्य रूप से पढने लगा। तब हमें यह भी
पता नहीं था कि ख्वाज़ा अहमद अब्बास कौन हैं और उनका फिल्मों से भी कोई नाता है। उस
समय तक मैं यह तो जान चुका था कि मेरे पिता रूढियों के विरोधी और प्रगतिशील हैं पर
उनके बामपंथी भी होने का भी पता मुझे नहीं था। हिन्दी ब्लिट्ज़ मेरे घर कई वर्षों
तक आता रहा और मैं एकलव्य की तरह ख्वाज़ा अहमद अब्बास से प्रशिक्षित होता रहा। कभी
कभी तो मैं समाजशास्त्र की कक्षा में भी ऐसी टिप्पणी कर देता था जिससे मेरे सहपाठियों
के अलावा अध्यापक भी परेशान हो जाते थे। इसके पीछे ब्लिट्ज़ में ख्वाज़ा अहमद अब्बास
के स्तम्भ की खास भूमिका होती थी।
1962
में भारत चीन सीमा विवाद जब युद्ध में बदल गया था तब की घटना है कि हैदराबाद के
निज़ाम के पास जब लोग राष्ट्रीय रक्षा कोष के लिए सहयोग माँगने गये तो करोड़ों अरबों
की ज़ायज़ाद के मालिक निज़ाम ने यह कह कर सहयोग देने से मना कर दिया था कि उनके पास
कुछ नहीं है इसलिए वे कुछ नहीं दे सकते। उल्लेखनीय है कि वे हैदराबाद रियासत के
विलय से असंतुष्ट थे। इस खबर के बाद एक पोस्टमैन ने उन्हें पाँच रुपये का मनिआर्डर
भेजते हुए लिखा था कि आपके पास कुछ नहीं है तो इससे काम चलाइए। अब्बास जी ने
कटाक्ष में इस पर एक रोचक दृष्य सृजित किया था कि कैसे इस पाँच रुपये के मनिआर्डर
आने के बाद बेगमों ने उससे राशन नमक सब्जी आदि मँगायीं और भूखे बच्चों का पेट भरा।
उनके इस व्यंग्य ने न केवल मुझे गहरे में प्रभावित किया था अपितु धर्मनिरपेक्षता
का भाव मजबूत हुआ था। मैं लगभग एक दशक तक लगातार ब्लिट्ज़ का पाठक बना रहा और
राजनीति में कटाक्ष करना सीखता रहा जो बाद में कृष्ण चन्दर और हरिशंकर परसाई के
लेखन से और मजबूत हुआ। इसी बीज के सहारे मैंने 1977 से 1980 के बीच ब्लिट्ज़ और
करंट में खुद भी व्यंग्य रचनाएं लिखीं।
जब
फिल्मों और कलाकारों के बारे में पढने का मौका मिला तब पता चला कि ख्वाज़ा अहमद
अब्बास न केवल राजकपूर की अधिकांश फिल्मों के लेखक ही हैं अपितु खुद भी निर्माता
निर्देशक बगैरह भी हैं। तब तक मैं कम्युनिष्टों को पसन्द करने लगा था व इस सूचना
ने कि वे कम्युनिष्ट हैं, मेरे मन में उनके प्रति सम्मान की भावना और बढ गयी थी।
उनकी फिल्में सौद्देश होती थीं और सबसे कम खर्च में बना करती थीं। वे फिल्म बनाने
से पहले अपने ढेर सारे मित्रों में से कुछ को सूचना देते थे जो उन्हें पाँच पाँच
सौ रुपये भेज देते थे। इस तरह एकत्रित राशि से वे फिल्म बनाते थे तथा फिल्म बिक
जाने के बाद सबको उनकी राशि वापिस कर देते थे। आज के राजनीतिक समय में आँखें खोलने
वाले क्या कल्पना कर सकते हैं अमिताभ बच्चन जैसे कथित महानायक को सात हिन्दुस्तानी
में सबसे पहले अवसर देने वाले अब्बास देश की स्वतंत्रता के महानायक जवाहरलाल
नेहरू, रूस के राष्ट्रपति निकिता ख्रुश्चेव के भी मित्र थे पर न तो उन्होंने कभी
कोई कार खरीदी और न ही बंगला। सादगी से रहने वाले अब्बास, अपनी जरूरतों से ज्यादा
कमाने और जोड़ने के पागलपन में कभी नहीं पड़े। उन दिनों बलराज साहनी, चेतन आनन्द,
गुरुदत्त, पृथ्वी राज कपूर, साहिर, मजरूह, शैलेन्द्र, कैफी आज़मी, अली सरदार ज़ाफरी,
ए के हंगल, जैसे प्रगतिशील लोगों से फिल्मी दुनिया सम्पन्न थी। इस दुनिया में
उन्हें इतना सम्मान प्राप्त था कि जब उन्होंने बालीवुड की पहली बहुसितारा फिल्म
‘चार दिल चार राहें’ बनायी तो उसमें पृथ्वीराज कपूर, मीना कुमारी, राज कपूर,
निम्मी, शम्मी कपूर, जैसे उस दौर के नामी सितारों ने लगभग मुफ्त में काम किया। उन्होंने
‘नीचा नगर’ ‘धरती के लाल’ ‘डा. कोटनीस की अमर कहानी’ ‘बम्बई रात की बाँहों में’
‘सात हिन्दुस्तानी’ ‘नक्सलाइट’ जैसी फिल्में भी बनायीं
अपने
73 वर्षीय जीवन के 50 साल उन्होंने लेखन, पत्रकारिता, फिल्म निर्देशन, आदि में
लगाये और 73 किताबें लिखीं। उन्होंने लगभग 60 फिल्मों का लेखन व निर्देशन किया
जिनमें सुप्रसिद्ध शोमैन राजकपूर की बहुत सारी फिल्में हैं। उनके द्वारा राजकपूर
के लिए लिखी गयी फिल्म ‘आवारा’ को अंतर्राष्ट्रीय सफलता मिली तो उससे सामाजिक
प्रतिबद्धता के सिनेमा को मान्यता मिली और यह एक ऎतिहासिक फिल्म बन गयी। उल्लेखनीय
है कि महबूब खान जैसे फिल्म निर्मात निर्देशक इस फिल्म को बनाने की हिम्मत नहीं
जुटा सके थे।
सात
जून 2014 को उनके जन्म को सौ वर्ष पूरे हो चुके हैं। वे ऐसे नींव के पत्थर हैं जिन
पर फिल्मी दुनिया की कई कुतुब मीनारें आज भी रोशन हैं। हिन्दी में जब तक सोद्देश्य
सिनेमा रहेगा , तब तक ख्वाजा अहमद अब्बास का नाम भुलाया नहीं जा सकता। गत 27
वर्षों से उनके प्रशंसक उनके जन्मदिन पर जुहू की उसी गली में एकत्रित होते हैं
जहाँ वे रहते थे। उनके संकल्प को देखते हुये कहा जा सकता है कि यह सिलसिला तब तक
तो चलेगा ही चलेगा जब तक उनको देखने वाला एक भी व्यक्ति शेष रहेगा।
वीरेन्द्र जैन
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
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