[आज नीरज जी की एक पोस्ट पर ओशो आश्रम में हुये कवि सम्मेलन का चित्र पोस्ट हुआ है, उस चित्र में श्री राजेन्द्र अनुरागी जी भी दिखायी दे रहे हैं। चित्र देख कर अनुरागी जी की याद आयी तो उन पर लिखा श्रद्धांजलि लेख तलाश किया जो अपने ब्लाग पर नहीं मिला, क्योंकि तब मेरा ब्लाग शुरू ही नहीं हुआ था। फाइल में से तलाश कर देखा तो उस लेख को ब्लाग के द्वारा साझा करने का मन बना। अगर देख सकें तो बतायें कि क्या मन ने सही काम किया है?]
श्रद्धांजलि
राजेन्द्र अनुरागी
एक बच्चे
का निधन
वीरेन्द्र
जैन
तारीख
13 दिसम्बर 2008। स्थान श्री राजेन्द्र अनुरागीजी का निवास जिसकी दीवारें तरह तरह की लोक
कलाओं से सुसज्जित हो रही हैं तथा जिसकी नाम पट्ठिका पर लिखा है ‘‘अनुरागिणः’’ जो संस्कृत में
अनुरागी का बहुवचन होता है। चार दिन पहले ही उनका साक्षात्कार लेने के लिए मेरे
पुराने मित्र नेहपालसिंह वर्मा हैदराबाद से आये थे तथा उस दौरान मैं उनके साथ था
तब अनुरागीजी ने बताया था कि अब मेरे घर में सब अनुरागी लिखते हैं इसलिए घर का नाम
अनुरागी के बहुवचन में बदल दिया गया है।
घर
के बाहर सैकड़ों लोग उनकी अंतिम यात्रा में सम्मिलित होने के लिए एकत्रित हैं और
आपस में बात कर रहे हैं -क्या उम्र रही होगी?
इकत्तीस
का जन्म था इसलिए सतत्तर साल के हो गये थे- कोई उत्तर देता है। ‘पचहत्तर के बाद की मृत्यु को मंगल मरण माना जाता है’ कोई अपना ज्ञान बघारता है। ‘अच्छी उम्र पायी थी, भरा पूरा परिवार
और यशपूर्ण जीवन जिया’ कोई कहता है। सब लोग अपनी अपनी तरह
से गम्भीरतापूर्वक कुछ न कुछ कह रहे हैं।
मैं
कुछ नहीं कहता।
कह
भी नहीं सकता क्योंकि मैं उन लोगों से पूरी तरह सहमत नहीं हूं। मेरे लिए यह एक
वृद्ध की मृत्यु नहीं है क्यों कि वे कभी बूढे हुये ही नहीं। बूढों के मरने को
मंगल मरण मानना चाहिये पर एक बच्चे की मृत्यु पर कठोर से कठोर ह्नदय भी करूणा से
भर जाता है। वे पूरी उम्र एक बच्चे की तरह रहे। वैसे ही सरल, सहज, और मुस्कान बिखेरते।
ईसामसीह ने कहा है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं
जिनके ह्नदय बच्चों की तरह हैं। आज जब बच्चों में से भी बचपन छीन लिया जा रहा है
तथा कच्ची नींद में से उठा कर उन्हें केजी की कक्षाओं में धकेला जाने लगा है वैसे
में अपनी उम्र के आठवें दश्क में भी बच्चों की सी मुस्कान बिखेरने वाला कोई चला
जाता है तो उसे हम किसी उम्रदराज व्यक्ति के जाने की तरह नहीं ले सकते। यह एक
मासूम बच्चे के साथ घटी ऐसी दुर्घटना है जो पूरे शहर को दहला देती है। वे कोई
राजनेता नहीं थे कि उनकी अंतिम यात्रा में जाकर लोग अपना कद बढाने की कोशिश करें।
वहॉं उपस्थित सैकड़ों लोगों में से प्रत्येक व्यक्ति को लग रहा था कि कोई उसका बेहद
अपना चला गया है।
मेरी
उनसे पहली मुलाकात भी 1980 में निगमबोधघाट
पर दिल्ली में हुयी थी। मैं उन दिनों गाजियाबाद में पदस्थ था और हजारी प्रसाद
द्विवेदी के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने के लिए वहॉं पहुँच गया था। अंतिम
संस्कार के बाद भवानी प्रसाद मिश्र किसी से उनका परिचय करा रहे थे कि ये गीतकार
राजेन्द्र अनुरागी हैं और हमारे मध्यप्रदेश के हैं। उन्हीं दिनों मैंने धर्मयुग
में उनका कोई गीत पढा था जो बहुत अच्छा लगा था तथा मन में आया था कि कभी संभव हुआ
तो अनुरागी जी से भेंट करूंगा। थेाड़ी ही देर में हम लोग जैसे बहुत पुराने परिचित
हो गये थे तथा मैंने अपने परिचय में मध्यप्रदेश का होना भी जोड़ दिया था। उसके बाद
दूसरी मुलाकात तब हुयी जब मेरा ट्रांसफर भोपाल हो गया व मैथलीश्रण गुप्त जयंती पर
आयोजित एक कवि सम्मेलन में मैंने कविता पढी जो वहॉं पसंद की गयी। अनुरागीजी ने भी
मुक्त कंठ से प्रशंसा की तो मैंने पिछली मुलाकात की याद दिलायी और वे बहुत खुश
हुये। उसके कुछ दिन बाद मैं तुलसी नगर स्थित उनके निवास के पास से निकला तो सोचा
कि उनसे मिलता चलूं। घर गया तो वैसा ही आत्मीय स्वागत। पर थेाड़ी देर की बातचीत के
बाद ही लगा कि वे मुझे उस रूप में नहीं पहचान रहे थे जो मैं समझ रहा था। असल में
तो वे मुझे पहचान ही नहीं रहे थे अपितु मेरे बैंक में होने का जिक्र आने पर उन्हें
लगा कि उनके पास किसी हिन्दी की प्रतियोगिता को जॉंचने के लिए जो उत्तरपुस्तिकाएं
आयी हुयी हैं उनमें अपने पक्ष में उनकी विशेष कृपा पाने के लिए आया हुआ ‘कोई’ हूं। मुझे दुख हुआ व अपने आप पर ग्लानि हुयी कि मंचीय प्रशंसा पर मुझे अपनी
पहचान की ऐसी गलतफहमियॉं नहीं पालना चाहिये थीं।
फिर
खयाल आया कि कुछ तो है जो इससे परे हट कर भी है। इस जमाने में जब लोग अपने सगे से
सगे रिश्ते पर भी भरोसा नहीं करते तब कोई बिना ये जाने हुये कि सामने वाला कौन है
इतनी आत्मीयता और प्रेम में घन्टा भर गुजार देता है। अपने घर में घुमाता है,
उसी समय उनकी छोटी बेटी अपने पालतू कुत्ते को टूथब्रुश
करा रही होती है जिसे देख कर तालियॉं बजा कर खुश होता है, ऐसा काम करने वाला कोई साधारण आदमी नहीं है और हिसाबी किताबी तो बिल्कुल
ही नहीं यह तो सचमुच दिल की बात दिल से कहने व करने वाला कवि ही है।
मैं
रजनीश का कभी भक्त नहीं हुआ और ना ही कभी उनके ध्यान आदि के प्रयोग ही किये पर
सत्तर से सतत्तर तक मैंने उनका पूरा
साहित्य पढा ही नहीं था अपितु ऐसे दूसरे पाठकों को भी जोड़ा था जो बाद में भक्त में
बदल गये थे। जब मुझे अनुरागी जी के रजनीश के सहपाठी होने का पता चला तो मेरा सारा शिकवा
गिला जाता रहा और दिल से दिल का सम्बंध बन गया। बाद में पता चला कि मुझ पर बड़े भाई
की तरह स्नेह करने वाले प्रसिद्ध कहानीकार से. रा. यात्री अनुरागीजी के साथ
नरसिंहपुर के कालेज में व्याख्याता रह चुके हैं। एक बार जब में यात्रीजी को लेकर
उनके घर पहुँचा तो अनुरागीजी किवाड़ के पीछे छुप जाते हैं और अचानक ही ‘हो’ कर के प्रकट होते
हैं। मुझे लगता है कि इस समय ना हुये रसखान या सूरदास जिन्होंने कृष्णकथा की बाल
लीलाओं पर सारी दुनिया को न्येाछावर करने की बात कही है। पर ये जो बड़ी उम्र के
बच्चे हैं’ इन पर तो पूरा ब्रम्हाण्ड ही न्येाछावर किया जा सकता है। यात्रीजी का
बेटा भी उनके साथ में था वे उसका परिचय कराते हैं तो अनुरागी जी की पुलक देखते ही
बनती है और वे अपनी बहू से कहते हें कि देखो तुम्हारा देवर आया है इसे एक पप्पी तो
दो। मैं नहीं जानता कि किसी बीस पच्चीस साल के युवक के प्रति अपनी बहू को ऐसा कह
सकने वाला कोई दूसरा कवि आज हिन्दुस्तान में है। सारी बात एक निश्छल हॅंसी में बदल
जाती है पर मैं अभिभूत हूं उस परिवार के प्रति जिसमें ऐसे निश्छल मजाक संभव हैं और
परिवार की पीढियों के बीच में ऐसा प्रेम व मै़त्री भाव है।
पिछले
कुछ सालों से परिवार के लोग उनको अकेले बाहर नहीं जाने देते थे पर एक बार वे मेरे
साथ घर पर जल्दी वापिस आने का कह कर निकल पड़े। बाहर निकल कर बोले मीनाल रेसीडेंसी
चलते हैं। कारण पूछने पर उन्होंने कहा कि जापान के एक सन्यासी हैं जो रजनीश् के
जन्मस्थल पर एक बहुत बड़ा अस्पताल बनवा रहे हैं, उनसे मिलने चलते हैं। हम लोग अपने
खटारा स्कूटर से ही उनसे मिलने पहुँचे और काफी देर बैठ कर वापिस लौटे। उस घर में
भी वे वैसे ही सबसे आत्मीय थे जैसे कि सदा रहते हैं। वहॉं भी उनका वही सम्मान था।
रास्ते में रूक कर वे गोलगप्पे पीने का प्रस्ताव करते हैं जो मानना ही पड़ता है।
वापिस लौटने पर वे मुझे घर से कुछ पहले ही उतार देने को कहते हैं ताकि कहीं मैं घर
पर यह नहीं बता दूं कि हम लोग इतनी दूर स्कूटर से यात्रा कर के आये हैं। बातचीत
में उन्होंने एक लेखक मित्र का नाम लिया था जो उनके अनुसार बहुत ही प्यारे मित्र
हैं, पर उन्होंने सावधान भी किया था कि उनके घर
पर उनका जिक्र ना किया करूं क्योंकि पत्नी उन्हें पसंद नहीं करतीं।
मृत्यु
से चार दिन पहले जब मैं हैदराबाद के मित्र नेहपालसिंह वर्मा को लेकर उनके पास गया
तो वे बाहर बैठे हुये अपने मालिश वाले की प्रतीक्षा कर रहे थे, पहली नजर में वे नेहपालजी को पहचान नहीं सके पर फिर तुरंत ही
बेहद आत्मीय हो गये। कुछ ही समय पूर्व वे हैदराबाद के इनकमटैक्स कमिश्नर के अनुरोध
पर एक कार्यक्रम में वहॉं भागीदारी करके आये थे। मालिशवाले आजकल दुर्लभ हो गये हैं
और डाक्टर जैसी फीस लेकर भी कठिनाई से समय निकाल पाते हैं, थोड़ी ही देर में वह आ भी गया था पर वे हम लोगों के साथ बैठने के चक्कर में
उसे टाल देना चाहते थे। पर हमारे व घर के सभी लोगों के आग्रह पर वे उसे थोड़ा
संक्षिप्त रूप देने पर मान गये। हम लोगों ने उनकी जीवन गाथा के बारे में भाभी से
बात कर लेना उचित समझा और वह ठीक भी रहा क्योंकि इतने विस्तार से शायद वे भी नहीं
बता पाते और अपने बारे में बताने पर संकोच करते। इस बीच हम लोगों का भेाजन लग गया
था तथा हम लोगों के साथ भोजन करने के चक्कर में वे स्नान को स्थगित कर देना चाहते
थे। उन्हें फिर मनाना पड़ा व वे चिड़िया स्नान के सुझाव पर नहाने गये। हम लोगों ने
इस बीच में उनके आने से पहले ही खाना खा
लिया। फिर उन्होंने अपनी ताजा रचनाएं सुनायीं। उन रचनाओं में मृत्युबोध का स्वर
बहुत मुखर था जिसमें से एक गीत का भाव तो यह था कि मृत्यु तो मौसम की तरह है उससे
घबराना कैसा! नेहपालजी ने वह सारा गीत नोट किया जिसे वे साक्षत्कार के साथ
गोलकुण्डा दर्पण में प्रकाशित करने वाले हैं। साक्षात्कार के बिुदुओं को उससे
पूर्व बताना उनके साथ ज्यादती होगी। नेहपालजी गोलकुण्डा दर्पण में अनेक वर्षों से
खाका नामक स्तंभ लिख रहे हें जिसमें देश भर के प्रमुख कवियों के जीवन परिचय और
साक्षात्कार छापते हैं।
बाहर आकर
मैंने उनके गीतों के बारे में अपनी आशंका नेहपालजी को बतायी तो उन्होंने भी सहमति
व्यक्त की। पर यह उम्मीद नहीं थी कि यह आशंका इतनी जल्दी सच में बदल जायेगी।
आम तौर पर विज्ञापनों के एसएमएस ही अधिक आते
हैं इसलिए मैंने राजरकुर राज द्वारा किया गया एसएमएस नहीं देखा पर थोड़ी ही देर से
राम मेश्राम जी का फोन आया तो पता चला। उसी समय एसएमएस भी खोल कर देखा तो उसमें भी
वही समाचार था। एकदम से धक्का लगा। सब कुछ अनायास सा हो गया था। मेरे पहुँचने तक
तो भोपाल के सभी प्रमुख लोग वहॉं पहुँच चुके थे। उनसे प्रेम करने वाले इतनी संख्या
में हैं यह पहली बार पुष्ट हुआ। उनका निधन रात्रि में ढाई बजे हुआ था इसलिए
अखबारों में समाचार भी नहीं आ पाया था। यदि समाचार आया होता तो न जाने कितने लोग
और होते।
वे
मृत्यु से भयभीत हुये बिना उसके स्वागत में गीत गाते हुये गये हैं। ऐसा साहस कोई
गीतकार ही कर सकता है। हम तो इतना ही कह सकते हैं कि-
मजनूं जो मर गया है तो जंगल उदास है
वीरेन्द्र जैन
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
वीरेन्द्र
जैन
2/1 षालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा
टाकीज के पास भोपाल म.प्र.
फोन 9425674629
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें