शुक्रवार, मार्च 20, 2015

फिल्म समीक्षा- दम लगा के होइसा कुछ साहित्यिक कृतियों का फिल्मी रूपान्तरण



फिल्म समीक्षा- दम लगा के होइसा
कुछ साहित्यिक कृतियों का फिल्मी रूपान्तरण

वीरेन्द्र जैन
       फिल्म विधा डायरेक्टर का माध्यम है, अन्य लोग तो उसके सहयोगी होते हैं। मैंने भी इस फिल्म का नाम और कलाकारों के नाम देख कर कोई स्टंट फिल्म समझ इसकी उपेक्षा कर दी थी किंतु फेसबुक पर कुछ विश्वसनीय साहित्यिक मित्रों की प्रसंशा पढ कर ही इस फिल्म को देखने का मन बना। फिल्म देख कर लग रहा है कि अगर इसे देखना चूक गया होता तो कुछ सचमुच ही कुछ ऐसी कमी रह जाती, जैसी की बहुत चर्चित किताबें पढना छूट जाने पर रह जाती है।
       नई आर्थिक नीति लागू होने के बाद फिल्में लगातार चमकदार उजली होती गयी हैं जिनमें देशी विदेशी पर्यटन स्थल, साफ सुथरी सड़कें ऊंची ऊंची इमारतें, बड़ी बड़ी गाड़ियां, भव्य और सर्व सुविधायुक्त निवास स्थल और अत्यंत उदार जीवनशैली दिखाने वाली फिल्में बन रही थीं जिनका देशी परम्पराओं से मेल होने पर भव्य और खर्चीली शादियां और हनीमून ही आकर्षक विषय होते गये हैं। जबकि सच यह है कि न केवल अंतर्जातीय प्रेमविवाह के कारण अपितु एक ही गोत्र के होने के कारण सैकड़ों युवा आये दिन मारे जा रहे हैं। इसके समांतर ऐसे भी फिल्म निर्माता रहे हैं जिन्होंने इन विषयों से हट कर भी फिल्में बनायी है पर लागत निकालने के लिए उन्हें भी समझौते करने पड़े हैं। ऐसे फिल्म निर्माता बहुत ही कम हुए हैं जिन्होंने कम लागत में मौलिक विषय पर अच्छी फिल्में बनाने का खतरा उठाया हो।
       ‘दम लगा के होइसा’ यशराज फिल्म्स के बैनर तले आदित्य चोपड़ा की शरत कटारिया द्वारा निर्देशित कुल पन्द्रह करोड़ में बनी एक ऐसी ही फिल्म है जिसे देख कर राजेन्द्र यादव का उपन्यास सारा आकाश और मोहन राकेश का नाटक आधे अधूरे याद आता है। इस दौर का युवा अजीब से द्वन्द में फंसा हुआ है जिसे एक ओर तो आधुनिकता की चकाचौंध आकर्षित करती है जिसके दबाव में उसका मन पतंग की तरह हवा में उड़ना चाहता है किंतु परम्परा के मंजे से सुती हुयी यथार्थ की डोर नीचे वालों के हाथों में है। इस द्वन्द में वह घुटता है क्योंकि वह उस निम्न वर्ग का सदस्य है जो अपनी सवर्ण हैसियत के कारण अपने को मध्यम वर्ग का समझता है। अपने पिता की कमजोर आर्थिक हैसियत के कारण नायक ऐसी शिक्षा नहीं ग्रहण कर पाता जो कोई ठीक ठाक सी नौकरी पा सके इसलिए कैसिटों की दुकान खोल कर बैठा है। यह दुकान भी भी नई तकनीक से सीडी, डीवीडी आ जाने के कारण बन्द होने के कगार पर है और कैसिटों में लगी हुयी उसकी लागत डूबने वाली है। उसका पिता इसीलिए अपनी जाति की एक मोटी किंतु शिक्षित लड़की से उसकी मर्जी के बिना शादी कर देने के लिए दबाव बनाता है ताकि उस लड़की के वेतन से घर चल सके। उसे बेमन से यह शादी करना पड़ती है किंतु वह उसके साथ दाम्पत्य सम्बन्ध नहीं बना पाता। नये सामाजिक मूल्यों ने उसके मन में अपनी पत्नी के लिए जो सपने बोये थे उन्हें झटका लगता और तीव्र विकर्षण पैदा होता है। वे दोनों ही नहीं, उनके परिवार भी अपनी अपनी जगह आधे अधूरे हैं, दोनों की मजबूरियां हैं। पुराने तरह के संकरी गलियों में बेतरतीब ढंग से विकसित हुये छोटे छोटे घर हैं जिनमें कबाड़े की तरह बेतरतीब गृहस्थी के सामान ठुंसे पड़े हैं और नवविहाहित को इकलौता कमरा देने के कारण माँ बाप और साथ रहने वाली परित्यक्ता बुआ को बरामदे में सोना पड़ता है। यह वह समाज है जिसके इस वर्ग की लड़कियों को ब्रा और गाउन खरीदने में संकोच होता है और बेचने वाला दुकानदार भी संकोच में रहता है। ये आर्थिक और सामाजिक स्थितियां तथा कुंठाएं हैं जो तनावपूर्ण सामाजिक सम्बन्ध पैदा करते हैं। नगरों के पुराने मुहल्लों में ठुंसे इन निम्न मध्यम वर्ग के लोगों द्वारा इतना भी साहस नहीं है अपनी परिस्थिति के अनुरूप नये सामाजिक मूल्यों का निर्माण करें और स्वीकार करें। दूसरी ओर नायक को शाखा बाबू भी घेरे रहता है जो दुहरे जीवन मूल्य जीते हुए पुरानी परम्पराओं को ढोने की शिक्षा देता रहता है। गुस्से में नायक एक बार तो उससे भी कह देता है कि वह निर्मल नामक लड़के के पेंट में घुसे रहते हैं। यही शाखाबाबू शादी व्याह के मौके पर पीने में भी संकोच नहीं करते। आश्चर्य है कि हर विरोध के अवसर को भुनाने वाले संघ परिवार ने इस फिल्म का विरोध नहीं किया।  
       फिल्म में बहुत यथार्थवादी स्थितियों में वास्तविक गली मुहल्ले मकानों में शूटिंग की गयी है जिससे फिल्मी नकलीपन से दूर देश की एक बड़ी आबादी को अपनी कहानी लगती है। कहानी के समापन के लिए जो रूपक गढा गया है उसमें दम लगा कर अपनी मिली हुयी गृहस्थी का बोझ ढोने की मानसिकता बना लेने को ही श्रेयस्कर बताया गया है। पश्चिमी बाज़ार द्वारा थोपा गये बाहरी सौन्दर्यबोध की तुलना में आत्मा की गहराई से जो प्रेम पैदा हो वही सच्चा प्रेम है जो अंत में पैदा होता है। इन अर्थों में यह एक सच्ची प्रेम कथा भी है।
       फिल्म में स्टार के रूप में आयुष्मान खुराना हैं तो मोटी लड़की की भूमिका में भूमि पेंडेकर ने भी अपनी भूमिका के साथ न्याय किया है। अतिथि कलाकार के रूप में कुमार सानू हैं तो लड़के के पिता की भूमिका में लोकप्रिय टीवी कलाकार संजय मिश्रा ने अपनी भूमिका बखूबी निभायी है।   
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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