मंगलवार, फ़रवरी 06, 2018

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण  
वीरेन्द्र जैन
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      प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावों के दौरान ऐसे भाषण दिये और चुनावी वादे किये थे जो अव्याहारिक थे और किसी भी तरह से चुनाव जीतने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये थे। उन्होंने मुहल्ले के बाहुबलियों जैसा 56 इंची सीना वाला बयान दिया था जो लगातार मजाक का विषय बना रहा। हर खाते में 15 लाख आने की बात को तो उनके व्यक्तित्व के अटूट हिस्से अमित शाह ने जुमला बता कर दुहरे मजाक का विषय बना दिया और उनके हर वादे को जुमले होने या न होने से तौला जाने लगा। पाकिस्तान के सैनिकों के दस सिर लाने वाली शेखी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वास्तविक दबाव में सम्भव सैनिक कार्यवाही में बहुत फर्क होता है जो प्रकट होकर मजाक बनता रहा। इसी तरह के अन्य ढेर सारे बयान और वादों के बीच रोजगार पैदा करने वाली अर्थ व्यवस्था न बना पाने के कारण प्रति वर्ष दो करोड़ रोजगार देने के वादे का भी हुआ, जिसे बाद में उन्होंने एक करोड़ कर दिया था और इस बजट में उसे सत्तर लाख तक ले आये। जब शिक्षित बेरोजगारों को नौकरी न मिलने से जनित असंतोष के व्यापक होते जाने की सूचनाएं उन तक पहुंचीं तो उन्होंने किसी भी मीडिया को साक्षात्कार न देने के संकल्प को बदलते हुए ऐसे चैनल से साक्षात्कार के बहाने अपने मन की बात कही जो उन्हीं के द्वारा बतायी जाने वाली बात को सवालों की तरह पूछने के लिए सहमत हो सकता था। इसमें उन्होंने रोजगार सम्बन्धी अपने वादे को सरकारी नौकरियों से अलग करते हुए कहा कि स्वरोजगार भी तो रोजगार है जैसे आपके टीवी चैनल के आगे पकौड़े की दुकान भी कोई खोलता है तो वह भी तो रोजगार है। उनके इस बयान को नौकरी की आस में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले शिक्षित बेरोजगारों ने तो एक विश्वासघात की तरह लिया ही, सोशल मीडिया और विपक्ष ने भी खूब जम कर मजाक बनाया। यह मजाक अब न केवल सत्तारूढ दल को अपितु स्वयं मोदी-शाह जोड़ी को भी खूब अखर रहा है। राज्यसभा में दूसरे वरिष्ठ सदस्यों का समय काट कर विश्वसनीय अमित शाह को समय दिया गया, जिन्होंने पकौड़े के प्रतीक को मूल विषय मान कर उसी तरह बचाव किया जैसे कि मणि शंकर अय्यर के चाय वाले बयान को चाय बेचने वालों पर आक्षेप बना कर चाय पर चर्चा करा डाली थी।
सच तो यह है कि पकौड़े के रूप में जो कटाक्ष किये गये वे पकौड़े बेचने या उस जैसे दूसरे श्रमजीवी काम को निम्नतर मानने के कटाक्ष नहीं थे। पकौड़े बेचने के लिए किसी भी बेरोजगार को मोदी सरकार की जरूरत नहीं थी, वह तो काँग्रेस या दूसरे गठबन्धनों की सरकार में किया जा सकता था या लोग करते चले आ रहे थे। एक कहावत है कि ‘ बासी रोटी में खुदा के बाप का क्या!’ उसी तरह पकौड़े बेचने के लिए सरकार बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। एक आम बेरोजगार ने मोदी सरकार से यह उम्मीद लगायी थी कि दो करोड़ रोजगार में उसे भी उसकी क्षमतानुसार नौकरी मिल सकेगी। पकौड़े बनाने जैसी सलाह से उसका विश्वास टूटा है। किसी भी कटाक्ष का पसन्द किया जाना समाज की दशा और दिशा का संकेतक भी होता है। यही कारण था कि न मुस्काराने के लिए जाने जाने वाले अमित शाह की भाव भंगिमा और भी तीखी थी। हो सकता है उसके कुछ अन्य कारण भी रहे हों।
पकौड़े के प्रसंग से एक घटना याद आ गयी। मैं कुछ वर्ष पहले बैंक में अधिकारी था और बैंक के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। यह कार्यालय बैंक ऋण के माध्यम से लागू होने वाली सरकारी योजनाओं के लिए बैंक शाखाओं और सरकारी कार्यालयों के बीच समन्वय का काम करता है। उन दिनों आई आर डी पी नाम से एक योजना चल रही थी जो गाँव के ग्रामीणों को पलायन से रोकने के लिए उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार देने के प्रयास की योजना थी। इस योजना में सरकार की ओर से अनुदान उपलब्ध था जो अनुसूचित जाति- जनजाति के लिए 50% तक था। कलैक्टर के पास एक शिकायत पहुंची कि एक हितग्राही को बैंक मैनेजर ऋण देने में हीला हवाली कर रहा है। इस शिकायत को देखने के लिए उन्होंने उसे हमारे कार्यालय को भेज दिया। सम्बन्धित बैंक मैनेजर से बात करने पर उसने बताया कि उक्त आवेदन मिठाई की दुकान के लिए था और हितग्राही दलित [बिहारी भाषा में कहें तो महादलित] था। उसका कहना था कि उसकी दुकान से उस छोटे से गाँव में मिठाई कोई नहीं खरीदेगा, इसलिए योजना व्यवहारिक नहीं है। पकौड़ा योजना भी दलितों के हित में नहीं होगी क्योंकि इसमें कोई आरक्षण नहीं चलता।
इसी तरह अगर पकौड़ा बेचने तक केन्द्रित रहा जाये तो गाँवों और कस्बों में इस तरह की दुकानें आज भी इन जाति वर्गों की नहीं मिलतीं। आचार्य रजनीश ने गाँधी जन्म शताब्दी में गाँधीवाद की समीक्षा करते हुए कहा था कि गाँधीजी जाति प्रथा और बड़े उद्योगों के एक साथ खिलाफ थे, किंतु जाति प्रथा तो बड़े उद्योगों के आने से ही टूटेगी। बाटा के कारखाने में काम करने वाला मजदूर होता है जबकि गाँव में जूता बनाने वाला अछूत जाति में गिना जाता है। जातिवाद की समाप्ति के लिए कोई भी राजनीतिक सामाजिक दल कुछ नहीं कर रहा अपितु इसके उलट वोटों की राजनीति के चक्कर में सभी और ज्यादा जातिवादी संगठनों को मजबूत बनाने में सहयोगी हो रहे हैं। दुष्यंत ने लिखा है -
जले जो रेत में तलुवे तो हमने यह देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गये 
बेरोजगारी की स्थिति भयंकर है और बिना उचित नीति के किसी भी पार्टी की सरकार इतने शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार नहीं दे सकती स्टार्ट-अप, स्किल इंडिया, आदि के प्रयोग फलदायी नहीं हो रहे। इसके उलट सत्तारूढ दल चुनावी सोच से आगे नहीं निकल पाता, मोदीजी हमेशा चुनावी मूड में रहते हैं जिसे अभी हाल ही में हमने आसियान सम्मेलन के दौरन असम में दिये उद्बोधन के दौरान देखा। दावोस और बैंग्लुरु में तो वो बहुत ही गलत आंकड़े बोल गये जिससे पद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। वोटों की राजनीति पारम्परिक कुरीतियों को मिटाने की जगह उन्हें सहेजने का काम कर रही है। यह अच्छा संकेत नहीं है।  
वीरेन्द्र जैन
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