शुक्रवार, अक्टूबर 30, 2009

युवाओं के वैवाहिक अधिकार का सवाल

प्रो मटुकनाथ बर्खास्तगी प्रसंग
युवाओं के वैवाहिक अधिकार की सुरक्षा का सवाल
वीरेन्द्र जैन
हमारे जैसे लोकतांत्रिक देश में संवैधानिक कानून और सामाजिक नैतिक नियम हमेशा एक ही दिशा में नहीं चलते इसलिए इनमें टकराव भी होता रहता है। अभी हाल ही में गौ हत्या, धर्म परिवर्तन, सगोत्र विवाह व प्रेम विवाहों पर कानून और जाति समाजों के बीच तीखे टकराव देखने को मिले हैं।ऐसे अवसरों पर गैर कानूनी रीति रिवाजों के पक्ष में खड़े जाति समाजों को कानून व्यवस्था तथा वोटों के लिए तरह तरह से समझौता करने वाले दल व उसके नेता न तो कानून के पक्ष में खुल के खड़े हो पाते हैं और ना ही पारंपरिक रीति रिवाजों को ही सही ठहरा पाते हैं।
कानूनन विवाह नितांत व्यक्तिगत मामला है किंतु इसमें जाति समाज का अनावश्‍यक हस्तक्षेप व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित करता रहता है। स्मरणीय है कि जो दल एक गठबंधन बना कर पूर्व राजे महाराजों के प्रिवीपर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त करने तथा आम आदमी के हित में बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने के खिलाफ खुल कर सामने आये थे व इन कदमों को व्यक्तिगत स्वतंत्रता व नागरिक अधिकारों का हनन बता रहे थे वे ही सगोत्र विवाह के नाम खुले आम हत्याएं कर देने के सवाल पर मुँह में दही जमा कर बैठे रहे। इस अवसर पर उन्हें व्यक्तिगत स्वतंत्रता का स्मरण नहीं आया अपितु केवल हरियाणा में आगामी विधान सभा चुनाव भर दिखाई दिया। जिन राम मनोहर लोहिया ने कहा था कि बलात्कार और बेबेफाई को छोड़ कर औरत मर्द के सारे सम्बंध जायज हैं , उनके चेले न तो सगोत्र विवाह पर हत्याएं कर देने वालों के खिलाफ कुछ बोले और ना ही प्रो मटुकनाथ को बिहार में बर्खास्त कर देने के सवाल पर ही मुँह खोल सके जबकि बिहार में तो इन दिनों पक्ष और विपक्ष दोनों ही जगह समाजवादी पृष्ठभूमि से निकले लोग ही सक्रिय हैं।
उल्लेखनीय है कि गत 20 जुलाई 2009 को पटना विश्‍वविद्यालय के बी एन कालेज में हिन्दी विभाग के प्रो मटुकनाथ चौधरी को बर्खास्त कर दिया गया। वे गत तीन साल से निलंबित चल रहे थे जबकि विश्‍वविद्यालय के नियमों के अनुसार किसी भी परिस्तिथि में विश्‍वविद्यालय कर्मचारी को एक साल से अधिक समय तक निलंबित नहीं रखा जा सकता। यह निलंबन इसलिए लंबा खिंचा क्योंकि विश्‍वविद्यालय यह फैसला नहीं कर पा रहा था कि जिन कारणों से वे उन्हें हटाना चाहते हैं वे नियमों और कानून की दृष्टि से उचित नहीं हें। किंतु प्रेम को छूत का रोग मानने वाला विश्‍वविद्यालयीन प्रशाासन अपने परिवार की लड़कियों के प्रति चिंतित था और उन्हें छूत की बीमारी मान कर हटाना चाहता था। रोचक यह है कि ज्ञान के शिखर संस्थानों में बैठे इन लोगों ने उन पर ऐसे विरल आरोप लगाये कि उन पर कोई भी हँस सकता है व कोई भी न्याय करने वाला उन्हें खारिज कर सकता है।
स्मरणीय है कि हिन्दी साहित्य के प्रो ड़ा मटुकनाथ चौधरी द्वारा साहित्य पढाने के दौर में, जिसे मुक्तिबोध संवेदनात्मक ज्ञान कहते थे, अपनी एक छात्रा का प्रेम पा बैठे जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया। प्रो मटुकनाथ एक ईमानदार प्राध्यापक थे और जो लोग भी बिहार की विश्‍वविद्यालयीन राजनीति से परिचित हैं वे जानते हें कि वहाँ अधिकतर विभागों में पक्षपात जातिवाद सिफारिश, आदि के द्वारा हित साधन का काम खुले आम चलता है। एक बाहुबली प्रोफेसर ने कई अन्य लोगों के साथ मिलकर उन पर 'ए' ग्रेड देने का दबाव बनाया, पिस्तौल भी दिखायी, नारे लगवाये, तथा समारोह में पालतू छात्रों से उपद्रव कराया पर वे अपने निर्णय से नहीं हिले। ईमानदारी का अपना स्वाभिमान होता है। प्रोफेसर मटुकनाथ नियमित रूप से अपनी कक्षाएं ही नहीं लेते थे अपितु कमजोर छात्रों की अतिरिक्त कक्षाएं भी लेते थे। उनके अध्यक्षीय कार्यकाल में कई गोष्ठियां व सेमिनार आयोजित हुये। उन्होंने कालेज की पत्रिका खोज निकलवायी और ऐसे कामों में अपना हाथ बनाने वालों को उससे दूर रखा। वे इसलिए उक्त शिक्षकों की आंख की किरकिरी बन बैठे किंतु जब उन्हें और कोई बहाना नहीं मिला तो उन्होंने बाहुबली छात्रों को उकसा कर व मीडिया को बुलाकर उनके मुंह पर कालिख मलवायी क्योंकि वे प्रेम पाने और उसका प्रतिदान देने के 'अपराधी' थे। रोचक समाचारों की भूखी मीडिया ने उनके मुख पर कालिख मले जाने के दृश्य ही प्रसारित नहीं किये अपितु इस विषय को लंबा खींचने के लिए विश्‍वविद्यालय में उनसे कई साक्षात्कार लिये। कई चैनलों ने तो इस विषय पर बहस भी आयोजित करवायी।
विश्‍वविद्यालय ने उन पर आरोप लगाया था कि बगैर प्राचार्य की अनुमति के बी एन कालेज परिसर में 11 जुलाई 2006 को बाहरी छात्रों को सम्बोधित किया जिनमें जूली नाम की एक महिला भी थी। मीडिया ने इस घटना को प्रसारित किया।
उत्तर देने के लिए उन्हें केवल एक दिन का समय दिया गया। उन्होंने उत्तर दिया कि मीडियाकर्मियों और बाहरी लोगों को कालेज परिसर में आने से रोकने का काम विश्‍वविद्यालय प्रशासन का है। जब वे वहाँ पहुंंचे तब भीड़ पहले से मौजूद थी इसलिए उसे न रोकने की जिम्मेवारी प्रशासन की बनती है। उन्होंने कहा कि क्या शिक्षक के पास उनके मित्र नहीं आ सकते? रही छात्रों की बात तो उनकी कक्षा में डिस्टेंस एजूकेशन डायरेक्टरेट के कितने छात्र हमेशा से आते रहे हैं पर इससे पूर्व कभी कोई कार्यवाही नहीं हुयी।
अपने जबाब को प्रो मटुकनाथ ने विधिवत रिसीव कराया था किंतु कालेज प्रशासन ने विश्‍वविद्यालय को लिख कर दिया कि प्रो मटुकनाथ ने उत्तर ही नहीं दिया। परिणाम स्वरूप जाँच बैठायी गयी जिसने कुल मिलाकर दो आरोप गढे। पहला तो यह कि उन्होंने कालेज प्रशासन की अनुमति के बगैर छात्रों को और बाहरी लोगों को सम्बोधित किया और दूसरा अपना घर रहते हुये विश्‍वविद्यालय का फ्लैट आवंटित करवाया। उन्होंने तीसरा काम यह किया कि उन्हें 15 जुलाई 2009 से निलंबित कर दिया।
प्रो मटुकनाथ ने अपने अधिकारों के अर्न्तगत आरोपों के साक्ष्य और सम्बंधित कागजों की जानकारी चाही तो विवविद्यालय को जबाब देते नहीं बना। उन्होंने कोई कागज उपलब्ध नहीं करवाया।
सवाल यह है कि प्रेम और विवाह के संवैधानिक अधिकार के खिलाफ जाने वाले समाज के एक वर्ग को समझाइश देने के लिए क्या किया जा रहा है! जिन राधा कृष्ण, हीर रांझा लैला मंजनू, सोनी महिवाल, आदि की प्रेम कथाएं हमारे लोक साहित्य लोक नाटय, और फिल्मों की हजारों कथाओं की आधार भूमि हें और लाखों युवा लगातार उनसे प्रेरणा लेते रहते हैं तब उन व्यस्क युवाओं द्वारा लिए गये फैसलों के खिलाफ हत्यारों की कार्यवाहियों का उस तरह से विरोध क्यों नहीं किया जाता जिस तरह से किया जाना वांछित है। यदि ऐसा नहीं हुआ तो फिर से सती प्रथा, देवदासी प्रथा, बालविवाह, समेत अनेक कुप्रथाओं की वापिसी हो सकती है।
पता नहीं क्यों किसी भी आधुनिकतावादी प्रगतिशील राजनीतिक दल को यह जरूरी नहीं लग रहा कि युवाओं के वैवाहिक अधिकार को जाति समाजों की गिरफ्त से बाहर निकाला जाये व उनके लिए एक जाति और पंथ मुक्त पृथक समाज को गठित किया जाये जो उनके अधिकारों की रक्षा के लिए न केवल संगठित हो अपितु पुराने समाजों का मुकाबला भी करे।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल (मप्र)
9425674629

मंगलवार, अक्टूबर 06, 2009

घूँघट वाली महिला ब्लॉगर भाग-2

घूंघट वाली महिला ब्लागर भाग -2
मेरे इस ब्लाग पर उम्मीद से अधिक टिप्पणियां हुयीं हैं। यह लगभग वैसा ही है जैसे कि मोटर साइकिल चलाते हुये किसी भी लड़के से अगर कोई छोटा बच्चा टकरा जाता है जिसमें गलती आम तौर पर बच्चे की बेध्यानी और उसके ट्रैफिक के प्रति सावधानियों का ज्ञान न होने की होती है पर फिर भी गलती हमेशा ही मोटरसाइकिल वाले की ही मानी जाती है। इसी तरह भीड़ में अगर कोई महिला किसी पुरूष पर धक्का मारने का आरोप लगाती है तो भले ही उसे भ्रम हुआ हो या उसका आरोप गलत हो पर भीड़ हमेशा ही उस पुरूष को ही आरोपी मानते हुये महिला की पक्षधरता करती है। मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि पहली स्तिथि में मोटर साइकिल वाले की वर्गीय स्तिथि के कारण प्रतिक्रिया उसके खिलाफ होती है तथा दूसरे मामले में लोग महिला की सहानिभूति जीतना चाहते हैं। ये दोनों ही स्तिथियां सत्य को नुकसान पहुँचाती हैं। मेरी पोस्ट के बारे में भी ऐसा ही हुआ है।
· इस पोस्ट पर विपरीत टिप्पणी करने वालों में नब्बे प्रतिशत पुरूष हैं जबकि बेहतर यह होता कि लवली कुमारी की तरह इतने प्रतिशत महिलाएं अपना पक्ष रखतीं।
· ऐसा लगता है कि लोगों ने पोस्ट को बिना पड़े ही अपने हाथ आजमाने शुरू कर दिये ताकि वे महिलाओं से सहानिभूति अर्जित करने में पहल पा सकें।
· पोस्ट में मेरी आपत्ति अपनी पहचान छुपाने वाली सभी महिलाओं से नहीं है। मैंने केवल उन महिलाओं की बात की है जो अपनी पोस्ट में या अपनी टिप्पणियों में बड़ी बड़ी क्रान्तिकारी बातें करती हैं किंतु अभी भी भीगी बिल्ली बनी अपनी पहचान को छुपाये रखना चाहती हैं। जो महिलाएं घूंघट को बड़ों के प्रति सम्मान या लाज को औरत का जेवर आदि समझती हैं उनके परदे के पीछे छुप कर बात करने से मुझे कोई आपत्ति नहीं है किंतु तस्लीमा नसरीन की परंपरा में झंडा उठाने का दम भरने वाली यदि बुरका पहिन कर आयेंगीं तो मुझे अटपटा लगता है और मैं उनकी कलम से उनके तर्क जानना चाह रहा था। दुर्भाग्य से वे तो नहीं बोलीं पर उनके चंपू बाहें चढा कर आ गये और कहने लगे कि क्यों वे महिलाओं को छेड़ता है। कुछ जो खुद भारतीय संस्कृति के पुरातन नशे में रहते हैं वे तो कहने लगे कि ये तो नशे में बहक गया है।
· मेरे एक टीचर मित्र थे जो उम्र में तो काफी बड़े थे पर बौद्धिक मित्रता मानते थे क्योंकि उन दिनों हम दोनों ही रजनीश को पढ रहे थे व उस समय उस छोटे कस्बे में उनसे रजनीश के कथनों पर मुग्ध होकर बात करने वाला कोई दूसरा नहीं था। वे कहते थे कि यह बहुत विचित्र बात है कि प्रेमिकाएं कहती हैं कि वे प्रेम में दिल दे रही हैं, जान दे सकती हैं, पर शादी से पहले शरीर से हाथ मत लगाना। ऐसी प्रमिकाओं के लिए वे कहते थे कि वे झूठी प्रेमिकाएं होती हैं। प्रेम में दिल और जान के आगे शरीर महत्वहीन है। जिसे आत्मा दी जा सकती है जो अमर है उसे नश्वर शरीर से हाथ नहीं लगाने दिया जा सकता है! ऐसी प्रमिका प्रेमिका नहीं हो सकती जो अपने प्रेमी पर इतना अविश्वास कर रही हो और जिसको विवाह का पाखंडी सामाजिक बंधन अधिक विश्वसनीय लगता हो क्योंकि वह कानूनी अधिकार दिलाता है। ऐसा प्रेम पति फांसने वाला प्रेम है। सच्चा प्रेमी तो वैसे भी प्रेम रस में इतना मगन रहता है कि उसको देह महत्वहीन ही लगती है। मीरा हजारों साल पहले हुये माने गये कृष्ण से प्रेम कर सकती हैं और अपने वैधानिक पति से कह सकती हैं कि जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई।
दरअसल महिलावादी क्रान्तिकारिता भी अपनी उम्र फोटो व पता छुपा कर नहीं की जा सकती। इसके लिए सिमान दि बाउवा तस्लीमा नसरीन या प्रभा खेतान का पूरा जीवन पढना ही नहीं समझना भी पड़ेगा। खेद है कि चौराहे पर ऐसे ही अवसरों की ताक में बैठे रहने वाले ठलुओं ने एक वैचारिक बहस को गलत पटरी पर उतार दिया।

सोमवार, अक्टूबर 05, 2009

घूँघट वाली महिला ब्लोगर

महिला ब्लागर
पिछले दिनों कुछ महिला ब्लागरों की पोस्टें देखने को मिलीं जिनमें कही गयी बातों के कारण उनका प्रोफाइल देखने की इच्छा हुयी। उन्होंने अपनी पोस्टों में बातें तो बड़ी क्रान्तिकारी की थीं या दूसरे के कथन पर अपनी बोल्ड टिप्पणियां दी थीं किंतु अपने प्रोफाइल में वही पुराना परंम्परागत रवैया अपनाया हुआ था। अपनी जन्म तिथि को तो शायद ही किसी ने घोषित किया हो, अनकों ने अपना फोटो नहीं डाला हुआ था और अधिकतर ने अपना निवास स्थान और अपने कार्यालय का अता पता नहीं दिया हुआ था। ये सारी ही बातें एक आम महिला में देखी जाती हैं किंतु वे महिलाएं अपने ब्लागों पर बड़ी बड़ी बोल्ड बातें नहीं करतीं।
यह समय जैन्डर मुक्ति का समय है तथा ब्लाग पर आने वाली महिलाएं तो सारी दुनिया के सामने अपने मन को खोल देने वाले मंच पर आ रही हैं, ऐसे में यह संकोच उनके दावों के साथ मेल नहीं बैठा पाता। देह उघाड़ने की तुलना में मन का खोलना कम कठिन नहीं होता पर यहाँ तो उम्र व रंग रूप व परिचय तक छुपा कर क्रान्तिकारी बना जा रहा है। यहीं विश्वसनीयता का प्रश्न खड़ा होता है व सारा किया धरा बेकार लगने लगता है।
मैं मीरा बाई को देश की पहली फेमनिस्ट मानता हूँ जिन्होंने 'संतन ढिंग बैठ बैठ' लोक लाज को चुनौती दी थी और 'गोबिन्दा को मोल लेकर' घोषित कर दिया था के जिसके सिर पर मोर मुकुट है वही मेरा पति है। अपने विद्रोह के लिए उन्होंने जहर का प्याला भी पिया था और आंसुओं के जल से सींच सींच कर प्रेम की बेल बोयी थी।

शनिवार, अक्टूबर 03, 2009

सार्वजनिक स्थलों से पूजा घर कब तक हटेंगे ?

सार्वजनिक स्थलपर पूजा घर
इस विलंबित महत्वपूर्ण फैसले पर अमल की तैयारियां क्या हैं?
वीरेन्द्र जैन
गत दिनांक 20 अक्टूबर 2009 को सुप्रीम कोर्ट की एक बैंच के जस्टिस दलवीर भंडारी और मुकुंदकम शर्मा ने अपने एक फैसले में कहा है कि सार्वजनिक जगहों पर पूजा स्थलों के निर्माण न होने देने को राज्य सरकारें सुनिश्चित करें। यह फैसला इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह लोकतंत्र के हित में है। जहाँ जहाँ आधुनिक सोच और वैज्ञानिक विचारधारा का प्रभाव कम होता है वहाँ वहाँ लोकतंत्र को भटकाने के लिए लोगों की भावनाओं का दुरूपयोग धर्मस्थलों के द्वारा ही किया जाता है। आज हमारे देश में स्कूलों अस्पतालों और दूसरे बेहद जरूरी स्थलों से कहीं बहुत ज्यादा पूजाघर बने हैं और वे सभी धार्मिक कार्यों को सम्पन्न करने के उद्देशय से नहीं बने हैं। किसी भी धार्मिक स्थल के निर्माण के पूर्व किसी भी तरह के सर्वेक्षण कराने की बाध्यता नहीं होती कि
प्रस्तावित धार्मिकस्थल कितने लोगों की आवश्यकता है,
वहाँ पूर्व में स्थापित धार्मिक स्थल क्या उस आवश्यकता की पूर्ति कर पा रहे हैं या नहीं,
उसकी स्थापना के लिए धन संग्रह की व्यवस्था क्या है व उसके नियमित संचालन के लिए निरंतर प्राप्त होने वाली आय के बारे में क्या योजना है,
उक्त धर्मस्थल में धार्मिक कार्य सम्पन्न कराने के लिए सुपात्र व्यक्ति की उपलब्धता की क्या स्थिति है,
धार्मिक स्थल की सुरक्षा की क्या व्यवस्था है, और
उक्त धार्मिक स्थल की स्थापना से कहीं दूसरे की स्वतंत्रता और शांति में अनुचित हस्तक्षेप तो नहीं हो रहा
क्या सम्बंधित विभागों से निर्माण की अनुमति है, आदि।
हमारी भाषा में आंख मूंद कर धर्म के मुखौटों के पीछे भटक जाने वालों के लिए एक शब्द आता है 'धर्मान्ध'। यह शब्द अपने आप में इतना स्पष्ट है कि सब कुछ बोल जाता है। यह शब्द धर्म के प्रति पूरी श्रद्धा रखते हुये भी विवेक के महत्व को न भूलने का संदेश देता है जिससे धार्मिक भावनाओं के आधार पर कोई धोखा नहीं दे सके। उत्तर भारत के हिन्दी भाषी क्षेत्रों में सर्वाधिक प्रचलित राम कथा में दर्शाया गया है कि सीता हरण के लिए रावण साधु का भेष धारण करके आता है अर्थात धार्मिक विश्वासों का दुरूपयोग करके उन्हें धोखा देता है। यह कथा धर्म के मामले में भी विवेक को न भूलने की सलाह देती है जबकि धर्म के नाम पर धोखा देने वाले आम तौर पर यह कहते पाये जाते हैं कि धर्म के बारे में बहस नहीं करना चाहिये और ना ही धार्मिक भेषभूषा वाले व्यक्ति के कथनों पर संदेह करना चाहिये। इसके उलट उत्तर भारत में वैष्णव हिंदुओं के बीच सर्वाधिक लोकप्रिय ग्रन्थ रामचरित मानस के रचियता गोस्वामी तुलसी दास बार बार 'विवेक' पर जोर देते हैं-
भनति मोर सब गुन रहित विश्व विदित गुन एक
सो विचार समझें सुमति, जिनकें विमल विवेक
हमारे यहाँ प्रचलित एक कहावत में कहा गया है-
पानी पीजे छान कर, गुरू कीजे जान कर
अर्थात बिना विवेक का स्तेमाल किये किसी को भी गुरू नहीं बना लेना चाहिये और उसका अन्धानुकरण नहीं करना चाहिये। दुर्भाग्य से हमारे देश में धर्म के बारे में चर्चा विर्मश और बहसें तो कम से कम होती जा रही हैं व उत्सवधर्मी धार्मिक कर्मकांड बढते जा रहे हैं जिससे धार्मिकों की जगह धर्मान्ध पैदा हो रहे हैं। दूसरी ओर इन्हीं धर्मान्धों की भावनाओं से लाभ उठाने वालों ने धर्म के प्रतीकों का दुरूपयोग करना तेज कर दिया है। सार्वजनिक स्थल पर पूजा स्थल बनाने का काम भी ऐसा ही हैं। आज प्रत्येक कचहरी, पुलिस लाइन, रेलवे स्टेशन, सैनिक स्थल, रेलवे स्टेशन, अस्पतालों आदि स्थानों पर सभी धर्मों के पूजा स्थलों की भरमार हो गयी है व पुराने पुराने ऐतिहासिक पूजा स्थल बीमार होते जा रहे हैं व उनमें पशु विश्राम करते हैं व कुत्ते पेशाब करते हैं।
गाजर घास की तरह जगह जगह उग आये ये पूजा स्थल न केवल असमंजस व निराशा में घिरे व्यक्तियों का भावनात्मक विदोहन करने के लिए कचहरी व अस्पतालों जैसी जगहों पर बनाये जाते हैं अपितु सुरक्षा में सेंध लगाने के लिए सैनिक स्थलों पर या रिश्वतखोरी व दलाली आदि के लिए पुलिस थानों और पुलिस लाइनों आदि सरकारी स्थानों में बनाये जाते हैं। एक पुलिस अधिकारी ने तो थाने में इसलिए मंदिर बनवाया था ताकि उसे रिश्वत के पैसे को हाथ लगाने का खतरा न लेना पड़े। वह पैसे को उस मंदिर में चढा देने को कहता था तथा पुजारी शाम को वह राशि उसके घर पर पहुँचा देता था।
अतिक्रमण करने का साधन भी ऐसे ही पूजा घर बनते हैं तथा घरों के बाहर अतिक्रमण करके बने चबूतरों पर या लॉन में इसलिए बना दिये जाते हैं ताकि अतिक्रमण तोड़ने वालों को धर्म के नाम से डराया जा सके अथवा उनका विरोध करने के लिए एक भीड़ आसानी से जुटायी जा सके। बाजारों में दुकान के बाहर सामान सजाने वाले दुकानदार भी कोने पर पूजा स्थल बनवा देते हैं ताकि वहाँ से वाहन किनारा करते हुये निकलें व अतिक्रमण विरोधी दश्ता विरोध की संभावना को देखते हुये कार्यवाही में संकोच करे। घने बाजारों में जहाँ जगह ज्यादा कीमती होती है वहाँ थोड़ी सी भी खाली जगह पर लोग पेशाब करने लगते हैं जिससे बाजार पर असर पड़ता है। इसे रोकने के लिए उन स्थानों पर पूजा घर बनवा दिये जाते हैं। बनारस और कानपुर में जहाँ पान और जर्दा खूब खाये जाते हैं वहाँ कार्यालयों की सीढियों के कोने में लोग पान थूकने लगते हैं जिसे रोकने के लिए उन कोनों में कई जगह छोटी छोटी मूर्तियां स्थापित कर दी गयी हैं ताकि लोग गन्दगी न करें।
आाम तौर पर देखा गया है कि साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले दूसरे सम्प्रदाय के बहुमत वाले मुहल्ले के किनारों पर अपने पूजा स्थल स्थापित करके अपने लोगों को एकत्रित करने का स्थान बना देते हैं। उनका प्रयास रहता है कि इससे कम संख्या में रहने वाले हमारे भाई बन्धु एक जुट हो सकेंगे। पर यही स्थल कभी बड़े विवाद को आमंत्रित कर के साम्प्रदायिक दंगे करवा देते हैं। यही साम्प्रदायिकता एक किस्म की राजनीति को लाभ पहुँचाती है जिससे वह राजनीति ऐसे सम्वेदनशील स्थानों के निर्माण को प्रोत्साहन देती है ताकि आवश्यकता पड़ने पर उसका स्तेमाल कर सके। दूसरी ओर इसी सम्वेदनशीलता के कारण वोटों की राजनीति करने वाले इनकी स्थापना का कभी विरोध नहीं करते।
आम तौर पर सवर्ण व सम्पन्न हिंदू अपने घर के अन्दर मंदिर बनवाया करते थे या जाति समाजों के अलग अलग मंदिर होते थे। उनके यहाँ पूजा आरती भी सुबह और शाम होती है। सड़कों और सार्वजनिक स्थलों पर मंदिर निर्माण उनकी परंपरा का हिस्सा नहीं हैं। इसी तरह छोटे छोटे मजार और मस्जिदें भी किन्हीं इतर कारणों से सड़कों के किनारों पर या बीच में आयी हैं। उक्त पूजा स्थल किन्हीं निहित स्वार्थों के कारण ही अस्तितव में आये हें और इनको हटाये जाने का वे विरोध भी करेंगे तथा धर्मांध लोगों को बरगलाकर भीड़ भी जुटाने की कोशिश करेंगे। वोटों की राजनीति करने वाले भी या तो ऐसे ही गलत लोगों का साथ देंगे या चुप लगा जायेंगे। ऐसी दशा में सुप्रीम कोर्ट का आदेश अपनी मूल भावना में कैसे अमल में आयेगा! ऐसे स्थलों के विरोध में कार्यवाही करने के लिए सर्वदलीय बैठक बुलवाना चाहिये और पहचाने गये ऐसे स्थलों पर की जाने वाली कार्यवाही पर सहमति प्राप्त करना चाहिये।
वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, अक्टूबर 02, 2009

गाँधी दर्शन में सादगी और स्वतंत्रता का अंतर्संबंध

गांघी दर्शऩ में सादगी और स्वतंत्रता का अंर्तसम्बंध
वीरेन्द्र जैन
हमारी आजादी की लड़ाई के सबसे बड़े कप्तान मोहनदास करम चंद गांधी को महात्मा गांधी के नाम से पुकारा गया है
गांधीजी साधनों और सेना के बिना भी आजादी की लड़ाई में इसलिए सफल हो सके क्यों कि वे सबसे पहले अपने आप को स्वतंत्र कर सके थे। स्वतंत्रता की लड़ाई का नेतृत्व वही कर सकता है जो स्वयं में स्वतंत्र हो। गांधीजी ने सबसे पहले अपनी गुलामी की जंजीरें हटायीं। आम तौर पर गांधीजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करने वाले लोग भी उनके ब्रम्हचर्य और नशा मुक्ति सम्बंधी सिद्धांतों से सहमत नहीं होते तथा उन्हें इन मामलों में गांधीजी के तर्क बेहद बचकाने लगते रहे हैं। मैं समझता हूँ कि उन्हें गांधीजी के पूरे जीवन र्दशन के सन्दर्भ में इन पर पुर्नविचार करना चाहिये।
अपनी आत्म कथा 'सत्य के साथ मेरे प्रयोग' में वे लिखते हें कि सैक्स उनकी कमजोरी थी व जब उनके पिता की मृत्यु हो रही थी तब भी वे अपने कमरे में पत्नी के साथ दाम्पत्य जीवन का देहधर्म निभा रहे थे तभी बाहर से किसी ने आवाज देकर उन्हें पिता की मृत्यु की सूचना दी थी जिसे सुन कर उन्हें बड़ा धक्का लगा था और ग्लानि हुयी थी। बाद के दिनों में यही ग्लानि उन्हें सदैव सालती रही और अंतत: ब्रम्हचर्य तक ले गयी। जब श्री लंका के एक आयोजन में वे कस्तूरबा गांधी के साथ गये हुये थे तब सभा संचालक ने भूल वश कह दिया कि बड़ी खुशी की बात है कि गांधीजी के साथ उनकी माँ भी आयी हुयी हैं, तब गांधीजी ने अपने भाषण में उनकी भूल को बताते हुये कहा था कि उनके शब्दों का मान रखते हुये आज से मैं उन्हें माँ ही मानना प्रारंभ कर देता हूँ। सच तो यह है कि गांधीजी ने धीरे धीरे वे सारी चीजें छोड़ दीं जिनके बारे में उन्हें लगता था कि वे उन्हें गुलाम बना रही हैं। अपनी देह के सुख और सुविधाओं की गुलामी से मुक्त होने का जो प्रयोग कभी जैन धर्म के प्रवर्तक महावीर स्वामी ने किया था कुछ कुछ वैसा ही प्रयोोग गांधीजी ने देश के स्वतंत्रता संग्राम के लिए अपने जीवन के साथ किया। बचपन में कभी उन्होंने शौकिया तौर पर माँसाहार भी किया था और बाद में भी वे आज के 'हिंसक शाकाहारियों' की तरह के शाकाहारी नहीं हुये अपितु उन्होंने अपने भोजन पर नियंत्रण रखा व स्वयं के लिए शाकाहार चुना। उनके निकट के लोगों में जवाहरलाल नेहरू प्रतिदिन एक अंडे का नाश्ता किया करते थे और जब बचपन में इंदिराजी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूँ बापू!, तो उन्होंने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता हो और तुम्हारी रूचि हो तो खा सकती हो। खान अब्दुल गफ्फार खाँ जिन्हें दूसरा गांधी या सीमांत गांधी के नाम से पुकारा जाता था उनके सबसे आज्ञाकारी लोगों में से एक रहे व काँगेस के ऐसे विरले नेताओं में से एक थे जो विभाजन के सबसे ज्यादा खिलाफ थे व गाँधीजी द्वारा विभाजन स्वीकार कर लिए जाने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट फूट कर रोये थे, माँसाहारी थे, व गाँधीजी ने उन्हें कभी भी माँसाहार से नहीं रोका। गाँधीजी का अनशन करना या नमक खाना छोड़ देना उनके आत्म नियंत्रण के प्रयोग भी रहे होंगे। नशा मुक्ति की बात करने के पीछे भी गांधीजी की दृष्टि गुलामी से दूर रहने की रही होगी, क्योंकि नशा अपना गुलाम बना लेता है।
एक देशी कहावत है कि नंगे से भगवान भी डरता है, वह दर असल ऐसी सत्ता से भयभीत होने का प्रतीक है जिसकी कोई कमजोरियाँ नहीं हों। जो जितना अधिक कमजोरियों से मुक्त होगा उससे समाज उतना अधिक डरेगा। सारे सामाजिक नियम व कानून व्यक्तियों की कमजोरियों पर ही पल रहे हैं इसीलिए आत्मघाती लोगों पर कोई भी रोक संभव नहीं हो पाती। मौत की सजा सबसे बड़ी सजा होती है और जो जान देने पर ही उतर आया है उसको इससे अधिक सजा दे पाना कानून के हाथ में नहीं होता। बीबी बच्चों के प्रेम की भावुकता के बंधन से मुक्त रहने के लिए ही क्रान्तिकारी लोग शादी नहीं करते रहे। समाज भी अपने नियंत्रण में रखने के लिए ही व्यक्तियों को सामाजिक बंधनों में बांधने के प्रति सर्वाधिक सक्रिय रहता है। जाति समाजों के मुखिया लोग भी समाज के लोगों की शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, मकान आदि पर ध्यान देने की जगह शादियों पर ही अपना ध्यान सीमित रखते हैं। सामाजिक गुलामी बनाये रखने की यह सबसे बेहतर जंजीर उनके पास रहती है इसीलिए वे जाति समाज में ही विवाह के नियम को सबसे कठोरतापूर्वक पालन कराते हैं। पुराने समय में राजा सबसे स्वतंत्र और शक्तिशाली व्यक्ति हुआ करता था इसलिए उसे किसी भी जाति समाज में विवाह करने की छूट मिली हुयी थी।
सभ्यता सुविधाएँ देती है। जैसे जैसे नई नई सुविधाएँ पैदा होती जाती हैं वैसे ही वैसे आदमी गुलामी में घिरता जाता है। दूसरे शब्दों में कहें तो व्यक्ति जितनी अधिक सुविधाओं का उपयोग करता है वह उतना ही अधिक गुलाम होता है। उससे भी अधिक गुलाम बनाने वाली वे सुविधाएँ हैं जो कहीं अन्य जगह से नियंत्रित होती हैं। आज बिजली, मोबाइल, कुकिंग गैस, टीवी, इन्टरनैट, पैट्रोल चलित वाहन आदि उच्च और मध्यम वर्ग की दैनिक उपयोगिता की वस्तुओं में आ गयी हैं किंतु इनका नियंत्रण इनके हाथ में नहीं है। अपने कमरों को एयर कन्डीशन्ड करा लेने वाले बिजली के चले जाने पर कीड़े मकोड़ों की तरह बाहर बिलबिलाने लगते हैं। बिजली उत्पादन और वितरण के केन्द्र पर बैठे व्यक्ति लाखों करोड़ों लोगों को एक साथ एक जैसा सोचने और प्रतिक्रिया देने को मजबूर कर देते हैं। बिजली के बिना घर की बोरिंग भी काम नहीं दे सकती तथा इनवर्टर की भी एक सीमा होती है। तत्कालीन केन्द्रीय संचार मंत्री प्रकाश चन्द्र सेठी के व्यवहार से जब टेलीफोन विभाग के कर्मचारी नाराज हो गये थे तब उन्होंने पूरे देश के टेलीफोन ठप करके देश को लगभग जाम कर दिया था और तब तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती गांधी को हस्तक्षेप करना पड़ा था व बाद में सेठी जी को स्तीफा भी इसी कारण से देना पड़ा था। आज मोबाइल या इन्टरनैट की कनेक्टीविटी फेल हो जाने पर करोड़ों लोग हाथ पर हाथ धर कर बैठने को मजबूर हो जाते हैं, तथा लाखों कार्यालय और संस्थानों के काम रूक जाते हैं। पैट्रोल और गैस की सप्लाई बन्द हो जाने पर पूरा का पूरा शहर मुश्किल से दो चार दिन ही गुजार पायेगा।
आज आतंकवाद के विश्वव्यापी हो जाने के बाद कहा नहीं जा सकता कि ऐसी स्थितियाँ कब उपस्थित हो जायें। ऐसे में एक बार फिर से गांधीजी याद आते हैं जो किसी भी तरह की पर निर्भरता के सख्त खिलाफ थे। उनकी खादी और चरखा ही नहीं, प्राकृतिक चिकित्सा भी आजादी की प्रतीक थी। वे कहते थे कि हमें उस सामग्री से अपने मकान बनाना चाहिये जो हमारे निवास के दस मील के दायरे में पायी जाती है। वे लंदन में पढे थे, दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने वकालत की थी व दुनिया भर में घूमे थे, दुनिया के बड़े बड़े राजनेताओं, लेखकों, पत्रकारों, आदि से उनका पत्र सम्पर्क रहा पर वे सदैव ही किसी भी तरह की परनिर्भरता के खिलाफ ही रहे। अपने को वैष्णव हिंदू कहने वाले गांधीजी गाय नहीं, बकरी पालते थे और उसी का दूध पीते थे व लोगों को पीने की सलाह देते थे। असल में बकरी उनकी 'खादी' थी जो अपने भोजन के लिए भी अपने पालक को ज्यादा गुलामी नहीं देती।
सादगी और स्वतंत्रता का सीधा सम्बंध है। अपने आत्मिक उत्थान के लिए ऋषिमुनि जंगल की ओर प्रस्थान करते थे तथा सन्यास का मतलब ही होता था ईश्वर या प्रकृति की गोद में जाकर बैठ जाना। इस तरह प्राकृतिक हो जाना ही आध्यात्मिक हो जाना भी है जो एयर कंडीशंड आश्रमों और हरिद्वार जैसे अनुकूल मौसम वाली जगहों पर गैस्टहाउस बना कर रहने पर संभव नहीं होता।
देशों की स्वतंत्रताएं उनके लोगों की स्वतंत्रता पर ही निर्भर करती हैं और लोगों की स्वतंत्रताएं उनके अधिक से अधिक प्राकृतिक होने पर निर्भर करती हैं। इसलिए जो देश जितना कम सुविधाजीवी होगा उसकी स्वातंत्र चेतना उतनी अधिक होगी।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल मप्र
फोन 9425674629

सोमवार, सितंबर 21, 2009

तो फिर कौन लड़वाना चाहता है चीन से और क्यों?

तो फिर चीन से कौन लड़वाना चाहता है और क्यों?
वीरेन्द्र जैन
आइये 20 सितम्बर के अखबार उठा कर मुखपुष्ठ की खबरें पढें। आजकल प्रकाशन की जो तकनीक है उस कारण कोई सा भी अखबार उठा लें इनमें ज्यादा भेद नहीं होता। मुखपृष्ठ की जो प्रमुख खबर है उसका लब्बो लुआब यह है कि पिछले दिनों अखबारों में जो चीन का हमला शुरू हो गया था वह हमारे प्रधानमंत्री ने शांत कर दिया।
मनमोहन सरकार ने चीनी घुसपैठ की खबर को सिरे से नकारते हुए मीडिया पर ही हमला बोल दिया है। विदेश मंत्रालय, सेना और एनएसए का कहना है कि चीन की ओर से भारत चीन सीमा पर घुसपैठ अथवा अतिक्रमण की घटनाओं में कोई वृद्धि नहीं हुयी है। मीडिया इस मामले को बढा चढा कर प्रस्तुत कर रहा है।
राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन ने कहा है कि चीनी सेना द्वारा अतिक्रमण में कोई वृद्धि नहीं हुयी है और चिंता की कोई बात नहीं है।
विदेश सचिव निरूपमा राव ने कहा कि चीनी घुसपैठ को लेकर छपी खबरें अतिरंजित हैं। हकीकत यह है कि भारत-चीन सीमा पर कई दशकों से शांति कायम है। दोनों देशों के बीच संवाद की कारगर प्रणाली कायम है।
सेना प्रमुख दीपक कपूर ने कहा कि अतिक्रमण की घटनाएं पिछले सालों की अपेक्षा इस साल बढी नहीं हैं। मीडिया को इस मसमले को बढा चढा कर पेश नहीं करना चाहिये।
वहीं इसी तारीख के अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार-
· नई दिल्ली। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने जम्मू कशमीर, उत्तराखण्ड, एवं सिक्किम में चीन की सेना द्वारा सीमा अतिक्रमण की रिपोर्टों पर चिंता व्यक्त करते हुये कहा है कि केन्द्र सरकार को चीन के साथ दृढता से पेश आना चाहिए। चीन के अतिक्रमण पर लिखे गये संपादकीय में संघ के मुखपत्र आर्गनाइजर ने मनमोहन सरकार को सलाह दी है कि वह पूर्व की राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार की विदेश नीति से सबक ले।
· इससे पूर्व आरएसएस के संगठनों ने विभिन्न प्रदेशों की राजधानियों और मीडिया वाले स्थानों पर चीन के खिलाफ प्रर्दशन किये थे व पुतले झन्डे आदि दहन किये थे।
ये घटनाक्रम कोई मामूली घटनाक्रम नहीं है। सवाल उठता है कि जो पार्टी अपनी सरकार के समय बार बार कहती रही है कि रक्षा और विदेश जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषयों पर राजनीति नहीं होना चाहिये वही एक अविश्वसनीय खबर के आधार पर देश का मनोबल और व्यवस्था को कमजोर क्यों करना चाह रही है जबकि 1962 में ऐसे ही दुष्प्रचार से प्रभावित होकर संसद में देश की सरकार पर जो दबाव बना दिया गया था उसके दुष्परिणाम हमने लम्बे समय तक भुगते हैं। जवाहरलाल नेहरू जिस पंचशील के सिद्धांत पर चलकर देश को विकास के रास्ते पर ले जा रहे थे उससे भटक कर हमने अपनी आय का बहुत बड़ा हिस्सा रक्षा उपकरणों के आयात में लगाना शुरू कर दिया था व आज भी हमारा रक्षा बजट दूसरी जरूरी मदों की तुलना में बहुत अधिक है। यद्यपि यह तय है कि पाकिस्तान के अस्थिर शासन और विभिन्न समयों पर शासन करने वाले फौजी शासकों, जो अमरीकी निर्देशों और धन से संचालित होते हैं, से हमें लगातार खतरा बना रहता है। हम लोग हमेशा से जो आरोप लगाते रहते थे और अमरीका जिसे मानता नहीं था कि पाकिस्तान अमरीकी सहायता से मिलने वाली राशि को भारत के खिलाफ स्तेमाल करता रहता है, उसे पिछले दिनों परवेज मुशर्रफ ने स्वीकार करके आइना दिखा दिया है।
1949 की क्रान्ति के बाद का चीन कोई साम्राज्यवादी देश नहीं है। आज का औद्योगिक रूप से विकसित चीन भी अपने सस्ते औद्योगिक उत्पादनों के माध्यम से दुनिया के दूसरे औद्योगिक देशों का बाजार छीन रहा है। चीन के साथ हमारे मतभेद नक्शोंं पर खींची जाने वाली सीमा रेखाओं के मतभेद हैं और दोनों के ही पास पुराने पुराने नक्शे हैं। चार हजार किलोमीटर तक फैली इन सीमा रेखाओं में अधिकांश भाग बरफ से ढकी पहाड़ियों का है व वहाँ घास तक नहीं उगती है। 1962 में भी जब चीन तिब्बत के लिए इस विवादित सीमा रेखा क्षेत्र में मार्ग तैयार कर रहा था तब गलत अमरीकी सूचनाओं से प्रभावित कुछ सांसदों ने इसे हमला बता कर हमें वहाँ अपनी चौकियां स्थापित करने के लिए वातावरण तैयार कर दिया था जहॉ पर ना तो हमारे पास रसद पहुँचाने के मार्ग थे और ना ही हमारे सैनिकों के पास उपयुक्त हथियार व वहाँ के मौसम के अनुकूल कपड़े, टेंट तक थे। हमने सामरिक महत्व के अनुसार जहाँ पहली बार चौकियां स्थापित की थीं उस क्षेत्र को नक्शोंं में चीन अपना क्षेत्र मानता था व हमारी चौकियां स्थापित होने के कारण उसके मार्ग निर्माण में अवरोध आ गया था। माओ के शासन वाली चीन की तत्कालीन सरकार सैनिक बल में हमसे सशक्त थी। तिब्बत से सारी धनदौलत लेकर भागे दलाई लामा को शरण देने के कारण वे हमारी सरकार से असन्तुष्ट भी थे। परिणाम यह हुआ कि चीन ने हमारी नई बनायी गयी चौकियों से हमें काफी दूर तक पीछे खदेड़ दिया जिसमें हमारी जन धन की काफी हानि हुयी व देश का मनोबल टूटा। यह वही समय था जब नवसाम्राज्यवादी अमेरिका को हमारे देश में प्रवेश का अवसर मिला व मुख्य विपक्षी साम्यवादियों का स्थान साम्प्रदायिक राष्ट्रवाद ने लेना प्रारंभ कर दिया। इसके दुष्परिणाम हम आज तक भुगत रहे हैं। हमारे देश को सीमा विवाद में चीन द्वारा हमें अपनी सीमा से पीछे घकेल देना तो याद रहा किंतु इस सत्य को साफ तौर पर रेखांकित नहीं किया गया कि उसके बाद चीन अपने आप ही अपनी सीमा में वापिस लौट गया था व उसके लिए कोई अर्न्तराष्ट्रीय दबाव जिम्मेवार नहीं था। यदि वह कोई साम्राज्यवादी देश होता तो बिना किसी सौदे के जीती हुयी जमीन छोड़ कर नहीं चला जाता। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार एम के नारायनन द्वारा 19 सितम्बर 2009 को करण थापर के टीवी कार्यक्रम डैविल्स एडवोकेट में साफ साफ कहा कि-
· यह बात गलत है कि चीन दबाव डालने की कोशिश कर रहा है। दोनों राष्ट्र शांति बनाये रखना चाहते हैं।
· मैं नहीं समझ पा रहा हूँ कि मीडिया इसे क्यों बढा चढा कर पेश कर रहा है। मीडिया की हद से ज्यादा प्रतिक्रिया समस्या पैदा कर सकती है इसलिए किसी अवांछित घटना को रोकने के लिए सावधान रहने की जरूरत है। नासमझी में किसी के धैर्य खो देने पर कुछ भी गलत हो सकता है।
· 2009 का भारत 1962 का भारत नहीं है। हम सचेत हैं और मैं सोचता हूँ कि हम ऐसी परिस्तिथि में नहीं पड़ें जिसे हम नहीं चाहते।
· चीनी समकक्ष दाई बिंगूओ के साथ वार्ता के नौ दौर के बाद इस समय एक साल पहले की तुलना में हम ज्यादा सहज हैं।
खेद है कि मिसाइलों और एटमी हथियारों के इस युग में भी देश के लोगों को बरगलाने के लिए वही कहानी फिर से दुहरायी जा रही है। प्रधानमंत्री और सेना प्रमुख के स्पष्टीकरण के बाद सबसे बड़ा सवाल यह उठता है कि देश की सुरक्षा और अस्मिता से जुड़ी इस खतरनाक अफवाह के पीछे कौन सी ताकतें हैं और उनके इरादे क्या हैं। विश्वव्यापी मंदी के समय में हम बहुत ही खतरनाक दौर से गुजर रहे हैं व इतिहास बताता है कि मंदी और युद्धों के बीच कैसे सम्बंध रहे हैं।
यह जाना जाना चाहिये कि आखिर बिना पूरी पुष्टि किये हुये संघ परिवार के लोग इतने सक्रिय क्यों हो गये जबकि उन्होंने अपने संगठन में अनेक सेवानिवृत्त सैनिक अधिकारी भरती कर रखे हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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फोन 9425674629

मंगलवार, सितंबर 15, 2009

बदले की भावना

आखिर क्या बुराई है बदले की भावना में
वीरेन्द्र जैन
हमारे देश का सामाजिक संविधान कुछ धार्मिक कथाओं में वर्णित चरित्रों, घटनाओं और आदर्शौ के आधार पर चलता रहा है। इन कथाओं में हम रिशतों को परिभाषित व उसी अनुसार निधर्रित होते हुये देखते हैं और अच्छे व बुरे की पहचान करते हुये सामजिक मूल्य ग्रहण करते रहे हैं। इन कथाओं में जो एक चीज हम बहुत ही सामान्य पाते हैं वह है बदले की भावना। राम कथा में ही रावण जैसे राक्षस को मारने का फैसला उसके द्वारा छल पूर्वक सीता हरण करने के कारण लिया गया बताते हैं तथा इसी तरह अन्य कथाओं में भी कथा नायकों द्वारा समाजविरोधी तत्वों का विनाश किसी व्यक्तिगत रंजिश के कारण ही संभव हुआ पाते हैं। इतिहास में भी दर्ज हैं कि अगर औरंगजेब ने शिवाजी को बड़े मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया होता तो वे औरंगजेब के विरोधी न होकर उसके पक्ष में लड़ने वाले राजाओं की तरह जाने जाते।
आज की लोकतांत्रिक राजनीति में हम आये दिन देखते हैं कि जब भी किसी नेता के विरूद्ध कोई कानूनी कार्यवाही की जाती है तो वह इसे बदले की भावना से की गयी कार्यवाही कह कर सत्तारूढ दल को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश करता है और यदि सत्ता में हुआ तो दूसरे गुट के नेता को दोष देने की कोशिश करता है। उक्त आरोपियों का ऐसा बयान देश के संवैधानिक कानूनों में खुला अविशवास और उनके अपमान का सूचक होता है। आखिर बदले की भावना से भी की गयी कानूनी कार्यवाही यदि नियमानुसार है तो उसे करने में दोष ही क्या है?
हमारे कानून के अनुसार जब तक कि कोई दोषी साबित न हो जाये वह आरोपी ही माना जाता है तथा जब तक फैसला नहीं हो जाता तब तक वे आरोपी ही कहलाते हैं। प्रत्येक आरोप की एक जाँच प्रक्रिया है व विधिवत भरपूर समय देकर प्रकरण चलता है। इस दौरान आरोपियों को अपने आप को निर्दोष साबित करने का भरपूर अवसर रहता है। यदि यह साबित हो जाता है कि आरोपी निर्दोष था व जाँच अधिकारी अथवा शिकायतकर्ता ने उसे जानबूझ कर फॅंसाने की कोशिश की है तो उस पर भी प्रकरण दर्ज किया जा सकता है।
हमारे देश में इतने मुकदमे लम्बित हैं कि अगर सारी अदालतें बिना किसी छु़टिट्ओं के लगातार भी बैठें तो भी लगभग 150 साल उन्हें सुलझाने में लग जावेंगे। लोकतंत्र में प्रत्येक पाचँ साल में सरकार का नवीनीकरण होतहै इसलिए नये आने वाले शासन को अपना अभियान कुछ लागों से प्रारंभ करना पड़ता है। पर यदि ऐसे लोग किसी राजनीतिक दल के सदस्य होते हैं तो उनका आरोप होता है कि ये कार्यवाही उन्हें अनावशयक रूप से झूठे फॅसाने के लिए की जा रही है ऐसा आरोप लगाते हुये वे न केवल सत्ता में बैठे अपने विरोधी पर ही आरोप लगा रहे होते हैं अपितु यह भी कह रहे होते हैं कि पूरी न्याय प्रणाली सत्तारूढ दल की गुलाम होती है इसलिए उन्हें न्याय नहीं मिल सकेगा। यह न्याय के प्रति उनके अविशवास को प्रकट करता है। हो सकता है कि कुछ हद तक यह सही भी हो किंतु केवल अपने ऊपर आरोप लगने के बाद ऐसे विचार प्रकट करना किसी राजनेता और सामाजिक कार्यकर्ता के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता। यदि न्याय प्रणाली समेत किसी भी व्यवस्था में कोई दोष है तो उसे दूर करने के लिए राजनीतिक दलों और कार्यकर्ताओं को उन पर आरोप लगने से पूर्व भी निरंतर कार्य करना चाहिये। आखिर इससे पहले वे ऐसा क्यों नहीं कर रहे होते?
मेरी दृष्टि में यदि बदले की भावना से भी न्यायसंगत कार्यवाही होती है तो वह स्वागत योग्य है क्योंकि आखिर कहीं न कहीं से तो शुरूआत करना ही होगी। यदि एक धर्मनिरपेक्ष सरकार आयकर के छापों का प्रारंभ साम्प्रदायिक दलों के सदस्यों और उनको वित्तीय मदद देने वालों से करते हैं तो उसमें दुहरा फायदा है। जहाँ एक ओर छुपाये गये आयकर की वसूली होती है तो दूसरी ओर देश विरोधी साम्प्रदायिकता को पल्लवित पोषित करने वालों पर लगाम लगती है। विभिन्न सरकारें यही प्राथमिकता विरोधी दलों से जुड़े संदिग्ध माफिया गिराहों व असामाजिक तत्वों के साथ कर सकती हैं। अतिक्रमण हटाने के मामले में भी यह प्रक्रिया परिण्ाामदायी सिद्ध होगी।
राजनीतिक दलों के सदस्य होने के आधार पर किसी को भी कानून से कोई छूट नहीं दी जानी चाहिये क्योंकि बहुत सारे दलों में कानून से सुरक्षा पाने के लिए ही अनेक अपराधी सम्मिलित हो गये हैं जो कार्यवाही होने पर अपनी राजनीतिक हैसियत का कवच पहिन लेते हैं। राजनीतिक विरोधियों को प्राथमिकता पर रखने का एक लाभ यह भी होगा कि फिर वे भी पलट कर सत्तारूढ दल के सदस्यों में छुपे अपराधियों के खिलाफ अपनी जानकारियों को सार्वजनिक करेंगे जिससे सरकार स्वत: ही लाभान्वित होंगी। यह प्रक्रिया प्रशासनतंत्र को साफसुथरा बनाने में मददगार होगी। देखने में यह आ रहा है कि अभी अपराधों का सहकार चल रहा है और सत्ता व विपक्ष में सम्मिलित नेताओं में यह समझ सी बन गयी है कि ना हम तुम्हें छेड़ें और ना ही तुम हमारे मामले में अपनी चाेंच डालो। जनता के सामने पिछली सरकार पर तरह तरह से आरोप लगाने वाला विपक्षी दल सत्ता पाने के बाद उदार बन जाता है क्यों कि वह स्वयं भी उसी रास्ते पर जाने के लिए तैयार होकर आता है जिसकी आलोचना करते करते उन्होंने सत्ता हथियायी होती है। होना तो यह चाहिये कि किसी भी आरोपी को किसी मान्यता प्राप्त राजनीतिक दल का सदस्य बनने से रोक लगाये जाने के प्रावधान हों, अथवा उन्हें चुनाव में खड़े होने से वंचित किया जा सके। यदि ऐसा नहीं किया जा सकता तो कम से कम इतना तो किया ही जा सकता है कि यदि कोई आरोपी चुन लिया जाये तो उस पर चल रहे प्रकरणों की सुनवाई किसी फास्ट ट्रैक अदालत से नियमित रूप से करवायी जाये। हमारे चुने हुये सदस्यों को जो अनेक विशोष सुविधाएॅ मिली हुयी हैं तो यह एक विशोष सुविधा और मिलने से हमारे सदन दाग रहित सदस्यों के सदन बन सकेंगे।

वीरेन्द्र जैन
21 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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