मंगलवार, जून 09, 2020

हरि शंकर परसाई और मैं उनका एकलव्य


हरि शंकर परसाई और मैं उनका एकलव्य
वीरेन्द्र जैन

याद नहीं कि कब पहली बार उनकी रचना कहाँ पढी थी, किंतु जब भी पढी हो उसके बाद जब भी उनके नाम के साथ कोई रचना देखी तो बिना पढे नहीं छोड़ सका, और कभी भी ऐसा नहीं लगा कि यह रचना पहले पढी रचना से कमजोर है।
विचार और व्यंग्य के युग्म को पढने का शौक तो ख्वाजा अहमद अब्बास के हिन्दी ब्लिट्ज़ में प्रकाशित स्तम्भ ‘आज़ाद कलम’ और कृश्न चन्दर की पुस्तक ‘जामुन का पेड़” से लग चुका था जो हिन्द पाकेट बुक्स ने भी प्रकाशित की थी। [उन दिनों हिन्द पाकेट बुक्स की किताबें एक या दो रुपये में आती थीं और खरीदी जा सकती थीं]। परसाई जी मेरे लिए जामुन का पेड़ की परम्परा की अगली कड़ी थे। वे मेरे लिए कब आदर्श बन गये यह कह नहीं सकता, किंतु इतना याद है कि जब 1984 में मेरी पहली किताब ‘एक लुहार की’ पर एक गोष्ठी हुयी तो उसमें एक वक्ता ने कहा था कि ये परसाई की गैलेक्सी के सितारे हैं। यह वाक्य बुरा भी लग सकता था किंतु मेरी उस समय की रचनाओं में परसाई जी के प्रभाव को अनुभव करना मेरे लिए खुशी की बात थी। मैंने भी व्यंग्य के लिए वही विषय चुने थे जो परसाई जी के विषय रहे थे।
वैसे तो लगभग सभी ने उन्हें हिन्दी व्यंग्य का पितामह माना है किंतु मेरे मन में उनके प्रति किसी देवता की तरह के सम्मान का भाव था। मुझे मेरे पिता से जो प्रगतिशील मूल्य मिले थे, उन्हें मैं परसाई जी की रचनाओं में हू बहू देखता था, इससे मुझे अपनी सोच और विचारधारा को बल मिलता महसूस होता था। मिर्जा गालिब ने कहा है-
देखना तकरीर की लज्जत कि उसने जो कहा
मैं ने ये जाना कि गोया ये भी मेरे दिल में है
कुछ ऐसा ही मेरा हाल था। शायद इसका कारण नेहरू मंत्रिमण्डल में वी के कृष्ण मेनन का समर्थन करने वाला और मोरारजी देसाई का विरोध करने वाले ब्लिट्ज़ का नियमित पाठक होना भी हो।
कला व राजनीति से जुड़े जिन लोगों ने विवाह न करना तय किया था उनके प्रति मेरे मन में बहुत आदर का भाव रहा था। भगत सिंह, लोहिया, अटल बिहारी, लता मंगेशकर, डेविड, रजनीश आदि की श्रंखला में परसाई जी भी आते थे। उनकी मयनोशी के बारे में भी किस्से तो बहुत सुने थे, और इन्हीं किस्सों का असर हुआ था कि गालिब, नीरज, सरोज, रंग, परसाई आदि आदि के कारण मेरे मध्यम वर्गीय मूल्यों में साहित्यकार कलाकार की मयनोशी बुरी बात नहीं रह गयी थी। इसे मैं कलाकार का डिठौना मानता रहा। कभी राजेन्द्र यादव ने कहा था कि यह विद्रोह की भाषा भी है।
मेरा सपना था कि काश कभी परसाई जी से मुलाकात हो सके। पत्र पत्रिकाओं में छपने और कवि सम्मेलनों में जाने की तीव्र वासना ने मुझ में जो कुछ बुरे तरीके पैदा किये थे, उनमें से एक यह भी था कि हर उत्सव के अवसर पर सम्पादकों और अपने प्रिय लेखकों, कवियों को शुभकामना सन्देश भेजना। याद तो नहीं पर उनमें परसाई जी का नाम भी सूची में रहा होगा। उत्तर आने पर खुशी होती थी, पर दूसरे अनेकों के विपरीत शुभकामना पत्र पर परसाई जी का कभी उत्तर नहीं आया।
1976-77 में जब वे सारिका में स्तम्भ लिख रहे थे तब मुझे उसमें एकाध लघु कथा और कुछ पत्रप्रतिक्रियाएं लिखने का मौका मिला था जो किसी पहचान का अधिकार नहीं देता था। किंतु जब देश में जनता पार्टी सरकार आयी और महावीर अधिकारी के सम्पादन में साप्ताहिक करंट [जो ब्लिट्ज़ की तरह का एक टेबुलाइज्ड अखबार था ] ने अपना हिन्दी संस्करण प्रारम्भ किया तो उसमें कमलेश्वर, राही मासूम रजा, और परसाई जी ने अपने पूरे पेज के स्तम्भ लिखने प्रारम्भ किये। उसी अखबार में मेरी भी छोटी छोटी व्यंग्य कविताएं छपने लगीं। सच कहूं तो मुझे अपनी रचनाओं के प्रकाशन से मिलने वाली खुशी से ज्यादा इस बात की खुशी थी कि मैं परसाई जी के साथ छप रहा हूं। वह अखबार दो तीन साल ही चल सका।
परसाई जी ने स्तम्भ के रूप में नियमित लेखन बहुत किया है, कह सकते हैं कि वे मुख्य रूप से स्तम्भ लेखक ही थे और तात्कालिक विषयों पर खूब लिखते थे। 1976 से 1980 तक मेरे पास भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी समर्थक दैनिक अखबार ‘जनयुग’ आता रहा, जिसमें परसाई जी आदम के नाम से दैनिक स्तम्भ लिखते थे। कह सकता हूं कि उस स्तम्भ ने मुझे ट्यूटोरियल दिये, मैंने राजनीतिक व्यंग्य लिखना सीखा। इससे पहले भी परसाई जी अपने समय की प्रमुख पत्रिका कल्पना में ‘और अंत में’ नामक स्तम्भ लिखा करते थे जिसने साहित्य में व्यंग्य को प्रमुख स्थान दिलाया, जो कभी हाशिए की चीज हुआ करती थी। शायद इसी आधार पर उन्होंने लिखा था कि व्यंग्य अब शूद्र से ठाकुर बन गया है। उन्होंने मध्य प्रदेश क्या, कभी देश के प्रमुख अखबार रहे ‘नई दुनिया’ में भी ‘सुनो भाई साधो’ नाम से स्तम्भ लिखा जिसने हिन्दी क्षेत्र के पाठकों के बीच प्रगतिशील मूल्यों को प्रतिष्ठित किया। उनके स्तम्भों के नाम कबीर के दोहों में से ही चुने जाते रहे, जैसे ‘माटी कहे कुम्हार से’ ‘कबिरा खड़ा बजार में’ सुनो भई साधो’ आदि। साहित्य के बाजार में वे खुद भी लुकाठी लिये ही खड़े रहे। जब वे धर्म के नाम पर चल रहे धन्धे का मजाक बनाते थे या मिथकों के सहारे राजनीतिक टिप्पणियां करते थे तो वह मुझे बहुत भाता था।
      दक्षिणपंथी, जातिवादी, जड़तावादियों ने व्यक्ति परसाई का तो विरोध किया किन्तु वे ना तो उनके बराबर का कोई लेखक पैदा कर सके और ना ही उनके लेखन का कोई उत्तर ही तलाश सके। आर एस एस ने उनके ऊपर एक बार हमला करा दिया था तो उन्होंने उस हमले पर ही कई व्यंग्य लिख दिये जिससे पूरे देश में संघ का चरित्र उजागर हुआ और उसकी भरपूर निन्दा हुयी। बाद में जब संघ वालों ने क्षमा मांगते हुए कहा कि आगे से ऐसा नहीं होगा, तब भी उन्होंने लिखा कि देखो इन्होंने स्वीकार कर लिया कि हमला इन्होंने ही कराया था। जब व्यावसायिक पत्रिकाओं ने शरद जोशी को अधिक प्रोत्साहन देकर उनके मुकाबले स्थापित करने के लिए प्रोत्साहित किया तब भी उन्होंने परसाई जी के मूल्यों के खिलाफ कभी कुछ नहीं लिखा क्योंकि कोई ईमानदार लेखक उन मानव मूल्यों के खिलाफ कुछ लिख ही नहीं सकता।
1981 के अंत में जब मेरा ट्रांसफर हैदराबाद से नागपुर हो गया तो अपनी सोच और परसाई के प्रति अपनी पक्षधरता के कारण मुझे उनका सिपाही समझ लिया गया जबकि तब तक ना तो मेरा उनसे पत्र व्यवहार था और ना ही कभी मुलाकात हुयी थी। इतना जरूर था कि बहसों में मैं उनका पक्ष लेते हुए  लोगों से टकरा जाता था। नागपुर में रिजर्व बैंक में अधिकारी एक लेखक थे रमेश डी गाडे, उन्होंने मुझ से कहा कि गुजराती और मराठी में परसाई जी की रचनाओं का अनुवाद कर के कुछ लेखक अपने नाम से प्रकाशित करा रहे हैं व इस विषय पर मैंने मराठी के अखबार में एक पत्र लिखा है जिसकी कटिंग आप परसाई जी तक पहुंचा दें। उनके इस प्रस्ताव पर मुझे खुशी हुयी कि मुझे परसाई जी के लिए कुछ करने का अवसर मिला है तो इसी बहाने शायद उनसे सम्पर्क हो सके। मैंने उनसे वह कटिंग लेकर परसाई जी को भेज दी । दो महीने गुजर गये किंतु परसाई जी की ओर से कोई उत्तर नहीं आया। फिर संयोग ऐसा बना कि मुझे प्रमोशन मिला और बैंक मैनेजर के रूप में मेरा ट्रांसफर जबलपुर हो गया। मैं खुश था कि परसाईजी और ज्ञानरंजन जी के शहर में रहने व मेल मुलाकात का मौका मिलेगा।
फरबरी 1982 में जबलपुर पहुंचने के पहले ही सप्ताह में मैंने परसाई जी से भेंट का कार्यक्रम बनाया। मैं अपना परिचय देने के मामले में बहुत संकोची रहा हूं और हर बार ऐसी स्थिति में मुझे दूसरे का सहारा लेना ही सही लगता रहा है। जबलपुर से 1977 में ‘व्यंग्यम’ नामक एक पत्रिका निकली थी जिसमें मेरे कई व्यंग्य छपे थे, इसके सम्पादक रमेश शर्मा, महेश शुक्ल, और श्रीराम आयंगार थे। उस समय रमेश शर्मा ही उपलब्ध थे जो नेपियर टाउन में ही रहते थे सो उनका ही सहारा लिया। उन्होंने बताया कि परसाई जी कमर में चोट के कारण बिस्तर तक सीमित होकर रह गये हैं इसलिए लेटे हुए ही मिलेंगे, पर वे पैर छुलाना पसन्द नहीं करते इसका ध्यान रखना। यद्यपि मैंने हामी तो भर दी थी किंतु अपने भक्तिभाव के कारण इस सावधानी को भूल गया और मैंने लेटे हुए परसाई जी के पैर छू ही लिये। गनीमत रही कि उनकी नाराजगी नहीं झेलना पड़ी। रमेश जी ने मेरा परिचय दिया तो कम बोलने वाले परसाई जी ने बिना विशेषण के एक वाक्य बोला- मैंने भी आपका लिखा पढा है। मैं गदगद हो गया था।
जब मैंने रमेश डी गाडे वाले पत्र की चर्चा की तो उन्होंने पूछा कि आपको मराठी आती है? मेरे  नहीं में सिर हिलाने पर वे बोले तभी आपको नहीं पता कि रमेश गाडे के उस प्रकाशित पत्र में क्या लिखा है। उसमें लिखा था कि गुजराती मराठी के इन लेखकों ने परसाई जी की रचनाएं ली है, पर परसाई जी किन विदेशी लेखकों की रचनाएं लेते हैं यह नहीं पता। मुझे तेज गुस्सा आया जो जल्दी ही अफसोस में बदल गया कि मैंने यह नहीं सोचा कि श्री गाडे ने इस काम के लिए मेरा स्तेमाल क्यों किया। वे चाहते तो खुद भी उस पत्र को परसाई जी तक भेज सकते थे।
रमेश जी पहले ही चेता चुके थे कि ज्यादा देर नहीं रुकना है सो भविष्य में फिर आने की उम्मीद में मैं लौट आया। विभागीय जटिलताओं के कारण मैं जबलपुर में भी ज्यादा दिन तक नहीं टिक सका और मेरा ट्रांसफर हो गया। मेरे जीवन में परसाई जी से यही एक मुलाकात हुयी किंतु रचनाओं के आधार पर तो मैं उनसे जीवन भर मिलता रहा सीखता रहा। उनके लेखन का ही प्रभाव था कि किसी भी व्यक्ति का बनावटीपन मुझे स्वीकार नहीं हुआ जिसने कई बार मुझे धोखे खाने से बचाया।
1985 में जब परसाई जी को चकल्लस पुरस्कार घोषित किया गया तब् संयोग से मैं मुम्बई गया हुआ था तो चेतन जी ने मुझे यह जानकारी दी। मैंने पूरे विश्वास के साथ कह दिया कि वे स्वस्थ नहीं हैं इसलिए आयेंगे नहीं। चेतन जी को बुरा लगा। बोले मैंने उनके कहे अनुसार आने जाने के प्रथम श्रेणी के दो दो टिकिट भेजे हैं , इसलिए उन्हें किसी के साथ आना तो चाहिए। बाद में यही हुआ कि चक्कलस पुरस्कार  लेने वे नहीं आये व उनके स्थान पर सुरेश उपाध्याय ने उनकी ओर से वह पुरस्कार ग्रहण किया था।
उनके लेखन से लगता था कि वे भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी के सक्रिय सदस्य होंगे, किंतु ऐसा नहीं था। उन्होंने कभी भी पार्टी की सदस्यता नहीं ली। काँग्रेस नेता श्रीकांत वर्मा एक बार उन्हें राज्यसभा में भेजना चाहते थे किंतु उन्होंने जिससे सिफारिश की उसने श्रीकांत वर्मा को ही राज्यसभा का सदस्य बनने के लिए तैयार कर लिया, परसाई जी रह गये। उन्होंने लिखा कि मैंने इकलौती बार किसी के सामने हाथ फैलाया तो उसने मेरी हथेली पर थूक दिया। यह अच्छा ही रहा, दोबारा कहीं किसी के आगे हाथ फैलाने से बच गया। 
मैं कह सकता हूं कि मैं उनका एकलव्य रहा हूं जिसने उनकी मूर्ति बना कर दीक्षा ली। पर ना तो मैं धनुर्धर बन सका और ना ही उन्होंने कभी दक्षिणा चाही।           
        वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जून 01, 2020

लोकतंत्र और पारदर्शिता

लोकतंत्र और पारदर्शिता
वीरेन्द्र जैन

किसी देश की शासन प्रणाली में जो महत्व लोकतंत्र का है, वही महत्व लोकतंत्र में पारदर्शिता का है। अगर लोक को सच्चाई का पता ही नहीं होगा तो वह अपना विचार क्या बनायेगा! विडम्बना यह है कि लोकतंत्र के बड़े बड़े दावे करने वाले लोग प्राइवेसी के अधिकार की बात तो करते हैं किंतु पारदर्शिता की बात नहीं करते, जबकि पारदर्शिता से लोकतंत्र मजबूत होता है। जब भी किसी सरकार में मंत्री पद की शपथ ली जाती है, तब गोपनीयता की शपथ तो लेते हैं, पारदर्शिता की नहीं। सूचना के अधिकार को प्राप्त करने के लिए देश के जागरूक संगठनों को लम्बा संघर्ष करना पड़ा और कुछ ही दिनों बाद उस कानून में जगह जगह से कतर ब्योंत कर दी गयी। इसके महत्व को समझने के लिए उल्लेखनीय है कि उक्त अधिकार के बाद दर्जनों आरटीआई कार्यकर्ताओं की हत्याएं हुयीं जिनका आरोप विभिन्न सत्तारूढ राजनेताओं व उनके दरबारियों पर ही लगा, जिन्हें सजा नहीं मिल सकी। पुलिस, फौज, प्रशासन, राजनेता, और न्याय कोई भी पारदर्शिता को प्रोत्साहित नहीं करना चाहता, जबकि जब जब पारदर्शिता बढी है तब तब सत्ता के समक्ष खड़ी जनता को ताकत मिली है।  
 किसी शासन, प्रशासन को देश की सुरक्षा के लिए जितनी गोपनीयता की जहाँ जहाँ जरूरत है वहाँ वहाँ  छोड़ कर शेष क्षेत्रों में पारदर्शिता होना चाहिए। हम जनता के द्वारा, जनता के लिए, जनता का शासन चलाते हैं तो यह शासन जनता को व्यवस्था का सच बताये बिना कैसे पूरा हो सकता है।
सबसे पहले तो जो राजनीतिक दल जनता से समर्थन प्राप्त कर विभिन्न सदनों में अपने प्रतिनिधियों को भेज कर सरकार बनाने व सदन चलाने में मदद करते हैं उनकी कार्यप्रणाली में ही पारदर्शिता नहीं है। उनके संगठन में पदाधिकारी चयन में लोकतंत्र नहीं, केवल दिखावा है और अधिकांश दलों में वंशानुगत नेतृत्व ही चल रहा है। पुराने राज परिवारों में से लगभग सभी के वंशज अपने पुराने प्रभाव व दबाव से  किसी न किसी पद पर चुनाव जीत कर सत्ता पर पुनः कब्जा जमा चुके हैं, या अपने गुलामों को बैठा चुके हैं। असहमतों की हत्याएं कर दी गयी हैं और ऐसी अनगिनित हत्याओं को दबा दिया गया है या उनकी जांच रिपोर्टों को बदल दिया गया है।
जो राम रहीम किसी पत्रकार की सरे आम हत्या के लिए जिम्मेवार माना जाता है उसके आगे हरियाणा में सत्तारूढ दल के सारे विधायक किसी समय दण्डवत करने जाते हैं और मंत्रिमण्डल उसे विभिन्न बहानों से करोड़ों रुपयों का अनुदान स्वीकृत करता है। अगर एक न्यायाधीश साहस नहीं जुटाता तो उसे कभी सजा नहीं मिलती। देश भर में सैकड़ों पत्रकारों को सच सामने लाने के कारण शहीद होना पड़ा है। जब किसी एक ज्ञात हत्यारे को सजा नहीं मिल पाती तो हजारों पत्रकार दबाव में आकर सच लिखने का साहस नहीं जुटा पाते व लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ मिट्टी का लौंदा बन कर रह जाता है। अखबार, व्यापार और सरकार का जो गठजोड़ बना है उसका परिणाम यह है कि सारा बड़ा मीडिया उन कार्पोरेट घरानों का हिस्सा बन चुका है, जो सरकार चलाते हैं। ऐसे में कथित जनता के शासन की जनता के सामने पारदर्शिता कठिन होती है। कभी कमलेश्वर जी ने सारिका के एक सम्पादकीय में लिखा था कि प्रैस की आजादी का मतलब प्रैस मालिकों की आजादी नहीं होती अपितु पत्रकार की आजादी होता है। 
किसी दल में जनप्रतिनिधि हेतु प्रत्याशी चयन की कोई घोषित नीति और न्यूनतम पात्रता घोषित नहीं है। सदस्यता की वरिष्ठता या दल के घोषित कार्यक्रमों में दिये गये योगदान, सम्बन्धित पद के कार्य सम्पादन में योग्यता आदि का कोई रिकार्ड नहीं रखा जाता। यदि प्रत्याशी बनने के लिए मांगे गये आवेदनों में कभी कुछ पूछा भी जाता है तो अंतिम चयन में उसका कोई महत्व नहीं होता। प्रत्याशी चयन की बैठकें गोपनीय स्थानों पर होती हैं व चयन समिति के लोग छुपे फिरते हैं, क्योंकि चयन का आधार मैरिट नहीं होता। यही कारण होता है कि दलबदलू पुराने सदस्यों से बेहतर स्थान पा लेते हैं।
सरकार में आने या जनप्रतिनिधि चुने जाने के बाद आय में अप्रत्याशित वृद्धि देखी जती है, इस वृद्धि को सन्देह की दृष्टि से देखे जाने की जगह प्रमुख दलों में उसे अगले चुनाव में प्रत्याशी बनाये जाने के गुण की तरह देखा जाता है। जिन जिन पदों पर भ्रष्टाचार की सम्भावनाएं हैं व अतीत में उन पदों पर पदस्थ लोगों के भ्रष्टाचार कभी सामने आ चुके हों तो उन पदों पर बैठने वालों को सर्विलेंस में रखा जाना चाहिए। इसके विपरीत मंत्रिमण्डल में विभाग वितरण के दौरान मलाईदार विभागों को हथियाने की नंगी दौड़ देखी जाती है। इस बात की कोई वार्षिक रिपोर्ट प्रस्तुत नहीं की जाती कि गत वर्ष जो लोग भ्रष्ट आचरण के कारण विभिन्न जाँच एजेंसियों की पकड़ में आये थे, उन के प्रकरणों में क्या प्रगति है, ना ही सरकार की उपलब्धियों के बड़े बड़े विज्ञापनों में जाँच की प्रगति दर्शायी जाती हौ। नहीं बताया जाता कि मामले कहाँ अटके हुए हैं! धीरे धीरे लोग उन्हें भूल जाते हैं।
मंत्रिमण्डल गठन की कोई घोषित नीति नहीं है। कहीं यह स्पष्ट नहीं किया जाता कि फलां को क्यों मंत्री बनाया गया है और फलां विभाग ही क्यों दिया गया है। जनता के काम को योग्यता अनुसार सुचारु रूप से करने की क्षमता की जगह मंत्री का दबाव, उसका वंश, जाति, और वफादारी आदि के आधार पर चयन किया जाता है। यही कारण है कि अक्षम मंत्रियों के विभाग नौकरशाह चलाते हैं।
केन्द्र में नरेन्द्र मोदी के सत्तारूढ होने के बाद तो पारदर्शिता जैसी कोई चीज नहीं रह गयी। मंत्रिमण्डल के सदस्यों तक को लोग नहीं जानते। समाचारों में उनका नाम यदा कदा ही सामने आता है, यहाँ तक कि सांसद तक जरूरत पड़ने पर डायरी तलाशने लगते हैं कि किस विभाग में कौन मंत्री है। पूरा मंत्रिमण्डल दो लोग चला रहे हैं। नोटबन्दी से लेकर लाकडाउन तक सबसे छुपा कर ऐसे घोषित किये जाते हैं जैसे जनता के खिलाफ सर्जिकल स्ट्राइक की जा रही हो। आवश्यक, अनावश्यक हर मामला गोपनीय रखा जाता है।
उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री कौन होगा ये सात चरणों वाले चुनाव के छठे चरण तक घोषित नहीं किया जाता और अंतिम चरण में योगी को घोषित किया जाता है। उससे पहले ही समाजवादी पार्टी की सरकार के समय में भी चुनाव पूरे हो जाने के बाद बताया जाता है कि जीत की स्थिति में अखिलेश मुख्यमंत्री होंगे।  मुख्यमंत्री को विधायक नहीं चुनते अपितु हाईकमान चुनता है, जिस के नाम पर मोहर लगाने को विधायक बाध्य होते हैं। हाईकमान ने किन किन नामों के बीच किस आधार पर चयन किया है यह कहीं स्पष्ट नहीं होता। जब कोई दल त्यागता है तो उस तिथि के एक दिन पहले तक वह पार्टी के प्रति बफादार दिखने की कोशिश करता है और बाद में वह अपने मतभेदों को राजनीतिक बतलाते हुए लम्बे लम्बे बयान देता है। अगर राजनीतिक मतभेद हैं तो उसे अपने समर्थकों के बीच लगातार सामने रखा जाना चाहिए।
मेरठ के प्रसिद्ध वकील के के गर्ग ने राष्ट्रपति द्वारा फांसी की सजा माफ करने के विशेष अधिकार को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए मांग की थी कि राष्ट्रपति किस की सजा को माफ करते हैं और किसकी नहीं, इस बात का अन्धा अधिकार उन्हें नहीं है, अपितु इसका प्रयोग करते समय लिये गये फैसले के गुणदोषों को स्पष्ट किया जाना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने उनकी याचिका को स्वीकार किया था।
 नवाज शरीफ की बेटी की शादी में अचानक से अवतरण करने से क्या लाभ हुआ। नागा विद्रोहियों को मारने और म्यांमार में अन्दर प्रवेश कर मृतकों की गलत संख्या बताने या सर्जिकल स्ट्राइक या बालाकोट के बारे में बताये गये तथ्य विवादास्पद क्यों रहे। यह सैटेलाइट निरीक्षण ड्रान कैमरों से वीडियोग्राफी, डिजिटल कर्यालयों और जगह जगह सीसीटीवी कैमरों का युग है। हर हाथ में पहुंच गये मोबाइल कैमरों से दृश्य समाचार तक मिनिटों में विश्वव्यापी हो सकते हैं, होते भी रहते हैं, किंतु हम फिर भी महाभारत के ‘अश्वत्थामा हतो’ जैसे झूठ लगातार बोल रहे हैं, और जनता के बीच लोकतंत्र में आस्था को कम कर रहे हैं।
      प्रशासकीय पारदर्शिता को मौलिक अधिकारों में शामिल करना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, मई 24, 2020

एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण .......................वरना हम भी आदमी थे काम के


एक भूतपूर्व लतीफा लेखक के संस्मरण
.......................वरना हम भी आदमी थे काम के

वीरेन्द्र जैन
आज जब देश  में लतीफों को बाजार करोड़ों रूपयों की सीमाएं तोड़ चुका है, तब मुझे वो पुराने दिन याद आ रहे हैं जब मैं धर्मयुग के कुछ गिनेचुने लतीफा लेखकों में हुआ करता था और उस समय एक लतीफे के कुल पांच रूपये मिलते थे। उस पर भी दो लतीफे एक साथ छपने पर दस रूपये का भुगतान मनीआर्डर से न होकर चैक से होता था तथा चैक को वसूलने के लिए उसमें से ढाई रूपये बैंक कमीशन के कट जाते थे। धर्मयुग उन दिनों किसी हिन्दी लेखक की राष्ट्रव्यापी पहचान स्थापित करने वाली प्रमुख पत्रिका थी जिसमें प्रत्येक रचना पूरी छानबीन के साथ प्रकाशित होती थी व भारतीजी प्रैस में जाने से पहले पूरे अंक के प्रत्येक पेज पर पंक्ति दर पंक्ति दृष्टिपात करना जरूरी मानते थे।
                आज जब टीवी के लाफ्टर चैलेन्ज शो में लतीफेबाजी को निकृष्टतम कोटि की भड़ेंती समझी जा रही है भले ही उसमें लाखों रूपयों के पारिश्रमिक और इनाम जुड़े हों तथा देश  की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी के सांसद उसमें भाग ले रहे हों, पर उस दौर के लतीफा लेखकों की सूची पर नजर डालकर गर्व होता है। इनमें शामिल अनेक लोगों ने हिन्दी के लोकप्रिय साहित्य के आकाश  को बहुत ऊूंचाई तक छुआ है और अनेक तो अभी भी छाये हुये हैं। इन में मेरे साथ शामिल थे -के.पी सक्सेना, बालकवि वैरागी, सूर्यकुमार पांडे,  हरिओम बेचैन,  सरोजनी प्रीतम,  मधुप पांडेय काका हाथरसी आलोक मेहरोत्रा, आदि।
                रोचक यह है कि मुझसे लतीफे लिखने का आग्रह करने वाले थे हिन्दी पत्रकारिता जगत में सूर्य की तरह चमके, व पहला टीवी न्यूज शो प्रारम्भ करने वाले सुरेन्द्र प्रताप सिंह, जो उन दिनों धर्मयुग में उपसंपादक थे। बाद में इस स्तंभ को उदयन शर्मा और योगेन्द्रकुमार लल्ला जैसे लोगों ने भी देखा था। श्री हरिवंश जो इन दिनों राज्यसभा के उपाध्यक्ष हैं, भी उन दिनों धर्मयुग में उप सम्पादक थे और बाद में जब वे बैंक आफ इंडिया में हिन्दी अधिकारी के रूप में हैदराबाद में पदस्थ हुये तब मैं भी हैदराबाद में था और तब से ही हुयी उनसे पहचान पर मैं गर्व करता रहा।
                पहले रीडर्स डायजेस्ट केवल अंग्रेजी में आती थी जिसके लतीफे अंग्रेजी के पाठकों में बहुत पठनीय माने जाते थे। वे उस समय भी श्रेष्ठ लतीफे पर पचास रूपये का पुरस्कार देते थे जबकि धर्मयुग दुष्यंत कुमार जैसे कवि की गजलों को पारिश्रमिक के तौर पर पच्चीस रूपये देता था जिस पर दुष्यंत कुमार ने भारती जी को गजल में पत्र लिखा था जिसका एक शे’र था-
                                कल मैकदे में चैक दिखाया था आपका
                                वे हॅंस के बोले इससे जहर पीजिये हुजूर

                धर्मयुग के सुरेन्द्रप्रतापसिंह का आग्रह मेरे लिए किसी बड़े प्रमाणपत्र से कम नहीं था। मैंने अंग्रेजी रीडर्स डायजेस्ट के पुराने अंक पुरानी किताबें बेचने वालों से खरीद कर उसके श्रेष्ठ पुरस्कृत लतीफे एकत्रित किये और बड़ी मेहनत से उनका अनुवाद किया। पर अनुवाद के बाद ऐसा लगा कि वे लतीफे विदेशी संस्कृति की विसंगतियों और बिडम्बनाओं से जनित हैं तथा हिन्दी भाषी क्षेत्र की संस्कृति में वैसा हास्य उनसे पैदा नहीं होता जैसा कि वहां होता होगा। अतः मैंने उन लतीफों के भावों को पचा कर उन्हें अपने परिवेश  में ढाल कर प्रस्तुत किया जो काफी श्रमसाध्य कार्य था। पर उस दौर में धर्मयुग में लतीफे लिख कर भी धन्य हुआ जा सकता था और देश व्यापी पहचान बनायी जा सकती थी, जैसाकि आज के लाफ्टर चैलेन्ज शो वाले कमा रहे हैं। इस आकर्षण ने मुझसे हजारों लतीफे लतीफे लिखवा लिये जो धर्मयुग की आवश्यकता से भी अधिक थे। बाद में इनमें से बहुत सारे लतीफे माधुरी, रंग, मनोरमा, साप्ताहिक हिुदुस्तान, आदि बहुपठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुये। धर्मयुग ने बाद में मुझ से विषय अनुसार लतीफे भी लिखवाये। इन लतीफों की एक पुस्तक काका हाथरसी के सहयोग से स्टार पाकेट बुक्स से प्रकाशित हुयी जिसकी कथा भी रोचक है।

                धर्मयुग से मिली प्रसिद्धि के कारण लतीफों की पुस्तक प्रकाशित कराने का विचार बना। सोचा कि हाथ के लिखे लतीफों की पुस्तक प्रकाशक को भेजने पर हो सकता है वह लौटा दे इसलिए टाइप करा लिया जाये पर उस दौरान मेरी पोस्टिंग जिस गांव में थी वहां टाइपिंग की कोई सुविधा नहीं थी सो वहां से सत्तर किलोमीटर दूर लखनऊ में टाइप कराना पड़ी। उसी दौरान लखनऊ के सूर्यकुमार पांडेय  से मित्रता हुयी जिन्होंने टाइप कराने की जिम्मेवारी सम्हाली। टाइप होने के बाद पाण्डुलिपि को उस समय के सर्वाधिक चर्चित प्रकाशन संस्थान हिन्द पाकेट बुक्स को भेजा और आश्चर्य कि उन्होंने बिना किसी विलम्ब के स्वीकृति भेज दी। इसी दौरान मेरा ट्रांसफर बैनीगंज (हरदोई) से हाथरस हो गया। हाथरस आते ही कुछ दिनों बाद हिन्द पाकेट बुक्स के प्रबंधन में फेरबदल हुआ और प्रकाश पंडित जी जिन्होंने मेरी पाण्डुलिपि को स्वीकृति दी थी, हिन्द पाकेट बुक्स छोड़ दी। इस फेरबदल के साथ ही उनके द्वारा स्वीकृत पांडुलिपि वापिस आ गयी। मैं अपनी पहली पुस्तक के प्रकाशन की संभावना पर जितना खुश था उसके टूट जाने पर उससे कहीं अधिक दुखी हुआ। धर्मयुग के कारण ही काका हाथरसीजी मुझे जानते थे और हाथरस में मुझे मकान आदि दिलाने में उन्होंने बहुत सहयोग किया था। जब उन्हें मेरा दुख मालूम हुआ तो उन्होंने सांत्वना दी और पाण्डुलिपि दिखाने को कहा। कुछ दिनों बाद उन्होंने कहा कि मेरी प्रकाशक से बात हुयी है, पुस्तक तो छप जायेगी पर तुम्हारे नाम से उतना नहीं बिकेगी जितना मेरे नाम से बिकेगी इसलिए इसे मेरे नाम से छप जाने दो। अन्दर सम्पादक के रूप में हम दोनों के ही नाम रहेंगे। उस निराशा के दौर में मैंने स्वीकृति दे दी। बाद में वह पुस्तक पाँच वर्ष बाद काका के लतीफेके नाम से छपी जबकि अन्दर के पृष्ठ और भूमिका में मेरे नाम का उल्लेख हुआ। मैंने भी सोचा कि आखिरकर तो मेरा भी काम अनुवाद का ही था सो जो हुआ सो हुआ। काका ने पुस्तक की दो हजार की रायल्टी में से आधी चैक से मुझे भेज दी। इससे पूर्व लतीफों पर इतनी बड़ी राशि का भुगतान मुझे नहीं हुआ था इसलिए बहुत दिनों तक तो काका हाथरसी का वह चैक मैं मित्रों को दिखाने के लिए रखे रहा क्योंकि उन दिनों फोटो कापी की दुकानें भी इतनी आम नहीं थीं। बिडम्बना यह थी कि वह मेरी पहली प्रकाशित पुस्तक थी जिसे मैं छाती ठोक कर अपनी पुस्तक नहीं कह सकता था और अनेक मित्र तो काका के नाम और मेरे नाम की तुलना करके मेरे ऊपर अविश्वास ही कर सकते थे।
                जब धर्मयुग में लतीफे छपने शुरू हुये तब मैं अपना पूरा नाम वीरेन्द्र कुमार जैन लिखा करता था। बम्बई निवासी जाने माने वरिष्ठ कवि कथाकार उपन्यासकार वीरेन्द्र कुमार जैन को यह नागवार गुजरा था। उन्होंने धर्मवीर भारती से कहा कि इस को रोकिये। भारतीजी ने उनसे कहा कि मैं रोक दूंगा बशर्ते आप मुझे इस बात से आश्वस्त कर सकें कि दूसरा कोई आदमी वीरेन्द्रकुमार जैन नाम नहीं रखेगा और रखेगा तो लिखेगा नहीं। यह तो लतीफे और व्यंग्य कविताएं लिख रहा है अगर कहानी उपन्यास लिखता होता तो शायद आपको और ज्यादा परेशानी होती। बहरहाल वे असन्तुष्ट रहे। उन दिनों वे महावीर स्वामी पर अपना उपन्यास अनुत्तर योगी  लिख रहे थे। संयोग से उन्हीं दिनों टाइम्स ग्रुप के मालिकों में से एक श्रेयांस प्रसाद जैन ने आंखों का आपरेशन करवाया था और लम्बे समय तक पढने के सुख से वंचित थे इसलिए उन्होंने बम्बई वाले वीरेन्द्र कुमार जैन से तय कर लिया था कि वे प्रतिदिन अपने उपन्यास के अंश  उन्हें सुनाने आयें। श्री जैन ने उन्हीं दिनों अपनी समस्या से उन्हें अवगत कराया तो उन्होंने भारतीजी से बात की। भारतीजी ने मुझे पत्र लिखा और मेरी सहमति से मेरा नामकरण वीरेन्द्र कुमार जैन (दतिया) कर दिया गया। यह नाम कुछ विचित्र सा हो गया था इसलिए इसने अनेक लोगों का ध्यान आकर्षित किया व मित्रों के बीच यह खुद लतीफा बन गया। वे इस पूरे नाम के साथ मुझे बुलाते और हॅंसने लगते।
                कवि सम्मेलनों के मंचों पर आमंत्रण पाने के लिए भी लोकप्रियता का बहुत महत्व होता है। इस बात को काका भी स्वीकारते थे कि अपनी अच्छी हास्य रचनाओं के बाबजूद भी काका हाथरसी को वैसी लोकप्रियता नहीं मिली होती अगर उन्होंने वर्षों धर्मयुग में कुण्डलियां नहीं लिखीं होतीं। धर्मयुग में यदि किसी लतीफे में किसी कवि लेखक का नाम जोड़ कर प्रकाशित किया जाता तो उसका नाम भी राष्ट्रव्यापी हो जाता था इसलिए मंच पर सफलता तलाश रहे व उसे बनाये रखने की आकांक्षा रखने वाले मंचीय कवि चाहते थे कि उन पर भी लतीफे बना कर प्रकाशित किये जायें। उन दिनों अनेक कवियों ने मुझसे आग्रह किया था कि मैं अपने लतीफों में उनका नाम भी जोड़ दूं। इसमें मेरा कुछ नहीं जाता था इसलिए मैंने उसे सहज स्वीकार कर लिया व कई मंचीय कवियों के नाम जोड़ कर झूठे लतीफेलिखे। पर इस प्रक्रिया में एक घटना बहुत संवेदनशील हो गयी। नागपुर के प्रसिद्ध कवि व संयोजक मधुप पांडेय का पत्र आया जिसमें लिखा था कि आजकल आप धर्मयुग में बड़े धड़ल्ले से छप रहे हैं, एकाध लतीफा मुझ पर भी चिपका दें। मैंने उनके आग्रह को स्वीकर करते हुए एक लतीफा धर्मयुग को भेजा जिसे धर्मयुग ने प्रकाशित कर दिया। लतीफा कुछ इस तरह बना कि मधुप पांडेय का पुत्र पहली बार नये स्कूल में जाकर लौट कर आया तो मां बाप दोनों ने ही प्यार से गोद में बिठा कर पूछा कि आज स्कूल में क्या पढा? उसने उत्तर दिया कि आज मेंने स्कूल में सीखा कि कबूतर को अंग्रेजी में क्या कहते हेंै!
                ‘‘क्या कहते हैं?’’ मां बाप दोनों ने ही उत्फुल्ल जिज्ञासा से पूछा।
                ‘‘कैबूटर’’ पु़त्र ने उत्तर दिया।
लतीफा जैसे ही धर्मयुग में छपा उसके कुछ दिनों बाद ही मधुप पांडेयजी का पत्र आया जिसमें उन्होंने लिखा था कि आपने जाने अनजाने ही बड़ा गजब कर दिया। असल में शादी के अनेक वर्ष बीत जाने के बाद भी ना तो मेरे कोई पुत्र है और ना पुत्री। आपका लतीफा छपने के बाद मुझे अनेक मित्रों के फोन और बधाई पत्र मिलने लगे जिससे हम लोग सकते में हैं।
                उनका पत्र पाकर मैं काटो तो खून नहीं वाली स्थिति में पहुंच गया। तुरंत उनसे क्षमा मांगी और उसके बाद कभी नाम वाले लतीफे नहीं लिखे भले ही पुराना लेन देन चुकाने के लिए मित्र लोग मेरे नाम पर भी लतीफे चिपकातेरहे।
                मैं बैंक में अधिकारी था व सारा काम कुछ अधिक ही नियम कायदे से किया करता था जबकि किसी भी व्यावसायिक संस्थान में लिखित नियमों को एकतरफ रख कर व्यवहारिक होने से काम चलता है। इस व्यवहारिक लोच के अभाव में अच्छे व्यावसायिक परिणाम के आकांक्षी वरिष्ठ अधिकारी मुझसे खुश  नहीं रहते थे पर वैधानिक रूप से कुछ कह भी नहीं पाते थे इसलिए अपनी खीझ वे मेरा ट्रांसफर करके निकालते थे। मेरी उनतीस साल की नौकरी में पन्द्रह ट्रांसफर हुये। एक बार तो नाराजी में उन्होंने मेरा ट्रांसफर गाजियाबाद से हैदराबाद जैसी दूरी पर कर दिया। इन ट्रांसफरों से आर्थिक सामाजिक पारिवारिक नुकसान तो हुये पर धर्मयुग के इस नाम वैचित्र के कारण मुझे जानने वाले हर जगह मिलते गये और मित्रों का समूह बनता गया। एक बार तो मानस पर प्रवचन करने वाले एक सम्मानित व समाज में पूज्यनीय कथावाचक ने अपने प्रवचनों को रोचक बनाने के लिए मेरा संकलन चाहा तो सुप्रसिद्ध कथा लेखक गुलशन नन्दा से फिल्मों  में हास्य लेखक की अतिरिक्त भूमिका पर पत्रव्यवहार हुआ। यह बात मुझे बाद में ज्ञात हुयी कि उन्हीं दिनों वे ब्लड कैंसर से जूझ रहे थे ओर वह बात इसी कारण आगे नहीं बढ सकी क्योंकि कुछ दिनों बाद ही उनका निधन हो गया। मैं उनकी ओर से आगे पत्रोत्तर न आने पर निराश था जिसका बाद में मुझे दुख हुआ।
                चकल्लस आयोजन की ख्याति वाले रामावतार चेतन जी ने रंग व रंग चकल्लस में मेरे काफी लतीफे छापे व साप्ताहिक हिुदुस्तान की तत्कालीन सम्पादक श्रीमती शीला झुनझुनवाला को भी पूछने पर मेरा ही नाम सुझाया था।अपने अंतिम दिनों में लिखे एक पत्र में उन्होंने मेरे पहले व्यंग्य संकलन की भूरि भूरि प्रशंसा की थी जबकि वे प्रशंसा के मामले में बहुत कंजूस समझे जाते थे।
                इतिहास में दर्ज होने की आकांक्षा वाले साहित्य से इतर लोकप्रिय लेखन की अपनी एक अलग दुनिया है जो भले ही अल्पजीवी हो किंतु उसकी परंपरा दीर्घजीवी है। पात्र बदलते रहते हैं पर कहानी चलती रहती है। भले ही गहराई को बहुत महत्व दे दिया गया हो पर सतह और किनारों के महत्व को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि गहराई को बांधती तो यही चीजें हैं। आज जब पीछे मुड़ कर देखता हॅूं तो सब कुछ बहुत रोचक लगता है। गुदगुदा जाता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास  भोपाल म.प्र.
फोन 9425674629  



               







               

शनिवार, मई 23, 2020

मेरे हिस्से के शरद जोशी


मेरे हिस्से के शरद जोशी


शरद जोशी की जीवनी - Sharad Joshi Biography Hindi ...
वीरेन्द्र जैन
कोरोना महामारी के कारण जो देश व्यापी लाकडाउन लागू हुआ उसने समाज में बहुत सारे परिवर्तन पैदा किये, जिनमें से एक था साहित्यिक कार्यक्रमों का बन्द हो जाना। किंतु जहाँ न पहुंचे रवि वाली तर्ज पर कुछ प्रकाशकों के सहयोग से लेखकों कवियो की बातचीत का लाइव प्रसारण शुरू हो गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण बात यह हुयी कि इन कार्यक्रमों में साहित्यकारों के निजी जीवन और संस्मरण सामने आये। उल्लेखनीय है अपनी मृत्यु से कुछ ही महीने पहले राजेन्द्र यादव जी ने एक बातचीत में कहा था कि संस्मरण या आत्मकथा हिन्दी गद्य की मुख्य धारा में आता जा रहा है। गत 21 मई 2020 को राजकमल प्रकाशन समूह की ओर से ऐसी ही श्रंखला में सुप्रसिद्ध लेखक ज्ञान चतुर्वेदी ने शरद जोशी को केन्द्र में रख कर अपने संस्मरण साझे किये। इसी कार्यक्रम ने मुझे भी प्रेरित किया कि मैं भी पांचवें सवार की तरह शरद जोशी के साथ अपनी यादों को दर्ज कर लूं।
कच्ची उम्र ही में लाइब्रेरी में उपलब्ध वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों से शुरू कर के मैंने पुस्तकें तो बहुत पढ डाली थीं किंतु लाइब्रेरी की पत्रिकाएं मुझे बहुत आकर्षित करती थीं। उनके साथ दिक्कत यह थी कि किसी पहले पढने वाले से खाली होने की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी और वे डोरी से  बंधी रहती थीं इससे कई बार खाली होने पर भी दूसरा कोई पसन्दीदा पत्रिका पर पहले पहुंच जाता था। शरद जोशी के लिखे से मेरा पहला परिचय इन्हीं पत्रिकाओं में प्रकाशित उनकी रचनाओं से हुआ था और वे मुझे पसन्द आने लगे थे। फिर हुआ ये कि लाइब्रेरी की पुरानी पत्रिकाओं की रद्दी बिकी जिसे एक दुकानदार ने खरीदा और उनको खरीदी दर से अधिक दर में पत्रिकाओं की तरह बेचना शुरू किया। मैं अपने पास उपलब्ध पैसों से लगभग पाँच किलो कादम्बिनी खरीद लाया था। उनमें सबसे पहले प्रकाशित क्षणिकाओं, फुटनोट के लतीफों और व्यंग्यों को छांट छांट कर पढ डाला। शरद जोशी भी इसी दौरान पढ डाले गये थे। बाद में जिस राष्ट्रीय स्तर की पत्रिका में मेरी पहली क्षणिका प्रकाशित हुयी वह कादम्बिनी ही थी। इसी प्रोत्साहन के कारण बाद में मैं धर्मयुग और अन्य पत्रिकाओं में छोटी छोटी रचनाओं के माध्यम से छपने लगा था।
1972 में जब से मैं धर्मयुग में छपने लगा था तब वह देश की सबसे अधिक लोकप्रिय, स्तरीय, साहित्यिक और पारिवारिक पत्रिका के रूप में जानी जाने लगी थी। कादम्बिनी के सम्पादक रामानन्द दोषी का निधन हो गया था और उस पत्रिका स्तर और लोकप्रियता का पतन हो गया था। शरद जोशी उन्हीं दिनों धर्मयुग के प्रमुख व्यंग्यकार के रूप में उभर कर राष्ट्रीय स्तर पर छा गये थे, भले ही परसाई जी अपनी प्रहारक क्षमता के कारण शिखर पर थे और श्रीलाल शुक्ल का रागदरबारी आ चुका था। भारती जी धर्मयुग के कुशल सम्पादक के रूप में अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे। जैसा कि बशीर बद्र ने लिखा है-
शोहरत की बुलन्दी भी पल भर का तमाशा है
जिस डाल पर बैठे हो वह टूट भी सकती है
सो शोहरत को बनाये रखने के लिए भी प्रयत्न जारी रखने होते हैं। भारती जी को अपना शिखर बनाये रखने के लिए कुछ राजनीति करना पड़ती थी। वैसे तो पहले ही प्रगतिशीलों के समानांतर इलाहाबाद में परिमल गुट सक्रिय हो गया था, भारती जी ने उसका विस्तार राष्ट्रव्यापी कर दिया। सामान्य स्तर पर कहा जाये तो यह लोहियावादी लेखकों का संगठन था जिसको प्रसिद्ध लोहियावादी बद्रीविशाल पित्ती की प्रमुख साहित्यिक पत्रिका ‘कल्पना’ से बहुत संरक्षण मिला था। धर्मयुग यदाकदा प्रगतिशीलों के खिलाफ कुछ न कुछ लिखवाता रहता था। उसमें प्रकाशित होने वाले या प्रकाशित होने की आकांक्षा रखने वाले लेखक इस बात का ध्यान रखते थे। सन्दर्भ के लिए बता दूं कि धर्मयुग में मेरे नाम के साथ दतिया जोड़ दिये जाने से मेरे नाम में जो वैचित्र्य पैदा हुआ था, उससे वह मेरे मामूली लेखन के बाबजूद लोगों की निगाह में खटकने लगा था और इस कारण भी लोग मेरे नाम को जानने लगे थे।
इधर अस्सी के दशक में मध्य प्रदेश में साहित्यिक समझ और रुचि वाले अशोक वाजपेयी का उदय हुआ  जिन्होंने भोपाल को सांस्कृतिक राजधानी बनाने का बीड़ा उठा लिया था। वे आईएएस थे, उनके पास पद था, सरकारी पैसा खुल कर खर्च करने के लिए मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का वरद हस्त प्राप्त था। वे जिसको चाहे भोपाल आमंत्रित कर सकते थे, सम्मानित कर सकते थे। उस समय ज्यादातर साहित्यकार अपने रचनात्मक कर्म को सामने लाने, अपनी पहचान बनाने, और आर्थिक संकटों से जूझ रहे थे। भोपाल ने उन्हें यह अवसर देना शुरू किया। उन्होंने प्रत्येक लोकप्रिय कलाकार को आमत्रित किया, आकर्षित किया जिनमें प्रगतिशील भी सम्मलित थे, जो अपनी समझ और प्रतिभा के कारण कुछ अधिक ही आगे रहे। परिणाम यह हुआ कि एक प्रतियोगिता सी प्रारम्भ हो गयी जो स्वस्थ रचनात्मक प्रतियोगिता कम, अपितु सरकारी संसाधनों, और संरक्षण को अधिक से अधिक हस्तगत करने के प्रयासों की प्रतियोगिता अधिक थी।
शरद जोशी कभी उनके सबसे निकट अभिन्न मित्र होते थे। किन्हीं कारणों से शरद जोशी और अशोक वाजपेयी के रिश्तों में खटास आ गयी, यह खटास उनके व्यंग्यों में मुखर होने लगी। अशोक वाजपेयी में अपने पद और शासन के संरक्षण के कारण एक सामंती प्रवृत्ति उभर आयी थी, वे असहमति को दबाने की कोशिश करते थे, उन्होंने शरद जोशी के साथ भी यही किया। स्वभाव से अक्खड़ और राष्ट्रव्यापी ख्याति के शरद जोशी ने अपने लेखन से भरपूर प्रतिवाद किया। *[ मैं खुद तो 1974 से 1989 के बीच लगभग 10 साल तक मध्य प्रदेश से दूर पदस्थ रहा हूं। ये सारी बातें विभिन्न लोगों के लिखित और मौखिक संस्मरणों व पत्रिकाओं के आधार पर कह रहा हूं। इसमें कुछ ऊपर नीचे भी हो सकता है।]
मेरे साथ द्वन्द यह था कि मैं प्रगतिशील जनवादी चेतना से प्रभावित और उसका पक्षधर रहा हूं किंतु लेखन के क्षेत्र में मेरी जो थोड़ी बहुत पहचान बनी वह गैरप्रगतिशील मंचों से ही बनी। साहित्य के विमर्श में मैं हमेशा प्रगतिशील मूल्यों और राजनीति क पक्ष लेता रहा हूं इसलिए मुझे लोग इस गुट में शामिल और इसके काले सफेद में भागीदार समझते रहे जबकि मेरी गुट के लोगों से बराबर की दूरी रही व इसके लाभों को न मैंने कभी मांगा न पाया। अपितु मैं इनके बीच की प्रतियोगिता से उपजी विसंगतियों के मजे लेता रहा हूं। मैं प्रगतिशील जनवादी पत्र पत्रिकाएं पढता था और लोकप्रिय पत्रिकाओं में छुटपुट लिखता था।
कृश्न चन्दर, हरिशंकर परसाई से वैचारिक रूप से मैं बेहद प्रभावित था। वे मेरे भी पितृ पुरुष थे, मेरी पहली व्यंग्य कृति की चर्चा करते हुए एक समीक्षक ने यह भी कहा था कि ये परसाई की गैलेक्सी के तारे हैं। जब खबरें आनी शुरू हुयीं कि परसाई और शरद जोशी के बीच प्रतिद्वन्दिता चल रही है, तो मेरा मानस स्वाभाविक रूप से परसाई जी के पक्ष में बनने लगा। मुझे ऐसा लगने लगा कि दोनों दो भिन्न छोर पर खड़े हैं और मुझे परसाईजी के पक्ष में खड़ा होना चाहिए। तब तक मैंने दोनों ही लोगों से ना तो कभी मुलकात की थी और ना ही कोई निजी परिचय था। उधर जनता पार्टी शासन काल आते ही कमलेश्वर ने सरकार के विपक्ष की भूमिका निभाते हुए सारिका में सम्पादकीय लिखना शुरू किया और धर्मयुग में सम्पादकीय न लिखने वाले भारतीजी के खिलाफ मोर्चा खोल दिया जिन्होंने कभी जयप्रकाश नारायण के पक्ष में कविता लिखी थी किंतु इमरजैंसी घोषित होते ही धर्मयुग का एक तैयार अंक नष्ट करवा दिया था, जबकि कमलेश्वर ने सरकारी सेंसर बोर्ड द्वारा अनचाही रचनाओं को काला करके छापा और इस तरह एक सन्देश दिया था। कमलेश्वर ने भारती जी को केन्द्रित कर के अपने तीन सम्पादकीय लेखों का शीर्षक दिया “ जो कायर हैं, वे कायर ही रहेंगे”। । एक ही संस्थान के दो प्रमुख पत्रों के बीच यह प्रतियोगिता बहुत विचारोत्तेजक थी। उत्तर में धर्मवीर भारती ने शरद जोशी से लिखने को कहा तो उन्होंने शीर्षक की पैरोडी बना कर एक एक व्यंग्य लेख लिखा “ जो टायर हैं, वे टायर ही रहेंगे”। इसमें टायर को प्रतीक बना कर कमलेश्वर की बात का उत्तर दिया गया था। कमलेश्वर ने भी परसाईजी से नियमित कालम लिखाना शुरू कर दिया था। इन्हीं दिनों कमलेश्वर को सारिका से निकालने की बात चल निकली किंतु टाइम्स आफ इंडिया ग्रुप के मालिकों के लिए यह काम कठिन था क्योंकि न केवल सारिका सबसे चर्चित कहानी पत्रिका बन चुकी थी अपितु फिल्में लिखना प्रारम्भ कर चुके कमलेश्वर की लोकप्रियता भी चरम पर थी। मालिकों ने सारिका को मुम्बई से दिल्ली ट्रांसफर करने का फैसला कर लिया क्योंकि वे जानते थे कि कमलेश्वर मुम्बई नहीं छोड़ेंगे। इन्हीं दिनों मैंने भावुक होकर उन्हें एक अलग कहानी पत्रिका निकालने के प्रस्ताव का पत्र लिख दिया जिसका आधार आगरा के डोरीलाल अग्रवाल परिवार द्वारा कभी व्यक्त किया गया ऐसा विचार था। कमलेश्वर जी का उत्साह भरा पत्र आया, पर वह विचार पुराना पड़ चुका था और प्रस्तावक उस पर गम्भीर नहीं थे। बहरहाल कमलेश्वर जी ने बहुत सारे आर्थिक लाभ लेकर सारिका छोड़ दी। इस तरह मेरा उन से परिचय हो गया।
मुम्बई से ब्लिट्ज़ जैसा एक अंग्रेजी अखबार ‘करंट’ निकलता था जिसने जनता पार्टी सरकार बनते ही इसका हिन्दी संस्करण निकालना शुरू कर दिया था। यह अखबार तत्कालीन जनता पार्टी सरकार के विरोध में था जिसके सम्पादक महावीर अधिकारी थे। इसमें कमलेश्वर, परसाई व राही मासूम रजा के पूरे पेज के कालम थे। मैंने भी इसमें व्यंग्य कविताएं लिखना शुरू कर दीं, जो लगातार छपीं। बाद में जब कमलेश्वर जी ने कथायात्रा निकालना चाही तो मैंने भी उनको यथासम्भव सहयोग दिया। बाद में जब उन्होंने श्रीवर्षा, जो गुजराती मराठी का प्रमुख साहित्यिक पत्र था, को हिन्दी में निकाला तो उसमें भी मेरी रचनाओं को स्थान दिया। जब श्रीमती गाँधी ने उन्हें दूरदर्शन का डाइरेक्टर नियुक्त किया तो उसे अधर में छोड़ कर चले गये। बहरहाल इस सब के बीच धर्मयुग परिवार में मैं अवांछित मान लिया गया था।
मेरे अन्दर एक हीन भावना थी कि मैंने साहित्य में कोई महत्वपूर्ण कार्य नहीं किया है, जो सच भी था, इस कारण से जन्मी भावना यह भी थी कि मुझे कोई नहीं जानता, और मैं कुछ भी लिखता रहूं कोई गम्भीरता से नहीं लेगा। पर् यह सच नहीं था। अगर किसी के विरोध में कुछ हो रहा है तो उसे तो जरूर ही देखा जाता है। सारिका में प्रकाशित मेरे कुछ पत्र धर्मयुग परिवार को नाराज करने के लिए काफी थे।
भूमिका के बाद अब मूल विषय-
शरद जोशी भोपाल छोड़ कर मुम्बई के होटल मानसरोवर में डेरा जमा चुके थे। उन्होंने कवि सम्मेलनों में गद्य व्यंग्य का पाठ करना शुरू कर दिया था। कुछ दिनों बाद वे इंडियन एक्सप्रैस ग्रुप को प्रेरित कर एक हिन्दी पत्रिका निकलवाने में सफल हो गये थे, उन्हें ही सम्पादक की जिम्मेवारी सम्हालना पड़ी। मुझे पता चला तो मैंने भी अपनी व्यंग्य कविताएं भेजीं जिन्हें उन्होंने खुशी खुशी प्रकाशित कीं। यह 1980-81 की बात है, तब मैं हैदराबाद में पदस्थ था। कुछ दिनों में ही वह पत्रिका बन्द हो गयी। उन दिनों पारश्रमिक पुरस्कार की तरह लगता था। जब पारश्रमिक नहीं आया तो शरद जोशी को पत्र लिखा जिसके पीछे एक कुटिल इच्छा यह भी थी कि किसी बहाने उनसे पत्र व्यवहार तो हो सके। बहरहाल पत्र व्यवहार तो नहीं हुआ किंतु दो चैक जरूर आ गये।
 1982 में मेरा ट्रांसफर हैदराबाद से नागपुर हो गया। मैं ट्रांसफर होते ही देश भर के परिचितों व  मित्रों को सूचित कर देता था। पत्र पहुंचते ही अशोक चक्रधर का उत्तर आया कि फलां फलां तारीख को नागपुर में कवि सम्मेलन है और मैं फलां ट्रेन से पहुंच रहा हूं। उस दिन शनिवार था और ट्रेन दोपहर के बाद की थी। उस दिन एक व्यापारी मेरे आफिस में बैठे थे जो अशोक के मुरीद थे, जब यह चर्चा आयी तो वे बोले कि चलो मैं भी स्टेशन चलता हूं। उनकी कार में बैठ कर स्टेशन गये, और उनको लेकर गैस्ट हाउस आये तो पता चला कि शरद जोशी और बालकवि बैरागी भी आ चुके हैं। गैर की कार का प्रभाव पड़ा।
उस दिन पहली बार शरद जोशी से प्रत्यक्ष भेंट हुयी। मैंने सकुचाते हुये अपना परिचय दिया तो बोले अरे यार मैं पिछले दिनों ही कालेज के कवि सम्मेलन में तुम्हारे दतिया गया था और मैंने तुम्हारे बारे में पूछा था। ओम कटारे के परिवार वालों ने बताया था कि तुम्हारा घर उनके पास ही है पर वे यहाँ नहीं हैं। काफी बातें हुयीं, लेकिन बहुत बातें नहीं हो सकीं क्योंकि अशोक के साथ मेरा दूसरा कार्यक्रम था। शायद दामोदर खडसे भी साथ में थे।
कवि सम्मेलन में पाठ के लिए शरद जोशी को आमंत्रित करते हुए बालकवि बैरागी ने अपनी आदत के अनुसार कहा कि परसाई जी के बाद शरद जोशी अकेले ऐसे व्यंग्य लेखक है जिनका अनुशरण हिन्दी के शेष सारे व्यंग्य लेखक करते हैं। यह सुन कर मैं जिसे श्रोताओं की अग्रिम पंक्ति में स्थान मिला था, खड़ा हो गया, और कहा कि मैं इस बात से सहमत नहीं हूं। इस बात से सनाका सा खिंच गया, खडसे जी ने हाथ पकड़ कर मुझे बैठा दिया। बात आयी गयी हो गयी। अशोक ने शायद शरद जी के कान में कुछ कहा।
सुबह जब स्टेशन पर मित्रों को छोड़ने गया तो दोनों तरफ की ट्रेनें लगभग एक ही समय पर थीं। शरद जोशी जी मिल गये। मैं कुछ शर्मिन्दा सा था, किंतु उन्होंने ऐसा व्यवहार किया जैसे कल कुछ उल्लेखनीय हुआ ही न हो। मेरी शर्ट की तारीफ करते रहे अपने अन्दाज में बोले अगर यह नीले रंग की होती तो अच्छा होता, आदि।
सुरेन्द्र प्रताप सिंह धर्मयुग छोड़ कर आनन्द बाज़ार पत्रिक ग्रुप की पत्रिका ‘रविवार’ के सम्पादक होकर कलकत्ता चले गये थे और उस पत्रिका में व्यंग्य की सम्भावनाओं को लेकर मेरा उनसे पत्र व्यवहार चल रहा था। उन्हीं दिनों शरद जोशी अशोक वाजपेयी के खिलाफ जम कर लिख रहे थे और रविवार में उनका स्तम्भ ‘नाविक के तीर’ छप रहा था। मैंने एक कविता लिख कर सुरेन्द्र प्रताप सिंह को भेजी जो उन्होंने कृपा पूर्वक नहीं छापी, पर किसी माध्यम से उसकी भनक शरद जोशी को जरूर लग गयी होगी। कविता इस प्रकार थी-
जो धर्मयुग में
या रविवार में
या साप्ताहिक हिन्दुस्तान में
या यहाँ
या वहाँ
या हर जगह
या कहीं भी
भोपाल के एक आई ए एस अधिकारी के खिलाफ लिखते हैं
हिन्दी साहित्य में उन्हें शरद जोशी कहते हैं
  
इस दौरान मुझे लगने लगा कि अपने आप को लेखक कहने के लिए एक किताब तो होना ही चाहिए। हैदराबाद प्रवास [1980] से मैंने के पी सक्सेना से सीखी वह जिद छोड़ दी थी कि उस पत्र पत्रिका में नहीं लिखूंगा जो लेखक को पारश्रमिक नहीं देती। यही कारण रहा था कि मेरे पास प्रकाशित लेखों की इतनी सामग्री एकत्रित हो गयी थी कि एक संकलन आ सकता था। किंतु अब दूसरी जिद थी कि खुद के पैसे से संकलन प्रकाशित नहीं कराऊंगा। मैंने प्रसिद्ध कथाकार से.रा. यात्री जी से बात की। बता दूं कि मेरी बहुत सारी कमियों, भूलों के बाबजूद भी यात्रीजी ने मुझे छोटे भाई जैसा स्नेह दिया है। उन्होंने अपने प्रभाव से मेरी पहली पुस्तक पराग प्रकाशन से छपवा दी। पराग प्रकाशन उन दिनों उभरता हुआ अच्छा प्रकाशन था जिसने अमृता प्रीतम, रवीन्द्र नाथ त्यागी, कन्हैयालाल नन्दन आदि की बहुचर्चित पुस्तकें छापी थीं। प्रकाशक का अहसान उतारने के लिए मैंने लेखक को दी जाने वाली प्रतियों के अलावा स्वेच्छा से लगभग सौ प्रतियां खरीद लीं। अब इस पासपोर्ट के सहारे अर्थात पुस्तक भेंट करने के नाम पर मैं किसी भी लेखक से भेंट करने जा सकता था।
धर्मयुग में लेखन कम हो जाने के बाद मैंने अपना ध्यान जिन अन्य पत्रिकाओं पर केन्द्रित किया था उनमें से एक रामाबतार चेतन की पत्रिका रंग भी थी। चेतन जी मुझे पसन्द करते थे और मेरे लेखों को स्थान दे रहे थे। वे भले ही मामूली सही किंतु हर रचना पर पारश्रमिक देते थे। उन दिनों महाराष्ट्र के किसान नेता शरद जोशी ने एक बड़ी किसान रैली की थी। मैंने उनकी मासिक पत्रिका ‘रंग’ में एक व्यंग्य लिखा ‘निमंत्रण गधों की रैली का’। इसमें एक वाक्य आया था
“ अरे भाई, सरकार को क्या मतलब किसानों से, क्या मतलब गधों से! अब मैं तुम से पूछूं कि सरकार ने किसानों की रैली क्यों निकाली थी, तो इस बात का है तुम्हारे पास कोई जबाब! अरे भाई किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी कि किसान मेरे पीछे हैं तो उनका भ्रम दूर करने के लिए उन्होंने दिखा दिया कि देखो कौन ज्यादा भीड़ जुटा सकता है इसी तरह  किसी शरद जोशी को यह गलतफहमी हो गयी होगी कि ज्यादा गधे मेरे पीछे हैं तो सरकार उन्हें यह भी दिखाये देती है कि देखो तुमसे ज्यादा गधों की भीड़ मैं जुटा सकती हूं ......”  

अनजाने में यह शरद जोशी जी के भक्तों पर सीधा सीधा हमला था। इसका कारण शायद यह था कि मैं उन्हें परसाई, व प्रगतिशीलता विरोधी मान बैठा था।
उक्त लेख भी मेरे संकलन में प्रकाशित हुआ था। संकलन चेतन जी को भी भेजा। उन्होंने उस की समीक्षा भी करवायी और खुद भी मुझे एक लम्बा प्रशंसा पत्र लिखा। यह भी लिखा कि अगर कभी रचना पाठ करने के लिए चकल्लस में आना हो तो रचना ‘हीरोइन का भाई’ पढना। 1985 में मेरा बम्बई जाना हुआ और चेतन जी से मिलने गया। मैं एक दिन का समय लेकर भी दूसरे दिन पहुंचा तो उनकी डांट भी खायी कि यह बम्बई है कल तुम्हारे इंतजार में मैं सब्जी बाजार जाने से रह गया। बहरहाल उनका स्नेह मिला। उन्होंने सलाह दी कि कल समय हो तो जाकर शरद जोशी से मिल लेना और किताब दे देना। हाँ समय लेकर जाना और समय पर पहुंचना। मैंने कान पकड़ कर हामी भरी और ऐसा ही किया।
वह एक छोटा सा स्वतंत्र बंगला था। यह बाद में पता चला कि वह बंगला कन्हैयालाल नन्दन जी का था और वे चेतन जी के रिश्ते में बहनोई लगते थे। फर्श पर डनलप का गद्दा था जिस पर सफेद चादर बिछी थी चारों ओर पुस्तकें बिखरी हुयी थीं। मैंने किसी नये व्यक्ति की तरह अपना परिचय दिया तो मुस्करा दिये, किताब के पन्ने पलटते हुए बोले कि यह लेख मैंने पढा है, यह भी पढा है और लगभग सभी तो प्रकाशित हैं। मैंने हामी भरी, भले ही एक दो अप्रकाशित भी थे। फिर मेरी क्लास शुरू हुयी। बोले लोग व्यंग्य के बारे में जानते ही क्या हैं! हमारे यहाँ अभी व्यंग्य की आलोचना का शास्त्र ही विकसित नहीं हुआ वही दो चार शब्द हैं, पैना है, धारदार है आदि आदि। फिर बोले कि मैं मध्यमवर्ग के बारे में इसलिए लिखता हूं कि उसका पक्ष लेने वाला न कोई संगठन है न पार्टी। परसाईजी इस वर्ग के खिलाफ लिख लेते हैं, मैं नहीं लिखता।
[इसी बीच में [शायद] नेहा ट्रे में चाय का पाट लाकर रख गयीं थीं, मुझे इस ऎटीकेट का ज्ञान नहीं था कि चाय मुझे बनाना चाहिए। थोड़ी देर में वे खुद आयीं और उन्होंने ही शक्कर आदि पूछ कर चाय सर्व की। वे कुछ दिन पहले पैर मैं जल गयीं थी, शरद जी ने घाव के बारे में पूछा उन्होंने उन्हें दिखाया।]
इसी वर्ष परसाई जी को पद्मश्री मिली थी। मैंने कहा कि परसाई जी को और काका हाथरसी दोनों को एक साथ पद्मश्री देकर सरकार ने क्या उनका अपमान किया है। वे बोले ऐसा पहले भी हुआ है, धर्मवीर भारती और चिरंजीत को एक साथ मिली है, बच्चन जी और गोपाल प्रसाद व्यास को भी एक साथ मिली थी, होता है। उनसे बहुत सारी बातें सुनने को मिलीं जिन्हें सुन कर मैं मुग्ध था उन्होंने पूछा बम्बई कैसे आये थे? मैंने कहा ऐसे ही बिना किसी कारण। बोले आते रहना चाहिए, व्यंग्य लेखक के लिए जरूरी है कि विरोधाभासों का अनुभव करता रहे। यहाँ की जिन्दगी फास्ट है, आदमी दौड़ता सा रहता है, पर जब मैं भोपाल जाता हूं तो आटो वाला आराम से बैठा है। सवारी बैठा कर भी वह बीड़ी पीने चला जाता है या अपने साथ वाले से बात करने लगता है। कहीं कोई जल्दी नहीं। यह विरोधाभास व्यंग्य का उत्प्रेरक बनता है। उन्होंने कहा कि वीरेन्द्र, व्यंग्य मुझ से सध गया है, अब मैं कहीं भी, किसी भी विषय पर व्यंग्य लिख सकता हूं। *[उस दिन तो मुझे यह बात हजम नहीं हुयी थी, किंतु वर्षों बाद जब भोपाल आकर बस गया तब मैंने एक फीचर सर्विस के लिए प्रतिदिन व्यंग्य लिख कर परीक्षण किया तो ऐसे ऐसे विषय सूझे कि मुझे खुद आश्चर्य हुआ]
इसके कई साल बाद मेरी मुलाकात जनवादी लेखक संघ के राम प्रकाश त्रिपाठी जी से हुयी जो परसाई जी से तो परिचित थे ही शरद जोशी के मित्रों में से थे, उन्होंने मेरी सारी गलतफहमियां दूर कीं और बताया कि परसाई जी ने जरूर पूरे देश के सामने अपने व्यंग्य से वैज्ञानिक चेतना का पक्ष रखा है किंतु जीवन में शरद जोशी की प्रगतिशीलता का कोई जबाब नहीं। उन्होंने उनके अनेक प्रसंग सुनाये। मुझे तब तक पता नहीं था कि उनकी पत्नी इरफाना जी है और उन्होंने मुस्लिम से शादी की है। कि नईम जी की पत्नी और इरफाना जी बहिनें हैं। कि जब वे शादी के बाद ट्रांसफर होकर ग्वालियर गये तो मकान मिलने में संकट होने से वे मुकुट बिहारी सरोज के घर में रहे। मुझे अज्ञानता में की गयी अपनी भूलों पर बहुत शर्म आयी।  
1987 में जनवादी लेखक संघ का राष्ट्रीय सम्मेलन भोपाल में हुआ। रामप्रकाश जी ने उसका स्वागताध्यक्ष शरद जोशी जी को बनाया। वे रवीन्द्र भवन के द्वार पर स्वागताध्यक्ष की तरह ही खड़े थे। मैंने आदतन अपना परिचय सा देते हुए कहा- मैं वीरेन्द्र जैन। उन्होंने गले लगाते हुए कहा- वीरेन्द्र जैन नहीं, वीरेन्द्र कुमार जैन दतिया। और ठहाका फूट पड़ा।
नवभारत टाइम्स में प्रतिदिन लिखते हुए उनके विचार किसी भी प्रगतिशील लेखक पत्रकार से ज्यादा प्रेरक थे। मैं मुरीद हो गया था। सोचा था कि किसी दिन मौका मिला तो दिल से माफी मांगूंगा। किंतु ऐसा मौका आने से पहले ही उनके निधन का समाचार आ गया था। पाकिस्तान के शायर मुनीर नियाजी की नज्म का शीर्षक है – हमेशा देर कर देता हूं मैं।
वीरेन्द्र जैन
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