रविवार, मार्च 17, 2013

फिल्म समीक्षा जोल्ली एलएलबी - न्याय व्यवस्था का यथार्थ


फिल्म-समीक्षा
ज़ोल्ली एलएलबी – न्याय व्यवस्था का यथार्थ
वीरेन्द्र जैन

       बेहतरीन कलाकार बोमन ईरानी के कन्धों पर टिकी ‘जोल्ली एलएलबी’ हमें हमारी न्याय व्यवस्था के यथार्थ से साक्षात्कार कराती है। इस फिल्म में एक सच्ची घटना से गूंथ कर कहानी रची गयी है, जो एक अमीरज़ादे द्वारा शराब और पैसे के नशे में मदमत्त होकर फुटपाथ पर सोने के लिए मजबूर मजदूरों पर अपनी नई कार चढा देने और पैसे वाले वकील की मदद से न्याय को अपनी जेब में डाल लेने की गाथा से जोड़ी गयी है। अदालतों में यदा कदा आते जाते रहने वाले जो लोग फिल्मी अदालतों के नकलीपन से परिचित हैं वे इस फिल्म की अदालत, वकीलों की दशा, उनके लटके झटके, आदि को देख कर असली जैसी अदालत जैसे यथार्थसुख की अनुभूति पा सकते हैं। अदालतों के अहाते में बैठकर मक्खी मारने वाले वकील हैं जो अपने पुराने जमाने के टाइपराइटर को अपने साइन बोर्ड से ढककर उस पर ताला लगा कर जाते हैं। वे मुवक्किल को पटाने के लिए हस्तरेखा विशेषज्ञ भी बनते हैं, और कान से मैल निकालने वालों की तरह एक एक व्यक्ति में ग्राहक की सम्भावना तलाशते हैं,तथा पार्टटाइम में किसी आर्केस्ट्रा में गाना भी गाते हैं। एक निरीह सी अदालत है जो मौसम की मार से ही परेशान नहीं है अपितु न्यायव्यवस्था से भी परेशान है जिसमें ढेरों केस लटक रहे हैं।  राजधानी का एक बहुत बड़ा वकील कहता है कि नये वकील जल्दबाजी में बहुत हैं जबकि अदालत में जल्दी कुछ नहीं होता। न्यायाधीश कहता है कि न्याय अन्धा होता है पर न्यायाधीश नहीं और दूसरी ओर उसकी व्यथा यह भी है कि जिस मामले में वह व पूरा परिवेश पहले दिन से जानता है कि दोषी कौन है, उसे गवाहों सबूतों के अभाव में वर्षों बाद तक सजा नहीं दे पाता। बड़े वकील का खौफ ही अदालत का पलड़ा झुका देता है तो दूसरी ओर उनकी द्वारा उपलब्ध करायी गयी सुविधाएं भी न्यायाधीश को डगमग कर सकती हैं। बड़ा वकील अपने धनी ग्राहक से कहता है कि उसे दी गयी राशि में से उसे कुछ और भी मैनेज करना होता है। पैसेवाले लोगों के फँस जाने पर उसका अपना वकील भी उससे और रुपया ऎंठने के लिए उसके विरोध में नकली गवाह भी पैदा कर देता है व प्रतिपक्ष के वकील को भी मिलाने का काम करता है। वकील के पैसे से न मानने पर उसे पिटवाया भी जाता है। पुलिस के लोग पैसे के लालच में कार दुर्घटना को ट्रक दुर्घटना में बदल देते हैं और ज़िन्दा को भी मुर्दा बता देते हैं। सबकुछ मिला कर पूरी फिल्म न्याय व्यवस्था का कच्चा चिट्ठा खोलती है। यह फिल्म यह भी बताती है कि आजकल वकालत का पेशा शिक्षित लोगों के बीच अंतिम शेष पेशे में से एक है और शेष सभी जगह से निराश हो चुके लोग ही इसमें आ रहे हैं जिनकी शिक्षा का स्तर यह है कि वे प्रोसीक्यूशन को प्रोस्टीट्यूशन लिखते हैं।
 एक ओर तो यह फिल्म आदर्शवादी है वहीं दूसरी ओर कहानी को आगे बढाने के लिए बहुत सारे नकली आदर्शों और संयोगों का सहारा लिया गया है। मेरठ से आने वाले वकील, अर्थात फिल्म के नायक को दिल्ली में बड़े वकील से बदला लेने को उतारू एक कैंटीन संचालक, मुफ्त में चेम्बर दे देता है क्योंकि यही बड़ा वकील उसकी बेटी के खिलाफ हुए अपराध के अपराधियों को बचा चुका है। पुलिस के डर से बिहार भाग गया गवाह नायक के कहने भर से वापिस दिल्ली लौट आता है और निर्भय होकर गवाही देता है। एक पुलिस इंस्पेक्टर को बड़ा वकील उसकी भूल के लिए स्वयं पीटता है और वह घरेलू पत्नी की तरह पिटता रहता है। नायक की प्रेमिका/पत्नी भी भिन्न प्रकृति  की आदर्शवादी है जो अभावों में रहते हुए भी अपने पति को ईमानदारी से भटकने पर लताड़ लगाती है और बीस लाख रुपयों के सम्भावनाओं को ठुकरा देने के लिए प्रेरित करती है।
कुल मिलाकर अपनी हास्य भूमिकाओं के लिए प्रसिद्ध बोमन ईरानी, अरशद वारिसी और सौरभ शुक्ला के अभिनय से ओतप्रोत यह सुखांत फिल्म देखने लायक है, जिसे ‘नो वन किल्लिड जेसिका’ की अगली कड़ी कहा जा सकता है। इस फिल्म को न्याय व्यवस्था से जुड़े लोगों को दिखाये जाने की विशेष व्यवस्था होना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मोबाइल 9425674629
    

1 टिप्पणी: