संघर्ष मूर्ति उमा
भारती का भविष्य
वीरेन्द्र जैन
बाबरी
मस्जिद ध्वंस के मुख्य आरोपियों में सम्मलित होने के बाद से उमा भारती ने निरंतर
इतने संघर्ष किये कि मीडिया वाले उन्हें साध्वी से फायर ब्रांड लीडर तक कहने लगे।
उनके इसी जुझारू तेवर के कारण उनकी पार्टी द्वारा उन्हें उन चुनाव क्षेत्रों में
झौंका जाता रहा जहाँ भाजपा को जीतने की सम्भावना बिल्कुल नहीं होती थी। अपनी ज़िद
पर भोपाल से टिकिट लेने के पहले वाले चुनाव में उन्हें खजुराहो से लड़ाया गया था,
जहाँ कांग्रेस की आपसी फूट के कारण सौभाग्यवश वे जीत तो गयीं पर अपनी असली हैसियत को
समझ गयी थीं, तब दूसरी बार उन्होंने खजुराहो क्षेत्र के प्रतिनिधित्व में स्वास्थ
ठीक नहीं रहने के बहाने भोपाल जैसे सुरक्षित क्षेत्र से टिकिट लेना ठीक समझा था
जिसके लिए उन्हें मध्यप्रदेश भाजपा के भीष्म पितामह सुन्दरलाल पटवा समेत बहुत सारे
लोगों से टकराना पड़ा था। इस टकराहट में उनकी नुकसान पहुँचाने की क्षमता ने बड़ा काम
किया था और उन्हें मजबूरन टिकिट देना पड़ा था। फिर अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में
मंत्री बनने के लिए उन्हें टकराना पड़ा था, जहाँ से केन्द्रीय मंत्री रहते हुए
उन्हें भोपाल में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह के खिलाफ आन्दोलन करने के
लिए तैनात किया गया था, जबकि मध्य प्रदेश में भाजपा नेताओं की पूरी फौज थी। इस
दौरान कुछ ऐसा घटनाक्रम हुआ कि उन्होंने अनशन स्थल पर अपनी हत्या की सम्भावनाएं
व्यक्त कीं पर दिग्विजय सिंह द्वारा मेडिकल कराये जाने के प्रस्ताव के बाद वे अनशन
से अचानक उठ कर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल से स्तीफा दे अज्ञातवास पर चली गयीं। उनके
अज्ञातवास से लौटने के बाद एक अखबार ने उनके बारे में कुछ ऐसा छाप दिया जिसको
अपमानजनक मान कर वे उस अखबार के खिलाफ अनशन पर बैठ गयीं।
अटलजी
द्वारा उन्हें फिर से मंत्रिमण्डल में सम्मलित किये जाने के कुछ ही दिन बाद उन से
मंत्रिपद ले मध्यप्रदेश के विधान सभा चुनाव में इस समझ के साथ भेजा गया कि वहाँ दिग्विजय
सिंह जैसे चतुर राजनीतिज्ञ के सामने जीतना तो असम्भव है पर उमाजी की साम्प्रदायिक
छवि से चुनाव में ध्रुवीकरण तेज होगा और भविष्य में मदद मिलेगी। पर यहाँ भी सरकारी
कर्मचारियों के असंतोष व कांग्रेस की गुटबाजी से ऐसे पाँसे पड़े कि वे पार्टी को विधानसभा
चुनाव जिता ले गयीं और चुनाव परिणामों से हतप्रभ भाजपा नेतृत्व को वादे के मुताबिक
उन्हें मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। भाजपा ने उन्हें संगठन के अनुशासन में कठपुतली
मुख्यमंत्री बनाना चाहा तो यहाँ पर भी उन्हें असली भूमिका पाने के लिए लगातार
संघर्ष करना पड़ा। एक बार तो उन्होंने कहा कि जिसे संगठन का काम मिला है वह संगठन
का काम करे और जिसे सरकार चलाने का काम मिला है वह सरकार चलायेगा। अचानक संगठन से
सलाह लिए बिना उन्होंने अपने विश्वसनीय लोगों को निगम मण्डलों के पद बाँटे और
चुपचाप तीर्थयात्रा पर निकल गयीं। लौट कर आने पर उन्होंने संगठन के लोगों से खूब
टकराहट ली तो संगठन ने उन्हें पद से हटाने की कमर कस ली। संयोग से उसी समय हुबली
काण्ड का फैसला आ गया जिसमें वे दोषी सिद्ध हुयीं। अवसर की तलाश में बैठे भाजपा
नेतृत्व ने उनके साथ सहानिभूति दिखाने की जगह जिस त्वरित गति से उन्हें पद से हटने
के आदेश दिये वैसी तेजी न पहले कभी दिखायी थी और न ही बाद में दिखायी। वैकल्पिक
मुख्यमंत्री पद सम्हालने के लिए अरुण जैटली के साथ जिन शिवराज सिंह चौहान को
दिल्ली से भेजा गया था, उनको सत्ता देने से उन्होंने साफ इंकार कर दिया और अपने
अनुशासन में रहने के प्रति आश्वस्त बाबूलाल गौर को सत्ता सौंपी। अपमानित जैटली और
शिवराज वापिस लौट गये। इस टकराहट का लाभ लेने के लिए कर्नाटक की तत्कालीन कांग्रेस
सरकार ने हुबली के उस प्रकरण को जिसमें चार लोगों की मृत्यु हो गयी थी, राजनीतिक
आन्दोलन मानकर वापिस ले लिया जिससे उमाजी जेल से बाहर आ गयीं। पर भाजपा ने वादे के
बाद भी इतनी जल्दी मुख्यमंत्री फिर से बदलने से मना कर दिया और एक साल इंतजार करने
को कहा। एक साल तक बाबूलाल गौर के पीछे चट्टान की तरह खड़े रहने के बाद भी जब
उन्हें सत्ता नहीं मिली तो वे बिफर गयीं। अरुण जैटली द्वारा उनकी आत्महत्या कर
लेने की धमकी को प्रैस को लीक करने की सूचना से वे और भी व्यथित हुयीं तथा टीवी
कैमरों के सामने अडवाणी समेत राष्ट्रीय नेतृत्व को भला-बुरा कह डाला जिस कारण वश उन्हें
निलम्बित करना पड़ा था। विधायकों के बहुमत के आधार पर मुख्यमंत्री चयन की उनकी माँग
को ठुकराते हुए 2003 के विधानसभा चुनाव में दिग्विजय सिंह से पराजित रहे शिवराज
सिंह चौहान को बतौर मुख्यमंत्री बैठा दिया। आक्रोश में उन्होंने पार्टी छोड़ी,
तिरंगायात्रा , रामरोटी यात्रा, आदि निकालीं, नई पार्टी बनायी उससे विधानसभा चुनाव
लड़े, अपनी पार्टी के पक्ष में बारह लाख तक वोट पाये, पाँच विधायक जिताये, पर भावी
सम्भावनाएं सूंघ कर, पार्टी समेट कर भाजपा में पुनर्प्रवेश के लिए लाइन में लग
गयीं। उनसे लम्बी प्रतीक्षा करवायी गयी, इस बीच स्वार्थ के कारण जुड़े सारे लोग एक
एक करके उनका साथ छोड़ते गये और उनसे अपमानित हो चुके लोग उनके पुनर्प्रवेश में
बाधक बन कर अड़ गये। गडकरी और संघ दोनों के साथ उन्होंने ढेरे सारी बैठकें की और
आखिरकार उन्हें मना ही लिया। संघ के आदेश के सामने शिवराज सिंह की स्तीफे की धमकी
काम नहीं आयी, पर मध्यप्रदेश में उमाजी के प्रवेश करने पर पाबन्दी लगवाने में वे
सफल रहे। अपने पिता समान भाई की गम्भीर बीमारी की दशा में उन्हें देखने आने के लिए
भी अपने प्रदेश में उन्हें गुपचुप आना पड़ता था। इसी बीच गोबिन्दाचार्य जैसे गुरुसम
सलाहकार ने भी उनसे दूरी बना ली।
उन्हें
म.प्र. से दूर रखने और अन्यत्र व्यस्त रखने के लिए उन्हें गंगा की स्वच्छता का गैर
राजनीतिक प्रभार सौंप दिया गया और बाद में उन्हें उत्तर प्रदेश के एक लोधी बहुल चुनाव
क्षेत्र से टिकिट दे दिया गया, इतना ही नहीं चुनाव के दौरान, सरकार बनने की दशा
में उन्हें उ.प्र. का मुख्यमंत्री बनाने की घोषणा कर दी गयी क्योंकि चुनाव
परिणामों का सही अनुमान सबको था इसलिए इस घोषणा में भाजपा को कोई खतरा नहीं था। वे
किसी तरह खुद तो चुनाव जीत गयीं पर भाजपा के वोट प्रतिशत में ही गिरावट नहीं आयी
अपितु उसकी सीटें पिछले चुनाव से भी दो कम हो गयीं। मुख्यमंत्री उम्मीदवार तो घोषित
कर दिया गया था पर उन्हें विधायक दल का नेता नहीं बनाया गया तो वे भी शपथ लेने के
बाद विधानसभा नहीं गयीं। भाजपा के नेतृत्व समेत मध्यप्रदेश के नेता खुश थे कि
उन्होंने उमाजी का प्रदेश निकाला ही कर दिया। उल्लेखनीय है कि उमाजी ने म.प्र. की
भाजपा सरकार को अपना बच्चा बताया था और शिकायत की थी कि उन से उनका बच्चा छीन लिया
गया है।
पिछले
कुछ दिनों से वे वात्सल्य भाव से म.प्र. के अधिक चक्कर लगा रही हैं। जिन शिवराज
सिंह चौहान पर बड़ामल्हरा चुनाव के दौरान उन्होंने उनकी हत्या करवाने के प्रयास का
आरोप लगाया था, अब वे उनके बड़े भाई का पद पाने लगे हैं। समानांतर रूप से उनके पैनल
के लोग विधानसभा चुनावों में टिकिट पाने के लिए तैयारी कर रहे हैं और चुनावी
तैय्यारियों में जुट चुके हैं, जो टिकिट न मिलने की दशा में निर्दलीय चुनाव
लड़ेंगे।
पिछले
दिनों लोधी जाति के नेता कल्याण सिंह ने लखनऊ में आयोजित एक समारोह में अपनी
पार्टी का समर्पण भाजपा में करा दिया पर उस कार्यक्रम में उ.प्र. से विधायक व
मुख्यमंत्री पद के लिए घोषित प्रत्याशी रही उमाभारती को कोई स्थान नहीं दिया गया।
दोनों ही नेता लोधी जाति के नेता हैं और दोनों ने ही भाजपा में मुख्यमंत्री पद से
हटाये जाने के बाद अपनी अलग पार्टी बनायी थी पर उसके असफल होने के कारण एक एक करके
भाजपा में वापिस आते गये हैं। कल्याण सिंह नहीं चाहते हैं कि उमा भारती
उत्तरप्रदेश में लोधियों की नेता के रूप में उभरें इसलिए वे उन्हें उसी तरह दूर
करना चाहते हैं, जैसे कि मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान उन्हें प्रदेश में
घुसने ही नहीं देना चाहते। स्मरणीय है कि जब उमा भारती ने अपनी पार्टी का विलय
भाजपा में कर दिया था तब महीनों तक उनके पाँच विधायकों को विधायक दल में सम्मलित
नहीं किया गया था व उन्हें मंत्री तो दूर किसी को भी निगम मण्डल के अध्यक्ष का पद
भी नहीं दिया है। उमा भारती से जुड़े रहे लोगों को संगठन में भी उचित स्थान नहीं
मिला है व किसी भी जीत सकने वाले चुनाव क्षेत्र से टिकिट न मिलना भी तय है। देश
में यही दोनों राज्य ऐसे हैं जहाँ उमाभारती जानी जाती हैं, और दोनों ही जगहों से
उन्हें बेदखल कर दिया गया है।
जिन
गडकरी से उमाजी को कुछ भरोसा था वे अब भाजपा के अध्यक्ष पद से विदा हो चुके हैं,
और उन्हें अध्यक्ष पद पर पुनर्प्रतिष्ठित करने की इच्छा रखने वाले संघ के लोगों का
भी दबदबा कम हुआ है। ऐसे में तय है कि मुँहदेखी बात करने वाले नेताओं वाली पार्टी
में उमा भारती की हालत मदन लाल खुराना की तरह हो जाने वाली है। पर युवा उमा भारती
ने जीवन भर संघर्ष से मुँह नहीं मोड़ा और आगे भी नहीं मोड़ेंगीं। उनके प्रदेश में
उनसे असंतुष्ट सुषमा स्वराज को सुरक्षित क्षेत्र दे दिया गया है, ऐसे में देखना
होगा कि वे अपने प्रदेश के वात्सल्य से कब तक दूर रह सकेंगीं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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मोबाइल 9425674629
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