मंगलवार, जून 02, 2015

क्रांतिकारी बदलाव चाहती विवाह संस्था



क्रांतिकारी बदलाव चाहती विवाह संस्था
वीरेन्द्र जैन

विवाह के बारे में पहले से कुछ कहावतें प्रचलित रही हैं जैसे कि शादी एक ऐसा लड्डू है जिसे खाने वाला और न खाने वाला दोनों ही पछताते हैं, या तुलसी गाय बाजाय के, देत काठ में पाँव। पहले इन कहावतों में एक मीठी सी शिकायत रहती थी जो अब कढुवाहट में बदल गयी है और प्रचलित लतीफों का बड़ा हिस्सा दाम्पत्य जीवन की कटुताओं से सम्बन्धित लतीफों से भरा रहता है और वे दूसरों के बारे में होने के कारण लोग हँसते तो हैं, पर अपने दाम्पत्य जीवन के बारे में सोच कर उन लतीफों को कढुवी सच्चाई की तरह भी देखते हैं। आचार्य रजनीश [ओशो] ने एक संस्मरण में बताया है कि वे अपने विवाह के पक्ष में नहीं थे इसलिए उनके पिता ने अपने एक परिचित मित्र को दूर से इसलिए बुलवाया ताकि वे उन्हें विवाह के लिए तैयार कर सकें। रजनीश कहते हैं कि मैंने पिता के मित्र से केवल इतना कहा कि आप सुबह तक सोच कर बतायें कि क्या आप अपनी शादी से खुश हैं। सुबह रजनीश के सो कर उठने से पूर्व ही पिता के मित्र अपने नगर वापिस लौट गये थे। बाद में उनके सम्बोधनों को संकलित करके जो पुस्तकें प्रकाशित हुयीं उनमें से एक है- प्रेम और विवाह। इसमें वे सिद्ध करते हैं कि प्रेम स्वाभाविक है और विवाह कृत्रिम व्यवस्था है, इसलिए प्रेम परमात्मा से जुड़ा है अतः पवित्र है।
                साहित्य और जीवन से जुड़े विभिन्न कला रूप विवाह और उससे सम्बन्धित विभिन्न समस्याओं से भरे पड़े हैं तथा बहुत सारी फिल्में या कहानियां विवाह के बाद ‘दि एंड’ [समाप्ति] दिखाती रही हैं, इससे पता चलता है आत्मनिर्णय के विवाह तक पहुँचने में कितने तरह की समस्याएं विद्यमान हैं। परम्परागत विवाहों में भी विवाह के तय होने से लेकर उसके आयोजन और उन आयोजनों से जुड़ी कुप्रथाएं आदि ढेर सारी समस्याएं पैदा करते हैं। रिश्वत लेते हुए पकड़े गये कुछ लोगों से अंतरंग बात करने पर पता चला कि कभी आदर्श की बातें करने वाले इन लोगों ने बेटियों के विवाह हेतु दहेज जुटाने के लिए रिश्वत लेना सीखा। देश में कुल बाज़ार का तेइस प्रतिशत सौन्दर्यीकरण से जुड़ा हुआ है जो स्वास्थ के बाज़ार से अधिक है। खाप पंचायतों जैसी संस्थाएं जो अपने सदस्यों की शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ आदि की कोई चिंता नहीं करतीं किंतु विवाह के लिए कानून के समानांतर न्याय व्यवस्था चलाते हुए फाँसी देने तक के फैसले दे देती हैं, और गैर कानूनी होने के बाद भी उन फैसलों पर अमल भी करवाती हैं। जातिवादी संस्थाओं का सबसे प्रमुख काम विवाहों पर निरीक्षण रखना हो गया है। विवाह के असफल होने पर अलगाव से सम्बन्धित जो मान्यताएं तथा नये व पुराने कानून अस्तित्व में हैं, उनके व उनके दुरुपयोग के कारण या तो अनेक दम्पत्ति घुट घुट कर जीते हैं या अलग होकर अपना बहुत कुछ लुटा देने की स्थिति में पहुँच जाते हैं। कभी घुटना केवल स्त्रियों के हिस्से में आता था जो महिला समानता के आन्दोलन व सशक्तीकरण के कुछ कानूनों के कारण दोनों के हिस्सों में बँट गया है, जिसका असर बच्चों के विकास पर भी पड़ता है। अपने कर्म के प्रति समर्पित देश दुनिया के प्रमुख संस्कृतिकर्मी और राजनेता या तो अविवाहित रहे हैं या उनके वैवाहिक जीवन की नैतिकताओं में विचलन की सूचनाएं आम हैं। ये संकेतक हैं कि विवाह संस्था सुधार चाह रही है।
       हमारे समाज में जो बदलाव बताये जाते हैं वे मूल ढाँचे को छेड़े बिना केवल आवरण में होते हैं। पिछली सदियों में जिस गति से राजनीतिक आर्थिक ढाँचे में बदलाव आये हैं उस गति से सामाजिक ढाँचे में बदलाव नहीं आ रहे हैं। विज्ञान की डिग्री रखने वाले, टैक्नोक्रेट व प्रबन्धन वाले अधिकांश युवा भी घर के बुजुर्गों की मर्जी से अपनी जाति में पत्रिका मिलान कर सड़क पर बारात निकालते हुए ही शादी कर रहे हैं। लड़कों को तो किसी हद तक लड़की के रंग रूप को चुनने का अवसर मिलने भी लगा है, किंतु सुशिक्षित लड़कियों को भी यह अधिकार बहुत ही कम मिल पाया है। सम्पन्नता के अनुसार विवाह परम्पराओं के वैभव में भले ही अंतर आया हो किंतु परम्पराएं वही पुरानी निभायी जा रही हैं, जिनके अनेक दोषों से वे स्वयं परिचित हैं। अपने सबसे अच्छे बेमौसमी वस्त्रों में लिपटे स्त्री पुरुष और बच्चे, बीच सड़क पर बेतरतीब ढंग से शराब पीकर उछलते नृत्य समझकर चक्कर खाते युवा, आतिशबाजियां, जनरेटर और बैंड के बीच मुकाबला करते शोर के बीच में से निकलती हार्न बजाती मोटर साइकिलें, बिजली का हंडा सिर पर रखे बाल मजदूर और इस युग में घोड़े पर सवार दूल्हा जो दृश्य उपस्थित करते हैं वह जुगुप्सा जगाने वाला होता है। पता नहीं उसमें कौन लोग कैसे आनन्द लेते चले आ रहे हैं। दुखी परेशान होते हुये, बिना आरक्षण के यात्रा में भागते रिश्तेदारों का विवाह समारोहों में भाग लेना क्यों जरूरी होता है, जिनमें उम्रदराज बुजुर्ग ही नहीं दूध पीते बच्चे भी होते हैं। उनके रहने, सोने और शौचालय स्नान की उचित व्यवस्था तक नहीं होती पर अधिक से अधिक स्वादिष्ट गरिष्ठ भोजन लेना जरूरी होता है। यह यात्रा कई बार वे उधार लेकर भी करते हैं। आखिर हम क्यों अपनी और दूसरों की सुख सुविधा को ध्यान में रखते हुए इसे उस स्तर तक सीमित नहीं कर पा रहे हैं जिसमें पूरी घटना सिर्फ और सिर्फ आनन्द बन सके। भोपाल के प्रोफेसर डा. आफाक अहमद ने एक संस्मरण सुनाया था। सुप्रसिद्ध व्यंग्य लेखक शरद जोशी की बेटी की शादी की दावत थी और जब उन्होंने अपने हाथ में पकड़े हुए गुलदस्ते और उपहार को भेंट करने के लिए उनसे पूछा कि दूल्हा दुल्हिन कहाँ है? तो उन्होंने कहा कि यहीं लोगों के बीच आशीर्वाद लेते घूम रहे हैं, आइये बैठिये वे खुद आपके पास आ जायेंगे। पूरा जीवन प्रगतिशील मूल्यों के लिए बिताने वाले शरद जोशी ने बच्चों को किसी महाराजा कुर्सी पर बिठा कर वरिष्ठजनों को उन तक जाने की खराब परम्परा नहीं स्वीकारी थी। पिछले दिनों एक सुबह मित्र का बेटा अपनी नवविवाहिता के साथ मिठाई और ड्राईफ्रूट का डिब्बा लिए उपस्थित हुआ और पैर छूते हुये कहा कि हम लोगों ने विवाह कर लिया है व तय किया है कि वरिष्ठजनों को तकलीफ देने की जगह उनके घर पर जाकर ही आशीर्वाद लिया जाये। मन सचमुच गदगद हो गया। युवा होने का अर्थ ही है सार्थक परिवर्तन का साहस।
ऐसा नहीं है कि व्यक्तिगत स्तर पर छुटपुट बदलाव नहीं हो रहे हैं किंतु संगठित संस्थाओं द्वारा उन्हें समाज से विद्रोह माना जा रहा है व उन विद्रोहियों को समाज के हाशिए पर जाना होता है या दण्डित होना पड़ता है। कभी किसी जमाने में इक्के दुक्के लैला मज़नू, शीरी फरहाद की कहानियां सुनने को मिलती थीं किंतु इन दिनों प्रति सप्ताह दो तीन युवा जोड़े आत्महत्या कर रहे हैं किंतु समाज के कान पर जूं भी नहीं रेंग रही। बिना संगठन के कोई भी बदलाव सामजिक बदलाव का सूत्रपात नहीं कर पाता और बुझती चिनगारी की तरह चमक कर रह जाता है।
       विवाह संस्था में बदलाव के कुछ लक्षण युवाओं के अविवाहित रहने, या ‘लिव इन रिलेशन’ में देखने को मिल रहे थे किंतु पिछले दिनों आये उच्चतम न्यायालय के फैसलों से ऐसा लगता है कि इस तरह के रिश्तों को भी विवाह की पुरानी सीमाओं में बाँध कर वहीं लाया जा रहा है। लिव इन रिलेशन में रहने का मतलब ही यह था कि दो युवाओं ने परम्परागत विवाह से हट कर एक तयशुदा समय के लिए ज़िन्दगी बिताने का समझौता किया हुआ है। यह उनकी स्वतंत्रता होनी चाहिए कि वे इस समझौते की अवधि कब तक रखें या अलग होने के लिए अपनी सम्पत्ति को किस तरह से बाँटें। इसको विवाह के कानूनों के हिसाब से तय करना इसकी प्रकृति को बदलना है। प्रगतिशील समाज को बदलते समय में बदलते सम्बन्धों का स्वागत करना चाहिये और सहयोगी बन कर उनके प्रयोगों को परखना चाहिये। यह नहीं भूलना चाहिए कि हम लोग मातृ प्रधान समाज से प्रारम्भ कर के परिवार की वर्तमान व्यवस्था तक पहुँचे हैं और विवाह संस्था पुनः कुछ बड़े परिवर्तन चाह रही है।
              जातियां काम की किस्म के कारण बनी थीं और जाति विवाह इसलिए उपयोगी थे ताकि समानधर्मा कुटीर उद्योग, गृह उद्योग, और कारीगरी के कौशल में विकसित हुए बच्चे अपने उस काम को सहयोगपूर्वक कर सकें जिसमें उन्हें पूर्व से ही प्रशिक्षण प्राप्त है। किंतु राजतंत्र की समाप्ति, सरकारी सेवाओं के नये वर्गों का उदय, उद्योगों की स्थापना, नगरी सभ्यता का विकास आदि ऐसी घटनाएं हुयी हैं जिनके कारण हमें विवाह को जाति तक सीमित रखने के नियम में परिवर्तन लाना चाहिए था, जो नहीं लाया गया है। अगर लोग जाति विवाह के पक्ष में ही हैं तो अब जातियां, डाक्टर, इंजीनियर, किसान, व्यापारी, पुलिस, फौजी, सरकारी सेवक, पत्रकार, औद्योगिक श्रमिक, आदि के आधार पर बदलना चाहिए।     
    मृत देहों की तरह मृत हो चुकी परम्पराओं को भी विसर्जित करने का साहस जुटाना होगा नहीं तो हमारा समाज किसी कबाड़खाने में बदल कर रह जायेगा। सुन्दरता के लिए बेतरतीब ढंग से बढ चुके अपने बालों और नाखूनों को उचित स्थान से काटना ही होता है। सामाजिक सौन्दर्य के लिए वंछित बदलाव का बीड़ा युवा ही उठा सकते हैं और उन्हें उठाना भी चाहिए।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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