गुरुवार, जून 04, 2015

दलों की अधिमान्यता के नियमों में सुधार की आवश्यकता



 दलों की अधिमान्यता के नियमों में सुधार की आवश्यकता 
वीरेन्द्र जैन

हमारे देश में लगभग 1807 पंजीकृत दलों में से छह राष्ट्रीय और 64 प्रादेशिक दल अधिमान्य हैं। इन दलों की अधिमान्यता का कुल मतलब इतना है कि आम चुनावों के समय इन दलों के प्रत्याशियों को समान चुनाव चिन्ह आरक्षित रहता है, और सरकारी मीडिया पर इन्हें अपनी बात कहने के लिए कुछ समय आवंटित किया जाता है।  उक्त सुविधाओं के बदले में इन दलों पर कुछ बन्दिशें भी हैं, जिनमें अपने आय व्यय का हिसाब किताब प्रस्तुत करना, दल बदल कानून के अंतर्गत आना आदि। यह अधिमान्यता गत आम चुनावों में प्राप्त मतों, जीती गयी सीटों की संख्या और उनके क्षेत्रीय विस्तार पर निर्भर करती है। विडम्बना यह है कि 2014 के आम चुनावों के बाद राष्ट्रीय मान्यता प्राप्त छह दलों में से चार की राष्ट्रीय मान्यता के समाप्त होने का संकट आ गया है व इस समय के नियमों के अनुसार भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी ही बचे रहने वाले हैं। यह बहुदलीय लोकतंत्र के लिए खतरनाक संकेत हैं क्योंकि चुनाव परिणामों में काँग्रेस निरंतर कमजोर होते जाने का प्रदर्शन कर रही है व भाजपा जिस जोड़तोड़ और गैरराजनीतिक आधारों पर देश के पश्चिमी भाग के सहारे अपना अस्तित्व बनाये हुये है उससे शेष देश में क्षेत्रीय दल विस्तार पा रहे हैं। राष्ट्रीय एकता की दृष्टि से जरूरी है कि राष्ट्रीय दलों की नये तरीके से पहचान हो व लोकतंत्र की भावना के अनुसार अधिमान्यता के नियमों पर पुनर्विचार हो।
पिछले बीस वर्षों में क्रमशः चुनाव प्रणाली में कुछ सकारात्मक सुधार हुये हैं यद्यपि ये सुधार भी अभी अधूरे हैं. और हो चुके सुधारों के पालन कराने की व्यवस्था कमजोर है, पर अगर इतने सुधार भी नहीं हुये होते तो लोकतंत्र जंगली राज में बदल गया होता। स्मरणीय है कि प्रारम्भिक चुनावों में वोट एक जैसे होते थे पर पेटियां अलग अलग होती थीं जो उम्मीदवारों के अनुसार होती थीं। वोटर को जिसे वोट देना होता था वह उस की पेटी में वोट डालता था। उन दिनों एक की पेटी के वोट दूसरे की पेटी में डाल देने की शिकायतें होती थीं व पोलिंग आफीसर की भूमिका महत्वपूर्ण होती थी। उसके वाद कामन मतपेटी आयी और ऐसे मतपत्र आये जिन पर सभी प्रत्याशियों के चुनाव चिन्ह बने होते थे जिन में से पसन्द के चिन्ह पर मुहर लगा कर वोट दिया जाता था। उस दौर में मतदान पत्र मोड़ने की भूमिका का महत्व था अन्यथा एक चिन्ह पर लगी मुहर की स्याही दूसरे पर जाने से काफी मात्रा में वोट निरस्त हो जाते थे। तब वोटों के चुनाव चिन्हों पर लगने वाली मुहर को स्वास्तिक चिन्ह के अनुसार बनाया गया ताकि सही चिन्ह पर लगी मुहर को परखा जा सके। उन दिनों चुनाव में व्यय की गयी राशि और चुनाव प्रचार सामग्री पर नियंत्रण की कोई व्यवस्था नहीं थी। सम्पन्न उम्मीदवार अपने वाहनों से मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक ले जाते थे। मतदाता पहचान पर्चियों पर उम्मीदवार का नाम और चुनाव चिंह होता था व कई नासमझ मतदाता तो यही समझते थे कि उनके पास जिसकी परची आयी है वही वोट है और उसे केवल उसी उम्मीदवार को वोट देने का अधिकार है। कई नेता तो चुनाव के दिन जीपों का कारवां लगा कर व हैलीकाप्टर को ग्रामीण क्षेत्रों में उड़ा कर मतदाताओं को प्रभावित कर लेते थे। अब व्यय और व्ययसाध्य चुनाव प्रचार पर किंचित नियंत्रण लगाने की कोशिश हुयी है।  उम्मीदवारों को शपथ पत्र द्वारा अपनी चल-अचल सम्पत्ति, देयताएं, चल रहे प्रकरण आदि की घोषणा करना पड़ती है। इस के साथ साथ चुनाव सभाओं की संख्या सीमित की गयी है व स्टार प्रचारकों पर नियंत्रण लगाने की कोशिशें की गयी हैं। मतदाता को प्रभावित करने के लिए दी जा रही उपहार सामग्री, शराब और धन का कुछ हिस्सा पकड़ा जा रहा है, पर उससे कई गुना बिना पकड़े बँट रहा है। वाहनों पर नियंत्रण रखा जा रहा है व नगरीय क्षेत्रों में उम्मीदवार के वाहन से मतदाताओं को मतदान केन्द्र तक लाये जाने से बचा जा रहा है। मतदाताओं और ईवीएम मशीनों की उचित सुरक्षा के प्रयास होते हैं। नोटा का बटन लाया गया है। कह सकते हैं कि कुछ किया गया है और बहुत कुछ किया जाना बाकी है।  
       दलों को एक जैसे आधार पर अधिमान्यता तो दी जाती है किंतु सभी अधिमान्य दलों के पास समान संसाधन नहीं हैं व दल को संचालित किये जाने के लिए साझा नियम नहीं बने हैं। सत्तार्‍ऊढ रहे दलों ने दल के नाम पर भवन बनाने के लिए बड़ी बड़ी ज़मीनें हथिया ली हैं और उनमें बाज़ार बनवा लिये हैं जिनके किराये से दलों का खर्च निकलता है, पर दूसरे दल इससे वंचित हैं। दलों के गठन से सम्बन्धित  आधारों को संविधान सम्मत बनाने के लिए ऐसे कुछ नियम बनने चाहिए, जैसे कि पिछले वर्षों में हर दल के अन्दर उसके संविधान के अनुसार समय पर संगठन के चुनाव करवाना जरूरी कर दिये गये थे। इसी तरह किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए उसके दल की विदेश, अर्थ, शिक्षा स्वास्थ और संस्कृति आदि से सम्बन्धित नीतियां घोषित करना जरूरी होना चाहिए। आम तौर पर दलों द्वारा चुनावों में प्रत्याशी बनाये जाने से सम्बन्धित कोई घोषित नियम नहीं हैं जिस कारण से ठीक चुनावों के समय दल बदलने वाले लोगों को टिकिट देकर लोकतंत्र को कलंकित किया जाता है। स्पष्ट घोषित नीति नहीं होने के कारण बहुत सारे लोग टिकिट के आकांक्षी हो जाते हैं जिस कारण से कई दलों में टिकिटों की नीलामी सी होती है और कई जातिवादी दल तो टिकिट देने की दुकान बन गये हैं। चुनाव आयोग को टिकिट देने के लिए सभी अधिमान्य दलों के अन्दर कुछ न्यूनतम वरिष्ठता तय करनी चाहिए व उसकी पुष्टि सुनिश्चित करने के लिए सदस्यता का कोई रजिस्टर तैयार कराना चाहिए।
       दलों के संचालन के लिए वित्तीय व्यवस्था का सर्वोत्तम तरीका यह है कि उसके सदस्य ही उसे अपने आर्थिक सहयोग से चलायें। सीपीएम की तरह कार्यकर्ताओं पर आय के अनुपात में लेवी लगाना सर्वोत्तम तरीका हो सकता है। कुछ बड़े कार्पोरेट संस्थान इलैक्ट्रोरल ट्रस्ट बना कर सरकार बना सकने की सम्भावना वाले कुछ दलों को मनमाने ढंग से चन्दा देते हैं। यह चन्दा परोक्ष में व्यापारिक लाभ लेने के लिए एडवांस धन के रूप में दिया जाता है। कोई औद्योगिक घराना कुछ दलों को चुनावी चन्दा क्यों देगा? अगर कम्पनी का कोई डायरेक्टर किसी दल को पसन्द करता है तो उसे व्यक्तिगत रूप में चन्दा देना चाहिए। कोई उद्योगपति यदि किसी दल विशेष को पसन्द करता है तो वह उसे अपनी क्षमता के अनुसार चन्दा दे सकता है किंतु एक ही उद्योग द्वारा एक से अधिक दलों को चन्दा देना तो उसकी पसन्दगी नहीं अपितु अवसरवादिता को दर्शाता है। यदि कोई उद्योग ईमानदारी से काम करते हुए लोकतंत्र के लिए सचमुच ही एक से अधिक दलों को मदद करना चाहता है तो उसे सभी अधिमान्य दलों को समान मात्रा में चन्दा देना चाहिए। एक तरीका यह भी हो सकता है कि सदस्यों के अलावा बाहर से मिलने वाला सारा चन्दा चुनाव आयोग के माध्यम से दिया जाये जिसका एक हिस्सा सार्वजनिक चुनाव व्यवस्था के लिए चुनाव आयोग को मिले।
उच्च सदन में जहाँ अप्रत्यक्ष चुनाव होता है धन की बड़ी भूमिका होती है और अपने आय व्यय में पारदर्शिता से बचने वाले दल अंततः उद्योगपतियों या उनके प्रतिनिधियों को ही उच्च सदन में भेजते देखे गये हैं। इस तरह उच्च सदन के गठन का उद्देश्य ही भ्रष्ट हो जाता है। अगर उच्चसदन के लिए दल में न्यूनतम वरिष्ठता की कठोर शर्तें हों तो अधिक अच्छे और योग्य लोग सदन को सार्थक करेंगे। सदन में पहुँचने वाले सदस्यों के व्यापारिक हितों को स्थगित रखने की कोई व्यव्स्था होना चाहिए व ऐसे व्यापारिक संस्थानों को विशेष निगरानी की श्रेणी में रखा जाना चाहिए।
       अधिमान्यता के लिए मतों के प्रतिशत और क्षेत्रीय विस्तार के अलावा दलों की पुष्ट सदस्य संख्या उनकी राजनीतिक सक्रियता, नीतियों की स्पष्टता, आंतरिक लोकतन्त्र आदि को भी आधार बनाया जाना चाहिए, वहीं अपराधियों, लम्बित प्रकरणों, और सरकारी देयताओं के प्रति उदासीन लोगों को टिकिट दिये जाने को अधिमान्यता की दृष्टि से नकारात्मक रूप में देखना चाहिए। जातिवादी और साम्प्रदायिक विचारों वाले दलों को अधिमान्यता देने के बारे में भी कड़े मापदण्ड लगाना चाहिए व आरोपियों को टिकिट न देने का शपथ पत्र लेना चाहिए। आचार संहिता लगने के पूर्व तक मतदाताओं को सलाह देने के ऐसे प्रचारात्मक कार्यक्रम नियमित चलाये जाते रहना चाहिए जो अपराधियों और आरोपियों को टिकिट देने वाले दलों के प्रति सावधान करते हों। इससे मतदाता उन उम्मीदवारों और दलों दूर रहेंगे जो आरोपियों को टिकिट देते हैं। जब इसी देश में ऐसे राष्ट्रीय दल भी हैं जिनके यहाँ न तो दल बदल की बीमारी है और न ही टिकिट के लिए मारामारी होती है तो ऐसा सभी दलों में क्यों नहीं हो सकता! जरूरी है कि पार्टी संविधान में टिकिट देने की कुछ न्यूनतम शर्तें पूर्व से घोषित हों और उनके अनुसार टिकिट न देने पर चुनव आयोग को उस उम्मीदवार को निर्दलीय घोषित करने का अधिकार हो। ऐसे उम्मीदवार को  मिले मतों को पार्टी को मिले कुल मतों में नहीं जोड़ा जाये।
       किसी भी राष्ट्रीय दल के लिए यह जरूरी होना चाहिए कि किसी राष्ट्रीय समस्या के प्रति उसके स्पष्ट विचार हों, और उसकी कार्यकारिणी में मंत्रालयों के अनुरूप विशेषज्ञ प्रभारी हों। किसी तय समय में इन दलों को समस्या के बारे में अपनी पार्टी का दृष्टिकोण व्यक्त करना अपेक्षित होना चाहिए। राजनीतिक दलों की मौकापरस्ती पर लगाम लगाया जाना जरूरी है। अब वह समय आ गया है कि दलों की नीतियों और उनकी पारदर्शिता के आधार पर ही उसका समर्थक वर्ग अपना समर्थन तय करेगा। नीतियों के प्रति रहस्यात्मकता लोकतंत्र के लिए खतरनाक है।   
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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