सम्भावना की बात नहीं इमरजैंसी लग चुकी है
वीरेन्द्र जैन
पिछले दिनों भाजपा के वरिष्ठ नेता लाल
कृष्ण अडवाणी के इस कथन पर बहुत फूं फाँ हुयी जिसमें उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस से खास बातचीत में कहा था कि “भारतीय राजनीतिक प्रणाली अब भी आपातकाल की शब्दावली से मुक्त नहीं हुई है और उसी तरह
भविष्य में नागरिक
स्वतंत्रता के हनन की आशंका से इनकार
नहीं किया जा सकता। आडवाणी ने कहा था कि इस समयबिंदु पर संवैधानिक और कानूनी संरक्षण के बावजूद, जनतंत्र को कुचल सकने वाली ताकतें
ज्यादा ताकतवर हैं।“ पर सच तो यह है कि अब बात केवल आशंका तक नहीं रह गयी है अपितु
इस देश के नागरिकों की नागरिक स्वतंत्रता का हनन लगातार हो रहा है भले ही उसका
स्वरूप पिछली इमरजैंसी से भिन्न हो, और दबाव अघोषित ढंग से काम कर रहा हो।
यह
21वीं सदी का भारत है और इसमें अब जरूरी नहीं कि इमरजैंसी अचानक किसी रात को घोषित
कर दी जाये और विपक्ष के नेताओं को सुबह होते होते गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया
जाये। लोगों की स्वतंत्रता उनके बोलने की आज़ादी को प्रतिबन्धित करके ही सीमित नहीं
की जाती अपितु वे जिन्हें सम्बोधित कर रहे हैं उनके ध्यन और रुचि को विकृत व
भ्रमित करके भी सीमित की जा सकती है। मुँह केवल दबोच कर ही बन्द नहीं किया जाता
अपितु कुछ स्वादिष्ट टुकड़े डाल कर भी बन्द किया जाता है। अगर प्रचार की तुलना में
दुष्प्रचार अधिक जोर शोर से किया जाने लगे तो भी जरूरी अभिव्यक्ति निष्प्रभावी हो
जाती है। सत्ता का केन्द्रीकरण, व्यक्ति का अतिरंजित महिमा मण्डन , और निरंकुशता इमरजैंसी के दूसरे लक्षण हैं। परिदृश्य वैसा ही
है जिसमे जब लोगों से झुकने के लिए कहा गया था तो वे लेट गये थे। आज भी सरकार के सारे
महत्वपूर्ण फैसले संसदीय दल तो क्या केन्द्रीय मंत्रीपरिषद की भी आम राय से नहीं किये जाते। केवल प्रधान मंत्री कार्यालय
और प्रधानमंत्री जो
फैसले ले लें उस पर मुहर लगती रहती है।
इमरजैंसी के बीज तो उसी दिन बो दिये गये थे जब भाजपा के प्रधानमंत्री पद
प्रत्याशी के रूप में संघ की ओर से नरेन्द्र मोदी का नाम थोप दिया गया था और विरोध
की सारी आवाजों का गला घोंट दिया गया था। स्मरणीय है इस घोषणा के पहले तक तो बहुत
सारी आवाजें उठ रही थीं जिनके बारे में अरुण जैटली ने कहा था कि भाजपा में दस से
अधिक लोग प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी के योग्य हैं। आडवाणीजी ने त्यागपत्र दे दिया
था और वे तय कार्यक्रम के विपरीत सुषमा स्वराज के साथ मुम्बई से बिना भाषण दिये
चले आये थे। बाल ठाकरे ने अडवाणीजी का नाम न होने की दशा में सुषमा स्वराज के नाम
का समर्थन किया था। संघ परिवार के अन्दर लग चुकी इमरजैंसी के कारण ही संजय जोशी को
प्रवक्ता और उत्तर प्रदेश के प्रभारी के पद से बिना ठोस कारण प्रकट किये मुक्त कर
दिया गया था, और आतंकित लोगों ने कहीं कोई सवाल तक नहीं किया था। बहुत बोलने वाले
शत्रुघ्न सिन्हा ने अपने अभिनेता वाले स्वरूप पर लौटते हुए मुँह पर उंगली रख ली थी
और खामोश हो गये थे। पुराने कार्यकर्ताओं को दरकिनार करते हुए दूसरे दलों के
सांसदों को सीधे भाजपा प्रत्याशी के रूप में भरती कर लिया गया था और टिकिट का वादा
निभाया भी गया था। कुछ ने तो पहले टिकिट ले लिया था तब भाजपा में सम्मलित हुये थे
पर सब वरिष्ठों को मुँह सिल लेना पड़ा था। काँग्रेस से तो सीधे केन्द्रीय मंत्री ही
भरती कर लिये गये थे जो आज अपने मुँह में दही जमा कर बैठे फिरसे मंत्री पद की
सुविधाएं भोगते हुए नई इमरजैंसी को सफल कर रहे हैं। सेना के जनरल, वरिष्ठ आईएएस और
आईपीएस अधिकारी जब पार्टी के वरिष्ठ कार्यकर्ताओं की जगह बैठा दिये गये हों जो
कार्यकर्ताओं की कमजोरियों के बारे में बहुत कुछ जानते हों तो चुप्पियां अपने आप
ही छा जाती हैं। जब कार्पोरेट घरानों ने पूरे मीडिया को खरीद लिया हो और वे सरकार
के साथ सौदा कर रहे हों तो किसी विरोध की जगह कहाँ रह जाती है। पिछले दिनों अस्सी
से अधिक पत्रकारों की हत्याएं हो चुकी हैं और अधिकांश समर्थ पत्रकारों को लखटकिया
पुरस्कारों से सम्मानित कर उपकृत किया जा चुका है तो मीडिया पर प्रतिबन्ध की जरूरत
ही क्या है। सच के जुगुनू यदा कदा कभी सोशल मीडिया पर दिख जाते हों तो उनके
टिमटिमाने की सीमा होती है।
वरिष्ठों को मार्गदर्शक का नाम दे मूकदर्शक बना दिया गया। मंत्रीमण्डल के
सदस्यों को क्या सांसदों तक को अपनी मर्जी का निजी सचिव रखने का अधिकार नहीं है। विदेशमंत्री
शोपीस बना कर बैठा दिया गया है और उनको प्रधानमंत्री के साथ विदेश यात्रा पर नहीं
ले जाया जाता। उनके साथ कुछ चुने हुए उद्योगपति जाते हैं जो उसी होटल में रुकते
हैं जिसमें प्रधानमंत्री को ठहराया जाता है। मंत्रीमण्डल के गठन में अनुभव और
प्रतिभा से अधिक समर्पण भाव महत्वपूर्ण रहा। प्रत्येक विभाग के प्रमुख सचिवों को
पहले दिन ही समझा दिया गया था कि वे प्रधानमंत्री से सीधे बात कर सकते हैं जिसका
परोक्ष में मतलब यही था कि नौकरशाही सीधे प्रधानमंत्री के नीचे रहेगी। मंत्रियों
के पहनावे से लेकर किस मंत्री की बैठक किस उद्योगपति से किस होटल में चल रही है
इसकी जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय को रहती है, अर्थात सबके पीछे जासूस लगे हैं।
पिछले दिनों मोदीजी ने कहा भी था कि सरकारी इंटैलीजेंस से उनकी अपनी इंटेलीजेंस
ज्यादा सक्रिय है। प्रशासनिक सुधार के नाम पर धड़ाधड़ 1300 कानूनों को समाप्त करने
की तैयारी है। संसद का सामना करने की जगह अध्यादेशों में भरोसा किया जा रहा है।
रक्षामंत्री को लग रहा है कि बहुत दिनों से कोई युद्ध न लड़े जाने के कारण सैनिकों
का सम्मान घट रहा है। इंस्पेक्टर राज खत्म करने के दावे के साथ श्रम हितैषी बहुत
सारे नियमों कानूनों को हटाया जा चुका है। किसानों की भूमि हड़पने की पूरी तैयारी
चल रही है। विदेशी पूंजी निवेश के लिए सारे रास्ते खोले जा चुके हैं। विरोध का
स्वर मिमियाहट में बदल चुका है, क्योंकि पुराने सत्ताधीशों को उनकी फाइलें खुल
जाने के संकेत दिये जा चुके हैं। छगन भुजबल से लेकर वीर भद्र सिंह तक जाँचें शुरू
हो चुकी हैं, शरद पवार पहले ही शरणागत होने को तड़फ रहे हैं।
संगठन के स्तर पर पूरी पार्टी को अपने सबसे निकट और समर्पित उस व्यक्ति की
जेब में अध्यक्ष पद रख दिया है जो नैतिक और लोकप्रियता की दृष्टि से सबसे अधिक
अपात्र था पर कहीं से कोई आवाज नहीं निकली। जिस व्यक्ति को गुजरात उच्च न्यायालय
ने प्रदेश बदर करने का आदेश सुनाया था उसे पूरे देश पर थोप दिया गया पर पार्टी
सदस्य चुप रहे। गुजरात 2002 के आरोपियों समेत सारे आरोपी जमानत का लाभ ले रहे हैं
और कमजोर अभियोजन के कारण छूटने लगे हैं।
मानव संसाधन मंत्री के रूप में केवल प्रतीक स्वरूप स्मृति ईरानी को ही
नहीं बैठाया गया अपितु अकादमिक संस्थाओं में पूरी तरह से मनमानी की जा रही है।
शिक्षा, अनुसंधान के क्षेत्र में जिस तरह से नियुक्तियां की गयी हैं वह इसका
पर्याप्त आधार प्रस्तुत करता है कि सुप्रसिद्ध साहित्यकार अनंतमूर्ति ने क्यों कहा
था कि मोदी सरकार में रहने की जगह मैं देश छोड़ना ज्यादा पसन्द करूंगा , और कुछ ही
महीनों बाद उन्होंने प्राण त्याग दिये। भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद के अध्यक्ष
पद पर वाय सुदर्शन राव की नियुक्ति की गयी है जिनकी एकमात्र योग्यता संघ परिवार से
उनका जुड़ाव है। उस परिषद के एक कार्यकाल पूरा करने वाले पुराने सदस्यों को मुक्त
कर दिया गया है जबकि आम तौर पर दो कार्यकाल दिये जाने की परम्परा रही है। श्री राव
के विचारों और इस नई इमरजैंसी का साम्य देखिये कि उन्होंने लिखा है जाति व्यवस्था
प्राचीन काल में बहुत अच्छे से चल रही थी और हमें किसी कोने से इसकी शिकायत नहीं मिलती।
शिकायतें इमरजैंसी में भी कहाँ मिलती हैं! शिक्षा के क्षेत्र में हरियाणा सरकार के
मार्गदर्शक बनाये गये दीना नाथ बत्रा के बारे में तो पूरा देश खूब जान चुका है और
संघ परिवार को छोड़ कर पूरा बुद्धिजीवी जगत उनके विचारों पर शर्मिन्दिगी महसूस कर
चुका है। नैशनल बुक ट्रस्ट के अध्यक्ष पद पर पाँचजन्य के पूर्व सम्पादक बल्देव भाई
शर्मा को बिठा दिया गया है जिन्होंने अभी तक कोई पुस्तक नहीं लिखी है। राष्ट्रीय
संग्रहालय और ललित कला अकादमी के अध्यक्ष को हटा दिया गया है जिनके कार्यों की
सर्वत्र प्रशंसा हुयी है। इतना ही नहीं अब ट्रस्ट की पुस्तकों में से मेधा पाटकर
वाला अध्याय हटा दिया गया है जबकि चुनाव लड़ने को
आधार बना कर किये गये इस कर्म से किरन बेदी को मुक्त रखा गया है। फिल्म
सेंसर बोर्ड हो या एफटीटीआई हो सब जगह कम योग्य लोगों को तरजीह दी जा रही है और
विरोध का स्वर कमजोर किया जा रहा है। न्याय व्यवस्था के बारे में मोदी के सबसे बड़े
समर्थक राम जेठमलानी की यह टिप्पणी ही पर्याप्त है जिसमें उन्होंने कहा है कि
केन्द्र न्यायिक नियुक्तियों का राजनीतिकरण कर रही है और एक भ्रष्ट सरकार को ही
भ्रष्ट जजों की जरूरत होती है। सरकार लोकपाल संस्था में नियुक्तियों के प्रति
लगातार उदासीन रही है। तीन सदस्यीय चुनाव आयोग को एक सदस्य चला रहा है। केन्द्रीय
सतर्कता आयोग और सीबीआई में नियुक्तियों को लम्बे समय तक नियुक्तियां नहीं की गयीं
क्योंकि सरकार को अपने ऊपर कोई संस्था पसन्द नहीं। इमरजैंसी इससे भिन्न नहीं होती
है। इसकी जो प्रवृत्तियां हैं वे इस शासन में साफ नजर आती हैं।
संयोग
से इस नई इमरजैंसी के लिए परिस्तिथियां भी अनुकूल मिलीं। डीएमके और एआईडीएमके समेत
तृणमूल काँग्रेस, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, राजद, अकाली दल, आदि के नेता
इतने अपराधबोध से ग्रस्त हैं कि उनके मुँह से वह ताकतवर आवाज नहीं निकल सकती जो एक
संघर्षशील विपक्ष की होती है। काँग्रेस संगठन निर्माण का काम तो बहुत पहले ही छोड़
चुकी है, व सारे कमजोर चूहे जहाज को डूबता जानकर इधर उधर कूद गये हैं या तैयारी कर
रहे हैं। इस मुख्य विपक्षी दल के एक दो नेताओं को छोड़ कर कोई आवाज ही नहीं निकलती।
वामपंथियों की संख्या कम होने के कारण उनकी आवाज तूती की आवाज बन कर रह जाती है। आंकड़ों
के कुशल प्रबन्धन द्वारा कुल इकतीस प्रतिशत वोट पाकर भी लोकसभा में मिला पूर्ण
बहुमत और होंठ सिले दल के साथ जब बाहर के सांसद खुद ही चुप्पी लगा लिये हों तो
इमरजैंसी को पुरानी तरह से घोषित करने की जरूरत ही क्या है। अडवाणी की सफाई भी
अपने आप में इस प्रवृत्ति का समर्थन करती है। उनके साक्षात्कार के समय मुख्य विषय
इमरजैंसी की प्रवृत्तियां थीं और उन्होंने कहीं नहीं कहा कि इस सरकार में वे
प्रवृत्तियां नहीं हैं।
वीरेन्द्र जैन
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
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