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सोमवार, जून 10, 2013

मोदी कोचर्चा में बनाये रखने की तरकीब

मोदी को चर्चा में बनाये रखने की तरकीब

वीरेन्द्र जैन
       बदनाम भी होंगे तो क्या नाम न होगा?
                लोकप्रियतावाद के शिकार लोकतंत्र में भाजपा इसी सिद्धांत से काम करती है इसलिए हर तरह की लोकप्रियता को भुनाने के लिए विख्यात और कुख्यात दोनों तरह के चर्चित लोगों के सहारे वोटों के फल झड़ाने का जतन करती है। शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, दीपिका चिखलिया, दारा सिंह, हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, ही नहीं अपितु अरविन्द त्रिवेदी, और नवज्योत सिंह सिद्धु, आदि से लेकर साधु-साध्वियों के भेष में रहने वाले बहुरूपिये, क्रिकेट खिलाड़ी, मंच के कवि, पूर्व राजे-महाराजे, आदि सैकडों विख्यात और कुख्यात लोगों की पूंछ पकड़ कर चुनाव की बैतरणी पार करती रही है। नरेन्द्र मोदी उनके नये संसाधन बनते जा रहे हैं। प्रचार कुशल भाजपा किसी भी असत्य या अर्धसत्य को गोयेबल्स की नीति के अनुसार इतनी बार दुहराती है कि सामान्य जन को वह सत्य सा महसूस होने लगता है। झूठ का यह महायज्ञ वे चुनावों के आसपास ही प्रारम्भ करते हैं और इसी बीच सम्पन्न चुनावों में वे अपनी नैया पार लगा लेते रहे हैं।
       पिछले दिनों कर्नाटक में भाजपा ने येदुरप्पा को भरपूर बदनाम होने का अवसर देकर भी पद पर बनाये रखा था और फिर जब उनके सारे पाप अकेले येदुरप्पा में केन्द्रित होकर रह गये थे तब उन्हें इतनी सावधानी से पार्टी से निकाल दिया तकि राज्य सरकार बनी रहे और लगे कि भाजपा तो शुद्धतम है जिसमें से मवाद  को बाहर निकाल दिया गया है। उल्लेखनीय है कि येदुरप्पा उन लोगों में से एक थे जिन्होंने अपना पूरा बचपन ही नहीं अपितु यौवन भी राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के स्वयं सेवक की तरह से निकाला था व जेल यात्राएं की थी।  वे 1970 में ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शिकारीपुर इकाई के सचिव नियुक्त हुये। 1972 में वे जनसंघ [भाजपा] की तालुक इकाई के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1975 में  वे शिकारीपुर की नगरपालिका के पार्षद और  1977 में चेयरमेन चुने गये थे। एक बार निरीक्षण के दौरान उन पर घातक हमला किया गया था। 1975 से 1977 के दौरान लगी इमरजैंसी  में वे  45 दिन तक बेल्लारी और शिमोगा की जेलों में रहे। 1980 में शिकारीपुर तालुका के भाजपा अध्यक्ष के रूप में चुने जाने की बाद 1985 में वे शिमोगा के जिला अध्यक्ष बना दिये गये। अगले तीन साल के अन्दर ही वे भाजपा की कर्नाटक राज्य भाजपा के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1983 में पहली बार शिकारीपुर से विधायक चुने जाने के बाद वे छह बार इसी क्षेत्र से चुने गये। वे तब भी जीते जब 1985 में उनकी पार्टी के कुल दो सदस्य विजयी हो सके थे। बीच में कुल एक बार चुनाव हार जाने के कारण उन्हें विधान परिषद में जाना पड़ा। 1999 में वे विपक्ष के नेता रहे। स्मरणीय है कि इस पूरे दौर में उन पर भ्रष्टाचार का कोई दाग नहीं लग सका था। 
        जब रेड्डी बन्धु संघ की समर्पित कार्यकर्ता शोभा कलिंजिद्रे को हटाने या सरकार गिराने की धमकी दे रहे थे तब सरकार बचाने के लिए शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने के निर्देश किसने दिये थे? स्मरणीय है कि तब येदुरप्पा इस सैद्धांतिक मामले पर सरकार को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। दूसरी बार जब विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया था और कुछ विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था तब उसका प्रबन्धन किसने किया था। केन्द्रीय नेताओं ने किसके बूते यह कहा था कि येदि को कोई ताकत हटा नहीं सकती और वे पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे। उस समय तक जब पूरा देश जान चुका था कि यह कहानी उस समय से शुरू होती है जब श्रीमती  गान्धी ने बेल्लारी से चुनाव लड़ा था और उनके विरोध के लिए सुषमा स्वराज को उतारा गया था तब रेड्डी बन्धुओं से भाजपा का समझौता हुआ था तथा भाजपा की जड़ें इसी खनन माफिया से ही पल्लवित पुष्पित हुयी हैं व उनके द्वारा ही जुटाये गये समर्थन से ही दक्षिण में भाजपा को अपने डैने फैलाने का मौका मिला था। क्या यह अनायास था कि रेड्डी बन्धुओं द्वारा बेल्लारी में आयोजित होने वाली वरलक्ष्मी पूजा में 1999 के बाद सुषमा स्वराज तब तक लगातार आती रही हैं जब तक कि रेड्डी बन्धुओं पर उठने वाले छींटे उन तक पहुँचने लगे थे। जब भाजपा के वरिष्ठतम नेताओं में से एक शांता कुमार ने जो कर्नाटक के प्रभारी थे येदुरप्पा के कारनामों से पार्टी को सवधान किया था तब भी किसी के कान पर जूं भी नहीं रेंगी थी और नुकसान शांता कुमार का ही हुआ था।
       भाजपा इतने चतुर सुजानों की पार्टी है कि वह मोदी को प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाने की मूर्खता कभी नहीं करेगी, क्योंकि वह जानती है कि पिछली एनडीए की सरकार मोदी के कारनामों के कारण ही टूटी थी। आज जो मोदी के लाउडस्पीकर बन रहे हैं उनमें कोई भी ऐसा नया व्यक्ति नहीं है जो पूर्व से ही भाजपा के साम्प्रदायिक स्वरूप का अन्ध समर्थक न रहा हो। एक साथ एक सी पुकार लगाने पर स्वर में ध्वनि विस्तारक का प्रभाव पैदा होता है, मोदी को प्रतीत होता समर्थन भी लगभग ऐसा ही है। अनुभवी अडवाणी समेत भाजपा के वरिष्ठ नेता पहले ही घोषित कर चुके थे कि यूपीए सरकार पर लगे आरोपों से पैदा की गयी अलोकप्रियता के बाद भी जनता भाजपा को विकल्प के रूप में नही देख रही है। उसके तिकड़मबाजी के इतिहास को देखते हुए ऐसा लगता है कि उन्होंने गुजरात और शेष भारत के कट्टरतावादियों को एकजुट करने के लिए मोदी का नाम उछाल दिया है त्तकि छीझते समर्थन से निराश अडवाणी जैसे नेताओं को प्रोत्साहित किया जा सके। इसी कारण से मोदी के विरोध और समर्थन की नौटंकियां खेली जा रही हैं और मोदी को लगातार सुर्खियों में रखा जा रहा है। आखिर क्या कारण रहा कि मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करने की जगह प्रचार अभियान समिति का चेयेरमैन भर बना कर छोड़ दिया गया। आखिर वो कौन सा मंत्र फूंका गया कि मोदी का लगातार विरोध करने वाले नेताओं ने रातों रात अपना विरोध वापिस ले लिया? आखिर अमित शाह जैसे गम्भीर आरोपों से घिरे व्यक्ति को उत्तरप्रदेश का प्रभारी बनाने के सवाल पर भाजपा अध्यक्ष राजनाथ सिंह मिमयाने क्यों लगते हैं?
       उल्लेखनीय है कि हाल ही के उप चुनावों में मुज़फ्फरपुर में जेडी[यू] द्वारा राजद की सीट न हथिया पाने को मोदी की जीत के रूप में प्रचारित किया गया और बिके हुए अखबारों ने अपने प्रथम पृष्ठ पर यह झूठ लिख कि मोदी समर्थकों द्वारा जेडी[यू] को समर्थन न देने से यह हार हुयी है, जबकि सच्चाई यह है कि जेडी[यू] को पहले भी भाजपा के साथ और पूरे समर्थन से चुनाव लड़ने के बाद भी पराजय मिली थी तथा गत चुनव में मिले 208813 मतों के विरुद्ध इस बार दो लाख चवालीस हजार मत मिले हैं। स्मरणीय है कि इस बार जेडी[यू] का पिछला उम्मीदवार ही दल बदल कर आरजेडी का उम्मीदवार था जो अपने साथ अपने व्यक्तिगत वोट भी लेता गया था। जब मैंने कुछ परिचित रिपोर्टरों से उनके निष्कर्ष का आधार पूछा तो वे हँस कर टाल गये। इसमें कोई सन्देह नहीं कि यह पेड न्यूज का ही हिस्सा था। संयोग से जब काँग्रेस के एक वरिष्ठ महासचिव ने उसी दिन सवाल पूछा कि मोदी बताएं कि गुजरात सबसे अधिक कर्ज़ वाला राज्य क्यों है और गर्वीले गुजरात का प्रत्येक नागरिक सबसे अधिक कर्ज़ में क्यों है तो किसी ने इसे प्रथम पृष्ठ पर जगह देने की ज़रूरत नहीं समझी।
       भाजपा नेताओं की बीमारियों के तो इतने रोचक और मनोरंजक किस्से हैं कि उन पर भाजपा नेतृत्व समेत शायद ही कोई विश्वास करता होगा। उल्लेखनीय है कि बात बात में बीमारी का बहाना बनाने वाली उमाभारती ने खजुराहो चुनाव क्षेत्र छोड़ कर भोपाल को चुनाव क्षेत्र बनाने के पीछे जो तर्क दिया था वह यह था कि वहाँ उस क्षेत्र में उनका स्वास्थ ठीक नहीं रहता, पर जब भाजपा के तत्कालीन अध्यक्ष वैकैय्या नायडू ने अपनी पत्नी की बीमारी के नाम पर अध्यक्ष पद से स्तीफा दिया तो उमाजी ने ही भाजपा के वरिष्ठ नेताओं को पत्र लिख कर कहा था कि वैंकय्याजी ने अपनी पत्नी की रजोनिवृत्ति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया। उम्मीद है कि आदरणीय अडवाणीजी अपनी बीमीरी से, वह चाहे जो भी हो, शीघ्र मुक्त होकर स्वास्थ लाभ करेंगे। स्वस्थ लोकतंत्र में भरोसा रखने वाले सभी लोगों की शुभकामनाएं उनके साथ हैं। जहाँ तक आरोपों का सवाल है तो न तो मोदी उससे मुक्त हैं और न ही अडवाणीजी, शायद बहुत खोजने पर कोई मिल जाये!   
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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शुक्रवार, मई 18, 2012

भाजपा में मनमानी से संघ की अकड़ ढीली पड़ गयी है


    भाजपा में मनमानी से संघ की अकड़ ढीली हो गयी है
                                                                        वीरेन्द्र जैन
        आरएसएस और भाजपा के सम्बन्ध कुछ कुछ अवैध सम्बन्धों जैसे हैं जिन्हें दिन के उजाले में छुपाये रखा जाता है किंतु अँधेरे में बनाये रखा जाता है। किंतु इनका यह सत्य भी ऐसे ही जग जाहिर है जैसा कि रहीम ने एक दोहे में कहा है-
                खैर, खून, खाँसी, खुशी, बैर, प्रीति, मदपान
                रहिमन दाबे न दबे, जानत सकल जहान
      स्मरणीय है कि जब महात्मा गान्धी की हत्या के बाद आरएसएस पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया था तब इस प्रतिबन्ध से मुक्ति के लिए उसके पदाधिकारियों ने केन्द्र सरकार के समक्ष अपने संगठन को शुद्ध सांस्कृतिक संगठन बताते हुए वादा किया था कि वह कभी राजनीति में भाग नहीं लेगा। जब इस आश्वासन के बाद उस पर से प्रतिबन्ध हटा लिया गया तो उसने कुछ ही दिन बाद राजनीतिक दल गठन करने के लिए अपने स्वयं सेवक भेज दिये जिनमें दीनदयाल उपाध्याय, कुशा भाऊ ठाकरे, सुन्दर सिंह भंडारी, कैलाशपति मिश्र, अटल बिहारी वाजपेयी, व लाल कृष्ण आडवाणी भी सम्मलित थे। तब से ही संघ दुहरा खेल खेल रहा है। जहाँ एक ओर वह कहता है कि उसे जनसंघ, जिसका परिवर्तित नाम भारतीय जनता पार्टी है, की कार्यप्रणाली से कोई मतलब नहीं है और उसके स्वयं सेवकों में तो सभी दलों के सदस्य हैं, वहीं दूसरी ओर वह केवल भाजपा की छोटी से छोटी बात में दखल देता रहा है व सारी गतिविधियां उसके निर्देश में ही चलती हैं। इतना ही नहीं नियंत्रण बनाये रखने के लिए भाजपा में ब्लाक से लेकर राष्ट्रीय स्तर तक संगठन मंत्री के सारे पद केवल संघ प्रचारकों के लिए आरक्षित कर रखे हैं। संघ के स्वयं सेवक ही चुनावों में भाजपा की रीढ रहे हैं और अपने प्रारम्भिक चुनाव उन्होंने इसी पूंजी की दम पर लड़े हैं, और इसी के प्रभाव के अनुपात में सीटें जीती हैं। भाजपा के सारे बड़े नेता मौके ब मौके अपने को स्वयं सेवक बतलाते रहते हैं और उनके गणवेष में समारोहों में शामिल होते रहते हैं। असंतुष्ट होने पर संघ के एक निर्देश पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष पद से अडवाणी जैसे वरिष्ठतम नेता को दूध में पड़ी मक्खी की तरह अलग कर दिया जाता है, और संघ के निर्देश पर ही राष्ट्रीय स्तर पर अज्ञात नितिन गडकरी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिया जाता है। दोनों ही मामलों में कार्यकारिणी अचम्भे से देखती हुयी केवल सहमति देने को विवश होती है। संघ के निर्देश पर ही जसवंत सिंह जैसे वरिष्ठ नेता को विपक्षी नेता का पद नहीं दिया जाता और संघ के आदेश पर ही पार्टी से खुला विद्रोह करने वाली उमा भारती को पार्टी में पुनर्प्रवेश दिया जाया है।
राष्ट्रीय समाचार पत्रों में पिछले दो एक महीने में छपे समाचारों के शीर्षक सारी कहानी कहते हैं
·         21मार्च 2012- संघ प्रमुख ने लगाई गडकरी की क्लास , भागवत का आदेश, कर्नाटक संकट जल्द निपटाएं। नागपुर/नई दिल्ली संघ के प्रमुख मोहन भागवत और सरकार्यवाह भैय्याजी जोशी ने भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी की क्लास ली। मंगलवार को तीन घंटे चली मैराथन बैठक में दोनों शीर्ष पदाधिकारियों ने लम्बे समय से चले आ रहे कर्नाटक को सुलझाने में असफल रहने पर गडकरी से स्पष्टीकण मांगा और इस मामले को जल्दी ही पटाक्षेप करने को कहा। राज्यसभा के उम्मीदवारों में नागपुर के अजय संचेती, और म.प्र. में नजमा हेपतुल्ला के चयन पर भी असंतोष जताया।...........
·         18मार्च2012- संघ ने दी भाजपा को नसीहत, विधानसभा चुनावों में मिला हार से नाखुश। नईदिल्ली, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ भाजपा के विधानसभा चुनावों में खराब प्रदर्शन से खासा नाखुश है। उन्होंने कहा है कि भाजपा को इस सवाल का जबाब ढूंढना चाहिए कि सांगठनिक ढांचा और वरिष्ठ कार्यकर्ताओं के एक मजबूत सीरीज होने के बाबजूद मतदाताओं की नजर में वह क्यों नहीं चढ सकी। ...............
·         18मार्च2012- गडकरी पर नहीं बनी सहमति। नागपुर/ राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की अखिल भारतीय प्रतिनिधि सभा की बैठक में नितिन गडकरी को फिर से भाजपा की कमान सौंपने की संघ मंशा रास नहीं आ रही है। वे संजय जोशी को संगठन महामंत्री का मौका देने के भी खिलाफ हैं।...................
·         16मार्च 2012- संघ म.प्र. सरकार की कार्यशैली से नाराज। नागपुर / भाजपा शासित राज्यों के संघ प्रचारकों ने पार्टी नेताओं की कार्यशैली पर और खासतौर पर मध्य प्रदेश की भाजपा सरकार को लेकर जिस तरह से नाराजगी जाहिर की, उससे इस बात की प्रबल सम्भावना है कि संघ इस बार भाजपा को लेकर बड़े फैसले ले सकता है। ...........
·         13मार्च2012- जनसत्ता सम्पादकीय- संघ का शिकंजा.........लोकसभा चुनाव में मिली हार के बाद संघ के सरसंघ संचालक मोहन भागवत ने पार्टी नेताओं को तलब करने से पहले सीधे संवाददाता सम्मेलन बुला कर नसीहत दी थी, और पार्टी अध्यक्ष को बदलने की जरूरत रेखांकित ही नहीं की थी अपितु बदल भी दिया था। विधानसभा चुनावों में मिली ताजा हार के बाद उन्होंने फिर से सार्वजनिक रूप से नेतृत्व बदलने की जरूरत बतायी। ...... गुजरात भाजपा इकाई में खींचतान और विद्रोह के बाबजूद भी मोदी बचे रहे तो उसकी बड़ी वजह संघ का उन पर वरद हस्त का होना था।  
इन समाचारों और विचारों से भाजपा पर संघ के नियंत्रण का पता चलता है, पर भाजपा में उफन रहे भ्रष्टाचार और दौलत से चुनाव संचालन के कारण भाजपा के नेताओं की संघ पर निर्भरता कम होती जा रही है और उनमें संघ से स्वतंत्र होने की छटपहाटें दिखायी देने लगी हैं।
कुछ नमूने देखिए-  
·         राजस्थान में वसन्धुरा राजे ने जिन गुलाब चन्द्र कटारिया की जन जागरण यात्रा को रुकवाया वे संघ के कट्टर स्वयं सेवक रहे हैं और राजस्थान में सरकार बनने के बाद भले ही दिखावटी मुख्यमंत्री का पद वसन्धुरा राजे को दिया गया था पर गृहमंत्री जैसा महत्वपूर्ण पद संघ ने उन्हें ही दिलवाया था। भैरोंसिंह शेखावत के उपराष्ट्रपति पद पर चुने जाने के बाद विपक्ष के नेता पद पर उन्हें ही प्रतिष्ठित किया गया था। भाजपा सरकार के दौर में वे मुख्यमंत्री पद के स्वाभाविक दावेदार माने जाते थे। उनकी यात्रा पहले संघ और फिर पार्टी से अनुमति लेने के बाद ही निकाली जा रही थी पर पद जाने की आशंकाओं से ग्रस्त वसुंधरा ने उन्हें चुनौती देकर और 59 विधायकों से त्यागपत्र लिखवा कर सीधे सीधे संघ को चुनौती दे दी है। वसन्धुरा की माँ विजयाराजे सिन्धिया ने काँग्रेस से नाराज होने के कारण बदला लेने के लिए भाजपा को अटूट साधन उपलब्ध कराये थे जिसकी बदौलत ही भाजपा[पूर्व जनसंघ] अपना आधार तैयार कर पायी थी। अडवाणी पीढी के लोग अब भी उनसे उपकृत महसूस करते हैं। विधानसभा में विपक्ष के नेता पद पर नियुक्ति के संघर्ष में वे पहले ही भाजपा और संघ नेताओं को नाकों चने चबवा चुकी हैं।
·         मध्यप्रदेश में आरएसएस के आनुषांगिक संगठन किसान संघ ने संघ से अनुमति लिये बिना पहले ही मुख्यमंत्री निवास घेर लिया था, और कुछ आश्वासन लेकर ही वापिस लौटे थे। इस बार पहले तो एक धरने के दौरान किसान संघ और आरएसएस कार्यकर्ताओं के बीच बकायदा मारपीट हुयी और एक दूसरे के खिलाफ रिपोर्टें लिखवायी गयीं वहीं गैंहू खरीद के मामले में किये गये चक्काजाम के बाद पुलिस ने न केवल गोली चलायी अपितु एक किसान को गोली मार कर उसकी लाश का आनन फानन में अंतिम संस्कार भी करवा दिया। इसके साथ ही किसान संघ के अध्यक्ष और महासचिव को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया। इस बीच भले ही उन्होंने एक जेबी पदाधिकारी बना कर भ्रम उत्पन्न करने की कोशिश की हो, किंतु प्रदेश में किसान संघ के संघर्षशील नेता ही अभी भी किसान संघ के किसानों की पहली पसन्द के नेता हैं। संघ के इशारों पर प्रदेश अध्यक्ष द्वारा किसान संघ के लोकप्रिय अध्यक्ष को ब्लेकमेलर कहा गया और संघ में कई अनियमितताओं के आरोप लगाये। ऐसे में संघ और किसानों के बीच टकराव तय है।
·         कर्नाटक में येदुरप्पा ने स्वयं को मुख्यमंत्री बनाने की माँग लेकर न केवल धमकी दी अपितु अपने पक्ष के विधायकों और मंत्रियों के त्यागपत्र भी ले के रख लिये। येदुरप्पा पहले कभी संघ के स्वयं सेवक रहे थे किंतु सत्ता का स्वाद चखने के बाद वे रेड्डी बन्धुओं की शह पर खुली बगावत पर उतारू हैं। संघ सत्ता की ओट में काम करने का अभ्यस्त हो चुका है और वह किसी भी तरह दक्षिण के इकलौते राज्य में संकीर्ण और जुटाये गये बहुमत से प्राप्त सत्ता खोना नहीं चाहता। यदि वह सैद्धांतिक आधार पर सत्ता दाँव पर लगाता है तो विभाजन तय है। इसके विपरीत जाने पर देश भर में स्वयं सेवक और समर्थक संघ में आस्था खो देंगे।
·         गुजरात में नरेन्द्र मोदी को केशुभाई ने खुली चुनौती दी है जबकि संघ मोदी के साथ है। संघ के कृपापात्र भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी और स्वयं को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी समझने वाले नरेन्द्र मोदी एक दूसरे को फूटी आँख नहीं देखना चाहते। ऐसे में संघ को अपनी पक्षधरता तय करनी पड़ेगी।
      इसी तरह हिमाचल में शांता कुमार बनाम धूमल, उत्तराखण्ड में निशंक बनाम खण्डूरी बनाम कोशियारी उत्तरप्रदेश में योगी, बनाम, राजनाथ सिंह, बनाम लालजी टण्डन, बनाम कटियार, बनाम कलराज मिश्र के साथ अब मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री और चुनावों में मुख्यमंत्री प्रत्याशी घोषित उमाभारती के साथ वरुण गान्धी मनेका गान्धी के बीच चल रहे द्वन्द में संघ को चुनाव करना पड़ रहा है और इस चुनाव के बाद उसकी ताकत का कमजोर होना तय है। गठबन्धन वाली सरकारों में तो क्षेत्रीय दल इस राष्ट्रीय दल के साथ दोयम दर्जे का व्यवहार करते हैं और संघ की छाया से भी बचते हैं। कुल मिला कर कहा जा सकता है कि संघ की कूटनीति अब संकट में घिर गयी है। तभी पिछले दिनों संघ ने विधानसभा चुनावों के पूर्व झुंझला कर कहा था कि भाजपा हार जाये तो अच्छा और बिल्कुल से हार जाये तो बहुत अच्छा।  
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अगस्त 04, 2011

क्या येदुरप्पा की कुर्बानी से भाजपा के पाप धुल जायेंगे ?


क्या येदुरप्पा की कुर्बानी से भाजपा के पाप धुल जायेंगे

वीरेन्द्र जैन

श्री येदुरप्पाजी के जीवनवृत्त पर निगाह डालने के बाद उनके प्रति पहले श्रद्धा और फिर सहानिभूति ही पैदा होती है। पिछले दिनों पूरी दुनिया ने देखा कि कैसे लोकायुक्त की रिपोर्ट में वे दोषी पाये गये और उनकी पार्टी ने शरीर में पैदा हो गये गेंगरीन के जग जाहिर होते ही रोगग्रस्त अंग की तरह उनको काट कर फेंक देना चाहा। उन्होंने अनुशासन बनाये हुए सार्वजनिक रूप से ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे पार्टी की छवि और ज्यादा खराब होती हो पर पार्टी के अन्दर वे बराबर त्यागपत्र न देने के लिए सम्वादरत रहे। आखिर वे क्या तर्क थे जिनके आधार पर वे ऐसे मुद्दे पर त्यागपत्र न देने के लिए जिद कर रहे थे जिसके कारण पूरे देश में उनकी थू थू हो रही थी, तथा सत्तारूढ पार्टी को घेरने के अभियान की हवा निकल रही थी। भाजपा की विरोधी पार्टियां ही नहीं अपितु पार्टी के नेता भी एक मन से यह चाहते थे कि येदुरप्पा तुरंत वैसे ही स्तीफा दे दें जैसे कि हवाला कांड में नाम आ जाने के बाद लाल कृष्ण अडवाणी या मदन लाल खुराना ने दे दिया था, ताकि पार्टी की छवि का मेकअप किया जा सके। किंतु वे जाते जाते पार्टी की बची खुची इज्जत भी लेते गये।

येदुरप्पा को राजनीति विरासत में नहीं मिली थी, वे 1943 में एक साधारण से परिवार में पैदा हुये। उनके पिता सिद्धलिंगप्पा लिंगायत समुदाय से थे। उनके नाम में बूकानाकेरे उस जगह का नाम है जहाँ वे पैदा हुये थे और सिद्धलिंगप्पा उनके पिता के नाम से आया है। संत सिद्ध्लिंगेश्वर ने येदुयर नामक स्थान पर एक शैव्य मन्दिर बनवाया है जिसके नाम पर उनका नाम येदुरप्पा रखा गया। कुल मिलाकर उनके नाम में उनके परिवार की आस्था का स्थान, उनका जन्म स्थान और जन्म देने वाले पिता का नाम सम्मलित है। उनकी माता पुत्ताथायम्मा का जब निधन हुआ तो वे कुल चार वर्ष के थे। ऐसी परिस्तिथि में भी उन्होंने बीए पास किया और 1965 में राज्य सरकार के समाज कल्याण विभाग में प्रथम श्रेणी क्लर्क नियुक्त हो गये। पर सरकारी नौकरी उन्हें रास नहीं आयी और उसे छोड़ कर शिकारीपुर की वीरभद्र शास्त्री की चावल मिल में क्लर्क हो गये। दो साल के अन्दर ही उन्होंने फिल्मी कथाओं की तरह अपने मिल मालिक वीरभद्र शास्त्री की कन्या मैत्रा देवी से ही विवाह रचा लिया, तथा शिमोगा आकर हार्डवेयर की दुकान खोल ली। उनके दो पुत्र और तीन पुत्रियों समेत पाँच संतानें हुयीं। पूजापाठ तंत्र-मंत्र में अगाध आस्था रखने वाले येदुरप्पा की पत्नी आज से सात वर्ष पूर्व अपने घर के पास वाले कुँएं में गिरकर मर गयीं। इस दुर्घटना के बारे में कहीं कोई प्रकरण दर्ज नहीं हुआ। वे उस समय विधानसभा सदस्य थे।

शिमोगा आकर ही वे राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से जुड़े थे और 1970 में संघ की शिकारीपुर इकाई के सचिव नियुक्त हुये। 1972 में वे जनसंघ [भाजपा] की तालुक इकाई के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1975 में वे शिकारीपुर की नगरपालिका के पार्षद और 1977 में चेयरमेन चुने गये थे। एक बार निरीक्षण के दौरान उन पर घातक हमला किया गया था। 1975 से 1977 के दौरान लगी इमरजैंसी में वे 45 दिन तक बेल्लारी और शिमोगा की जेलों में रहे। 1980 में शिकारीपुर तालुका के भाजपा अध्यक्ष के रूप में चुने जाने की बाद 1985 में वे शिमोगा के जिला अध्यक्ष बना दिये गये। अगले तीन साल के अन्दर ही वे भाजपा की कर्नाटक राज्य भाजपा के अध्यक्ष चुन लिये गये। 1983 में पहली बार शिकारीपुर से विधायक चुने जाने के बाद वे छह बार इसी क्षेत्र से चुने गये। वे तब भी जीते जब 1985 में उनकी पार्टी के कुल दो सदस्य विजयी हो सके थे। बीच में कुल एक बार चुनाव हार जाने के कारण उन्हें विधान परिषद में जाना पड़ा। 1999 में वे विपक्ष के नेता रहे।

आज देश की दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बन चुकी भाजपा तब कर्नाटक में बहुत ही कमजोर थी जब येदुरप्पा ने उसका झण्डा थामा था और सारे झंझावातों के बाद भी ईमानदारी से थामे रहे थे। जनता दल में विलीन होने और उससे बाहर निकलकर भाजपा हो जाने के बाद ही इसका विकास हुआ और इसके साथ ही साथ येदुरप्पा का भी उत्थान हुआ। 1980 में उन्होंने काम के लिए अनाज योजना में घटित भ्रष्टाचार का खुलासा करके जाँच बैठवायी, इसी दौरान उन्होंने बँधुआ मजदूरों को मुक्त करवाया और 1700 ऐसे ही मुक्त मजदूरों के साथ जिला कलेक्टर कार्यालय पर प्रदर्शन किया। उन्होंने अनाधिकृत खेती के खिलाफ सफल आन्दोलन चलाया और 1987 में सूखा पीड़ित पूरे शिकारीपुर तालुका में साइकिल से यात्रा कर किसानों से सीधे उनका हाल जाना। वही येदुरप्पा आज बेल्लारी खनन घोटाले और अपने रिश्तेदारों के पक्ष में करोड़ों रुपयों के भूमि आवंटन घोटाले में आरोपित होकर अपने पद से हटाये गये हैं तो उनके इस पतन की पूरी कहानी की तह में जाना जरूरी है, ताकि राजनीतिकों की फिसलनों के नेपथ्य को जाना जा सके।

येदुरप्पा को हटाकर भाजपा का हाथ झाड़ लेना बहुत आसान है किंतु इस पूरे काण्ड में अकेले येदुरप्पा नहीं अपितु इसके पीछे सत्ता लोलुपता की शिकार पूरी पार्टी है जो किसी भी तरह से सत्ता में जमे रहकर संघ परिवार के लिए धन और सम्पत्ति को अधिक से अधिक लूट लेना चाहती है। दूसरी पार्टियों में नेता भ्रष्ट होते हैं किंतु भाजपा पार्टी के स्तर पर भ्रष्टाचार करती है और संघ परिवार के विभिन्न संगठनों को अवैध ढंग से भूमि भवन आवंटित करने में सबसे आगे है। अपनी सरकारों वाली पार्टी इकाइयों पर वह धन संग्रह के लिए जो दबाव बनाती है वह भ्रष्टाचार को जन्म देता है। यह धन दलबदल कराने और सेलिब्रिटीज को पार्टी से जोड़ने में झौंका जाता है। अल्पमत सरकारों के लिए समर्थन खरीदने में ये सबसे आगे रहते रहे हैं। पार्टी कोष के लिए धन संग्रह का काम संगठन का होना चाहिए किंतु सबसे अधिक धन संग्रह मंत्रियों, विधायकों और सांसदों से कराया जाता है। वे जो धन संग्रह करते हैं उसकी कोई रसीद जारी नहीं करते और ना ही हिसाब रखते हैं। आरएसएस ने तो गुरु दक्षिणा के नाम पर बन्द लिफाफे लेने का जो चलन बनाया है वह काले और अवैध धन लेने के बाद अपनी जिम्मेवारी से बचने का तरीका है। अनुमान तो यह भी है कि इस तरह विदेशी शक्तियां भी अपने निहित स्वार्थों के लिए उसे मजबूत करती हैं, विकीलीक्स में हुये खुलासे बताते हैं कि अमेरिकन राजदूतों से भाजपा नेता निरंतर भेंट करते रहते हैं और किसी आज्ञाकारी कर्मचारी की तरह उन्हें संतुष्ट करने की कोशिश करते रहते हैं। बेल्लारी में अवैध खनन करने वाले रेड्डी बन्धु भाजपा के सम्पर्क में तभी आये जब बेल्लारी से सुषमा स्वराज को सोनिया गान्धी के खिलाफ चुनाव लड़वाया गया। उस चुनाव का बड़ा खर्च इन उद्योगपतियों ने ही वहन किया था तथा भाजपा को उस चुनाव में 41% वोट मिले थे। व्यापारियों उद्योगपतियों के लिए चुनाव में धन लगाना उनकी राजनीति नहीं होती अपितु यह उनका निवेश होता है। जब इस अहसान का उन्होंने बदला माँगा तो कैसे इंकार किया जा सकता था। भाजपा ने पूर्ण बहुमत पाये बिना ही सरकार बनायी। वर्तमान में स्वच्छ हाथों से कोई अल्पमत सरकार नहीं चलायी जा सकती। जिन विधायकों से समर्थन जुटाया गया उनके लिए जो कुछ भी करना पड़ा होगा, वो रेड्डी बन्धुओं ने ही किया। जब केन्द्र के नेता रेड्डी बन्धुओं को मंत्री बनाये जाने के लिए दबाव बनाने की जिम्मेवारी एक दूसरे पर डाल रहे थे, तब येदुरप्पा ने उस को अपने ऊपर लेते हुए कहा था कि उन्हें मैंने अपने विवेक से मंत्री बनाया था। उनका यह कथन सच नहीं था, क्योंकि संघ परिवार में पूरे मंत्रिमण्डल की मंजूरी न केवल भाजपा हाई कमान अपितु संघ के पदाधिकारियों से भी लेनी होती है। यदि भाजपा इस काम को गलत मानती थी और येदुरप्पा ने यह गलत काम किया था तो भाजपा हाईकमान ने उन्हें इससे रोका क्यों नहीं। इसके विपरीत जब रेड्डी बन्धु संघ की समर्पित कार्यकर्ता शोभा कलिंजिद्रे को हटाने या सरकार गिराने की धमकी दे रहे थे तब सरकार बचाने के लिए शोभा को मंत्रिमण्डल से हटाने के निर्देश किसने दिये थे। स्मरणीय है कि तब येदुरप्पा इस सैद्धांतिक मामले पर सरकार को कुर्बान करने के लिए तैयार थे। दूसरी बार जब विधायकों के एक गुट ने विद्रोह कर दिया था और कुछ विधायकों ने त्यागपत्र दे दिया था तब उसका प्रबन्धन किसने किया था। केन्द्रीय नेताओं ने किसके बूते यह कहा था कि येदि को कोई ताकत हटा नहीं सकती और वे पूरे कार्यकाल तक मुख्यमंत्री बने रहेंगे।

अपनी सत्ता लोलुपता के लिए किसी नेता के हाथों से जब निरंतर काले कारनामे करवाये जाते हैं तो यह बहुत सम्भव है कि इस बह्ती गंगा में वह स्वयं या उसके रिश्तेदार भी हाथ धो लें। येदुरप्पा को यही शिकायत रही कि उनके पूरे जीवन की सेवा के बाद उन्हें जबरन कुर्बान करवाया गया है और बदनाम करके निकाला गया है जबकि असली जिम्मेवार कोई और हैं। इस कुर्बानी के रास्ते पर वे अकेले नहीं हैं अपितु वसुन्धरा राजे के खिलाफ भूमि आवंटन की जाँच चल रही है व मध्यप्रदेश हिमाचल, उत्तराखण्ड, छत्तीसगढ, व झारखण्ड में जो अवैध भूमि आवंटन हुये हैं उनका विस्फोट कभी भी हो सकता है और यह विस्फोट करने वाले भी उन्हीं के मंत्रिमंडल के सदस्य ही होंगे। इस सत्र के पहले जब प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके पास भी विपक्ष के काले कारनामे हैं तो भाजपा के किसी भी नेता ने उनके दावे को चुनौती नहीं दी, अपितु उनके बयान की निन्दा भर की। शांता कुमार जैसे वरिष्ठ नेताओं की सलाहों को दरकिनार करते हुए येदुरप्पा को तब तक रखा गया जब तक कि लोकायुक्त की 2500 पेज की रिपोर्ट जारी नहीं हो गयी। गम्भीर आरोपों में हटाये जाने के बाद भी उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के चयन में पूरा हस्तक्षेप किया और इस हस्तक्षेप को मानकर भाजपा ने सन्देश दिया कि वे भ्रष्टाचार को तब तक बनाये रखना चाहते हैं जब तक कि कोई कानूनी अड़चन न पैदा हो जाये।

पद से हटकर पार्टी से असंतुष्ट होने वाले येदुरप्पा अकेले नहीं हैं अपितु इस सूची में मदनलाल खुराना, कल्याण सिंह, उमा भारती हों, या कोई चिमन भाई मेहता कोई खुश नहीं रहता, और पार्टी छोड़ने की स्तिथि तक जा पहुँचते हैं। येदुरप्पा उनके ताजा शिकार हैं, जो अभी दावा कर रहे हैं कि वे छह महीने में फिर आयेंगे। क्या उनका भविष्य भी दूसरे ऐसे मुख्यमंत्रियों की तरह होगा या वे सबकी पोल खोलेंगे।

वीरेन्द्र जैन

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