मंगलवार, मार्च 29, 2016

ट्वेंटी-ट्वेंटी में निजता हनन करता सोशल मीडिया

 ट्वेंटी-ट्वेंटी में निजता हनन करता सोशल मीडिया

वीरेन्द्र जैन

टेस्ट मैच से वन डे और उसके बाद ट्वेंटी-ट्वेंटी तक आ गये क्रिकेट में, खेल व मनोरंजन के साथ जुए का सम्मिश्रण अधिक हो गया है। खेल में एक खास अनुशासन के अंतर्गत शारीरिक मानसिक श्रम और कौशल को विकसित करने की प्रवृत्ति होती है जिसमें अपने व सार्वजनिक मनोरंजन के साथ एक स्वस्थ प्रतियोगी भाव भी रहता है। इस प्रतियोगिता के बीच जो परिणाम की अनिश्चितता रहती है उसके पूर्वानुमान के आधार पर जब शर्तें प्रारम्भ हुयीं वे आगे चलकर जुए का आधार बनती गयीं। जब इस खेल को जुआ खिलाने वाले प्रायोजित करने लगे तो उन्होंने इसकी समय सीमा को उसी तरह संकुचित करना प्रारम्भ किया जिस तरह से रमी खेलने वाले मांग पत्ता खेलने लगें। टीवी चनलों के प्रसार ने इसे दुनिया के किसी भी हिस्से से सीधे प्रसारण की सुविधा दी और दुनिया का एक बहुत बड़ा दर्शक वर्ग इससे एक साथ सीधे जुड़ने लगा। इस बड़े दर्शक वर्ग के सम्पर्क का लाभ उठाने के कारण विभिन्न उत्पादकों ने विज्ञापन देकर इसके प्रायोजकों को आर्थिक मजबूती प्रदान की जिसका लाभ खिलाड़ियों तक भी पहुँचा। कुछ मामलों में जब इसके परिणामों को तय करने के सौदे हुए तो जुआरियों के साथ व्यापारी भी जुड़ गये जिन्होंने खिलाड़ियों को अपने अनैतिक व्यापार का भागीदार बना लिया।
बड़े दर्शक वर्ग के कारण इस खेल के खिलाड़ी सितारे बने और किसी भी तरह सत्ता हासिल करने के लिए उतावले राजनीतिक दलों ने इन खिलाड़ियों को चुनाव में प्रचार करने के लिए उतारा। कई मामलों में तो उन्हें सीधे उम्मीदवार ही बना दिया। चयन समितियों तथा खेल पुरस्कारों को तय करने में सत्तारूढ दल के राजनेता अपना लाभ देख कर हस्तक्षेप करने लगे। लोकप्रियता पर आधारित फिल्म उद्योग की कई अभिनेत्रियां लोकप्रिय क्रिकेट खिलाड़ियों से जुड़ कर चर्चा में बने रहने का खेल खेलने लगीं। इसी क्रम में उनकी मित्रता और ‘ब्रेक-अप’ भी लम्पट समाज के बीच उन्हें खबरों में रखने लगा। फिल्म निर्माताओं को भी उनकी नायिकाओं का चर्चा में बने रहना लाभ का सौदा दिखा इसलिए उन्होंने भी खबरों की खेती को सिंचित करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी।
पिछले वन डे मैचों के दौरान जब अभिनेत्री अनुष्का शर्मा, विराट कोहली के साथ दिखायी दीं व उन मैचों में वे अपने खेल का अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सके तो खबरें गढने वालों ने इसको उनके साथ से जोड़ा जिसे बड़ी रुचि के साथ पढा गया और आपसी बात चीत में चुभलाया गया। इसके विपरीत जब ट्वेंटी-ट्वेंटी वर्ल्ड कप 2016 के दौरान विराट ने अच्छा प्रदर्शन किया और अनुष्का शर्मा वहाँ नहीं दिखीं तो मनोरंजन प्रेमी दर्शकों के एक वर्ग ने तरह तरह के मजाक गढ कर सोशल मीडिया के माध्यम से इसे फैलाया। अमर्यादित सोशल मीडिया ने कुछ अशालीन टिप्पणियां भी कीं। जब ये टिप्पणियां अपनी सीमा तोड़ गयीं तो दुखी होकर विराट कोहली ने अपने इन्हीं प्रशंसकों के खिलाफ कटु टिप्पणी करते हुए लिखा- “ उन लोगों को शर्म आनी चाहिए, जो हर गलत और नकारात्मक चीज को अनुष्का से जोड़ रहे हैं। उन लोगों को खुद को पढा-लिखा कहने में शर्म आनी चाहिए। खेल में मैं कैसा प्रदर्शन करता हूं, उसका अनुष्का से से कोई लेना देना नहीं है, तो उसे दोषी क्यों ठहराया जाता है? अगर उन्होंने [अनुष्का] कुछ किया है, तो वह है कि मुझे मोटीवेट किया, और हमेशा मुझे सकारात्मकता दी। यह बात मैं बहुत पहले कह देना चाहता था। ...... और हाँ मुझे इस पोस्ट के लिए किसी का सम्मान नहीं चाहिए, बल्कि तरस खाइये और उनका सम्मान कीजिए। अपनी बहन, गर्ल फ्रैंड, या पत्नी के बारे में सोचिए, वो कैसा महसूस करेंगी, जब कोई उनके पीछे पड़ा रहे और सहजता से किसी भी समय सार्वजनिक रूप से उनका मजाक उड़ाए।“
मैंने सोशल मीडिया पर उपरोक्त आलोच्य टिप्पणियों के लिखने वालों को परखने की कोशिश की तो पाया कि ये अशालीन टिप्पणियां लिखने वालों का बहुमत उन लोगों में से था जिन्होंने जे एन यू में चल रहे छात्र आन्दोलन का विरोध किया था। इनमें से अधिकांश अपनी मौलिक टिप्पणियां नहीं लिखते अपितु किसी केन्द्र से आने वाली टिप्पणियों को ही कापी पेस्ट करके फारवर्ड कर देते हैं। एक ने तो कह ही दिया कि सोशल मीडिया में विराट अनुष्का प्रकरण चल निकलने से कन्हैया का प्रकरण गुम हो गया और देख लेना वह भी हार्दिक पटेल की तरह गुम हो जायेगा।
ट्वेंटी-ट्वेंटी का यह खेल जिस सक्रिय मध्यम वर्ग को मनोरंजन और अपने उत्पादन की बिक्री के लिए सम्बोधित करता है, उसी मध्यम वर्ग का एक बड़ा हिस्सा भाजपा और मोदी समर्थक रहा है। इसी हिस्से को पिछले दिनों सबसे ज्यादा निराशा भी हुयी थी जो विभिन्न चुनाव परिणामों में दिखायी भी दी। अलग अलग समय पर सिद्धू, चेतन चौहान, कीर्ति आज़ाद, आदि के बाद अब केरल में फिक्सिंग का आरोप झेल चुके श्रीसंत को उम्मीदवार बनाने वाली भाजपा के सोशल मीडिया केन्द्रों और उनके सन्देशों को फैलाने वाली भीड़ को विराट की खरी खरी से धक्का लगा होगा। अगर उनमें जरा भी शर्म होगी तो वे वैसे ही पूरे खेल जगत से क्षमा मांगने का साहस दिखायेंगे जिस तरह गन्दे सन्देश फैलाने का काम करते हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
         

शुक्रवार, मार्च 18, 2016

जावेद अख्तर का विदाई भाषण ; एक दूसरा पाठ

जावेद अख्तर का विदाई भाषण ; एक दूसरा पाठ
वीरेन्द्र जैन

सुप्रसिद्ध शायर जावेद अख्तर ने राज्य सभा में अपना कार्यकाल पूरा होने पर जो विदाई भाषण दिया उसकी बहुत सारी प्रशंसा की गयी व यू ट्यूब आदि के माध्यम से उसे बार बार सुना गया। जावेद बहुत अच्छे शायर, कथाकार, स्क्रिप्ट राइटर, और एंकर ही नहीं अपितु बहुत अच्छे वक्ता भी हैं। एक बार भारत भवन में उनका भाषण डा.नामवर सिंह के साथ था तब अपनी वरिष्ठता के बाबजूद उन्होंने जावेद जी से पहले बोलने की विनम्रता दिखायी थी व अपने भाषण को संक्षिप्त करते हुए कहा था कि उन्हें जावेद का भाषण सुनना हमेशा से अच्छा लगता रहा है। उस दिन सचमुच जावेद अख्तर ने यह प्रमाणित भी कर दिया था। राज्यसभा का उक्त भाषण भी उनकी वक्तव्यकला का अच्छा उदाहरण था, किंतु उस भाषण की चर्चा जिन जुमलों के कारण जिन क्षेत्रों में हो रही है उसका केन्द्रीय भाव उस चर्चासे भिन्न था। वसीम बरेलवी का एक शे’र है-
कौन सी बात कहाँ कैसे कही जाती है
ये सलीका हो तो हर-इक बात सुनी जाती है
      जावेद की राजनीतिक सोच और धर्मनिरपेक्षता के प्रति प्रतिबद्धता से जो लोग भी परिचित हैं वे जानते हैं कि अभी पिछले दिनों जयपुर लिटरेरी फेस्टीवल के दौरान भी उन्होंने गर्व के साथ खुद को नास्तिक बतलाया था। किसी भी नास्तिक का बौद्धिक और सेक्युलर होना स्वाभाविक है। पेरियार ने कहा है कि ‘आस्तिक तो कोई मूर्ख भी हो सकता है किंतु नास्तिक होने के लिए विवेकवान होना जरूरी है’। आदमी को पैदा होने के कुछ ही घण्टों में नाम दे दिया जाता है और उसकी राष्ट्रीयता, धर्म व जाति तय कर दी जाती है। वह जिस परिवार में पैदा हुआ है उस परिवार का धर्म उस पर लाद दिया जाता है पर इन सब से मुक्त होने में बहुत संघर्ष करना पड़ता है।
      चर्चित भाषण सांसद ओवैसी के हाल ही में दिये उस विवादित बयान के विरोध में देखा गया है जिसमें उन्होंने कहा था कि कोई मेरी गरदन पर छुरी भी रख दे तो मैं ‘ भारत माता की जय’ नहीं कहूंगा क्योंकि ये मेरी संवैधानिक बाध्यता नहीं है। विवाद वाले समाचारों के भूखे चैनलों ने इस पर बहस भी करा दी जिस पर देशभक्ति के ठेकेदार लोगों ने भी खूब अपशब्द उगले व राष्ट्रव्यापी ध्रुवीकरण का माहौल बना। कुछ धार्मिक वेषधारियों को ना तो भाषा की तमीज है और न ही उनका वाणी पर संयम है। यही कारण था कि मुद्दा गरम था जो किसी अच्छे तर्कशील के लिए बहुत ही अनुकूल स्थिति होती है। जावेद ने अपने भाषण में उक्त विवादित बयान देने वाले नेता का कद कम किया, उसे एक राज्य के एक शहर के एक मुहल्ले का नेता बतलाया, और उस छोटे कद के मुँह से निकलने वाली बड़ी बात की विसंगति दर्शाते हुए खुद जोर जोर से भारतमाता की जय के नारे लगा कर देशव्यापी तालियां बटोर लीं। उनके इस काम से संघ संगठनों द्वारा  सभी मुसलमानों के विरुद्ध फैलायी जा रही नफरत की धार मौथरी हुयी। संघ परिवार के प्रचारक सीधे सरल लोगों को देश धर्म के नाम पर भरमाने का काम करते हैं किंतु जब उसी तकनीक से काम करने वाला कोई दूसरा आ जाता है तो उनका काम कठिन हो जाता है। इसी क्रम में उन्होंने कहा कि कुछ् लोगों को यह नारा लगाये जाने से भी रोकने की जरूरत है कि मुसलमान के दो स्थान, पाकिस्तान या कब्रिस्तान।
      उक्त भाषण में जावेद ने देश की महानता और सहिष्णुता की परम्परा का गुणगान करते हुए दूसरे अनेक देशों में फैल रहे कट्टरवाद की आलोचना करते हुए पूछा कि हम किस रास्ते जाना चाहते हैं? क्या हमारे मानक वे देश हैं, जहाँ धर्म के विरोध में कुछ भी बोल देने पर ज़ुबान काट ली जाती है, या फाँसी पर चढा दिया जाता है। कुछ लोग उसी रास्ते पर देश को ले जाने की कोशिश कर रहे हैं। जाहिर है कि उनका इशारा संघ परिवार के उन लोगों की तरफ था जो ऊल जलूल साम्प्रदायिक बयान देकर कट्टरवाद को बढावा देने का काम करते हैं। उन्होंने साफ शब्दों में चतुराई से कहा कि मोदी सरकार में कुछ योग्य लोग ‘भी’ हैं किंतु उनके ही कुछ विधायक, सांसद, राज्य मंत्री और मंत्री तक हैं जो उच्छंखृल हैं व माहौल को खराब करते हैं। मोदी सरकार को ऐसे तत्वों से दूरी बनाने की जरूरत है। अगले चुनाव में जीत हार की चिंता से मुक्त होकर ही कुछ साहसिक किया जा सकता है।
      उन्होंने कहा कि हमने लोकतंत्र का रास्ता चुना है व हमारे यहाँ जो लोकतंत्र है वैसा लोकतंत्र दूर दूर तक नहीं मिलता। लोकतंत्र ही वह रास्ता है जिसमें विपक्ष की भी सुनी जाती है। किंतु लोकतंत्र धर्मनिरपेक्षता के बिना नहीं चल सकता। जहाँ धर्मनिरपेक्षता नहीं है वहाँ लोकतंत्र भी नहीं है। परोक्ष में उन्होंने धर्म निरपेक्षता पर खतरों की ओर भी इशारा किया जिसका निशाना सीधा सीधा सत्तारूढ दल के एक हिस्से की ओर जाता था। विकास को स्वीकारते हुए उन्होंने कहा कि जहाँ कभी सुई भी नहीं बनती थी वहाँ से आज सेटेलाइट छोड़े जा रहे हैं। हमारा सौभाग्य है दुनिया की सबसे युवा आबादी भारत में है जहाँ पचास प्रतिशत से ज्यादा युवा 25 साल से कम के हैं। हमें इस आबादी को सम्हालना है क्योंकि सबसे ज्यादा बेरोजगार भी हमारे यहाँ हैं, सबसे ज्यादा टीवी मरीज हमारे यहाँ हैं, हर पांचवां बच्चा पाँच साल से कम उम्र में ही मर जाता है, हर साल पचास हजार महिलाएं प्रसव के दौरान मर जाती हैं। हमें अपने विकास को जीडीपी से नहीं अपितु मानव विकास से नापना होगा। 
      जो लोग जावेद अख्तर के भाषण को केवल भारत माता की जय बोलने तक ही सीमित रख रहे हैं उन्हें यह भाषण यू ट्यूब पर पुनः सुनना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
        

      

बुधवार, मार्च 16, 2016

भारतमाता सूचनातंत्र और उत्तेजक जुमलों की राजनीति

भारतमाता सूचनातंत्र और उत्तेजक जुमलों की राजनीति
वीरेन्द्रजैन

दिल्ली के बाद बिहार विधानसभा में भाजपा की पराजय के बाद से बने राजनीतिक माहौल को भटकाने के लिए प्रतिदिन कोई न कोई गैर राजनीतिक बयानबाजी का खेल खेला जा रहा है।
प्रत्येक चुनाव परिणाम के बाद पराजित दल का नेता न्यूज चैनल पर कहता है कि हम अपनी पराजय की समीक्षा करेंगे किंतु यह समीक्षा कब कहाँ होती है और उससे वे क्या शिक्षा ग्रहण करते हैं यह कभी सामने नहीं आ पाता।  होना तो यह चाहिए कि प्रत्येक पराजित दल अपने कामों की सच्ची समीक्षा करे और कमियों को स्वीकार करते हुए उन्हें दूर करने के उपाय करे, पर इनका अभिमान इन्हें ऐसा नहीं करने देता। वे चुनावों में इतना झूठ बोल चुके होते हैं कि सच्चाई से उन्हें अपनी छवि पर खतरा नजर आता है। कहते हैं कि एक झूठ को दबाने के लिए सौ दूसरे झूठ बोलने पड़ते हैं और वे ऐसा ही करने लगते हैं। 
सबसे ताजा शगूफा ‘भारतमाता की जय’ से जोड़ कर उछाला गया है जिसका कोई तात्कालिक सामाजिक सन्दर्भ नहीं है। हमारी परम्परा में कहा गया है कि ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात जन्मभूमि और माँ स्वर्ग से भी बढ कर हैं। इससे स्पष्ट है कि ये दो अलग संज्ञाएं हैं। हमारे पुरुषवादी समाज में पितृभूमि शब्द आया है क्योंकि महिला शादी के बाद अपनी जन्मभूमि छोड़ कर अपने पति के घर आयी होती है जहाँ घर और भूमि पर पुरुषों का ही अधिकार होता आया है। अपने सारे आदर्श पुराणों से लेने वाले आर एस एस के साहित्य में भी मात्रभूमि की जगह पितृभूमि और पुण्यभूमि से नागरिकता तय करने की बात कही गयी है। लोक परम्परा में भी पुरखों की जमीन पर लगाव का प्रदर्शन किया गया है। अंग्रेजों के यहाँ ‘मदर लैण्ड’ शब्द आया है जिससे हमने मातृभूमि शब्द लिया है और उसी से ‘भारतमाता’ शब्द का जन्म हुआ है। भारत के लिए अंग्रेजों से लड़ने का पहला काम 1857 से प्रारम्भ होकर काँग्रेस के गठन के बाद ही कोई ठोस रूप ले सका क्योंकि इससे पहले हम स्वतंत्रता संग्राम सेनानी नहीं अपितु अपने अपने राज्यों के लिए लड़ने वाले राजाओं की फौज के सिपाही हुआ करते थे। महाराणा प्रताप अपने मेवाड़ के लिए लड़ने वाले राजा थे भारत के लिए लड़ने वाले राजा नहीं। उसी तरह शिवाजी और टीपू सुल्तान आदि की लड़ाइयां भी अपने अपने राज्यों और जाति के आत्मसम्मान के लिए थीं। इसलिए उस दौरान भारतमाता की कोई परिकल्पना ही नहीं थी। चारणों के साहित्य में भी राज्य और राजा के लिए लड़ने का आवाहन मिलता है ‘मातृभूमि’ के लिए लड़ने का कोई आवाहन नहीं मिलता।
भारतमाता की कल्पना करने वालों ने उसे एक उत्तरभारतीय हिन्दू देवी का रूप दे दिया जबकि विविधता से भरे इस देश में भिन्न क्षेत्रों की माताएं भिन्न भिन्न पोषाकें पहनती हैं। पंजाब की सिख महिला सलवार कमीज पहिनती है जबकि हरियाना की महिला कमीज और साड़ी पहिनती है। बंगाल की हिन्दू मुस्लिम सभी महिलाएं साड़ी पहिनती हैं तो महाराष्ट्र की माताएं अपने भिन्न अन्दाज में साड़ी बांधती हैं। गोवा और उत्तरपूर्व की महिलाओं की पोषाकें तो हमारी कथित भारतमाता से बिल्कुल भिन्न हैं जिसे कुछ चित्रों में शेर पर बैठा कर मानव मूर्ति से भिन्न दिखाने की कोशिश की गयी है। झंडा तो हमारा राष्ट्रीय प्रतीक हो सकता है किंतु भारतमाता राष्ट्रीय प्रतीक नहीं हो सकती और मूर्तिपूजा में आस्था न रखने वालों के विवेक को स्वीकार नहीं होती।   
विपक्ष में रहते हुए भाजपा को अपनी वोटों की राजनीति के लिए कोई न कोई भावुक मुद्दा चाहिए होता था और अब अपनी सरकार की अलोकप्रियता को भटकाने के लिए भी वे उसी का प्रयोग करते रहते हैं। राम जन्मभूमि मन्दिर, गौहत्या, लव जेहाद, घर वापिसी, धर्म परिवर्तन, आतंकवाद, तिरंगा, भारतमाता, सैनिकों के बलिदान को सामाजिक मांगों के आगे ला देना, आदि ऐसे ही ध्यान भटकाऊ मुद्दे हैं। शिक्षा, सूचना और राजनीतिक चेतना बढने के बाद अब इन मुद्दों पर भटकने वालों में ज्यादातर कम समझ वाले अधकचरे लोग ही रह गये हैं, इसलिए वे जल्दी जल्दी मुद्दे बदलने लगे हैं। अगर उनके पास पालतू मीडिया न हो तो इनके झूठ का प्रचार निष्पक्ष मीडिया में एक दिन भी नहीं टिक सकता। पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट ने सरकारी विज्ञापनों के आडिट कराने की सलाह दी थी जिस पर अमल नहीं हो रहा है पर जब भी कोर्ट सख्त होगा तब सरकारों के सच के संकेत सामने आ जायेंगे।
देशद्रोह, गद्दारी, जैसी पुरानी गालियों को भी नये अर्थों में समझने की जरूरत है, और इनका प्रयोग करने वालों को भी पहचानने की जरूरत है। राजतंत्र में जब प्रतिपक्ष नहीं होता था तब राज परिवार का कोई व्यक्ति अथवा असंतुष्ट राजदरबारी राजा के दुश्मन से मिलकर अपना बदला लेने की कोशिश करता था या लालच में आकर राज्य की गुप्त सूचनाएं दुश्मन तक पहुँचाता था। ये सूचनाएं आम तौर पर सैन्यतंत्र से जुड़ी होती थीं। दुश्मन राजा को इससे कम संघर्ष में ही विजय मिल जाती थी। लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं में राज्य की समीक्षा करने का अधिकार जनता या प्रतिपक्षी दलों को रहता है इसलिए ज्यादातर मामलों में जनता आन्दोलनों या चुनावों से सरकार बदल सकती है जिसका आवाहन खुले आम किया जाता है ताकि ज्यादातर लोगों तक पहुँच सके। अपने अपराधबोध में सत्तारूढ दल ऐसे विरोध को ही देशद्रोह और गद्दार जैसी पुरानी गालियों से बदनाम करता है। किसी दूसरे देश जैसी शासन व्यवस्था को पसन्द करने और लाने की बात कहने वालों को भी निहित स्वार्थ इन्हीं शब्दों से कमजोर करने की कोशिश करते हैं।
अब पारदर्शिता और सूचनातंत्र इतना बढ गया है कि पुरानी तरह की गद्दारी की जरूरत ही नहीं बची है। एटम बमों, मिसाइलों, और हवाई हमलों के युग में अगर गद्दार होंगे तो वे भी मारे जायेंगे क्योंकि तलवार चलाने वाला तो पहचान सकता है पर बम मिसाइल नहीं पहचान सकती। अब साम्राज्यवाद का नया युग है। यह किसी राज्य की अर्थव्यवस्था पर अपना वर्चस्व बना कर उसे अपना पिछलग्गू बना लेने का युग है। इसलिए अगर अब गद्दारी तलाशना हो तो हमें आर्थिक जगत की नीतियों को प्रभावित करने वालों में ही तलाशने जाना होगा। लोकतंत्र में झूठ के प्रचार के औजार ही सबसे खतरनाक हथियार हैं। अगर काँग्रेस सरकार ने 1995 में गणेशजी को दूध पिलाने की अफवाह फैलाने वालों को तलाश लिया होता तो आज काँग्रेस और भाजपा दोनों की ही स्थिति भिन्न होती।
वीरेन्द्र जैन
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रविवार, फ़रवरी 28, 2016

गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नाम एक खुला खत

गृहमंत्री राजनाथ सिंह के नाम एक खुला खत
वीरेन्द्र जैन

गृहमंत्री जी,
पिछले दिनों लोकसभा में मानव संसाधन के पद पर सुशोभित सुश्री स्मृति ईरानी के उपयुक्त अभिनय के साथ दिये गये बहुचर्चित बयान पर आपने जिस मुग्ध्भाव से उनके बयान को परिपूर्ण बताते हुए कहा था कि उसके बाद आपको कहने के लिए कुछ नहीं रह जाता है, इससे यह स्पष्ट हो गया था कि उनका कथन ही आपका कथन है। प्रधानमंत्री के पद सुशोभित कर रहे श्री नरेन्द्र मोदी ने भी उनके बयान को सुन कर उन्हें ट्वीट करके बधाई दी थी जिससे यह साफ हो गया था कि वे भी उनके बयान को समर्थन दे रहे हैं, अर्थात यह बयान सरकार का बयान बन गया है।
अब जब उस पूरे बयान की धज्जियां उड़ गयी हैं और वह अतिरंजना व सफेद झूठ का एक पुलिन्दा सिद्ध हो गया है, तब क्या आपकी सरकार उसकी उसी तरह सामूहिक जिम्मेवारी लेगी जिस तरह से वह प्रशंसा में सम्मलित हो गयी थी व अन्धभक्त जय जयकार करने लगे थे। इस दौरान देखा गया है कि तथ्यों के गलत सिद्ध होने पर सुश्री मायावती ने उसी सामंती काल की तरह स्मृति ईरानी का सिर मांग लिया जिस फिल्मी अन्दाज़ में उन्होंने कहा था कि अगर मेरे कथन से आप संतुष्ट न हों तो आपके चरणों में सिर काट कर डाल दूंगी। मुझे स्मृति ईरानी से सहानिभूति है क्योंकि उन्होंने सदन में जो भी ड्रामा किया वह उनका मूल भाव है और उसी गुण के कारण वे इस महान देश के इतने बड़े पद पर विराजमान हैं। मोदी उनके आदर्श बन चुके हैं और चरणों में सिर डालने वाली बात वैसी ही थी जैसी कि सौ दिन में काला धन न लाने की स्थिति में उन्होंने फाँसी पर चढा देने की शर्त रखी थी। वैसे भी सिर घुटाने, चने खाने, फर्श पर सोने के सुषमा स्वराज और उमा भारती के इसी श्रेणी के बयान पहले भी आ चुके हों। पालटिकल पार्टी की जगह रामलीला पार्टी।
भाजपा अभिनेता अभिनेत्रियां को हमेशा आमंत्रित करती रही है, और वह इकलौती ऐसी पार्टी है जो सबसे अधिक कलाकारों, खिलाड़ियों, मंच के मसखरों, पूर्व राज परिवार के सदस्यों के सहारे संसद में संख्याबल बनाती रही है। हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, शत्रुघ्न सिन्हा, विनोद खन्ना, स्मृति ईरानी, दीपिका चिखलिया, अरविन्द त्रिवेदी, दारा सिंह, किरन खेर, अनुपम खेर, परेश रावल, मनोज तिवारी, बाबुल सुप्रियो, कीर्ति आज़ाद, नवजोत सिंह सिद्धु, चेतन चौहान, आदि छोटे बड़े पचास से अधिक गैर राजनीतिक सैलिब्रिटीज का सहारा लेकर विभिन्न समयों में अपना अस्तित्व बनाये रख सकी है और विस्तार कर सकी है। कहने की जरूरत नहीं कि इन सब में स्मृति ईरानी ही वह कलाकार हैं जो राजनीति के साथ रुचिपूर्वक जुड़ी हैं, भले ही कभी कभी शत्रुघ्न सिन्हा और अनुपम खेर अपनी विवादास्पद बातों से चुनाव के बाद भी फुलझड़ी छोड़ कर चर्चा में बने रहे हैं।
स्मृति ईरानी ने मोदी केबिनेट की जिस स्क्रिप्ट पर नथुने फुला, आँखें निकाल, उँगली तान कर, सफल अभिनय करते हुए जो भावुकता की चाशनी में डुबो कर जो भाषण झाड़ा उसका सारा झाग बैठ गया है। कौन नहीं जानता कि प्रत्येक विभाग के मंत्री को अधिकांश सांसद पत्र लिखते हैं, और उनको मिले वीआईपी स्टेटस के अनुसार प्रत्येक सरकार के प्रत्येक विभाग के मंत्री उनको उत्तर देते हैं किंतु मंत्रीजी ने अपने उत्तर को विस्तार देने के लिए एक एक पत्र का जो अहसान सा बताया उसकी निरर्थकता उसी समय स्पष्ट हो गयी थी, क्योंकि विपक्ष की तुलना में सत्तारूढ दल के सांसद अधिक पत्र लिखते हैं जो पक्षपातपूर्ण कामों के लिए होते हैं। बंगारू दत्तात्रेय के पत्र पर जो हैदराबाद विश्वविद्यालय पर तेज गति से आक्रामक पत्र हमला हुआ था वह प्रशासनिक से ज्यादा राजनीतिक था और सत्तारूढ दल के अल्पसंख्यक छात्र संगठन के हित में सरकारी पद का दुरुपयोग अधिक था। रोहित वेमुला की आत्महत्या जो हत्या के समतुल्य मानी गयी है के बारे में बड़े भावुक ढंग से जिस झूठ को बोला गया वह चौबीस घंटे भी नहीं टिक सका जब सम्बन्धित डाक्टर ने कह दिया कि सूचना मिलने के पाँच मिनिट के अन्दर ही वह पहुँच गयी थीं व पुलिस अधिकारियों के साथ उनके फोटो सामने आ गये। भावुकता जगाने के लिए मोदी के लखनऊ में बहाये गये नकली आँसुओं की तरह 28 साल के जिस नौजवान को ‘बेचारा बच्चा’ बताया उसी के बारे में इनके प्रचारक पहले ‘याकूब मेनन की फाँसी को गलत मानने वाला देशद्रोही’ बता रहे थे तथा उसे दलित मानने से इंकार कर रहे थे। पिछले दिनों दिल्ली में उसकी माँ ने साफ कहा कि स्मृति ईरानी पूरी तरह गलत बयानी कर रही हैं।
स्मृति ईरानी ने कहा था कि देश के अधिकांश कुलपति पिछली सरकार के चुने हुए हैं और अगर एक भी कुलपति उनपर संघ का एजेंडा लागू करने का आरोप लगाए तो वे इस्तीफ़ा दे देंगी. शायद वे भूल गईं कि उनकी कार्यप्रणाली के ही ख़िलाफ़ मशहूर परमाणु वैज्ञानिक अनिल काकोदकर आइआइटी मुंबई के अध्यक्ष पद से और शिवगांवकर आइआइटी दिल्ली के निदेशक के पद से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। आपको इमरजैंसी के बाद वाला वह वाक्य भी याद होगा कि कुछ लोगों से झुकने के लिए कहा गया तो वो लोग लेट गये।
अगर स्मृति ईरानी के बयान की स्क्रिप्ट मोदी मन्त्रिमण्डल ने नहीं लिखी होती तो उन्हें जे एन यू वाले मामले में महिषासुर की पूजा और दुर्गा के बारे में कथित अपशब्द की चर्चा की कोई जरूरत नहीं थी और आगामी पश्चिम बंगाल में गलतफहमी पैदा करने व उसे पूरे बामपंथियों के ऊपर थोप देने षड़यंत्र नहीं रचा गया होता।
स्मृति ईरानी ने टीवी सीरियलों से मिली लोकप्रियता को अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाएं भुनाने में देर नहीं की। महत्वपूर्ण लोगों के खिलाफ चुनाव लड़ने से मिलने वाली लोकप्रियता के हर अवसर को भुनाया। भले ही उन्हें चुनावों में कभी सफलता नहीं मिली पर लोकप्रियता में वृद्धि तो हुयी। इसी क्रम में उन्होंने अपने आज के आदर्श नरेन्द्र मोदी को 2004 में अटल बिहारी सरकार को मिली पराजय के लिए जिम्मेवार ठहराया था और उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने तक आमरण अनशन की घोषणा की थी। अपने इसी प्रयास के कारण उन्हें महत्व मिला और आज वे चुनावों में मिली हार और कम औपचारिक शिक्षा के बाबजूद केन्द्र में मानव संसाधन विकास मंत्री हैं, व मध्यम सवर्ण वर्ग में लोकप्रिय प्रधानमंत्री को वरिष्ठ और अनुभवी लोगों से अधिक प्रिय हैं।
जे एन यू में लगे देश विरोधी नारों के बारे में हाफिज सईद की भूमिका वाले  आपके बयान पर दुनिया काफी हँस चुकी है जिसे आप गोपनीयता के नाम पर छुपा गये हैं। अभी तक उमरखालिद के आठ सौ फोन कालों का सत्य सामने नहीं आ सका है और आशंका है कि भविष्य में कसाव को बिरयानी खिलाने जैसा झूठा न सिद्ध हो। एडवोकेट निकम को पद्मश्री और ज़ी टीवी के आरोपी पत्रकार को एक्स श्रेणी की सुरक्षा भी जुगुप्सा जगाती है।   
महानुभाव, जब सरकार को जनता चुनती है तो सरकार की बदनामी में कहीं उसे चुनने वाली जनता की बदनामी भी छुपी होती है, भले ही आपकी सरकार को इकतीस प्रतिशत जनता का ही समर्थन प्राप्त हो. फिर भी  उसे और ज्यादा शर्मिन्दा होने से बचायें। मारपीट करने वाले आपके प्रिय वकील व आपके ज्ञानदेव आहूजा आपको ही मुबारक हों, ये भविष्य में आपको भी तकलीफ देंगे। आपकी पार्टी भारतीय परम्परा की दुहाइयां देने में सबसे आगे रहती है पर भूलों के लिए क्षमा मांगना भी भारतीय परम्परा ही है। कभी मांग कर देखें, शायद लोग क्षमा कर दें।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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बुधवार, फ़रवरी 24, 2016

झूठ और पाखण्ड भाजपा की रणनीति है

झूठ और पाखण्ड भाजपा की रणनीति है
वीरेन्द्र जैन

क्या आपको याद है कि अफज़ल गुरू की फाँसी से उपजे जिस विवाद पर आज देश गर्म है उससे सम्बन्धित  अपराध अर्थात आज़ाद भारत में संसद पर हमला इससे पहले भी हो चुका है। यह हमला 1966-67 में हुआ था और गौरक्षा के नाम पर चलाये गये उस आन्दोलन में भारतीय जनसंघ भी शामिल था। चिमटाधारी साधु भेषधारी हमलावरों ने सुरक्षाकर्मियों पर हमला करते हुए सदन में घुसने का प्रयास किया था व संसद की सुरक्षा में सुरक्षाकर्मियों को गोली चलाना पड़ी थी। उस समय साधु सन्यासियों के भक्त माने जाने वाले गुलजारी लाल नन्दा गृहमंत्री थे जो सैनिकों को गोली न चलाने की अपील करते हुए सदन से दौड़ कर बाहर आये थे किंतु उनकी सुरक्षा के लिए सैनिकों को उन्हें जबरदस्ती अन्दर ले जाना पड़ा था। आज भारतीय जन संघ का नया संस्करण भाजपा उस घटना को याद भी नहीं करना चाहती।
भाजपा का सबसे बड़ा दुर्गुण उसका दोहरापन है। वे जानते हैं कि उनके लक्ष्यों और कार्यप्रणाली के प्रति देश की जनता का समर्थन नहीं है इसलिए वे येन केन प्रकारेण चुनाव जीत कर सत्ता पर अधिकार कर लेना चाहते हैं। इसके लिए उन्हें निरंतर झूठ बोलना पड़ता है या अपने वक्तव्यों को गोलमोल और अस्पष्ट बनाना पड़ता है। सत्ता से अर्जित शक्ति और संसाधनों का प्रयोग संघ के दूसरे 62 संगठन करते हैं। इन संगठनों के ऊपर संकट आने पर ये दूरी बना लेते हैं, और उन्हें अपने से अलग बतलाने लगते हैं। सत्ता के संसाधनों से जिन संगठनों का ये पोषण करते हैं उनसे अलग होने का झूठ इन्हें बहुत अविश्वसनीय व हास्यास्पद बना देता है।
सत्ता पाने के लिए लोहिया के गैर काँग्रेसवाद की मूल भावना से असहमत होते हुए भी ये उसका समर्थन करने वालों में सबसे आगे रहे व संविद सरकारों का युग प्रारम्भ होने के बाद ये सभी संविद सरकारों में सम्मलित हुए भले ही उनके घटक दलों का मूल चरित्र कुछ भी रहा हो और इन्हें कैसी भी हैसियत में रखा गया हो। राज्यों के सभी संविद सरकारों में सम्मलित रहने के बाद 1977 में जब केन्द्र में गैर काँग्रेस सरकार का पहला प्रयोग हुआ तो उसमें सबको अपने अपने दल को जनता पार्टी में विलीन करने के लिए कहा गया। इस अवसर पर मार्कसवादी कम्युनिष्ट पार्टी ने ऐसा करने से मना कर दिया और केवल सीटों का चुनावी समझौता किया किंतु भारतीय जनसंघ ने सत्ता में साझेदार होने के लिए अपनी पार्टी को विलीन करने का दिखावा दिया। इस मामले में जल्दी ही उनका झूठ पकड़ा गया क्योंकि उनके लोग अभी भी जनता पार्टी के नहीं अपितु संघ के आदेशों पर काम कर रहे थे और उसके प्रति ही बफादार थे। देश की पहली गैरकाँग्रेस सरकार इनके इस झूठ के कारण ही भंग हुयी थी। 1989 में जब वी पी सिंह ने काँग्रेस से अलग होकर जनमोर्चा बनाया था तब उनका झंडा लेकर सबसे पहले ये ही आगे निकले थे किंतु चुनाव के बीच ही उन्हें इनकी योजना की भनक मिल गयी थी और उन्होंने इनसे किनारा कर लिया था। बाद में जीत के आँकड़े ऐसे आये कि उन्हें भाजपा और सीपीएम दोनों के समर्थन की जरूरत थी जिससे उत्साहित होकर ये फिर से सत्ता में सम्मलित होने के लिए उतावले हो गये। किंतु सीपीएम ने अपनी नीतियों के अनुसार सरकार में सम्मलित होने से इंकार कर दिया और समर्थन के लिए शर्त रख दी कि वह तभी दिया जायेगा जब भाजपा को सरकार में सम्मलित न किया जाये। तब इन्हें मजबूरन सत्ता से बाहर रहना पड़ा था। यही समय था जब इन्होंने मंडल कमीशन का विरोध करने के लिए एक ओर काँग्रेस से हाथ मिला लिया व दूसरी ओर राम जन्मभूमि मन्दिर के नाम पर रथयात्राओं की योजना बनायी।
राम जन्मभूमि मन्दिर की याद इन्हें न तो उत्तर प्रदेश में संविद सरकारों के दौर में आयी थी और न ही केन्द्र में जनता पार्टी में सम्मलित रहते हुए ही आयी थी। बाद में भी अटलबिहारी की केन्द्र में सरकार के समय व उत्तर प्रदेश में मायावती के साथ सरकार बनाने के बाद इन्होंने मुद्दे को फिर दबा कर रखा। इससे स्पष्ट हो गया कि ये मुद्दा उनकी आस्था का नहीं अपितु चुनावी कूटनीति का था। वोटों के लिए उन्होंने जब भी सम्भव हुआ इस मुद्दे से लोगों की आस्थाओं का विदोहन किया और कभी भी अपनी नीति स्पष्ट नहीं की। रथयात्रा से पूरे देश में घूमते हुए जब अडवाणी जी अपने पीछे एक रक्तरंजित लकीर छोड़ते आ रहे थे और उनके कार्यकर्ताओं के उत्तेजक नारे बाबरी मस्ज़िद को तोड़ने का वातावरण बनाते आ रहे थे तब उसे तोड़ने के बाद उन्होंने साफ झूठ कहा कि हमारा कोई इरादा मस्ज़िद तोड़ने का नहीं था और मैं [अडवाणी] तो उन्हें वापिस बुला रहा था, किंतु वे मराठीभाषी होने के कारण मेरी बात समझ नहीं पाये।
      इससे पूर्व राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री कल्याण सिंह ने आश्वासन दिया था कि मस्ज़िद की रक्षा की जायेगी किंतु मस्ज़िद गिरने के बाद में कहा कि राष्ट्रीय एकता परिषद की कोई संवैधानिक भूमिका नहीं है। इस मामले में इन लोगों ने न केवल देश को धोखा दिया अपितु अपने आस्थावान कार्यकर्ताओं और समर्थकों को भी धोखे में रख कर अपनी सुविधानुसार मुद्दे को भुनाया या भुलाया। राम के नाम पर अपने अन्दोलन चलाने के बाद भी वचनों के प्रति दृढ नहीं रहे।
अन्ना के भ्रष्ट्राचार विरोधी आन्दोलन के समय इन्होंने उसे हथियाने की कोशिश की, आन्दोलनकारियों के भोजन की व्यवस्था की, किंतु इनके सत्तालोलुपता के इतिहास को देखते हुए जब इन्हें किनारे कर दिया गया तब इन्होंने अन्ना का साथ छोड़ दिया व उस आन्दोलन के घटकों के विरोधी हो गये।
गुजरात 2002 में किसी व्यक्ति विशेष के प्रति आक्रोश से उपजी आगजनी की घटना को साम्प्रदायिक उन्माद में बदलकर भयानक नरसंहार होने दिया और पूरे प्रदेश को साम्प्रदायिक आग में झौंक दिया। सूचना माध्यमों पर सबसे पहले अधिकार करने वाले इनके संगठन ने जब जनता पार्टी में मौका मिला था तब सूचना प्रसारण मंत्रालय उनकी पहली पसन्द थी जिस दौरान अडवाणीजी ने सारे सूचना माध्यमों में अपने लोग भर डाले थे। 2002 में साबरमती एक्सप्रैस के ‘एक डिब्बे में लगी आग’ को उन्होंने ‘कार सेवकों से भरी ट्रैन’ में आग लगाना बताया। जबकि सच यह था कि इस दुखद घटना में जो 59 लोग जल कर मरे थे उनमें कार सेवक केवल दो थे। शेष मृतकों में मासूम बच्चे और महिला यात्री थीं। इतने बेगुनाग लोगों का मारा जाना भी बेहद दुखद और दिल दहला देने वाली घटना है किंतु घटना का मूल चरित्र उस तरह से साम्प्रदायिक व राम मन्दिर आन्दोलन से जुड़ा नहीं था जिस तरह से उसे प्रचारित करके उन्माद पैदा किया गया। जिन लोगों पर आरोप लगाया गया उनमें से आधे से अधिक लोगों को अदालत ने निर्दोष पाकर छोड़ दिया किंतु उनकी ज़िन्दगी के महत्वपूर्ण बीस बरस जेल में ही कट गये। इन निर्दोषों में से दो की मृत्यु तो जेल में ही हो गयी थी। बाद में हरेन पंड्या की हत्या से लेकर गवाहों को बदलने आदि की सैकड़ो कहानियां स्टिंग आपरेशन में सामने आयीं।
इसी तरह छोटे मोटे स्तर पर ‘कैश फार वोट’, राम सेतु, रोहित वेमुला, आदि की हजारों कहानियां इनसे जुड़ी हैं। जे एन यू का ताज़ा विवाद भी देश की राजधानी में मीडिया के सहारे एक ज्वलंत सच को झुठलाने का घृणित उदाहरण है जो देश की राजधानी की इलैक्ट्रोनिक पारदर्शिता व सोशल मीडिया के कारण सच जल्दी सामने आ गया। नारेबाजी की इस घटना को राष्ट्रद्रोह से जोड़ कर अपने ही लाखों समर्थक लोगों को भ्रमित करके उत्तेजित किया है। अभी तक पीड़ित पक्ष अपने लिए राहत पाकर चुप हो जाता था किंतु अब समानांतर मीडिया और सोशल मीडिया के साथ साथ लगभग प्रत्येक व्यक्ति के पास मौजूद मोबाइल कैमरा झूठ को ज्यादा चलने नहीं दे सकता। जिस व्यक्ति या संस्था ने देश की सुरक्षा से जुड़ी इतनी बड़ी घटना में के मूल स्वरूप को अपने टुच्चे राजनीतिक स्वार्थ के लिए बदला है व जिस मीडिया ने जान बूझ कर उसे चलाया है उसे माफ करना भी देशद्रोह है। जरूरत पड़ने पर उनसे सख्त पूछ्ताछ होना चाहिए भले ही नार्को टेस्ट का सहारा क्यों नहीं लेना पड़े। भाजपा में जो लोग षड़यंत्र रचने में लगे हैं वे अपने विरोधियों से ज्यादा तो अपने मासूम समर्थकों के साथ धोखा करते हैं जो इनके दुष्प्रचार से प्रभावित होकर हिंसा में उतर जाते हैं। आई टी सैल के प्रद्योत बोरा के साथ जे एन यू के एबीवीपी के तीन पदाधिकारियों का त्यागपत्र कुछ बोलता है, भले ही रामजेठमलानी, कीर्ति आज़ाद, शत्रुघ्न सिंहा, भोला सिंह, आर के सिंह, शांता कुमार आदि की मुखर और मार्गदर्शक मंडल की मौन असहमति को अब तक उपेक्षित रखा जा रहा हो।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


       

मंगलवार, फ़रवरी 09, 2016

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान

निदा फाज़ली, बच्चे और भगवान
वीरेन्द्र जैन

बाइबिल में कहा गया है कि स्वर्ग के दरवाजे उनके लिए खुले हैं जिनके ह्रदय बच्चों की तरह हैं। इंसान का असली सौन्दर्य उसके बच्चे होने में ही झलकता है। रजनीश कहते हैं कि ‘प्रत्येक बच्चा चाहे वह किसी पशु का ही क्यों न हो सुन्दर लगता है, इसका कारण उसका सच्चा होना होता है’। विश्व हिन्दू परिषद जैसे संगठनों के उदय के पूर्व तक हमारे जिन महापुरुषों, देवी देवताओं की मूर्तियों का निर्माण किया गया है उनका सौन्दर्य उनकी सौम्यता में ही प्रकट होता है। वे कहते हैं कि ‘बच्चा जैसा जैसा बड़ा होता जाता है वह दुनियादार होता जाता है और उसकी मासूमियत के साथ साथ उसका सौन्दर्य भी घटता जाता है’। साम्प्रदायिक संगठनों के फैलाव के पूर्व तक महापुरुषों के चित्र और उनकी मूर्तियां ‘बड़े बच्चों’ की मूर्तियां होती थीं जिनका सौन्दर्य देख कर अच्छा लगता था। निदा फाजली की शायरी के आस पास हमेशा एक बच्चा रहा है जिसकी निगाह से दुनिया को दिखा कर उन्होंने समाज की समीक्षा की है।
बच्चा बोला देख कर मस्ज़िद आलीशान
अल्ला तेरे एक को, इत्ता बड़ा मकान
अगर हम शब्दों के चयन को देखें तो ‘इतना’ शब्द में भी वही वज़न है पर वे इतना की जगह ‘इत्ता’ शब्द का प्रयोग करते हैं। इस एक शब्द से जो मासूमियत प्रकट होती है उससे काव्य का सौन्दर्य कई कई गुना बढ जाता है।
उनकी एक नज़्म है- ‘कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं’
हुआ सवेरा 
ज़मीन पर फिर अदब 
से आकाश 
अपने सर को झुका रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
नदी में स्नान करने सूरज
सुनारी मलमल की 
पगड़ी बाँधे 
सड़क किनारे 
खड़ा हुआ मुस्कुरा रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
हवाएँ सर-सब्ज़ डालियों में 
दुआओं के गीत गा रही हैं 
महकते फूलों की लोरियाँ 
सोते रास्तों को जगा रही 
घनेरा पीपल,
गली के कोने से हाथ अपने 
हिला रहा है 
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 
फ़रिश्ते निकले रोशनी के 
हर एक रस्ता चमक रहा है 
ये वक़्त वो है 
ज़मीं का हर ज़र्रा 
माँ के दिल सा धड़क रहा है 
पुरानी इक छत पे वक़्त बैठा
कबूतरों को उड़ा रहा है
कि बच्चे स्कूल जा रहे हैं 

ये नज़्म केवल स्कूल जाने वाले बच्चों की ओर ही नहीं अपितु स्कूल न जा पाने वाले बच्चों के प्रति हो रही समाजिक निर्ममता की भी याद दिला देती है। उनकी चिंता उस बच्चे के लिए भी है जो रो रहा है और उसे हँसाने के लिए मस्ज़िद जाना छोड़ा जा सकता है।
घर से मस्ज़िद है बहुत दूर, चलो यूं कर लें
किसी रोते हुए बच्चे को हँसाया जाये
जिस छवि को देख कर सूरदास और रसखान दुनिया भर की दौलत न्योछावर कर देने के लिए तैयार हो जाते हैं, उसे देख कर निदा फाज़ली की यशोदा कैसे मुग्ध होती है -
घास पर खेलता है इक बच्चा
पास माँ बैठी मुस्कराती है
मुझको हैरत है जाने क्यों दुनिया
काबा ओ सोमनाथ जाती है।
उनके काव्य दर्शन में भी जो प्रतीक आते हैं वे भी बच्चों की दुनिया के होते हैं-
दुनिया जिसे कहते हैं, मिट्टी का खिलौना है
मिल जाये तो माटी है, खो जाये तो सोना है
या
गरज बरस प्यासी धरती को फिर पानी दे मौला
चिड़ियों को दाना, बच्चों को गुड़ धानी दे मौला
दो और दो का जोड़ हमेशा चार कहाँ होता है
सोच समझ वालों को थोड़ी नादानी दे मौला
      उनकी शायरी में जो माँ है वह भी बच्चों की माँ है, जवानों और प्रौढों की माँ नहीं है।
बेसन की सोंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी माँ ,
याद आता है चौका-बासन, चिमटा फुँकनी जैसी माँ ।
बच्चों, खास तौर पर लड़कियों की शिक्षा के लिए मलाला यूसुफ जई के संघर्ष की तरीफ में लिखी एक नज़्म में वे कहते हैं-
.....स्कूलों को जाते रस्ते ऊंचे नीचे थे
जंगल के खूंख्वार दरिन्दे आगे पीछे थे
मक्के का एक उम्मी* तेरी लफ़्ज़ों का रखवाला....मलाला मलाला.........
बच्चों को जल्दी बड़े होने की दुआ देने की परम्परा के विपरीत उनका मानना था कि बच्चों के बचपन को जितना अधिक से अधिक बचा कर रखा जा सके, उतनी ही ये दुनिया सुन्दर बनी रह सकेगी।
बच्चों के नाजुक हाथों को चाँद सितारे छूने दो
चार किताबे पढ कर ये भी हम जैसे हो जायेंगे
      बच्चों में बचपन को बचा कर रखना और उसे बड़ों तक ले जाने के हर प्रयास में सहयोग करके ही  निदा फाज़ली जैसे खूबसूरत शायर को  श्रद्धा सुमन अर्पित किये जा सकते हैं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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बुधवार, जनवरी 27, 2016

अमित शाह के मनोनयन से कौन खुश है?

अमित शाह के मनोनयन से कौन खुश है?
वीरेन्द्र जैन



अमित शाह के अध्यक्ष के रूप में मनोनयन को भले ही निर्वाचन कहा जा रहा है किंतु इस चयन समारोह का जो दृष्य सूचना माध्यमों ने दिखलाया है, उसके अनुसार तो उक्त अवसर पर उपस्थित भीड़ किसी शोक सभा में आये लोगों की तरह थी। एक अखबार के अनुसार यह बिहार में होने वाली जबरिया शादी की तरह का आयोजन था, जिसमें सब कुछ बन्दूक की नोक पर हो रहा था और कहीं कोई खुशी की लहर नहीं थी। न तो परिवार के बुजुर्ग उपस्थित थे और न ही सगे नाते रिश्तेदार। सब के सब या तो मजबूर थे या दर्शक थे जो जली कटी टिप्पणी कर रहे थे। जो किराये के नाचने वाले कथित कार्यकर्ता के रूप में भांगड़ा जैसा कुछ करने आये थे उनके बारे में फुसफुसाहट थी कि इन लोगों को बिहार के चुनावों के बाद नृत्य के लिए बुक किया गया था किंतु अवसर न आने के कारण उसी भुगतान पर अब बुला लिया गया है। बाहर वालों के लिए जो वीडियो स्क्रीन लगायी गयी थी उस पर किसी ने जरा याद करो कुर्बानी लगा दिया तो वह जो लौट के घर न आये बजने तक ही बज सका क्योंकि किसी ने उसे रुकवा दिया था। उस रोक का कारण भी बाहर वालों को यही समझ में आया कि मार्गदर्शक मण्डल में से अडवाणी, जोशी, शांताकुमार, किसी के भी न आने के कारण कहीं उसका गलत अर्थ न निकाला जाये।
हिन्दी का एक प्रमुख अखबार तो लिखता है कि- भाजपा की सदस्यता भले अमित शाह के पिछले कार्यकाल के बाद से पांच गुना बढी हो, पर उत्साह और लोकप्रियता दुगनी घटी है। ये हम नहीं वहां मौजूद जुबानें कह रही थीं।  
अमित शाह भाजपा के कभी भी राष्ट्रीय नेता नहीं रहे और अध्यक्ष बनने से पहले राष्ट्रीय स्तर पर उनकी नेकनामी नहीं अपितु बदनामी ही सामने आयी थी। वे केवल नरेन्द्र मोदी के सर्वाधिक विश्वासपात्र के रूप में जाने गये थे और इसी गुण के कारण इस पद पर बैठाये गये थे। वे मोदी की लोकप्रियता व उनमें पैदा हुए विश्वास के कारण ही सहन भी कर लिये गये थे। परोक्ष में वे मोदी के क्लोन के रूप में ही स्वीकार किये गये थे। चुनावों में सफलता मिलने के भले ही विभिन्न कारण रहे हों किंतु मोदी ने उसका श्रेय श्री शाह के प्रवन्धन को दिया था, जिससे उनका कद भी बढ गया था। पिछले दिनों दिल्ली, बिहार के विधानसभा चुनावों में तथा विभिन्न उपचुनावों और पंचायत नगर निकाय आदि चुनावों में मिली पराजय के बाद उनकी प्रचारित चमक कम हो गयी, या कहें कि कलई उतर गयी। इसका परिणाम यह हुआ कि पहले वे झेल लिये गये थे किंतु अब थोपे हुए लग रहे हैं।
इसी दौरान मोदी की लोकप्रियता के ग्राफ में जबरदस्त गिरावट आयी और मंहगाई, आतंक, मन्दी, साम्प्रदायिकता, समेत अनेक गैर जिम्मेवार नेताओं के बेहूदे बयानों के कारण मोदी की छवि भी लगातार धुँधली होती गयी। भाजपा के वरिष्ठ नेता अरुण शौरी ने तो इसे मनमोहन प्लस काऊ की सरकार कह कर यह बता दिया कि किसी भी  मामले में मोदी की सरकार मनमोहन सिंह सरकार से भिन्न नहीं है अपितु इसमें कुछ कमियां हैं। इसके बाद भले ही मोदी ने अपने विश्वासपात्र अमित शाह को दुबारा अध्यक्ष बनवाने में अपनी विशिष्ट स्थिति का प्रयोग कर पार्टी की कमान अपने पास ही रखी हो किंतु ऐसा करके उन्होंने पुराने भाजपा कार्यकर्ताओं के भरोसे को कम किया है।
अब भाजपा एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जब उसके कार्यकर्ताओं को लग रहा है कि उनकी सेवाओं की कोई कीमत पार्टी की निगाहों में नहीं रही और उनका भविष्य मोदी की मर्जी पर निर्भर है। वे सरकार और संगठन दोनों में ही अपनी मर्जी चलाने में समर्थ हो गये हैं और चुनाव जिताने की उनकी क्षमता निरंतर घट रही है। मार्ग दर्शक मंडल के अडवाणी, जोशी, शांताकुमार अपने समर्थकों समेत तो वैसे भी असंतुष्ट थे, राम जेठमलानी, अरुण शौरी, शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि मुखर हो चुके हैं। सुषमा स्वराज, वसुन्धरा राजे, शिवराज सिंह चौहान, तो अपनी कमजोरियों के कारण चुप हैं किंतु शिव सेना, पीडीपी, और अकालीदल सहयोगी दल होने के बाद भी बड़े भाई की तरह व्यवहार करते रहे हैं। गुजरात में हर्दिक पटेल के नेतृत्व वाले पटेलों के आन्दोलन ने चौंकाया है वहीं मोदी के विरोधी संजय जोशी पुनः सक्रिय हो चुके हैं। गैर जिम्मेवार बयान देने वाले संघ के राममाधव पार्टी में अपनी विशिष्ट स्तिथि बनाये हुये हैं। राकेश सिन्हा जैसे संघ प्रवक्ताओं को टीवी चैनलों पर समानांतर रूप से भेजा जाता है जो कभी कभी भाजपा प्रवक्ताओं के लिए असहज स्तिथि पैदा कर देते हैं। 
सुब्रम्यम स्वामी जैसे महात्वाकांक्षी नेताओं को भाजपा में सम्मलित करके जो भूल की जा चुकी है वह ‘उगलत निगलत पीर घनेरी’ वाली स्थिति पैदा कर रही है। वे चतुर सुजान हैं, निर्भीक हैं, मुँहफट हैं, और कुंठित हैं। वे कभी भी किसी को भी संकट में डाल सकते हैं, जैसे राफेल विमान सौदौं के प्रारम्भ में बयान देकर डाल चुके हैं। पठानकोट हमले से मोदी की लाहौर कूटनीति फेल हो गयी है। सुब्रम्यम स्वामी, कीर्ति आज़ाद को मिले नोटिस का जबाब देने, और अरुण जैटली के विपक्ष में दिखने का संकेत देकर अरविन्द केजरीवाल की परोक्ष मदद कर चुके हैं। मोदी ने आसाराम को भाजपा परिवार का समर्थन नहीं मिलने दिया था किंतु स्वामी की वकालत ने मोदी के प्रयास को चुनौती दी है।
इमरजैंसी में कम्युनिष्ट, सोशलिस्ट समेत संघ के लोग भी जेल भेजे गये थे किंतु क्षमा मांग कर वापिस आने वाले केवल संघ के लोग ही थे। इसके बाद भी उस जेल यात्रा को सर्वाधिक भाजपा ने ही भुनाया और अपने राज्यों में मीसा बन्दियों की पेंशन बाँध ली। इमरजैन्सी को अभिव्यक्ति की आज़ादी पर प्रतिबन्ध के रूप में देखा गया था। अब इमरजैन्सी नहीं घोषित की गयी है फिर भी सबके मुँह सिले हुए हैं, वे असंतुष्ट हैं किंतु फिर भी कुछ नहीं बोल रहे हैं। शत्रुघ्न सिन्हा और कीर्ति आज़ाद से भाजपा के बहुत सारे लोग सहमत हैं किंतु आवाज़ किसी के भी मुँह से नहीं निकल पा रही है। एक साल बाद पश्चिम बंगाल, केरल, असम, उत्तरप्रदेश आदि के चुनाव हैं जहाँ पर उनकी जीत की सम्भावनाएं कम हैं। इन राज्यों के चुनाव परिणाम आने के बाद क्या भाजपा में दमित लोगों का स्वर निकल सकेगा? यदि स्वर फूटा तो अमित शाह को जाना होगा, और नहीं फूटा तो भाजपा को जाना होगा।
वीरेन्द्र जैन
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