सोमवार, नवंबर 06, 2017

भारतीय राजनीति में विलीन होते ध्रुव

भारतीय राजनीति में विलीन होते ध्रुव
वीरेन्द्र जैन
भारतीय राजनीति एक विचित्र दशा को प्राप्त हो गयी है। यह एक ऐसा गोलाकार पिंड हो गई है जिसमें कहीं ध्रुव नजर नहीं आता। यद्यपि हमारे बहुदलीय लोकतंत्र में यह दोध्रुवीय तो पहले से ही नहीं थी किंतु दुनिया में आदर्श लोकतांत्रिक बताये जाने वाले देशों में विकसित हुयी व्यवस्था की तरह हम लोग भी अपने लोकतंत्र को वैसा ही देखने के आदी हो गये थे। हमारा देश विभिन्न भौगोलिक अवस्थाओं, मौसमों, फसलों, भाषाओं, वेशभूषाओं, आस्थाओं, रीतिरिवाजों, जातियों, रंगों, शाषकों, आदि में विभाजित रहा है। इस क्षेत्र में हुए आक्रमणों और आक्रामकों की विस्तारवादी नीतियों ने इसे आज के इस भौगोलिक व राजनीतिक स्वरूप में ढाला है। हमारी एकरूपता गुलामी से पीड़ितों की एकता थी।
हमारी एकता का पहला पड़ाव हमारी एक साथ होने वाली मुक्ति थी जिसमें हमारे सम्मलित प्रयास के साथ साथ हमें गुलाम बनाने वाली शक्तियों का कमजोर पड़ना भी एक बड़ा कारण बना। एक साथ मुक्ति के बाद ही हमने एक होने और एक बने रहने के तर्कों की तलाश की जिस हेतु भौगोलिक सीमाओं, इतिहास, और पौराणिक कथाओं समेत धार्मिक विश्वासों तक का सहारा लिया। राष्ट्रीय पूंजीवाद ने भी इसमें अपनी भूमिका निभायी। जब पश्चिम के राजनीतिक विश्लेषक हमारी आज़ादी को ट्रांसफर आफ डिश अर्थात खायी गयी थाली के शेष हिस्से को हमारी ओर सरकाना बताते हैं तो वे बहुत गलत नहीं होते हैं।
जिन्होंने उस समय इस एकता पर गम्भीर असहमतियां प्रकट कीं थीं उनमें से एक ने अपना अलग देश बना लिया और दूसरे अर्थात अम्बेडकरवादी असहमत होते हुए भी साथ रहे, जिसके बदले में उन्हें अपनी तरह से देश का संविधान गठित करने में प्राथमिकता मिली। कश्मीर के राजा और जनता ने स्पष्ट रूप से पाकिस्तान और हिन्दुस्तान से बराबर की दूरी बनाना चाही किंतु जब पाकिस्तान ने बलपूर्वक उसे हथियाना चाहा तो उसे हिन्दुस्तान के साथ आना पड़ा व दोनों ओर से कुछ शर्तों के साथ समझौता हुआ। ऐसी विविधताओं के बीच विभाजन के दौरान हुयी हिंसा से पीड़ित एक वर्ग ऐसा था जो कठोर सच्चाइयों को समझने की जगह विवेकहीन भावोद्रेक से देश चलाने की बात कर रहा था। तत्कालीन राजे रजवाड़े भी अपना राज्य देने में सहज नहीं थे और उनमें से अनेक अब तक अपने प्रभाव क्षेत्र से विधायिका में सम्मिलित होकर लोकतांत्रिक व्यवस्था के विकास में बाधा बनते रहते हैं। ऐसे नये राज्य को एक इकाई की तरह संचालित करना बहुत कठिन काम था जिसके लिए गाँधीजी ने पटेल की जगह नेहरूजी को जिम्मेवारी देने का बहुत सोचा समझा सही फैसला किया था।
जैसे जैसे परतंत्रता की साझी पहचान मिटती गयी वैसे वैसे व्यक्तियों, जातियों, वर्गों, क्षेत्रों, की सोयी पहचान उभरती गयी। परिणाम यह हुआ कि स्वतंत्रता के लिए काम करने वाली काँग्रेस का स्वाभाविक नेतृत्व क्रमशः कमजोर होता गया जिसका स्थान कम्युनिष्टों, और समाजवादियों जैसे राजनीतिक दलों को लेना चाहिए था किंतु 1962 में चीन के साथ हुआ सीमा विवाद और 1965 में कश्मीर की नियंत्रण रेखा के उल्लंघन का असर देश के आंतरिक सम्बन्धों पर भी पड़ा। कम्युनिष्टों के यथार्थवाद पर लुजलुजी भावुकता भारी पड़ गई और पाकिस्तान के साथ होने वाले युद्ध ने विभाजन के समय पैदा हुयी साम्प्रदायिकता को उभार दिया। इसमें अमेरिका ने भी परोक्ष भूमिका निभायी ताकि शीतयुद्ध के दौर में नेहरू की गुटनिरपेक्षता की नीति को पलीता लगाया जा सके। सत्ता के उतावलेपन ने समाजवादियों को कहीं गैरकाँग्रेसवाद के नाम पर सामंती, साम्प्रदायिक शक्तियों को आगे लाने की भूल कर दी तो कहीं उन्होंने हिन्दी का आन्दोलन भी चलवा दिया जिससे गैरहिन्दी भाषी क्षेत्र उनसे सशंकित हो गये। पिछड़ी जातियों के पक्ष में उठाये गये उनके आन्दोलनों के पीछे काँग्रेस के पक्ष में दलितों के एकजुट होने का मुकाबला करना अधिक था। पिछड़ों के पिछड़ेपन में जो वैविध्य था उसका ठीक से अध्ययन करने की जरूरत नहीं समझी गयी इसलिए वह जातिवादी वोट बैंक में बदलता गया और इस नाम पर उभरे विभिन्न पिछड़ी जतियों के विभिन्न समूह बने व समय समय पर गैर राजनीतिक आधार पर विभिन्न दलों से जुड़ते रहे। एक पिछड़ी जाति दूसरे से मुकाबला करने लगी। जनसंघ के नाम से उभरे दल ने हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद को मिलाकर साम्प्रदायिकता और स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास से पैदा देशप्रेम का घालमेल किया। इसके पीछे एक संगठित दल राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ था जिसे विभाजन के कारण शरणार्थी बने लोगों और मुसलमानों की हिंसा से भयाक्रांत समूहों का समर्थन प्राप्त था। काँग्रेस भी उन्हें इतनी परोक्ष सहायता करती रहती थी ताकि उनसे आशंकित मुसलमान उसके अपने ही वोट बैंक बने रहें। कालांतर में कांसीराम द्वारा उत्तर भारत में काँग्रेस के दलित वोट बैंक को अलग कर दिया और उसके सहारे उथल पुथल करने से लेकर मायावती कल में वोटों की सौदेबाजी तक राजनीतिक प्रभाव डाला। मण्डल कमीशन ने यादव, जाट, और कुर्मियों के नेता पैदा किये व राजनीतिक चेतना के सम्भावित विकास को नुकसान पहुँचाया। धन के सहारे भाजपा ने दलबदल को प्रोत्साहित किया, व सत्ता में जगह बनाते गये, व हर तरह की संविद सरकारों में घुसपैठ करके सत्ता के प्रमुख स्थानों व भूमि भवनों को हथियाते गये। राम जन्मभूमि विवाद को भुनाकर बड़ा साम्प्रदायिक विभाजन कराया व स्वयं को देश के सबसे बड़े हिन्दूवादी दल के रूप में स्थापित कर लिया। काँग्रेस के कमजोर होते ही क्षेत्रीय दलों का उद्भव होता गया व जो बीज रूप में थे उनका विकास होता गया। डीएमके, एआईडीएमके, बीजू जनता दल, तृणमूल काँग्रेस, तेलगुदेशम, टीआरएस, शिवसेना, उत्तरपूर्व के राज्यों के छोटे मोटे दल, अकाली दल, नैशनल काँफ्रेंस, पीडीपी व समाजवादियों के टुकड़ों से बने दर्जनों दल, उभरते गये जिनमें समाजवादी पार्टी, इंडियन नैशनल लोक दल, आरजेडी, जेडीयू, जनता पार्टी, वीजू जनता दल आदि हैं। इन्दिरा गाँधी की मृत्यु के बाद काँग्रेस और बिखरती गयी तथा नैशनलिस्ट काँग्रेस पार्टी, तृणमूल काँग्रेस, वायएसआर काँग्रेस, आदि बनती चली गयीं। काँग्रेस सत्तासुख का नाम बनता गया और जिसको जहाँ सुविधाजनक लगा उसने वहाँ अपनी पार्टी बना ली या तत्कालीन सत्तारूढ दल में सम्मलित होता गया। इस शताब्दी के दूसरे दशक में भ्रष्टाचार के खिलाफ आम आदमी पार्टी ने ध्यान आकर्षित किया और तेजी से उम्मीदें जगायीं किंतु दिल्ली में जीत के साथ ही उनके मतभेद ऐसे उभरे कि उनकी चमक धुल गयी और विकल्प के रूप में सामने आने का सपना चूर चूर हो गया। वामपंथी देश के दो कोने पकड़े रहे किंतु शेष देश में केवल बुद्धिजीवी की तरह ही पहचाने गये। यांत्रिक रूप से किताबी वर्ग विभाजन को ही शिखर पर रखते हुए वे दूसरे वर्ग भेदों की उपेक्षा करते रहे इसलिए जमीनी पकड़ नहीं बना सके।  
संघ के अनुशासन से जन्मी भाजपा द्वारा सत्ता के सहारे देश के सैन्य बलों पर अधिकार करना प्रमुख लक्ष्य था जिसके लिए काँग्रेस का कमजोर होना प्रमुख अवसर बना। उसने न केवल साम्प्रदायिक विभाजन, का सहारा लिया अपितु कार्पोरेट घरानों को उसके सत्ता प्रोजेक्ट में धन लगा कर अधिक लाभ के सपने भी दिखाये। उन्होंने इसके लिए बाज़ार में उतर चुके मीडिया को पूरी तरह खरीद कर अलग परिदृश्य ही प्रस्तुत कर दिया। प्रत्येक दल के महत्वपूर्ण नेता को उसकी हैसियत के अनुसार प्रस्ताव दिया और सम्मलित कर लिया। सेना, पुलिस, नौकरशाह, कलाकार, पूर्व राज परिवारों के सदस्य, जातियों के नेता, साधु संतों की वेषभूषा में रहने वाले लोकप्रिय लोग, खिलाड़ी, या अन्य किसी भी क्षेत्र के लोकप्रिय लोगों की लोकप्रियता को चुनावी लाभ के लिए स्तेमाल करने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। बहुदलीय लोकतंत्र में विरोधी वोटों के बँटवारे से जो लाभ मिलता है उसके लिए विरोधी दलों में भी परोक्ष हस्तक्षेप करवाया। इन सबके सहारे उनका सत्ता पर नियंत्रण है किंतु झाग उठाकर जो बाल्टी भरी दिखायी गयी थी उसका झाग बैठना भी तय रहता है। यह झाग बैठना शुरू हो चुका है और इसे झुठलाने का इकलौता रास्ता सैन्य बलों के सहारे इमरजैंसी जैसी स्थिति लाना ही होगा, क्योंकि सक्षम विकल्प उभरता दिखायी नहीं देता।
नरेन्द्र मोदी अपनी पार्टी में भी सर्वसम्मत नेता नहीं थे क्योंकि उनका प्रशासनिक इतिहास बहुत लोकतांत्रिक नहीं था। गुजरात के मुख्यमंत्री रहते हुए कार्पोरेट घरानों को दी गयी सुविधाओं और भविष्य की उम्मीदों ने उन्हें राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करवाया था, और चुनावी प्रबन्धन के सहारे शिखर तक पहुँचने में कामयाब हो गये, किंतु किये गये वादों का कार्यान्वयन नहीं कर सके। अपने चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने तत्कालीन सरकार और नेताओं पर जो गम्भीर आरोप लगाये थे उन्हें भी वे साबित नहीं कर सके व किये गये अतिरंजित चुनावी वादे पूरे करने की जगह उसकी पिछली सरकारों के कार्यकाल से ही तुलना करते रहे। नोटबन्दी और जीएसटी जैसी योजनाएं इस तरह से कार्यांवित की गयीं कि परेशानियां तो सामने आयीं किंतु जनता को लाभ कहीं दिखायी नहीं दिया।    
सच यह है कि भारतीय राजनीति में कोई ध्रुव नजर नहीं आता।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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युवाओं से - अपनी आज्ञा मानो

युवाओं से -
अपनी आज्ञा मानो

वीरेन्द्र जैन
दुनिया के सारे विकास कथित विकास पुरुष के अपने जन्मदाताओं की समझ, सोच, विचार, और आचार से आगे निकलने पर ही सम्भव हुये हैं।
मनुष्य जैसे सभ्य और सामाजिक प्राणी को अपना स्वतंत्र व्यक्तित्व बनाने में लगभग अठारह बीस वर्ष की परिपक्वता जरूरी मानी जाती है। इस दौर में वह प्राथमिक ज्ञान के साथ अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित जरूरी ज्ञान को प्राप्त कर चुका होता है। यही वह समय होता है जब उसे अपने खोल से वैसे ही बाहर निकल आना चाहिए जैसे कि चूजा छिलका तोड़ते हुए अंडे से बाहर निकल आता है। द्विज का एक अर्थ यह भी हो सकता है। यह मनुष्य ही है जो भोजन और संतति वृद्धि के अलावा भी जीवन में चिंताएं पालता है और इन्हीं चिंताओं से दुनिया को लगातार पिछली दुनिया से बेहतर बनाता जा रहा है। दुविधा हर उम्र के उन बच्चों की है जो परिपक्वता की उम्र पार कर जाने के बाद भी अपने पूर्वजों की बन्द गुफा से बाहर नहीं निकल पाने को अभिशप्त होते हैं क्योंकि बचपन से ही सिखाया जाता है कि अपने माँबाप की आज्ञा मानो। ये उपदेश एक उम्र तक ही ठीक हैं किंतु उसके बाद ऐसे उपदेश ही हमें कुन्द करते हैं, गुलाम बनाते हैं और इस गुलामी में युवा अपनी उम्र जी ही नहीं पाते। बुजुर्ग उन्हें अपनी तरह ढालना चाहते हैं, अपनी प्रतिलिपि बनाना चाहते हैं। गुलाम या कुण्ठित युवाओं के समाज में यही कारण है कि पिछले एक हजार वर्षों में हम लोगों ने न तो कोई नया अविष्कार किया और न ही कोई ऐसी नई वस्तु का निर्माण किया जिसे देख कर दुनिया हमारी प्रतिभा का लोहा मान जाये। इसके विपरीत हमने प्रतिभा की सम्भावनाओं को यह कह कर धूमिल करने की कोशिश की हमारे पास तो सारा ज्ञान तो पहले से ही था किंतु विदेशी आक्रमणों में वह नष्ट हो गया। अतीत पर झूठा गर्व करते रहने से प्रगति नहीं हो सकती। अगर वह था भी तो अब खो चुका है उसे नये ढंग से अविष्कृत होने दीजिए।
आज जरूरत इस बात की है कि युवाओं से कहा जाये कि माँबाप की नहीं अपनी खुद की आज्ञा मानो। मनुष्य नामक प्राणी को छोड़ कर ज्यादातर प्राणी जन्म के कुछ ही दिनों बाद अपना भोजन स्वयं जुटाने लगते हैं, और स्वतंत्र हो जाते हैं। पालकों की जिम्मेवारी बच्चों को बड़ा करने और शिक्षित करने तक ही होना चाहिए।
अगर समाज को आचरण की प्रेरणा देने वाली पौराणिक कथाओं का उल्लेख करें तो पार्वती, प्रह्लाद, भरत, सुभद्रा, सहित अनेक उदाहरण मिल जायेंगे जिन्होंने अपने पालकों की आज्ञा न मान कर वह काम किया है जो याद किया जाता है। इतिहास पुरुषों में भी बुद्ध, महावीर से लेकर गाँधी नेहरू तक अपने स्वतंत्र विचारों के आधार पर ही इतिहास में जगह बना सके। कला जगत में अधिकांश सफल कलाकारों ने अपने पालकों की सोच से अलग अपना व्यावसायिक और वैवाहिक जीवन स्वयं चुना होता है। लेखकों, संगीतकारों, और फिल्म अभिनेताओं में से अधिकांश की जीवन कथाएं सार्वजनिक हो चुकी हैं। बहुतांश सफल राजनीतिक लोगों ने भी अपना रास्ता स्वयं चुना है। कलाकारों के बारे में तो कहा ही गया है –
लीक लीक गाड़ी चले, लीकहि चले कपूत
लीक छांड़ तीनों चलें, शायर, सिंह सपूत
बुद्ध ने कहा ही है- अप्प दीपो भव। अर्थात अपने दीपक स्वयं बनो।
रजनीश ने एक बार अपने भाषण में कहा था कि किसी महापुरुष के पद चिन्हों पर चलने की कोशिश मत करो। महापुरुष ज़मीन पर नहीं चलते वे तो वायु मार्ग से गति करते हैं इसलिए उनके पद चिन्ह कहीं नहीं बनते। उनके लक्ष्य पर जाने के लिए स्वयं में पंख पैदा करने होते हैं।  
कृषि प्रधान समाज में पिता की आज्ञा मानने के पीछे उत्पादन के साधनों की विरासत पाने का लालच या उससे वंचना का डर भी रहता रहा है। अवज्ञा पर उन साधनों से वंचित होना पड़ सकता है। पुत्र से नाराज पिता अपनी कृषि भूमि और अन्य सम्पत्ति से पुत्र को वंचित भी कर सकता है। जब व्यक्ति श्रमिक बनता है तो वह परिवार से तो स्वतंत्रता अर्जित कर लेता है किंतु उसे मालिकों का गुलाम बनना पड़ता है, और उनके आदर्शों का अनुसरण करना होता है। दूसरी ओर जब समाज में वृद्धावस्था पेंशन न हो व स्वयं काम करने में असमर्थ होने पर उसे अपनी जिन्दगी खतरे में दिखाई देती हो तब उसे संतति के सहारे की जरूरत होती है। वह अर्जित सम्पत्ति के सहारे अपने बच्चों को आजीवन गुलाम बना कर रखना चाहता है व अपने जीवन आदर्श ही पालन करवाना चाहता है। यदि सबको वृद्धावस्था पैंशन हो और स्वास्थ का बीमा हो तो वह अपने बच्चों को आज़ादी दे सकता है। जब बच्चे शिक्षित हो कर अपने पैरों पर खड़े हो जाते हैं तब वे अपना निवास स्थल या अपना जीवन साथी स्वयं चुनते हैं। वे माँबाप के अहसानों को आजीवन गुलाम बन कर नहीं चुकाना चाहते अपितु अपनी तरह उनकी जरूरी वस्तुएं उपलब्ध कराने के बाद भी सैद्धांतिक समझौता नहीं करते और न ही इमोशनली ब्लेकमेल होना चाहते हैं।
जो युवा अपना स्वतंत्र विकास चाहते हैं उन्हें परिपक्व होने के बाद माँबाप की आज्ञा मानने के आदर्श वाक्य से मुक्त होना पड़ेगा। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने वानभट्ट की आत्मकथा में कहा है-  किसी से भी नहीं डरना, गुरु से भी नहीं, मंत्र से भी नहीं, लोक से भी नहीं, वेद से भी नहीं।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अक्टूबर 13, 2017

जनान्दोलनों का विकृतीकरण

जनान्दोलनों का विकृतीकरण
वीरेन्द्र जैन
सुप्रसिद्ध लेखक व वामपंथी विचारक राजेन्द्र यादव ने अपने एक सम्पादकीय आलेख में कुछ इस तरह लिखा था कि हमारे विरोधी कई तरह के हथकण्डे स्तेमाल करते हैं। पहले वे विरोध करते हैं पर जब उसमें सफल नहीं हो पाते तब हमारे विचार को विकृत करके पेश कर नफरत पैदा करते हैं, और उसमें भी सफल न हो पाने पर वे विलीनीकरण करते हुए कहते हैं कि हमारा रास्ता तो एक जैसा है और हमारी भाईबन्दी है। उन्होंने बुद्ध धर्म का उदाहरण देते हुए बताया था कि एक समय उनका बहुत विरोध किया गया यहाँ तक कि हिंसक संघर्ष में उनके हजारों मठ नष्ट कर दिये गये व मूर्तियां तोड़ दी गयीं। उसके बाद विकृतीकरण का दौर आया और तरह तरह से उनके नियमों आचरणों का मखौल बनाया गया। बुद्धू शब्द भी बुद्ध को विकृत करके जन्मा है। पर उसके बाद बुद्ध को विष्णु के अवतार के रूप में मान्यता दे दी गयी और उनको विलीन करने की कोशिश की गयी। उल्लेखनीय है कि अभी हाल ही में भाजपा के एक सांसद मेघराज जैन ने जैन धर्माबलम्बियों को अल्पसंख्यक घोषित किये जाने को एक षड़यंत्र बताते हुए उसे हिन्दू धर्म की ही एक शाखा बताया व मांसाहारियों के साथ अल्पसंख्यक होने की घोषणा को वापिस लेने की मांग की है। रोचक यह है कि इसी दौरान उन्हीं के राज्य के एक विधायक ने स्लाटर हाउस के विरोधियों को जबाब देते हुए कहा कि देश का अस्सी प्रतिशत हिन्दू भी मांसाहारी है, उसके बारे में भी सोचो।
अब आये दिन देखा जाने लगा है कि मजदूरों, कर्मचारियों के आन्दोलन में जलूस धरने प्रदर्शन की जगह कुछ लोग सामूहिक सद्बुद्धि यज्ञ हवन या भजन कीर्तन करने लगे हैं। यह बात अलग है कि अगर प्रबन्धन और श्रमिक संगठनों के बीच पहले से सांठ गांठ न रही हो तो ऐसे धार्मिक आयोजनों के प्रभाव में कभी कोई मांग पूरी नहीं हुयी है। ऐसे आयोजनों के पीछे एक और कूटनीति छुपी होती है और वह है मजदूरों के बीच में साम्प्रदायिक विभाजन कराना। जब एक धर्म विशेष की पूजा पद्धति को आन्दोलन का हिस्सा बनाया जायेगा तो श्रमिक एकता में विभाजन को रोका नहीं जा सकेगा। इसका ही परिणाम हुआ है कि कई प्रबन्धकों ने एक धर्म विशेष के लोगों को कार्यालय के समय में उपासना के लिए छुट्टी दे कर विभाजन के बीज बो दिये हैं जबकि होना यह चाहिए था कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य के कार्यालयों/ कारखानों में समस्त उपासनाएं उनके व्यक्तिगत समय में ही सीमित होना चाहिए और भक्ति या नौकरी में से किसी एक का चुनाव करने का नियम कठोरता से लागू होना चाहिए। देखने में यह बहुत मामूली सी सुविधा लगती है पर इसका प्रभाव दूरगामी होता है।
हिन्दू पुराणों में दुनिया के निर्माण के लिए एक देवता का उल्लेख आया है जिन्हें विश्वकर्मा का नाम दिया गया है। बाद में तो देश की कुछ श्रमिक जातियों जैसे लोहार, बढई आदि ने अपना जातिनाम विश्वकर्मा रखना शुरू कर दिया। दुनिया में रूस की क्रांति के बाद जब मजदूरों किसानों का महत्व पहचाना गया तब अमेरिका के शिकागो से शुरू हुये मई दिवस [मजदूर दिवस] का आयोजन हमारे देश में भी जोर शोर से होने लगा। श्रमिकों के बीच कम्युनिष्ट पार्टी से जुड़े मजदूर संगठनों की लोकप्रियता भी बढने लगी। हमारे देश के पहले संसदीय चुनावों में कम्युनिष्ट पार्टी मुख्य विपक्षी पार्टी की तरह उभरी थी। जब दुनिया में शीत युद्ध का दौर आया तो कम्युनिष्ट पार्टियों के समानांतर दक्षिणपंथी पार्टियों को उभारा गया। इनमें आरएसएस की पृष्ठभूमि वाली जनसंघ जो बाद में भाजपा की तरह अवतरित हुयी मुख्य दक्षिणपंथी पार्टी की तरह सामने आयी। इसने वामपंथी श्रमिक संगठनों के समानांतर अपने श्रमिक संगठन बनाये जो भारतीय मजदूर संघ के बैनर तले गठित किये गये। इस संघ ने कालांतर में मई दिवस के समानांतर विश्वकर्मा दिवस मनाना शुरू कर दिया व धार्मिक प्रतीक के साथ जुड़े होने के कारण हिन्दू मजदूरों में सहज लोकप्रियता प्राप्त कर ली। वैसे तो पुराणों में विश्वकर्मा जयंती दीवाली त्योहर के अगले दिन होने का उल्लेख आया है किंतु समस्त कार्यालयीन कार्य ग्रेगेरियन कलेंडर के हिसाब से होने के कारण उसे प्रतिवर्ष 17 सितम्बर को मनाया जाने लगा व भारतीय मजदूर संघ की मांग पर प्रबन्धन ने उस दिन छुट्टी भी घोषित कर दी। इस तरह मजदूरों के बीच धार्मिक आधार पर भेद पैदा कर दिया गया। नई इकाइयों के प्रारम्भ करने में हिन्दू विधि से पूजा पाठ करने, भूमि पूजन करने आदि की परम्परा ने भी जोर पकड़ा।
धर्मनिरपेक्ष समाज में साम्प्रदायिक आधार पर विभाजन के बीज बोने के बारीक काम तो बहुत सारे होते रहे जो तुरंत समझ में नहीं आते किंतु इनके परिणाम दूरगामी होते हैं, जैसे कि ईसाई मिशनरियों द्वारा संचालित स्कूलों की लोकप्रियता के समानांतर संघ ने शिक्षण संस्थाएं संचालित करना प्रारम्भ कीं और अपने स्कूलों का नाम सरस्वती शिशु मन्दिर रखा। विद्यालय की जगह मन्दिर का नामांकरण किसी संस्था को धर्म विशेष से जोड़ देने का महीन खेल था, जिसमें दोपहर के भोजन अवकाश के समय भोजन मंत्र का पाठ किया जाना अनिवार्य था। बाद में इनकी सरकारें बन जाने पर तो समस्त योजनाओं का नामांकरण ही इस तरह से किया जाने लगा जिसमें धर्म विशेष से सम्बन्ध प्रकट होता था। सत्ता के सुख भोगते रहने तक काँग्रेस इस के प्रति उदासीन रही।
मजदूरों के विभिन्न संगठनों में बँट जाने के बाद भी उनमें धार्मिक और जातियों के आधार पर भेद हो जाने से उनकी ताकत कमजोर हुयी है। नियमित मजदूरों की संख्या निरंतर कम होती जा रही है व ठेका मजदूरों की संख्या बढ रही है। बेरोजगारी के कारण प्रतियोगिता बढने के कारण भी वे अपनी मांगों के लिए दबाव नहीं बना पाते जिससे प्रबन्धन ही लाभ की स्थिति में रहता है। इन दिनों धर्म के नाम पर श्रम के शोषण के जो खेल चल रहे हैं उन्हें समझने की जरूरत है। गौरक्षा, घर वापिसी, मन्दिर मस्ज़िद, लव जेहाद, तीन तलाक, धर्म परिवर्तन, आदि ऐसे ही तुरुप के पत्ते हैं जो विभिन्न तरह के आन्दोलनों के खिलाफ पटक दिये जाते हैं जिन्हें खरीदा हुआ मीडिया हवा देता रहता है।
सरकारी मशीनरी और लोकतांत्रिक स्तम्भों/ संस्थाओं को पूर्ण धर्म निरपेक्ष बनाये बिना शोषण की शक्तियों से मुकाबला कठिन है।   
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, अक्टूबर 05, 2017

दलितों का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू होता है अब ...

दलितों का स्वतंत्रता आन्दोलन शुरू होता है अब ...
वीरेन्द्र जैन

देश की अंग्रेजों से स्वतंत्रता चाहने वाले दूसरे लोगों की तरह स्वतंत्रता आन्दोलन में अम्बेडकर अंग्रेजों से तुरंत आज़ादी के पक्षधर इसलिए नहीं थे क्योंकि उस मांग में दलितों को सवर्णों की गुलामी से मुक्ति पाने की स्पष्टता नहीं थी। उनका सही सवाल था कि यह आज़ादी किसको मिलेगी? जब तक देश में जातिभेद है तब तक जिनके हाथों में सत्ता आयेगी वे दलितों को समान नागरिक का दर्जा भले ही दे दें पर समाज में बराबरी की हैसियत हासिल नहीं करने देंगे। दूसरी ओर सामंती समाज में गाँधीजी अछूत उद्धार के कार्यक्रम इतनी सावधानी से चला रहे थे ताकि स्वतंत्रता आन्दोलन में समाज की एकता बनी रहे। वे चाहते थे कि अम्बेडकर द्वारा समर्थित अंग्रेजों द्वारा जातिवाद की विसंगति को उभारने वाला अलग निर्वाचन क्षेत्र का कानून लागू न हो।
जैसा कि प्रचारित किया जाता है, उसके विपरीत महात्मा गाँधी ने अनशन के हथियार का प्रयोग अंग्रेजों के खिलाफ नहीं किया था अपितु अपने लोगों के मानस को बदलने के लिए ही किया था। ऐसा ही एक अनशन उन्होंने यरवदा जेल में रहते हुए अम्बेडकर की दलितों के अलग निर्वाचन क्षेत्र की मांग के खिलाफ किया था। असहमत होते हुए भी अम्बेडकर ने देश भर के राष्ट्रीय नेताओं के आग्रह पर यह मांग इसलिए वापिस ले ली थी क्योंकि वे गाँधीजी के जीवन को महत्वपूर्ण मानते थे। इसे इतिहास में पूना पैक्ट के नाम से जाना जाता है। 26 सितंबर 1932 को गांधी जी ने, कवि रवींद्रनाथ ठाकुर तथा अन्य मित्रों की उपस्थिति में संतरे का रस लेकर अनशन समाप्त कर दिया था। इस अवसर पर भावविह्वल कवि ठाकुर ने स्वरचित "जीवन जखन शुकाये जाय, करुणा धाराय एशो" यह गीत गाया। गांधी जी ने अनशन समाप्त करते हुए जो वक्तव्य प्रकाशनार्थ दिया, उसमें उन्होंने यह आशा प्रकट की कि, "अब मेरी ही नहीं, किंतु सैकड़ों हजारों समाजसंशोधकों की यह जिम्मेदारी बहुत अधिक बढ़ गई है कि जब तक अस्पृश्यता का उन्मूलन नहीं हो जाता, इस कलंक से हिंदू धर्म को मुक्त नहीं कर लिया जाता, तब तक कोई चैन से बैठ नहीं सकता। यह न मान लिया जाए कि संकट टल गया। सच्ची कसौटी के दिन तो अब आनेवाले हैं।"    
समाज का पीड़ित पक्ष संगठन में कमजोर और बिखरा हुआ भी होता है और ज्यादातर अवसरों पर वह अपनी लड़ाई लड़ने की हिम्मत, संसाधन और रणनीति भी खुद नहीं बना पाता, जबकि उत्पीड़क पक्ष अधिक साहसी साधन सम्पन्न और तर्क सम्पन्न होता है, उसे परम्परा का बल मिला होता है। यही कारण है कि पीड़ित पक्ष के बहुत सारे आन्दोलनों की भूमिका उनसे सहानिभूति रखने वाले भिन्न पक्ष ने लिखी होती है। दलितों के मसीहा अम्बेडकर की प्रतिभा को निखारने में मदद करते हुए उनकी वैचारिक स्वतंत्रता बनाये रखने में बड़ोदा के महाराज सियाजीराव गायकवाड़ की भूमिका को नकारा नहीं जा सकता।
आज़ादी के बाद लिखे संविधान में दलितों के उत्थान के लिए जो आरक्षण की व्यवस्था की गयी थी उसने जातिवाद के उन्मूलन में तो वांछित भूमिका नहीं निभा पायी किंतु सत्तर सालों में इतना चेतना सम्पन्न अवश्य  कर दिया कि वे अब अपने समान मानवीय अधिकारों की बात सोच सकते हैं। प्रारम्भ में जब उन्हें आरक्षण मिला तब शिक्षा में प्रवेश व नौकरी आदि के लिए प्राथमिक योग्यता की अनिवार्ताएं वही रहीं जिन्हें प्राप्त करने का अवसर ही उनके समाज को नहीं मिला था, इसलिए योग्य उम्मीदवार के न मिलने को आधार बना कर रिक्त स्थानों को सवर्ण अधिकारियों ने गैरआरक्षित वर्ग से भर लिया। बहुत बाद में यह व्यवस्था आयी कि आरक्षित पदों को तब तक खाली रखा जायेगा जब तक कि उसी वर्ग में से वांछित योग्यता वाले उम्मीदवार नहीं मिल जाते। संसद और विधानसभाओं में भी बहुत सारी आरक्षित सीटों पर पूर्व राजा महाराजा या सवर्ण नेताओं के आरक्षित वर्ग के सेवकों को भेजा जाता रहा। सदन की कार्यवाही की रिपोर्टें बताती हैं कि सदन की बहस में उनको कितने कम अवसर मिल सके हैं। आज़ादी के तीस-चालीस साल बाद जब साधन हीन दलितों की पहली शिक्षित पीढी सामने आयी उसी समय से आरक्षण का सक्रिय विरोध भी शुरू हो गया।
आरक्षण ने सभी कार्यालयों में निश्चित संख्या में आरक्षित वर्ग की उपस्तिथि तय करने का प्रारम्भिक काम किया। सवर्णों के वर्चस्व वाले इन कार्यालयों में आरक्षित वर्ग से आये कर्मचारियों के साथ जो नफरत और उपेक्षा बरती गयी उससे पीड़ित लोगों की आवाज बन कर कांसीराम उभरे। वे इसलिए आगे बढ सके क्योंकि एक निश्चित स्थान पर निश्चित संख्या में थोड़ा पढा लिखा, पीड़ित वर्ग उपलब्ध था जिसके साथ संवाद किया जा सकता था और उसका सहयोग लिया जा सकता था। इसमें मिली सफलता के बाद ही वे बामसेफ, डीएसफोर से गुजरते हुए बहुजन समाज पार्टी के गठन तक पहुँचे और जब तक यह पार्टी भटक नहीं गयी तब तक दलितों के आन्दोलन की बड़ी संस्था बनी रही। वंचित वर्ग के भटकने और चकाचौंध में दृष्टि खो देने की सम्भावनाएं भी अधिक रहती हैं। मायावती के बाद उदितराज और रामदास अठावले आदि की भटकनें इसका उदाहरण हैं।  
पिछले दिनों दलितों के शिक्षित और नाराज युवकों की जो पीड़ी सामने आयी है वह दलितों की आज़ादी का एक नया इतिहास लिखने जा रही है। वे जानते हैं कि उनके वर्ग के लोग प्रत्येक कार्यालय, संसद, विधान सभा व शिक्षण संस्थानों में हैं। जे एन यू और हैदराबाद विश्वविद्यालय में उनके छात्र संगठन का उभार हो या गुजरात में जिग्नेश व पश्चिमी उत्तर प्रदेश में चन्द्रशेखरउर्फ रावण की भीम सेना का उभार हो, वे अपने अधिकारों को कटोरा लेकर नहीं मांग रहे अपितु टेबिल ठोक कर लेना चाह रहे हैं। गुजरात, आन्ध्रप्रदेश, उत्तरप्रदेश, तामिलनाडु, महाराष्ट्र, आदि स्थानों पर वे टकराव की स्थिति में हैं तथा दूसरे अन्य स्थानों में भी वे पीछे नहीं हैं। वे बार बार विभिन्न स्थानों पर धर्म बदल कर चुनौती दे रहे हैं, और भाजपा कानून का समरण कराने का साहस भी नहीं दिखा पा रही।।
भाजपा ने उनकी चुनौती को समझा है इसलिए वह दो तरह की रणनीतियों पर काम कर रही है एक ओर तो वह दलित नेतृत्व को पदासीन कर रही है जैसे कि राष्ट्रपति पद पर श्री रामनाथ कोविन्द को बैठाना, दूसरी ओर वह आदिवासियों को दलितों से दूर करने के लिए उन्हें विशेष महत्व दे रही है। पिछले दिनों मध्यप्रदेश में एक आदिवासी महिला को राज्यसभा में भेजा गया है। वे आरक्षण को खतरे की तरह चित्रित कर रहे हैं और सवर्णों की बेरोजगारी को आरक्षण से जोड़ कर उन्हें भड़काकर अपना सवर्ण वोट बैंक मजबूत करने में लगे हैं। आरएसएस प्रमुख ने चुनावों से पहले आरक्षण की समीक्षा का बयान दे कर सवर्णों को सांत्वना दी थी। भाजपा के पास जुटाये हुए दलित नेता तो हैं किंतु स्वाभाविक रूप से उभरा दलित नेतृत्व नहीं है। यह हो भी नहीं सकता क्योंकि उनके हिन्दुत्व का स्वरूप दलितों को डराता है। मृत जानवरों के चमड़े का काम करने वाला दलित भयभीत है और अपना धन्धा चौपट हो जाने के कारण गुस्से में है।
आगामी गुजरात चुनाव में इसका परिणाम दिखाई देगा। 
 वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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रविवार, सितंबर 24, 2017

फिल्म समीक्षा ; न्यूटन वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समाज की स्थापना में चुनौतियां

फिल्म समीक्षा ; न्यूटन
वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले समाज की स्थापना में चुनौतियां
वीरेन्द्र जैन
फिल्म मीडिया ऐसा बहु आयामी कला माध्यम है जो कथा/ घटना, दृश्य, अभिनय, गीत, संगीत, तकनीक आदि के माध्यम से जो प्रभाव पैदा करती है वह जरूरी नहीं कि किसी सम्वाद के शब्दों में सुनायी देता हो। न्यूटन भी ऐसी ही एक नायक प्रधान फिल्म है जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, प्रशासनिक, आदि बहुत सारे विषयों को एक घटना कथा के माध्यम से समेटा गया है, जो देखने में साधारण लगती है।
राजकुमार राव इस फिल्म के नायक हैं जो न्यूटन नाम के युवा पात्र के रूप में सामने आये हैं। देश में आज़ादी के बाद जो विकास हुआ उसमें बहुत सारे परिवार निम्न आर्थिक वर्ग से उठकर मध्यम वर्ग में सम्मलित हुए हैं। इन परिवारों में पीढियों के अंतराल के कारण या तो घुटन पैदा हुयी है या टकराव पैदा हुआ है। कथा नायक का नाम उसके परिवार द्वारा नूतन [कुमार] रखा गया था पर उसी दौर में नूतन के नाम से कुछ महिलाएं इतनी लोकप्रिय हुयीं कि पुरुषों को यह नाम रखने में शर्म आने लगी। यही कारण रहा कि कथानायक ने स्वयं ही नू को न्यू और तन को टन करके अपना नाम न्यूटन कर लिया। इस तरह उसने नामकरण के पिता के परम्परागत अधिकार के विरुद्ध पहला विद्रोह किया। बाद में माँ बाप की इच्छा के विरुद्ध, एक कम शिक्षित, अल्पवयस्क, लड़की से शादी करने से इंकार करके दूसरा विद्रोह किया।
नियमों और आदर्शों के लिए किये गये छोटे छोटे विद्रोह ही जब परम्परा की गुलामी को तोड़े जाते हैं तभी देश और समाज की जड़ता को तोड़ने वाले विद्रोहों की हिम्मत आती है।
चुनाव का प्रशिक्षण देने वाला प्रशिक्षक जब उसके बार बार सवाल पूछने से खीझ कर उसका नाम पूछता है और न्यूटन बताने पर वह उसे समझाता है कि न्यूटन ने केवल गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत ही नहीं खोजा अपितु यह भी खोजा कि प्रकृति के जो नियम होते हैं वे सभी के लिए समान होते हैं चाहे वह किसी भी आर्थिक वर्ग का व्यक्ति हो। वैज्ञानिकता समानता का सन्देश भी देती है।
फिल्म की कथा में कथा-नायक जो कलैक्टर कार्यालय में बाबू है, को चुनावी ड्यूटी में रिजर्व में रखा जाता है किंतु जब प्रिसाइडिंग आफीसर के रूप में नक्सल प्रभावित दण्डकारण्य़ में जाने से नियमों का ज्ञान रखने वाला एक बाबू तरह तरह के बहाने बना कर मना कर देता है तो कथानायक को वहाँ भेजा जाता है। उसके साथ में जो दूसरे सहयोगी जाते हैं वे ढुलमुल चरित्र के लोग हैं जो बयार के साथ बह कर निजी हित और निजी सुरक्षा की चिंता करने वाले लोग हैं, भले ही देश और नियमों के साथ कोई भी समझौता किया जा रहा हो। कथा-नायक इनसे भिन्न है।
यह फिल्म बताती है कि हमारे लोकतंत्र की सच्चाई क्या है और हम सारे दुनिया के सामने सबसे बड़े लोकतंत्र का जो ढिंढोरा पीटते हैं उसके मतदाता की चेतना और समझ कितनी है। बड़े बड़े कार्पोरेट घरानों द्वारा खनिजों और वन उत्पाद के मुक्त दोहन के लिए नक्सलवाद का जो हौआ खड़ा कर दिया गया है, उससे सुरक्षा के नाम पर पूरे क्षेत्र में अर्धसैनिक बल तैनात हैं जो आदिवासियों का शोषण तो करते ही हैं उन्हें दबा कर भी रखते हैं। नक्सलियों के आतंक के नाम पर चुनाव का ढोंग किया जाता है व भयभीत चुनाव अधिकारियों को वहाँ जाने से रोक कर सुरक्षित नकली पोलिंग करा ली जाती है। कथा नायक से भी यही अपेक्षा की जाती है किंतु स्वभाव से विद्रोही और निर्भय कथा नायक हर हाल में नियमानुसार काम करने के लिए दृढ संकल्प है इसलिए उसकी सुरक्षा अधिकारियों से टकराहट होती है। इसमें उसके सारे सहयोगी निजी सुरक्षा और हित को दृष्टिगत रखते हुए व्यवस्था का साथ देते हैं जिस कारण वह अकेला पड़ जाता है। उससे केवल एक स्थानीय आदिवासी लड़की टीचर सहमत नजर आती है जो बूथ लेवल आफीसर के रूप में ड्यूटी पर है। विदेशी पत्रकार को दिखाने के लिए आदिवासियों को जबरदस्ती पकड़ कर बुलवाया जाता है, जिन्हें न तो वोट डालना आता है न ही वे चुनाव का मतलब ही समझते हैं व पूछते रहते हैं कि इससे फायदा क्या है। उस क्षेत्र में स्कूल और घर जला दिये गये हैं, युवा दिखायी नहीं देते केवल वृद्ध व महिलाएं दिखती हैं। बीएलओ लड़की बताती है कि गाँव वालों को पुलिस की बात मानने पर नक्सली परेशान करते हैं और नक्सली की बात मानने पर पुलिस परेशान करती है। नियम से काम करने वाला सनकी नजर आता है, जिससे धारा के साथ बहने वाले सभी असंतुष्ट रहते हैं, उसके हाथ केवल समय की पाबन्दी का प्रशंसा पत्र रहता है जबकि व्यवस्था का साथ देने वालों का परिवार माल में मंहगी शापिंग करता नजर आता है।
राज कुमार राव, अमरीशपुरी, ओमपुरी, नसीरुद्दीन शाह, शबाना आज़मी, नवाजुद्दीन सिद्दीकी, जैसे आम आदमी के चेहरे वाले बेहतरीन कलाकार हैं और इस फिल्म में भी उन्होंने अपनी प्रतिभा को कायम रखा है। उनके साथ पंकज त्रिपाठी, और अंजलि पाटिल भी भूमिकाओं के अनुरूप अपने अभिनय से प्रभावित करते हैं। लेखक निर्देशक अमित वी मसूरकर ने फिल्म को जिस लगन से बनाया है उसी का परिणाम है कि फिल्म को 67वें बर्लिन फिल्म फेस्टिवल और ट्रिबेका फिल्म फेस्टिवल के लिए चुना गया है। इसे 90वें अकेडमी अवार्ड के लिए श्रेष्ठ विदेशी भाषा के वर्ग में चुना गया है। फिल्म को आस्कर अवार्ड के लिए 2018 के लिए नमित किया गया है। केन्द्र सरकार ने भी पहली बार किसी फिल्म को एक करोड़ रुपये का अनुदान देने का फैसला किया है। फिल्म में छत्तीसगढ के जंगलों का सौन्दर्य प्रभावित करता है।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, सितंबर 19, 2017

[जिन्दगी से-] धर्म के खेल धर्म से खेल

[जिन्दगी से-]
धर्म के खेल धर्म से खेल
वीरेन्द्र जैन












पिछले दिनों म्याँमार में रोहंगिया मुसलमानों के साथ बौद्धों की मारकाट के जो भयावह दृश्य मीडिया में देखने को मिले उससे फिर यह प्रश्न कौंधा कि धर्म मनुष्य के लिए है या मनुष्य धर्म के लिए? इससे पहले आईएसआईएस ने तो दूसरे धर्म के साथ अपने ही धर्म की दूसरी शाखा वाले लोगों के साथ यही व्यवहार किया था। हमारे देश में भी कुछ लोग इस तरह की कट्टरता के प्रशंसक हैं और वे अपने धर्म के लोगों को ऐसे बनने के लिए प्रोत्साहित करते रहते हैं।
इन घटनाओं से कुछ स्मृतियां कौंध गयीं।
छतरपुर जिले में एक कवि और सोशल एक्टविस्ट थे श्री रामजी लाल चतुर्वेदी। वे एक सरकारी स्कूल में अध्यापक भी थे, कविताएं लिखते थे, अच्छे पाठक थे, व प्रगतिशील लेखक संघ के प्रत्येक राष्ट्रीय, प्रादेशिक, या स्थानीय आयोजन में अनिवार्य रूप से उपस्थित रहते थे। हिन्दी व अंग्रेजी दोनों भाषाओं का उन्हें ज्ञान था किंतु अपने क्षेत्र में वे ठेठ बुन्देली बोलते थे और उस बुन्देली भाषा व मुहावरे में राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर सटीक व मारक टिप्पणी करने के लिए जाने जाते थे। वे मुँहफट थे और बिना किसी लाग लपेट के किसी से भी निःसंकोच रूप से अपनी बात कह सकते थे, यही कारण था कि उनसे बात करने में राजनेता, अधिकारी, व साहित्यकार सभी घबराते थे। वे मान अपमान की परवाह नहीं करते थे व पहनावे के प्रति लापरवाह थे। अम्बेडकर को पूरा पढा था व छतरपुर जैसे सामंती क्षेत्र में दलितों के बीच उनका निःस्वार्थ, उल्लेखनीय काम था। अनेकों दलितों को उन्होंने बाबा साहब अम्बेडकर के पुजारी बनने के बजाय उनके विचारों को जानने व समझने के लिए प्रेरित किया था। चतुर्वेदी जी कर्मठ थे और जितना विचार से जुड़े थे उतना ही कर्म से भी जुड़े थे। छतरपुर में अभी भी ठाकुरशाही का आतंक व्याप्त है, जिससे टकराने के लिए उनकी अनेक युक्तियां और घटनाएं चर्चित हैं जिनमें से एक है धर्म परिवर्तन की धमकी। जिस गाँव के दलित ठाकुरों के आतंक से पीड़ित होकर गाँव छोड़ने की तैयारी कर रहे होते थे, उन्हें एकत्रित कर वे बयान दिलवाते थे कि इतनी संख्या में दलित फलाँ तारीख को धर्म परिवर्तन करने जा रहे हैं। इससे न केवल प्रशासन सक्रिय हो जाता था अपितु धर्म के ठेकेदार तक चौंक जाते थे और उन्हें समझाने के लिए खुद चल कर आने लगते थे। इससे उनकी समस्याएं सुनी जाती थीं। वे मानते थे कि धार्मिक समुदाय डरे हुये हैं, और इन गरीबों दलितों को धर्म से शोषण के सिवाय और क्या मिलता है। इसके लिए वे बाबा साहब के धर्म परिवर्तन का उदाहरण रखते थे। वैसे वे कहते थे कि सामने वाला जिससे ज्यादा डरता है, उसी का भय पैदा करना चाहिए इसलिए वे दलितों से कभी मुसलमान, कभी ईसाई तो कभी बौद्ध बनने की घोषणाएं कराते रहते थे। वे सिखाते थे कि धर्म को तो कपड़ों की तरह बदलते रहना चाहिए। एक बार एक आयोजन के दौरान किसी ब्राम्हणवादी कवि ने उनके नाम में चतुर्वेदी होने के नाते निकट आने की कोशिश की तो उससे वे बोले कि गोत्र तो हमारा चतुर्वेदी है पर हमें जाति से निकाल दिया गया था क्योंकि परिवार में कुछ ऊँच नीच हो गयी थी। उनके ऐसे ही सैकड़ों किस्से हैं, जो रोचक भी हैं, और प्रेरक भी।
ग्वालियर के एक कवि थे किशन तलवानी। वैसे तो वे सिन्धी व्यापारी थे किंतु उन्हें श्री मुकुट बिहारी सरोज के मित्र के रूप में लोग अधिक जानते थे। कहा जाता है कि अगर दोनों लोग शाम को ग्वालियर में हों तो उनका मिलना जरूरी था। यह बात अलग है कि दोनों लोग आपस में खूब लड़ते थे और यह लड़ाई अगली सुबह खत्म हो जाती थी। किशन तलवानी की एक प्रसिद्ध कविता है-
मैंने कहा मार्क्स सही,
उसने कहा गाँधी सही,
मैंने फिर कहा मार्क्स सही
उसने फिर कहा गाँधी सही, गाँधी सही,
मैंने फिर कहा मार्क्स सही, मार्क्स सही, मार्क्स सही,
उसने मारा मुझे चाँटा
मैंने कहा गाँधी पिट गये,
अब ये बात कल पर रही
दरअसल विचार के बीच हिंसा का आना ही उसे शुरू करने वाले की पराजय है। म्याँमार में बौद्धों ने बौद्ध भेषभूषा में बच्चों, महिलाओं के साथ जो निर्मम हिंसा की उससे बौद्ध धर्म को ही पराजय मिली है। अगर रोहंगिया मुसलमानों ने कुछ किया था तो उसको रोकने व यथोचित दण्ड देने का काम वहाँ के शासन, प्रशासन का था, न कि अहिंसा का नारा देने वाले बौद्ध धर्म के गुरुओं का। जिस धर्म को हिंसा का सहारा लेना पड़े तो मान लेना चाहिए कि उसका विचार कमजोर है व वहाँ का शासन कमजोर है, या गलत हाथों में है। म्याँमार में बुद्ध हार गये।
मेरे एक मुस्लिम मित्र थे जो वैसे तो शाह खर्च थे किंतु पैसे से तंग रहते थे। शाम की पार्टी में जितना भी पास में होता उसे खुले दिल से खर्च करते थे। मैं अपनी हिसाबी बुद्धि से उन्हें मितव्यता का पाठ पढाता तो वे कहते थे कि मेरी पूंजी तुम नहीं जानते, जब ज्यादा संकट आयेगा तो अपने धर्म का सौदा कर लूंगा। चूंकि देश में मेरा नाम है इसलिए मेरा धर्म भी ठीक ठाक दामों में बिकेगा क्योंकि खरीदने वाले को ज्यादा फायदा होगा। मुझसे कहते थे कि अगर तुम्हारे धर्म में कोई ठीक ठाक सा व्यापारी हो तो उससे बात करके देखना। वे मानते थे कि सारे धर्म संकट में हैं, इसलिए धर्म से निकालने की घटनाएं नहीं हो रही हैं, पर उसमें शामिल करने की घटनाएं जरूर बढ रही हैं। बाज़ार के इस युग में व्यापार का राज यह है कि जिसके पास जो कुछ है उसे अच्छे दामों में बेचने की कोशिश करना चाहिए। समझदार लोग यही कर भी रहे है। 2011 की जनगणना में इंगलेंड में नास्तिक लिखाने वालों की संख्या आश्चर्यजनक रूप से बढ चुकी है जिससे ईसाई परेशान हैं। प्रतिदिन वहाँ के समाचार पत्रों में चर्चों के भवन बेचने के विज्ञापन छपते हैं।  
डरा हुआ धर्म ही हिंसक हो जाता है क्योंकि धर्म का धन्धा व उसमें प्रतियोगिता बहुत बढ चुकी है। आशाराम, रामपाल, रामरहीम, हों या रजनीश या साँईबाबा के भक्त सब पुराने धर्म से विचलित होकर भी इतनी विशाल संख्या में अनुयायी बना ले रहे हैं यह संकेतक है। धर्म के क्षेत्र में जो भीड़ दिखायी देती है वह या तो पर्यटन प्रेमी युवाओं की भीड़ है, या सेवा से रिटायर्ड पुरुषों व घर से रिटायर्ड महिलाओं की भीड़ है। यही कारण है कि धर्म के क्षेत्र में चिकित्सा, या मनोरंजन का स्थान बढता जा रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, सितंबर 14, 2017

हिन्दी दिवस पर - मरती बन्दरिया से खेल दिखाते मदारी

हिन्दी दिवस पर
मरती बन्दरिया से खेल दिखाते मदारी

                                    वीरेन्द्र जैन
              एक होता है हिन्दी दिवस जो भारत वर्ष के हिन्दीभाषी प्रांतों में 14 सितम्बर को मनाया जाता है। इस दिन विद्वान के भेष में दिखने वाले लोग सरकारी गैरसरकारी कार्यालयों में हिन्दी की अवनति पर आँसू बहा कर इस आयोजन के लिए तय बज़ट का व्यय कराने में सहयोगी होते हैं।
                 इस हिन्दी दिवस के साथ हम अगले पचासों हिन्दी दिवसों तक हिन्दी और दूसरी भारतीय भाषाओं के सामाजिक व प्रशासनिक उपयोग में कमी होते जाने का रोना रोयेंगे जो धीरे धीरे एक अवसरगत परम्परा का स्वरूप लेता जायेगा। ऐसा करने वालों में धन्धेवाज़ पत्रकार और हिन्दी भाषा के नाम पर कमाई करने वाले लेखक प्रमुख होंगे जो राजस्थान के रुदालों की तरह अपने अपने रूमाल आँखों से लगाने से पहले फोटोग्राफरों और मीडिया कर्मियों को अपने प्रायोजित कार्यक्रम की सूचना दे देंगे।
       जैसा कि अपने अपने की भावुकता को भुनाने के लिए भाजपा [पूर्व जनसंघ] के जनक राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का नारा उछाल कर देश विभाजन का सूत्रपात किया था, वैसे ही भावुकता के आधार पर हिन्दी के लिए नकली आंसू बहाने वाले भी करने जा रहे हैं। ये दोनों तरह के रोने वाले भाषा के जन्म, प्रचलन, और भविष्य के बारे में वैज्ञानिक दृष्टि से नहीं सोचते। भाषा को संवाद की ज़रूरत पैदा करती है तथा जब तक वह सहज संवाद को बनाने व बनाये रखने में सक्षम रहती है तब तक वह जीवित रहती है और जब हमारे संवाद के पात्र और विषय बदलने लगते हैं तो उसका स्थान कोई नई भाषा लेने लगती है जो सम्बन्धितों के साथ होने वाले संवाद को अधिक सुविधाजनक बना सके। संस्कृत का स्थान हिन्दी और बोलियों का स्थान खड़ी बोली लेती गयी। हम सब जब अपने मूल निवास की ओर जाते हैं तो अपने पुराने मिलने जुलने वालों से वहीं की बोली में बतिया कर खुश होते हैं पर नगर में वापिस आने पर फिर से खड़ी बोली बोलने लगते हैं।
       जब से नई आर्थिक नीतियों के अंतर्गत हम वैश्वीकरण की ओर बढने लगे  हैं तभी से हिन्दी का स्थान अंग्रेज़ी लेने लगी है, जो स्वाभाविक है। हमें जब जिससे संवाद की निरंतरता बनाये रखनी होगी तो उसको सहज रूप से समझ में आ जाने वाली भाषा का प्रयोग करना होगा। विश्व बैंक व अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष से ऋण प्राप्त करने के लिए अंग्रेज़ी की ही ज़रूरत पड़ेगी जबकि देश के राष्ट्रीयकृत बंकों से ऋण लेने वालों को हिन्दी में फार्म उपलब्ध कराये जाते हैं।
       स्मरणीय है कि 1970 से बाद के दो दशकों में सरकारी कार्यालयों में हिन्दी का तेज़ी के साथ विकास हुआ। यह वह दौर था जब श्रीमती इन्दिरा गान्धी को कांग्रेस के अंदर अमेरिका परस्त गुट से मुक़ाबला करना पड़ा व आत्मरक्षार्थ उन्हें कांग्रेस से बाहर निकालना पड़ा। इस विभाजन से आये अभाव को पूरा करने के लिए उन्हें बामपंथियों से समर्थन माँगना पड़ा, जिन्होंने बैंकों, बीमा कम्पनियों, समेत अनेक जनोपयोगी संस्थानों का राष्ट्रीयकरण चाहा और सार्वजनिक क्षेत्र के विकास को प्राथमिकता पर रखने की सलाह दी। बैंक आदि जब आम आदमी के हितार्थ गाँव गाँव पहुँचे व अनेक तरह की गरीबी उन्मूलन वाली योजनाओं के सहयोगी बने तो उन्हें आम आदमी की भाषा में काम करने के लिए विवश होना पड़ा। यही वह समय था जब बहुत बड़ी संख्या में हिन्दी अधिकारी और अनुवादक नियुक्त हुये। प्रत्येक कार्यालय में हिन्दी के टाइपराइटर आये और परिपत्र हिन्दी में ज़ारी होने लगे। आम आदमी की योजना से जुड़े विज्ञापन हिन्दी में ज़ारी करने पड़े। सरकारी कार्यालयों में नौकरी पाने के इच्छुक लोगों ने हिन्दी सीखना चाही। कुल मिला कर कहने का अर्थ यह कि जब सरकार ने जनता से संवाद करना चाहा तब उसे उसकी भाषा को अपनाना पड़ा। आगे भी जब सरकार जनोन्मुखी होना चाहेगी तो वह हिन्दी और दूसरी लोक भाषाओं का प्रयोग करेगी।
       नई आर्थिक नीतियां आने के बाद सरकार सारी दुनिया से बातें करने लगी है जिसके लिए अंग्रेज़ी ज़रूरी है। इन्हीं नीतियों का ज्वलंत प्रमाण यह है कि आर्थिक विकास की दर प्रगति पर है और किसान हज़ारों की संख्या में आत्महत्याएं कर रहे हैं व भूख से मौतें हो रही हैं। समाज से कुछ लोगों को माडल बना कर उन्हें देश और विदेश में नौकरियां दी जा रही हैं व इन नमूनों को जोर शोर से प्रचार दिया जा रहा है। इसका परिणाम यह निकल रहा है कि लाखों मध्यम वर्गीय परिवार अपने बच्चों को मँहगे मँहगे अंग्रेज़ी स्कूलों में भेज रहे हैं और ऐसे स्कूल कुकरमुत्तों की तरह गली गली में खुल रहे हैं। अब फिर से सब कुछ वैसे ही अंग्रेज़ी में होने लगा है जैसे बीच में लोग हिन्दी के प्रति उन्मुख हुये थे। राजनीति अर्थव्यवस्था को प्रभावित करती है और अर्थव्यवस्था समाज की भाषा और संस्कृति को।
                        यह नया भाषायी रुझान देश में एक और विभाजन पैदा कर रहा है जो निम्नवर्ग और मध्यमवर्ग के बीच है। कुछ दिनों बाद एक की भाषा अंग्रेज़ी होगी और दूसरे की हिन्दी। दूसरे देशों में हिन्दी भाषी होने का अर्थ निम्नवर्गीय होना होगा। हिन्दी दिवस के दिन प्रलाप करने वालों ने कभी समस्या के मूल में जाने की ज़रूरत नहीं समझी। उन्हें तो प्रलाप के पैसे लेने हैं ताकि अंग्रेज़ी स्कूल जाने वाले अपने बच्चे की भारी फीस चुका सकें
वीरेन्द्र जैन        
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