उत्तर प्रदेश का
भविष्य और देश
वीरेन्द्र जैन
उत्तर
प्रदेश देश का सबसे महत्वपूर्ण प्रदेश है जिसको लम्बे समय तक देश को नेतृत्व देने
का अवसर मिला है। इस प्रदेश में पिछली विधानसभा में बहुजन समाज पार्टी को पूर्ण
बहुमत मिला था और इस बार समाजवादी पार्टी को बहुमत से सरकार बनाने का अवसर मिला
है। पर यह परिवर्तन प्रदेश को किसी सही दिशा की ओर ले जाने वाला परिवर्तन नहीं बन
पा रहा है। मायावती की सरकार तथाकथित ‘सोशल इंजीनियरिंग’ के कारण बनी थी जिसका सही
मतलब यह था कि बहुजन समाज पार्टी के दलित वोट और सतीश चन्द्र मिश्रा के नेतृत्व
में ब्राम्हणों के वोट एकजुट हो गये जिसमें कुछ मुस्लिम मत मिल जाने से पूर्ण
बहुमत प्राप्त सरकार का गठन हो सका था। पर उन्होंने दलितों के पक्ष में ऐसा कुछ
नहीं किया जिसके लिए बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ था। इस बार के विधानसभा चुनावों
में समाजवादी पार्टी के यादव और कुछ पिछड़ी जातियों के वोटों को मुस्लिमों का
समर्थन मिल गया जिससे उनकी विजय सम्भव हो सकी। उक्त दोनों ही सरकारें जातिवादी
वोटों और सीटों के सही समंवय का परिणाम हैं। चुनाव विश्लेषक भले ही मायावती शासन
काल में घटित कई घोटालों और खराब कानून व्यवस्था को इस चुनाव में उनकी पराजय का
कारण बतलाते रहते हों किंतु सच तो यह है कि बहुजन समाज पार्टी को इस बार पिछले
चुनाव में मिले मतों की तुलना में 37 लाख मत अधिक मिले थे, पर अधिक मतदान और सही
गठबन्धन से समाजवादी पार्टी को अपेक्षाकृत अधिक मत मिल जाने के कारण उन्हें सरकार
बनाने का अवसर मिल गया। सत्ता के इन परिवर्तनों से केवल सत्तारूढ होने वाली पार्टी
ही बदली पर व्यवस्थागत परिवर्तन के कोई संकेत नहीं मिले।
चुनावों
के दौरान समाजवादी पार्टी को भी भरोसा नहीं था कि उसे पूर्ण बहुमत मिल जायेगा और
उसे किसी से गठबन्धन की जरूरत नहीं पड़ेगी इसलिए उसने अपने भावी मुख्यमंत्री का नाम
घोषित नहीं किया था। यह सहज रूप से उम्मीद की जा रही थी कि अगर समाजवादी पार्टी के
नेतृत्व में सरकार बनती है तो उसके मुखिया मुलायम सिंह ही होंगे। किंतु पूर्ण
बहुमत मिल जाने के बाद कतिपय अस्पष्ट कारणों से मुलायम सिंह ने प्रदेश के
मुख्यमंत्री का पद अपने कम अनुभवी बेटे को दिया और स्वयं किंग-मेकर की भूमिका में
रहने का फैसला किया। दूसरी ओर लोकसभा में यूपीए सरकार को समर्थन देने वाले दलों के
आंकड़े और उन दलों में से कई का नेतृत्व ऐसा है कि केन्द्र सरकार को कभी भी
समाजवादी पार्टी के समर्थन पर निर्भर होना पड़ सकता है। जाहिर है कि यह समर्थन उन्हीं की शर्तों पर मिलेगा इसलिए देश में एक
स्थिर सरकार के लिए समाजवादी पार्टी के नेतृत्व को कुछ ज़िम्मेवार और सुलझे हुए
नेताओं की जरूरत होगी। मुलायम सिंह पर उमर अपना असर दिखाने लगी है और वे
राष्ट्रपति चुनाव में उम्मीदवार चुनने से लेकर वोट डालने तक में भूलें करने लगे
हैं।
समाजवादी पार्टी अब केवल नाम की समाजवादी पार्टी
है और मुलायम सिंह लोहियाजी के शिष्य से भूतपूर्व शिष्य में बदल चुके हैं। जब से
वे अमर सिंह के सम्पर्क में आये थे तब से उन्होंने समाजवादियों वाला संघर्ष का रास्ता
छोड़ दिया था और एन केन प्रकारेण सत्ता हथियाने की गैर समाजवादी राजनीति करने लगे
थे। उनको मिले जातिवादी समर्थन को अमर सिंह ने कार्पोरेट जगत में विनिवेश करवा
दिया था और उसके बोनस पर सौदेबाजी की राजनीति करने लगे थे। उनका मूल आधार जातिवादी
होकर रह गया था, जो सत्ता के पक्षपाती
लाभों से उपकृत व भविष्य में भी ऐसी ही उम्मीदों के सहारे उन्हें समर्थन
देकर अपनी जातीय अस्मिता को तुष्ट करने वाले लोगों से बना था। इस समर्थन को जब संघ
परिवार के संगठनों से आतंकित हो कर भाजपा को हराने के लिए कृत संकल्प मुस्लिमों का
थोक समर्थन मिलता है तो उनकी जीत का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। जब किसी पार्टी से
कार्पोरेट जगत के हित सधने लगते हैं तो अपने व्यावसायिक हित में उनकी भी
ज़िम्मेवारी हो जाती है कि वे उसकी जीत के लिए यथा सम्भव मदद करें। नोएडा का जो
शराब व्यावसायी मायावती का सबसे हितैषी और वित्तपोषक था तथा विधानसभा चुनाव के
दौरान जिसके पास से करोड़ों रुपये बरामद किये गये थे वही आज उत्तर प्रदेश की
समाजवादी सरकार का मित्र बन चुका है।
आम
जनता उत्तर प्रदेश में जिस बाहुबली राज्य से मुक्ति चाहती थी दुर्भाग्य से वह उसे
नसीब नहीं हुआ है, नये मुख्यमंत्री के पास भले ही एक मासूम चेहरा हो किंतु वह स्वाभाविक
मुखिया होने की जगह थोपे गये मुखिया हैं, उनके पास मुख्यमंत्री बनने के लिए भले ही
विधायकों का समर्थन हो किंतु किसी जनहितैषी परिवर्तनकारी कार्यक्रम को लागू करने
के लिए समर्थन नहीं है जिससे जनप्रतिनिधियों से जुड़े निहित स्वार्थों पर आँच आती
हो। कहने की जरूरत नहीं कि आज की राजनीति में विशेष रूप से उत्तर प्रदेश जैसे
राज्य में सबसे अधिक आर्थिक सामाजिक अपराध जनप्रतिनिधियों से जुड़े लोग ही करते
हैं। आज उत्तर प्रदेश विधानसभा के सदस्यों में उन लोगों की अच्छी खासी संख्या है
जिन्होंने चुनाव के समय दिये गये शपथ पत्र में उन पर चल रहे आपराधिक प्रकरणों की
जानकारी में गम्भीर आरोपों को सूचित किया है। इन सूचियों में बहुत गम्भीर अपराधों
के आरोपों को देख कर सिर चकरा जाता है, कि कैसे लोग जनप्रतिनिधि बन कर आ गये हैं।
पार्टी
की विजय सुनिश्चित करने में जिस मुस्लिम समर्थन ने भूमिका निभायी थी उसके मुखिया
आजम खान हैं जो अमर सिंह द्वारा किये गये दुर्व्यवहार से खिन्न होकर पार्टी छोड़ कर
चले गये थे। अमर सिंह का स्तीफा स्वीकार करने के बाद आजम खान को मुलायम सिंह मना
कर पार्टी में लाये थे और मीडिया के सामने गले लगा कर कैमरामेनों को ‘भरत-मिलाप’
जैसा दृष्य शूट करने का अवसर दिया था। वे पूर्व से ही पार्टी के वरिष्ठ नेता थे और
मना कर दुबारा बुलाये जाने के बाद और अधिक महत्वपूर्ण हो गये थे। चुनावों में
अचम्भित करने वाली जीत दर्ज करने के बाद तो उनका कद पार्टी मुखिया मुलायम सिंह के
बराबर हो गया था। जब मुलायम सिंह ने मुख्यमंत्री नहीं बनना चाहा तो वे स्वय़ं को
मुख्यमंत्री का स्वाभाविक उम्मीदवार समझने लगे थे तथा ये उम्मीद पूरी न होने पर
उन्हें ठेस लगी थी। मन मार कर उन्होंने अखिलेश के नेतृत्व में काम करना तो मंजूर
कर लिया है किंतु दूसरी ओर वे समानंतर सरकार चला रहे हैं व आये दिन अखिलेश को उनके
कारण अपने फैसले पलटने पड़ते हैं।
अखिलेश के शपथ ग्रहण समारोह में जो दृष्य
उपस्थित हुआ था वह भविष्य के संकेत दे गया था। मुख्यमंत्री के समर्थन में आये
युवाओं ने न केवल शपथ ग्रहण के मंच पर ही कब्जा कर लिया, शपथ ग्रहण की मेज को तोड़
दिया, डायस को गिरा दिया अपितु सजावट के लिए लगाये गये फूल पत्तियों को नोंच कर
फेंक दिया। वे चयनित मंत्रियों की कुर्सियों पर बैठ गये और बार बार अपीलें करने के
बाद भी नहीं उठे। नई सरकार को उनके खिलाफ कानूनी कार्यवाही करने की धमकी देनी पड़ी।
चुनाव परिणामों की घोषणा के बाद इस प्रदेश के विभिन्न नगरों में निकाले गये विजय
जलूसों में जिस तरह की उद्दंडताका प्रदर्शन हुआ था उसमें गोली लगने से एक बच्चे की
मौत तक हो गयी थी, और पूरे प्रदेश में गुण्डागिर्दी का भय व्याप्त हो गया था। इन
जलूसों में ऐसा लग रहा था जैसे लोकतांत्रिक चुनाव न जीता हो अपितु किसी राजा के
सैनिकों ने युद्ध जीता हो और वे विजित देश को लूटने के लिए निकल पड़े हों।
इस
चुनाव में पहली बार कुछ ऐसी मुस्लिमवादी पार्टियां मैदान में उतरी थीं जिनका
प्रचार था कि मुसलमानों का हित किसी सेक्युलर पार्टी का समर्थन देने में नहीं
अपितु अपनी एक अलग पार्टी बना कर दबाव बनाने में है। केरल और असम में सफल हो चुकी ऐसी
पार्टियां भले ही चुनावी जीत हासिल न कर सकी हों किंतु चुनाव के दौरान किये गये
दुष्प्रचार द्वारा उन्होंने वातावरण को तो विषाक्त कर ही दिया है। जब भी दूसरे
समुदाय के कट्टरवादी संगठनों द्वारा कुछ साम्प्रदायिक हरकतें की जायेंगीं तब ये
लोग पूरे सेक्युलर समाज को कटघरे में खड़ा करके उत्तेजना फैला सकते हैं। गत दिनों
असम के सम्बन्ध में फैलायी गयी अफवाहों के आधार पर लखनऊ और इलाहाबाद में जो हिंसा
फूटी उसके पीछे यही सोच निहित थी। समाजवादी पार्टी भले ही मुस्लिम वोट जुड़ने के
कारण जीती हो किंतु उसने अपने समर्थक मुसलमानों को मिला कर एक कट्टर धर्मनिरपेक्ष
फोर्स बनाने के लिए कोई काम नहीं किया जो हर तरह के साम्प्रदायिकों के साथ डट कर
टक्कर ले सके, जबकि यह काम प्राथमिकता के आधार पर किया जाना चाहिए था। मुस्लिमों
के समर्थन के चक्कर में वे कट्टर साम्प्रदायिक मुस्लिमों की पक्षधरता करने को भी
राजनीतिक कर्म समझने लगे हैं। [यह ऐसी गलती है जिसे दूसरी गैर भाजपा सरकारें भी कर
रही हैं और इस बात को भुला रही हैं कि इससे अंततः बहुसंख्यक साम्प्रदायिक शक्तियों
को मजबूत होने का मौका मिलता है।] इस तरह के भावुक उन्माद के प्रति कठोर कानूनी
कार्यवाही के साथ साथ धार्मिक समाज और कट्टरतावादी समाज के भेद को उजागर करने की
भी बहुत जरूरत होती है। अखिलेश के नेतृत्व वाली सरकार ने जिन युवाओं को बेरोजगारी
भत्ता देने की और उनसे कुछ काम लेने की योजना घोषित की है उन्हें फिल वक़्त समाज
में साम्प्रदायिक सौहार्द मजबूत करने और कट्टरवादियों को समाज से अलग थलग करने के
काम में लगाना चहिए। समाजवादी पार्टी का जो मुख्य बल है वह सामंती सोच के ऐसे
बाहुबलियों से भरा है जो सत्ता को अवैध धन कमाने और अपनी ताकत का लोहा मनवाने के
लिए स्तेमाल करते हैं। विभिन्न स्थानों से जो समाचार आ रहे हैं वे समाजवादी पार्टी
की लोकप्रियता की गिरावट के संकेत दे रहे हैं। नगर निगमों के चुनावों में भाजपा का
उभार और मथुरा में हुए उपचुनाव में तृणमूल कांग्रेस की विजय, कोसीकलाँ और बरेली के
साम्प्रदायिक दंगे, लखनऊ इलाहाबाद में कट्टरतावादियों के हिंसक उपद्रव इस बात के
सूचक हैं कि समाजवादी पार्टी की जीत केवल चुनावी जीत है और समाज पर उनकी पकड़ नहीं
है। यदि जल्दी ही उन्होंने कोई राजनीतिक कार्यक्रम हाथ में नहीं लिया तो बहुत
सम्भव है कि उनके जोशीले समर्थक उन्हीं की सरकार को हिलाने लगें। यह इसलिए भी
जरूरी है क्योंकि देश का भविष्य उत्तर प्रदेश के भविष्य से जुड़ा है।
वीरेन्द्र जैन
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