मोदी का अहंकार रावण के
समतुल्य हो गया है
वीरेन्द्र जैन
नरेन्द्र
मोदी द्वारा गुजरात का शासन सम्हालते ही भाजपा का पराभव शुरू हो गया था और गुजरात
में व्यक्ति मोदी ने पार्टी भाजपा का स्थान लेना शुरू कर दिया था। गुजरात, देश के
दूसरे, विशेष कर गोबरपट्टी [काऊ बेल्ट] वाले, राज्यों की तुलना में शांति प्रिय
राज्य रहा है जिसे दूसरे शब्दों में बनिया राज्य कहा जा सकता है। एक आम गुजराती का
सारा ध्यान व्यापार बढाने और धन कमाने में लगा रहता है, इसलिए वह कोई लफड़ा पसन्द
नहीं करता। गुजरात के एक पत्रकार मित्र ने
बताया कि वैसे तो गुजरात के मुसलमान भी आम गुजराती की तरह व्यापार में रुचि रखने
वाले लोग हैं, किंतु प्रदेश में जितने भी असामाजिक तत्व रहे हैं उनमें मुसलमानों
की संख्या अधिक रही। ये असामाजिक तत्व शांति पसन्द लोगों को अपनी हिंसक शक्ति और
दुस्साहस से डराते धमकाते रहे हैं और एक तरह के आतंक का वातावरण बनाते रहे हैं।
परिणाम यह हुआ कि अपनी अलग पहचान बनाने के लिए एक जैसा स्वरूप धारण करने वाली पूरी
मुस्लिम कौम कुछ लोगों के कारण बदनाम हो गयी। 1969 में अहमदाबाद में हुए
साम्प्रदायिक दंगों और 2002 में पूरे गुजरात में हुए मुसलमानों के नरसंहार ने
भाजपा को खाद पानी देकर बढाया है। पूरी कौम के प्रति नफरत या दूरी का वह बीज वहाँ
सहज ही उग आया था जिसे दूसरे स्थानों पर भाजपा को जबरन बोना पड़ता है। कांग्रेसी
सरकारों ने भी साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर सबसे स्पष्ट और मुखर हिन्दू
साम्प्रादायिकता का जिस तरह विरोध किया उससे संघ परिवारियों को उन्हें मुस्लिम
पक्षधर प्रचारित करने में आसानी हो गयी और अफवाहों से जनित नफरत रखने साधारण लोगों
ने संघ परिवारियों को ही तारणहार मान लिया। यही कारण रहा कि गान्धी के गुजरात में
भाजपा की जड़ें जम गयीं और कांग्रेस कमजोर होती गयी। दूसरी ओर 1991 से नई आर्थिक
नीतियाँ लागू होने से हुए परिवर्तनों से लाभ लेने के प्रति गुजराती समाज स्वाभाविक
रूप से संवेदनशील साबित हुआ, जिससे वहाँ औद्योगिक विकास का ग्राफ ही नहीं बढा,
अपितु औद्योगिक विकास ही विकास का मानदण्ड बनता गया। आज गुजरात में सरकारी सहयोग
से औद्योगिक लाबी इतनी सशक्त है कि श्रमिकों के संगठनों को सिर उठाने का भी अवसर
नहीं मिलता। इसे ज़ीरो लेबर अनरेस्ट स्टेट कहकर प्रचारित किया जाता है।
सामंती सोच वाले समाज में शत्रु का संहार करने वाले को नायक मानने की परम्परा है और ऐसी ही धार्मिक पौराणिक कथाएं भी हैं। मासूम लोगों के दिमागों में पूरी मुस्लिम कौम के प्रति नफरत बोने का जो काम संघ परिवार के विभिन्न संगठन निरंतर करते रहते हैं उसे अवसर आने पर सहज रूप से भुना लेते हैं। 27 फरबरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुयी आगजनी को “ रामभक्तों/ कारसेवकों से भरी पूरी ट्रैन में मुसलमानों द्वारा आग लगा देने” की अफवाह फैलाने में वे सफल रहे जिसने पूर्व से संवेदनशील बना दिये गये जनमानस को क्षोभ से भर दिया था। इसी का परिणाम था कि गुजरात सरकार द्वारा प्रेरित व संरक्षित बाहुबलियों ने जो कुछ किया उसके प्रति समाज के कुछ हिस्सों से उन्हें समर्थन मिला जो बाद में आम चुनावों के परिणामों में प्रकट भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जनता को यह बता पाने में असफल रही कि पूरी ट्रैन में आग नहीं लगी थी अपितु एक बोगी संख्या 6 में आग लगी थी। अगर इस सच को वे पहुँचा पाते तो संवेदनशील लोगों को पता चलता कि एक बोगी में किसी खास व्यक्ति या व्यक्ति समूहों को ही लक्षित किया गया था और उस हमले का पूरी ट्रैन में सवार कारसेवकों से कोई मतलब नहीं था। यह सम्भव कर देने पर पूरी घटना को जो साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया था वह बदल जाता। पर कांग्रेस के पास सच बताने का कोई वैसा तंत्र नहीं है जबकि साम्प्रदायिकों के पास निरंतर दुष्प्रचार का एक बड़ा तंत्र मौजूद है। यदि वे सच बता पाते तो इस सच को जानकर भी लोगों की आँखें खुल जातीं कि इस आगजनी में मरने वाले 59 लोगों में से कारसेवकों की संख्या केवल दो थी जो इस बात का प्रमाण होता कि इस नृशंस घटना को अंजाम देने वाले अपराधियों का अयोध्या गये कार सेवकों पर हमला करने का कोई इरादा नहीं था। अगर ऐसा हुआ होता, जो होना चाहिए था, तो लोगों की नाराजी कानून और व्यवस्था ठीक से न सम्हालने वाली राज्य सरकार या रेलवे पुलिस के प्रति होती न कि दूसरे समुदाय के मासूम लोगों के प्रति। तब लोग यह भी सोचते कि अगर हमलावरों का गुस्सा कार सेवकों के खिलाफ होता तो वे अयोध्या जाने वालों पर हमला करते न कि वहाँ से लौट कर आने वालों पर। पर यह सम्भव नहीं हुआ और एक षड़यंत्रकारी राष्ट्रव्यापी संगठन ने गुजरात राज्य में न केवल एक बड़ा नरसंहार ही किया अपितु दुष्प्रचार के सहारे उसका राजनीतिक लाभ भी उठाया।
सामंती सोच वाले समाज में शत्रु का संहार करने वाले को नायक मानने की परम्परा है और ऐसी ही धार्मिक पौराणिक कथाएं भी हैं। मासूम लोगों के दिमागों में पूरी मुस्लिम कौम के प्रति नफरत बोने का जो काम संघ परिवार के विभिन्न संगठन निरंतर करते रहते हैं उसे अवसर आने पर सहज रूप से भुना लेते हैं। 27 फरबरी 2002 को गोधरा रेलवे स्टेशन के पास साबरमती एक्सप्रैस की बोगी नम्बर 6 में हुयी आगजनी को “ रामभक्तों/ कारसेवकों से भरी पूरी ट्रैन में मुसलमानों द्वारा आग लगा देने” की अफवाह फैलाने में वे सफल रहे जिसने पूर्व से संवेदनशील बना दिये गये जनमानस को क्षोभ से भर दिया था। इसी का परिणाम था कि गुजरात सरकार द्वारा प्रेरित व संरक्षित बाहुबलियों ने जो कुछ किया उसके प्रति समाज के कुछ हिस्सों से उन्हें समर्थन मिला जो बाद में आम चुनावों के परिणामों में प्रकट भी हुआ। मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस जनता को यह बता पाने में असफल रही कि पूरी ट्रैन में आग नहीं लगी थी अपितु एक बोगी संख्या 6 में आग लगी थी। अगर इस सच को वे पहुँचा पाते तो संवेदनशील लोगों को पता चलता कि एक बोगी में किसी खास व्यक्ति या व्यक्ति समूहों को ही लक्षित किया गया था और उस हमले का पूरी ट्रैन में सवार कारसेवकों से कोई मतलब नहीं था। यह सम्भव कर देने पर पूरी घटना को जो साम्प्रदायिक रूप दे दिया गया था वह बदल जाता। पर कांग्रेस के पास सच बताने का कोई वैसा तंत्र नहीं है जबकि साम्प्रदायिकों के पास निरंतर दुष्प्रचार का एक बड़ा तंत्र मौजूद है। यदि वे सच बता पाते तो इस सच को जानकर भी लोगों की आँखें खुल जातीं कि इस आगजनी में मरने वाले 59 लोगों में से कारसेवकों की संख्या केवल दो थी जो इस बात का प्रमाण होता कि इस नृशंस घटना को अंजाम देने वाले अपराधियों का अयोध्या गये कार सेवकों पर हमला करने का कोई इरादा नहीं था। अगर ऐसा हुआ होता, जो होना चाहिए था, तो लोगों की नाराजी कानून और व्यवस्था ठीक से न सम्हालने वाली राज्य सरकार या रेलवे पुलिस के प्रति होती न कि दूसरे समुदाय के मासूम लोगों के प्रति। तब लोग यह भी सोचते कि अगर हमलावरों का गुस्सा कार सेवकों के खिलाफ होता तो वे अयोध्या जाने वालों पर हमला करते न कि वहाँ से लौट कर आने वालों पर। पर यह सम्भव नहीं हुआ और एक षड़यंत्रकारी राष्ट्रव्यापी संगठन ने गुजरात राज्य में न केवल एक बड़ा नरसंहार ही किया अपितु दुष्प्रचार के सहारे उसका राजनीतिक लाभ भी उठाया।
गुजरात
में हुए नरसंहार पर गैर भाजपा दलों ने एक और भूल की कि उन्होंने अपना पूरा विरोध
वहाँ के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को केन्द्रित कर के किया जबकि इसमें
पूरा संघ परिवार ही सम्मिलित था। परिणाम स्वरूप साम्प्रदायिकता के प्रति संवेदनशील
समाज के हिस्सों में मोदी अकेले ही नायक/खलनायक हो गये। उस समय पूरी भाजपा एक साथ
मोदी के पक्ष में एकजुट हो गयी थी तथा देश के तत्कालीन गृहमंत्री अडवाणी हर कदम पर
मोदी की वकालत करने लगे थे। औद्योगिक घरानों से जुड़ी सेठाश्रित पत्रकारिता का मुँह
बन्द रखने के लिए तत्कालीन केन्द्र सरकार और गुजरात सरकार ने विज्ञापनों की बाढ ला
दी थी जिससे सच का एक बड़ा हिस्सा लोगों तक नहीं पहुँच सका था। दूसरी ओर अधिकांश
राजनीतिक दल हतप्रभ थे, एनडीए के कई दल साथ छोड़ गये थे व विपक्ष की आलोचना से घबरा
कर अटल बिहारी वाजपेयी ने स्तीफा देने का मन बना लिया था जो जसवंत सिंह के
हस्तक्षेप से रुका था, जिसका खुलासा उन्होंने पार्टी से न्काल दिये जाने के बाद
किया था। जितने बड़े स्तर पर मोदी का राजनीतिक विरोध हुआ उतने ही बड़े स्तर पर संघ
परिवार उनके प्रति रक्षात्मक हुआ जिससे पार्टी और गुजरात के बहुसंख्यक समुदाय में मोदी
का कद और महत्व बढा।
जब
केन्द्र की अटल बिहारी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार से लेकर भाजपा की दूसरी राज्य
सरकारें आर्थिक भ्रष्टाचार में डूबी हुयी थीं तथा उनके कारनामे दिन प्रतिदिन
प्रकाश में आ रहे थे तब गुजरात से ऐसी खबरों का अकाल रहा। जब देश में भ्रष्टाचार
प्रमुख राजनीतिक मुद्दा बनकर उभर रहा था तब मोदी और उनके मंत्रिमण्डल पर
भ्रष्टाचार के आरोप कम से कम लगे। अटलबिहारी वाजपेयी की अस्वस्थता और लालकृष्ण
अडवाणी के ज़िन्ना प्रशंसा प्रकरण के बाद जिस तरह से उन्हें अपमानित करके अध्यक्ष
पद से हटाया गया उससे उनका कद घट गया था। जब उनको प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाने
का कार्ड भी नहीं चल सका और उम्र लगातार बढती जा रही थी तब भाजपा में शिखर नेतृत्व
पर शून्य निर्मित होने लगा। संघ ने भाजपा के अध्यक्ष पद पर जब गडकरी जैसे सामान्य
कद के नेता को थोप दिया और निर्विरोध रूप से उनका कार्यकाल पूरा ही नहीं करवाया
अपितु एक कार्यकाल और बढवाने के लिए पार्टी संविधान में संशोधन भी करवा दिया तब शिखर
के शून्य को भरने के लिए विख्यात और कुख्यात नरेन्द्र मोदी ने स्वय़ं को प्रस्तुत
करने का विचार बनाया जिसे चन्द पूंजीपतियों और औद्योगिक घरानों ने हवा दी। अब
नरेन्द्र मोदी स्वयं को भाजपा और संघ से भी ऊपर समझने लगे हैं। वे संघ की इच्छा के
विपरीत संजय जोशी को पार्टी से निकलने को मजबूर कर देते हैं, प्रवीण तोगड़िया की
परवाह नहीं करते, भाजपा के हित में काम करने वाले आशाराम बापू और उनके बेटे के नाम
वारंट निकलवा देते हैं, उनके विरोधी हरेन पंड्या की हत्या हो जाती है, नरसंहार के
बदनाम आरोपियों को मंत्री पद देते हैं, असहमत सरकारी अधिकारियों को नौकरी छोड़ना
पड़ती है, उनसे असहमत जिसकी भी हत्या हो जाती है उसे वे आतंकी घोषित करवा देते हैं,
अल्प संख्यक आयोग, महिला आयोग, मानव अधिकार आयोगों की उन्हें परवाह नहीं है, मुख्य
चुनाव आयुक्त लिंग्दोह की अश्लील प्रतीकों से निन्दा करते हैं तथा अपने अहं में गुजरात
के सभी वरिष्ठ नेताओं को पार्टी छोड़ कर दूसरी पार्टी बनाने को मजबूर कर देते हैं।
न वे पार्टी में किसी की परवाह करते हैं और न ही पार्टी के बाहर संवैधानिक
संस्थाओं की। पौराणिक कथाओं से प्रतीक लें तो उनका अहं रावण जैसा अहं हो गया है।
उनकी पार्टी में भी अब न वे किसी नेता पर भरोसा करते हैं और न कोई बडा नेता उन पर
भरोसा करता है। पार्टी में जो उनसे सहमत नहीं है वह उनका दुश्मन है। सम्भावना यही
है कि यदि उन्होंने बड़ी ज़िम्मेवारी के लिए
प्रत्याशी बनने की ज़िद ठानी तो पार्टी में महाभारत होना तय है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल [म.प्र.]
462023
मोबाइल 9425674629
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