यह नफरत फिल्म से है या अमरीका से
वीरेन्द्र जैन
अफगानिस्तान
में रूसी सेना की उपस्थिति के खिलाफ लादेन को पैदा करने वाले अमेरिका को जब लादेन
और तालिबानों से तकलीफ होने लगी तब उसने इस्लाम और उसके मानने वालों को ही दुनिया
का दुश्मन सिद्ध कराने के लिए अपने प्रचारतंत्र को लगा दिया। इसी का परिणाम रहा कि
इसे सभ्यताओं का युद्ध बतलाया जाने लगा और दुनिया को मुस्लिम बनाम गैर-मुसलमान में
बाँटने की कोशिशें की जाने लगीं। दुनिया भर में नकौला वसीली की फिल्म “इनोसेंट आफ
मुस्लिमस” पर उठी हिंसक प्रतिक्रिया को इन्हीं सन्दर्भों में समझने की
जरूरत है। फिल्म के निर्माता हैं ‘नकौला वसीली‘ हैं। नाकौला वसीली कभी मिश्रवासी थे,
जिन्होंने बाद में अमेरिका आकर अमेरिकी नागरिकता स्वीकार कर ली थी। नाकौला वसीली
ईसाई हैं, और उन्हें मिश्र में जो कटु अनुभव हुए उसके फलस्वरूप वे इस्लाम के
दुश्मन हो गये। यह वैसा ही है जैसे कि देश के विभाजन के बाद पंजाब सिन्ध से पलायन
करने को मजबूर हुए हिन्दुओं में से कुछ ने
हिन्दुस्तान आकर एक साम्प्रदायिक संगठन को निरंतर पोषित किया है जो रात-दिन
मुसलमानों के खिलाफ विष वमन कर ध्रुवीकरण करता रहा है और जिसके परिणाम स्वरूप अब
भारत में भी कट्टरवादी मुसलमानों के संगठन जड़ें पकड़ने लगे हैं। केरल असम और उत्तर
प्रदेश के कुछ क्षेत्रों में कट्टरवादी मुसलमानों ने अपनी अलग राजनीतिक पार्टी बना
ली है और विधानसभा में पहुँच कर वे भी धर्म निरपेक्ष राजनीति को कमजोर करने में लग
गये हैं। पिछले दिनों बर्मा और असम के बहाने , मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद, आदि में
हुयी हिंसक घटनाओं में यही तत्व सक्रिय रहे हैं।
तात्कालिक
सवाल यह है कि क्या एक प्रतिशोध से भरे व्यक्ति द्वारा बनायी गयी विवादास्पद फिल्म
का निर्माण इतना बड़ा अपराध हो सकता है कि पूरी दुनिया के अमरीकी दूतावासों पर न
केवल प्रतीकात्मक हमले हों अपितु इतने भयंकर हिंसक हमले हों जिसमें केवल दूतावासों
को ही आग के हवाले नहीं किया जाये अपितु राजदूतों और दूसरे कर्मचारियों को भी
निर्ममता पूर्वक मार डाला जाये! सच तो यह है कि यह गुस्सा उक्त विवादास्पद फिल्म
के बहाने अमेरिका के खिलाफ घर बना चुके गुस्से की गलत प्रतिक्रिया है। इस तरह के
दिशाहीन गुस्से ने अमेरिकी दूतावासों के आसपास स्थित दुनिया भर के दूतावासों पर
खतरा बढा दिया है जो चिंता का विषय है। इसके दुष्परिणाम से दुनिया मुस्लिम और गैर
मुस्लिम जैसे विभाजन की शिकार हो सकती है क्योंकि अन्धा गुस्सा विवेकहीन होता है।
पाकिस्तान में तो उग्र भीड़ को नियंत्रित करने में एक ही दिन में 19 लोग मारे जा
चुके हैं जिससे धर्मान्धों का गुस्सा और भड़क सकता है।
जहाँ
तक धार्मिक प्रतीकों के अपमान का सवाल है ऐसे अपमान तो हर धरम आस्था के प्रतीकों
के खिलाफ होते रहे हैं। हिन्दू देवी देवताओं के चित्रों को तो जूते चप्पलों, और
अन्दर गारमेंट्स पर आये दिन दिखाया जाता है। सलमान रश्दी ने तो जब “सैटेनिक वर्सेस” लिखी तब उसकी हत्या करने के लिए ईरान आदि
के कट्टरपंथियों ने उसके सिर पर करोड़ों का इनाम घोषित कर दिया था पर किसी ने भी
उसके इंगलेंड सरकार या उसके दूतावासों के खिलाफ कोई हिंसक कार्यवाही नहीं की।
डेनमार्क के जिस कार्टूनिस्ट ने धार्मिक आस्था के खिलाफ कार्टून बनाया था उसके
खिलाफ भी इनाम तो घोषित किया गया किंतु उस देश की सरकार, या जनता के खिलाफ कुछ भी
नहीं कहा गया। तस्लीमा नसरीन जैसी लेखिका को आस्थावानों की आस्थाओं को ठेस लगानेवाले
लेखन के लिए बांगलादेश छोड़ना पड़ा था और भारत में शरण लेनी पड़ी किंतु किसी भी अन्य
देश के मुस्लिमों ने बांगलादेश या भारत की सरकार के खिलाफ कोई कार्यवाही तो छोड़िए
विरोध तक व्यक्त नहीं किया। जब हिलेरी क्लिंटन ने बार बार यह कह दिया है कि उक्त
फिल्म निर्माण में अमेरिकी सराकार की कोई भूमिका नहीं है, तब भी हिंसक घटनाओं का
जारी रहना इस बात का संकेत है कि इसके पीछे फिल्म की भूमिका कम और अमेरिकी नीतियों
के प्रति नफरत की भावना अधिक है। इराक और अफगानिस्तान में भारी नुकसान झेल चुके
अमेरिका को इस बारे गम्भीरता से विचार करने की जरूरत है, क्योंकि इन घटनाओं का दुनिया
में दूरगामी प्रभाव होगा। विचारणीय यह है कि इन हिंसक हमलों में मुस्लिम राष्ट्रों
के कट्टरवादी तत्व शामिल हैं जो ऐसे सारे देशों में अपनी उपस्थिति बतला रहे हैं और
उन देशों की सरकारें भी उन्हें समस्याओं की तरह देख रही हैं। अपने साम्राज्यवादी
इरादों को पूरा करने के लिए कट्टरवादी संगठनों को पैदा करना खुद के लिए भी कितना
खतरनाक होता है इसका सबक अकेले अमेरीका को ही नहीं दुनिया के सारे सामाराज्यवादी
देशों को सीखना चाहिए क्योंकि जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे इसे दुहराने को
अभिशप्त होते हैं।
वीरेन्द्र जैन
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