सोमवार, नवंबर 24, 2014

राहगीरी ; एक जन उभार



राहगीरी ; एक जन उभार
वीरेन्द्र जैन
       भोपाल में पिछले दिनों तीसरे स्थान पर राहगीरी का आयोजन प्रारम्भ हुआ, क्योंकि दो स्थानों पर जाने वालों की संख्या स्थान की सीमा को पार कर गयी थी। यह तीसरा स्थान था देश के प्रतिष्ठित सार्वजनिक संस्थान बीएचईएल के कमला नेहरू पार्क के पास से गुजरने वाली सड़क। परिणाम यह हुआ कि न केवल इस संस्थान के कर्मचारी परिवार अपितु इसके आसपास चार पाँच किलोमीटर में रहने वाले सेवानिवृत्त कर्मचारियों से बसी कालोनियों के परिवारों समेत दूसरे निवासी भी सामने आये और बिन्दास ढंग से जागिंग, योगा, साइकिलिंग स्केटिंग, खेलकूद, ही नहीं अपितु गायन और डांसिंग समेत कविता पाठ व विचार गोष्ठी का भी खुला आयोजन हुआ। इस आयोजन में जिस तरह से लोगों ने सहज स्फूर्त होकर अपनी पसन्द की पोषाकों में अपनी अपनी कला रुचियों के अनुरूप आनन्द लिया वह बहुत उत्साहजनक था। भागीदारों को यह एक नये तरह के स्वतंत्रता का अनुभव था जिसमें हर उम्र, आयवर्ग, के लोगों ने जाति, सम्प्रदाय, लिंग, क्षेत्रीयता से मुक्त होकर अपनी अपनी तरह से अभिव्यक्तियां दीं।
       पिछले एक महीने से देश के विभिन्न बड़े नगरों में प्रारम्भ हुये इस आयोजन ने बहुत तेजी से मध्यम वर्ग का ध्यान आकर्षित किया है। स्वतंत्रता जैसी इस ताज़ा हवा का अहसास उस अदृश्य गुलामी से बाहर आने के कारण था जिसके बन्धन दिखायी नहीं दे रहे हैं। हमें धीरे धीरे विभिन्न तरीकों से नजरबन्द सा कर दिया गया है, और हम निरंतर अकेले होते जा रहे हैं। सब अपने द्वारा बुनी जंजीरों में ऐसे जकड़ते चले गये कि हमारी सामूहिकता केवल किताबी होकर रह गयी। सोशल वेबसाइट पर हमने जो मित्र मण्डली बना ली है उसके बारे में यह भी सही सही नहीं पता कि वह वास्तव में है भी या नहीं। पुरुष है या महिला है या महिला के नाम से पुरुष है या पुरुष के नाम से महिला। उसका फोटो असली है या नकली, उसकी उम्र अगर दी गयी है तो वह सही है या कल्पित है। उसका व्यवसाय और शिक्षा दिये अनुसार है भी या नहीं। ऐसे हजारों देशी और विदेशी मित्रों के बीच बहुत से ऐसे भी हैं जिन्होंने अपना निवास और परिचय अधूरा दिया होता है, पर हम उनके नाम से लिखे हुये शब्दों और चित्रों के बीच रोज चार छह घंटे बिताने लगे हैं। देश में जब से स्मार्टफोन और एंड्रोयड जैसे प्रोग्राम आये हैं तो हमारी सामाजिकता कम से कम होती जा रही है। अब हमें न किसी का पता पूछना है न टेलीफोन नम्बर। खाने पीने से लेकर हर तरह के घरेलू सामान के लिए केवल एक मेल करना है। यहाँ तक कि पुराने सामान को बेचने के लिए भी अपनी कुर्सी से उठ कर कहीं जाने की जरूरत नहीं। बैंकिंग की सारी सुविधाओं से लेकर ढेर सारा लेन देन आप अपने मोबाइल से ही कर सकते हैं। रेलवे रिजर्वेशन, बिजली पानी के बिल, प्रापर्टी टैक्स से लेकर इन्कम टैक्स तक आप घर बैठे करवा सकते हैं जिससे आपको नाकारा और भ्रष्ट प्रशासन से तो राहत मिलती ही है, समय भी बचता है। पर, मनुष्य स्वभाव से सामाजिक प्राणी है और अनंत सुविधाएं चाहता है किंतु वह कब तक तस्वीरों से मन बहला सकता है। किसी ने कहा है कि – चला जाता हूं, हँसता खेलता मौज़े हवादिस से, अगर आसानियां हों ज़िन्दगी दुश्वार हो जाये। इयर फोन लगा कर संगीत सुनने वाला युवा रेल के डिब्बे में बैठे बहस करने वाले यात्रियों की तुलना में कितना अकेला हो जाता है, उसे कोई टिफिन से खाना निकालकर खाने के लिए नहीं पूछता।
       मैं समझता हूं कि ये वही अकेले पड़ते जा रहे मध्यम वर्ग के लोग हैं जो अन्ना के आन्दोलन में जुट जाते हैं या निर्भया के साथ हुये अपराध पर एकजुट होकर विरोध करने लगते हैं। राहगीरी के लिए भी यही उकताया वर्ग आ जुटा है और ताज़ा हवा के झोंकों को अपने फेफड़ों में भर रहा है।
       अब राजनीतिक सामाजिक संगठन अपने नेतृत्व की करतूतों से इतना निराश कर चुके हैं कि उनके आकर्षक कर्यक्रमों में भी लोग भरोसा नहीं करते। मैंने देखा है कि भीषण जलसंकट से गुजर रहे एक कस्बे में इस समस्या पर बुलायी गयी सर्वदलीय आमसभा को सुनने पचास लोग भी एकत्रित नहीं होते हैं। लगभग यही हाल दूसरी सामाजिक संस्थाओं का भी है। कविता और दूसरी कलायें भी सतही मनोरंजन तक ही आकर्षित कर पा रही हैं।
       राहगीरी की नयी परिकल्पना एक नये गणतंत्र की तरह उभरी है जिसमें आना तो ऐच्छिक है ही उसमें किसी भी परम्परा का दबाव नहीं है। लोग अपनी सुविधा से कभी भी अपनी पसन्द के उपलब्ध कपड़े पहिन कर और अपने पद व पहचान से मुक्त होकर आ सकते हैं और हँस सकते हैं, गा सकते हैं, बजा सकते हैं, उछल कूद कर सकते हैं व सहज हो सकते हैं, जहाँ उनके जैसे ढेरों समूह दूसरे भी मिल जाते हैं। वे जानते हैं कि जिन वाहनों के धुएं में वे जी रहे हैं, उससे यहाँ मुक्ति मिलती है और पैदल चलने पर कोई हीनता बोध नहीं होता अपितु देह को खुलने का मौका मिलता है। लोगों के ढीले और कैजुअल कपड़े उनकी आज़ादी महसूस करने के संकेतक हैं। कभी हमारे यहाँ नियत तिथि पर होली भी कुछ कुछ ऐसा ही वार्षिक त्योहार हुआ करता था जो क्रमशः विकृत्तियों का शिकार होता गया। राहगीरी पर्यावरण प्रदूषण और बीमारियां देने वाली जीवनशैली के विरोध में अपना हाथ उठाकर खड़े होने वाले समाज का स्वतंत्र प्रकटीकरण है और इस तरह से एक सामाजिक बदलाव की बयार भी है। भले ही अभी यह केवल साप्ताहिक छुट्टी पाने वालों के परिवारो, छात्रों या पेंशन भोगियों तक ही सीमित है, पर इसकी खुश्बू को फैलने से रोका नहीं जा सकता। इसका स्वागत किया जाना चाहिए।    
वीरेन्द्र जैन                                                                                                                                               
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