शनिवार, नवंबर 15, 2014

संघ परिवार की एक कम चर्चित बड़ी सफलता



संघ परिवार की एक कम चर्चित बड़ी सफलता
वीरेन्द्र जैन

                6 दिसम्बर 1992 को जब राष्ट्रीय एकता परिषद से वादाखिलाफी करते हुये बाबरी मस्ज़िद तोड़ दी गयी थी तब देश-विदेश के बुद्धिजीवियों, लेखकों, सम्पादकों, विचारकों, समाजसेवियों और राजनेताओं ने एक सुर से संघ परिवार की निन्दा की थी। इस निन्दा के घटाटोप में रथयात्रा निकालकर खुला आवाहन करने वाले भाजपा नेताओं तक ने अपनी ज़िम्मेवारी से मुकरते हुए कहा था कि हम लोग इसके लिए ज़िम्मेवार नहीं हैं और यह काम कुछ गैर हिन्दीभाषियों द्वारा किया गया जिन्हें अडवाणीजी रोक रहे थे, पर भाषा न समझने के कारण उनकी बात उन तक नहीं पहुँच सकी। इशारा शिवसैनिकों की ओर था। इस घटना को दुर्भाग्यशाली बताते हुए संसद में अटल बिहारी वाजपेयी ने कहा था कि मुझे बताया गया है कि इस समय अडवाणीजी का चेहरा आँसुओं से भरा हुआ था। बहरहाल उनकी बात का देश को भरोसा नहीं हुआ था तथा बाद में कई भाजपा शासित रहे राज्यों में हुये चुनावों में भाजपा पराजित हो गयी थी।
       इस गैरराजनैतिक अभियान के सहारे अपनी डूब चुकी पार्टी को पुनर्जीवित करके दो सदस्यों से दो सौ सदस्यों तक पहुँचाने और बाद में केन्द्र में सरकार बना लेने के खेल के बारे में बहुत सारा लिखा जा चुका है और अन्दर की कहानी जानने के प्रति उत्सुकता रखने वालों के लिए सारी सामग्री ढेर सारी पुस्तकों, पत्रिकाओं, कविताओं, कहानियों और उपन्यासों तक में उपलब्ध है। उल्लेखनीय यह है कि इस अवसर पर जब पूरी दुनिया के समाचार विचार माध्यम संघ परिवार की निन्दा से भरे हुये थे तब धर्मनिरपेक्षता के सबसे बड़े अलमबरदारों में से एक सुप्रसिद्ध लेखक सम्पादक राजेन्द्र यादव ने हंस के जनवरी 2003 के सम्पादकीय में अपनी आलोचना का केन्द्र मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बनाते हुये लिखा था कि उनके शाहबानो वाले मामले पर लिये गये रुख और उसके लिए दिल्ली में एक बड़ी रैली करके ईँट से ईँट बजाने की चेतावनी ने इस दुर्घटना को होने दिया। उनका मानना था कि जब भी अल्पसंख्यक साम्प्रदायिक होकर बात करेगा तो उसका लाभ बहुसंख्यकों के साम्प्रदायिक संगठनों को और चुनावी लाभ उनके दलों को मिलेगा। क्योंकि वे संख्या में अधिक हैं। अल्पसंख्यकों की उपरोक्त हरकतें बहुसंख्यकों को साम्प्रदायिक रूप में एकजुट होने की अनुकूलता देती हैं, इसलिए किसी भी देश के अल्पसंख्यकों का हित सदैव धर्म निरपेक्ष राजनीति में ही सुरक्षित रह सकता है।
       संघ परिवार भी इसी सच को मानता है और अपनी राजनीति के हित में ऐसा वातावरण बनाये रखना चाहता है जिसमें साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण होता रहे। वे चुनावों के आसपास आवश्यकतानुसार ऐसा वातावरण बनाने के लिए योजनानुसार विशेष प्रयास करते रहते हैं। चाहे ताजा लोकसभा चुनावों से पहले हुये मुज़फ्फरनगर के दंगे हों, या दिल्ली राज्य के आगामी विधानसभा चुनावों को देखते हुए त्रिलोकपुरी या बवाना के दंगे हों। जिस गुजरात की दम पर आज भाजपा की देश में सरकार है उसका बीज 2002 में प्रायोजित हिंसा द्वारा ही बोया गया था।  
       किसी भी तरह की साम्प्रदायिकता को सबसे बड़ा खतरा धर्मनिरपेक्षता की भावना से होता है और सबसे अधिक लाभ अपनी प्रतिद्वन्दी साम्प्रदायिकता से मिलता है। आज चिंता का विषय यह है कि घर्म निरपेक्ष दलों के कमजोर होने व हिन्दू साम्प्रदायिकता के उभार के परिणाम स्वरूप मुस्लिम साम्प्रदायिक दल तेजी से उभर रहे हैं। संयुक्त आन्ध्र प्रदेश में जिस ए आई एम [आल इंडिया मजलिस इत्तेहाद उल मुसलमीन] को इक्का दुक्का सीटें मिला करती थीं उसे इस बार सात सीटें मिली हैं। यह संख्या तेलंगाना के अलग राज्य बन जाने के बाद कम हो गये कुल  सदस्यों की विधानसभा में अधिक प्रभावी संख्या है। इस दल ने जिसकी सोच भाजपा की ही तरह संकीर्ण मानी जाती है महाराष्ट्र के विधानसभा चुनावों में भी पहली बार दो सीटें जीती हैं। इस दल ने आगामी दिल्ली विधानसभा और झारखण्ड विधानसभा के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में समुचित उम्मीदवार उतारने का फैसला भी किया है तथा उत्तरप्रदेश और पश्चिम बंगाल के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में भी चुनाव लड़ने की अभी से तैयारी शुरू करने का विचार बना रहे हैं। स्मरणीय यह भी है कि केरल विधानसभा में मुस्लिम लीग ने लगभग 8 प्रतिशत मत पाकर 20 सीटें जीती थीं, तथा असम में एआईयूडीएफ जैसे साम्प्रदायिक विचार वाले दल ने भी विधानसभा चुनाव में 12.5 प्रतिशत  मत लेकर 18 सीटें जीती थीं, जिसका लाभ ही लोकसभा चुनावों में भाजपा को मिला। भाजपा शिवसेना हो या आईएमएल, एआईएम, एआएयूडीएफ, अथवा अकालीदल या केरल काँग्रेस हो, इनकी बढत समाज में ध्रुवीकरण को बढावा देती है और यह विषचक्र निरंतर फैलता जाता है। समाज के ऐसे ध्रुवीकरण का परिणाम ही भारत विभाजन में देखने को मिला था। इसी विभाजन के घाव को भाजपा अब तक भुना रही है।
       भाजपा समाज के बहुसंख्यकों के दल होने का दावा करती है इसलिए अल्पसंख्यक दलों के बढते प्रभाव का प्रतिलाभ मिलने की आशा करती है। अल्पसंख्यकों के दल के नेता भी अपने निहित स्वार्थ हेतु उत्तेजित बयान देते रहते हैं। उल्लेखनीय है एआईएम के नेता अकबरुद्दीन जो अब विधायक भी चुन लिये गये हैं, जिन पर साम्प्रदायिक द्वेष फैलाने के लिए मुकदमे चल रहे हैं पर वे इसके लिए बिल्कुल भी चिंतित नहीं है। वे कहते हैं कि जिस तरह से वरुण गाँधी को न्याय मिला है वैसे ही उन्हें भी ‘न्याय’ मिलेगा। साम्प्रदायिकता का उभार न केवल समाज में हिंसक वातावरण बना कर जन धन का नुकसान करता है अपितु राजनीति से जनहितैषी मुद्दों की जगह ले लेता है। शिक्षा, स्वास्थ, रोजगार, विकास आदि की जगह लोग अपने धर्म और जाति के नेता का चुनाव करने में तुष्टि पाने लगते हैं, व सामाजिक समस्याओं के लिए पाखण्डी धार्मिकों पर भरोसा करने लगते हैं।
       देश के राजनीति को हिन्दू मुस्लिम सिख और ईसाइयों की राजनीति की ओर मोड़ने का लक्ष्य संघ परिवार ने बना कर रखा था क्योंकि वह खुद को हिन्दू बहुसंख्यकों की प्रतिनिधि बनाये रहती है। कहने की जरूरत नहीं कि मुस्लिम दलों के उभार से उसके लक्ष्यों को बड़ी सफलता मिलती दिख रही है, भले ही वह कम रेखांकित हो पा रही हो। खुद को शाही इमाम बताने वाले मौलाना बुखारी जैसे लोगों के बयान भी उनको मदद पहुँचा रहे हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें