सोमवार, नवंबर 10, 2014

मंत्रिमण्डल के ऐसे विस्तार से उठते सवाल



मंत्रिमण्डल के ऐसे विस्तार से उठते सवाल

वीरेन्द्र जैन
       गोआ के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिलाकर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मलित किया गया है। आई आई टी की डिग्री वाले वे ऐसे नेता हैं जिनकी ईमानदारी, सादगी, लगन और कर्तव्यनिष्ठा बेदाग है और उन पर व्यापक भरोसा है। अगर कोई सवालिया निशान बनता है तो सिर्फ यह कि वे अमित शाह की अध्यक्षता वाले उस दल और संगठन में कैसे हैं, जहाँ वे इतने अकेले पड़ जाते हैं कि उनके मुखौटे का स्तेमाल करने के लिए उनकी नापसन्दगी के बाबजूद गोआ छुड़ा कर उस दिल्ली में बुलाना पड़ता है, जहाँ का वातावरण उन्हें पसन्द नहीं। बहरहाल पूरे मंत्रिमण्डल के विस्तार को देखते हुए ऐसा लगता है कि श्री पार्रीकर के व्यक्तित्व का उपयोग दूसरे अनेक मंत्रियों के चरित्रों को ढंकने के लिए किया गया है। आखिर क्या कारण था कि जिस विस्तार में चार केबिनेट मंत्रियों समेत  इक्कीस मंत्रियों को शपथ लेना थी उनमें सबसे आगे पार्रीकर का नाम ही लीक किया गया, और उसे कई दिनों तक चर्चा में बनाये रखा गया।   
     2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबन्धन इस तरह जीत कर उभरा कि उसमें भाजपा को अकेले ही स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ था। भले ही उसे कुल पड़े मतों में से भी इकतीस प्रतिशत मत मिले हैं पर राजनीतिक बहसों में उनका अंतिम अस्त्र यही होता है कि उन्हें मतदाताओं ने जिता कर उन पर और उनकी नीतियों पर विश्वास प्रकट किया है, इसलिए उनकी हर बात मान्य है। ऐसे समय वे चुनाव में वांछित सुधारों और चुनाव प्रबन्धन के कौशल के उन आरोपों को याद नहीं करते जिनकी चर्चा वे तब निरंतर करते रहे हैं जब विपक्ष में होते हैं। मंत्रिमण्डल का गठन प्रधानमंत्री का अधिकार होता है पर मंत्रि परिषद के सदस्यों की अधिकतम संख्या तय है। उल्लेखनीय है कि यह संख्या भी देश की संसद को तब तय करना पड़ी थी जब दलबदल से बनी उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने सारे दलबदलुओं को मंत्री पद देकर सौ लोगों को मंत्री बना दिया था जिनमें से कई मंत्रियों का कहना था कि छह महीने में उनके पास एक भी फाइल दस्तखत होने नहीं आयी है। अधिकतम संख्या तय होने के कारण तरह तरह से जुटाये गये बहुमत के सारे लोगों को मंत्री नहीं बनाया जा सकता इसलिए सदन के सदस्यों या प्रत्याशित सदस्यों से मंत्रियों का चयन करना पड़ता है। यह चयन इस बात का संकेतक होता है कि सरकार का प्रमुख अपनी सरकार से क्या और कैसा काम लेना चाहता है। प्रतीक्षित वर्तमान विस्तार के बाद मोदी मंत्रिमण्डल का जो स्वरूप उभरा है वह उन लोगों को भी निराश करता है जिन्होंने उनसे बहुत सारी उम्मीदें लगा ली थीं और आशा कर रहे थे कि उन्हें अपेक्षाकृत एक बेहतर सरकार मिलेगी।   
    मंत्रिमण्डल गठन के पहले दौर में जब संख्या से कम मंत्री बनाये गये थे तब यह उम्मीद जगी थी कि प्रधानमंत्री अपने वादे के अनुसार मंत्रालयों का समन्वय करना चाहते हैं और देश में मंत्रिपरिषद के अनावश्यक बोझ को कम करना चाहते हैं। किंतु जब उन्होंने चुने हुये सदस्यों की तुलना में पराजित और प्रत्याशित सदस्यों को मंत्रिमण्डल में महत्वपूर्ण स्थान दिया तब यह भूल गये कि वे स्वयं ही जनता की पसन्दगी और उसके चयन के प्रति सन्देह व्यक्त कर रहे थे। उल्लेखनीय है कि अपने पहले गठन में उन्होंने लोकसभा चुनाव में पराजित अरुण जैटली, स्मृति ईरानी, समेत प्रत्याशित प्रकाश जावडेकर को सबसे महत्वपूर्ण विभाग दिये जबकि जनता से चुन कर आये अनेक अनुभवी और वरिष्ठ लोगों को हाशिये पर डाल दिया। दूसरे गठन में भी किसी भी सदन के सदस्य न होने वाले मनोहर पार्रीकर, सुरेश प्रभु, आदि को कैबिनेट में महत्वपूर्ण स्थान देते समय यह साबित किया कि चुन कर आने वाले लोग केवल बहुमत बनाने के लिए हैं। अन्य अनेक मंत्री बनाते समय भी योग्यता, क्षमता, आदि को दरकिनार करते हुए लोकप्रियता, जातिवादी व क्षेत्रवादी समीकरण, पर जोर देते हुए उनके चरित्रों और आरोपों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी।
       पिछली अनेक गठबन्धन सरकारों के समीकरणों के कारण सदन के प्रत्येक सदस्य का महत्व बहुत बढ गया था व मोदी के लिए बहुमत बनाने वाले अनेक सदस्य उसी प्रत्याशा में दल बदल कर भाजपा में आये थे और इसी कारण से कई कलाकारों ने अपनी लोकप्रियता को उनके लिए झौंक दिया था। दल बदल कर आने वालों में से कई तो पिछली सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्हाल रहे थे। उदितराज जैसे दलित आन्दोलन के एक्टविस्ट अपनी सोच के विपरीत भाजपा में इसीलिए सम्मलित हुये होंगे ताकि अपने काम को आगे बढा सकें किंतु ऐसे लोग भी हाशिए पर डाल दिये गये हैं।
         यद्यपि यह स्वाभाविक है कि जब गठबन्धन में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो दूसरे दल किनारे कर दिये गये महसूस करने लगते हैं। शिवसेना और अकाली दल तो छिटक ही चुके हैं, गठबन्धबन के दूसरे दलों में भी बेचैनी है। ऐसे में जब बहुमत वाले दल के भी ढेर सारे सदस्य असंतुष्ट हो रहे हों तब सरकार की स्थिरिता पर सन्देह बनने लगता है। अगर पार्रीकर के सहारे गिरिराज सिंह, संजीव बालियान, निहाल चन्द, निरंजन ज्योति, जेपी नड्डा जैसे दर्ज़नों मंत्रियों को ओट में किया जा सकता है तो सवाल यह भी उठता है कि इनके साथ शपथ लेते समय क्या पार्रीकर का व्यक्तित्व कमजोर नहीं हुआ है। प्रथम बार लोकसभा का सदस्य बनते ही प्रधानमंत्री बनने वाले मोदी ने कई ऐसे ही लोगों को मंत्री भी बनाया है, किंतु पूर्णकालिक राजनीति करने वाले और बारह साल तक मुख्यमंत्री रहने वाले मोदी की तुलना में दूसरे नये मंत्रियों का तो कोई अनुभव ही नहीं है व कई तो अपनी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही चुनाव लड़े थे। स्मृति ईरानी, बाबुल सुप्रियो, राज्यवर्धन सिंह, या निरंजन ज्योति आदि कैसे मंत्री साबित होंगे यह भविष्य बतायेगा। जिन विजय सांपला को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय मिला है वे ग्यारह साल सऊदी अरब में प्लम्बर की नौकरी करते बताये जा रहे हैं। सदानन्द गौड़ा का मंत्रालय जिन कारणों से बदला गया है उनके आधार पर उन्हें कानून और न्याय मंत्रालय मिलना कहाँ तक उचित है!           
        मंत्री चुनना भले ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का विशेष अधिकार हो किंतु उसके मंत्रि परिषद गठन के उद्देश्यों को देखते हुए कुछ पात्रताएं तय की जाना चाहिए जो सभी पर लागू हों। लोकतंत्र में विशेष अधिकार भी ऐसे अनुत्तरदायी नहीं हो सकते जिनमें राजशाही या तानाशाही की गन्ध आती हो।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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