मंगलवार, नवंबर 04, 2014

शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था



शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था
वीरेन्द्र जैन

                एक गुर्राता हुआ शेर शिवसेना का प्रतीक था जो बाला साहब ठाकरे के बयानों और कामों से साम्य रखता था किंतु पिछले दिनों घटे घटनाक्रम को देखते हुए अपने दिन गिनता हुआ यही शेर अब शिवसेना के साथ एक व्यंगचित्र की तरह नज़र आने लगा है।
                बाला साहब ठाकरे ने अपना कैरियर एक कार्टूनिस्ट के रूप में प्रारम्भ किया था और दूसरों की गलतियों और दोहरे चरित्रों को उजागर करने का साहस उनमें था। जैसे जैसे उन्होंने राजनेता के रूप में अपना चरित्र विकसित किया यही गुण उनके लेखन और बयानों में दिखने लगा। वे इस मामले में किसी का भी लिहाज नहीं करते थे। अपने मन की बात कहने के लिए उन्होंने कभी भी लाभ-हानि की परवाह नहीं की। वे यह जानते हुए भी कि उनके बहुत सारे काम हमारे राष्ट्रीय आदर्शों से मेल नहीं खाते व इसके लिए उन्हें अपने साथियों और विरोधियों की आलोचना पड़ेगी, वे उन्हें करने में हिचकते नहीं थे। बहुत सारे लोगों को उनका यह दुस्साहस पसन्द आता था। उनकी पार्टी एक छोटी सी क्षेत्रीय पार्टी थी जो बाद में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए का हिस्सा बनी, पर उन्होंने कभी भी खुद को भाजपा का छोटा भाई नहीं बनाया, और जहाँ भी जरूरत समझी वहाँ उनकी खुल कर चुभने वाले शब्दों में आलोचना की।
       उल्लेखनीय है कि एक बार भाजपा उत्तरप्रदेश विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी किंतु उनकी सरकार बिना किसी दूसरी पार्टी की मदद के नहीं बन सकती थी इसलिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया। बहुजन समाज पार्टी ने इसके लिए शर्त रखी कि दोनों दल क्रमशः सरकार बनायेंगे और उनसे कम सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी की सरकार पहले बनेगी। सत्ता के लिए किसी भी तरह का समझौता करने वाली भाजपा ने यह शर्त मान ली पर यह अवधि छह-छह महीने शासन की रखी। यह एक अभूतपूर्व हास्यास्पद समझौता था जिस पर व्यंग करते हुए बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि भाई ये छह छह महीने का समझौता क्या होता है! अरे अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने का समझौता करना था।  
       अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए जब राष्ट्रपति मुशर्रफ भारत आये थे और आगरा में द्विपक्षीय वार्ता हुयी थी तब तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज का उन्हें आदाब करता हुआ एक चित्र समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था जिस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि ये मुजरा करने वाली मुद्रा में मियाँ मुशर्रफ के आगे झुकने की क्या जरूरत थी? प्रमोद महाजन के संचार मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने पिता पर डाक टिकिट जारी करवा लिया। इसी तरह श्रीमती प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के समय उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार की जगह काँग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन किया था। उल्लेखनीय है कि वे शरद पवार को आलू का बोरा कहा करते थे। दिलीप कुमार उनके हमप्याला मित्र रहे तो अमिताभ बच्चन को उनका स्नेह हमेशा मिला, पर समय समय पर ये लोग भी उनकी समीक्षा से बच नहीं सके। बहुत सारी फिल्में उनके विरोध के कारण नहीं बन सकीं व कई अच्छे कलाकारों को उनके विरोध के कारण फिल्म इंडस्ट्री में काम मिलना बन्द हो गया था। श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में वे मुम्बई की साम्प्रदायिक घटनाओं के लिए दोषी ठहराये गये थे तो बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के समय भाजपा के लीपापोती वाले रुख से अलग उन्होंने चारों ओर से हो रही आलोचना के बीच कहा था कि इस काम के लिए उन्हें शिव सैनिकों पर गर्व है। पाकिस्तान की टीम के भारत में खेलने के विरुद्ध वे क्रिकेट मैदान की पिच खुदवा सकते थे और गुलाम अली का प्रोग्राम स्थगित करा सकते थे तहा दूसरी ओर माइकिल जैक्शन का स्वागत कर सकते थे। मीडिया के अनेक लोगों और मीडिया कार्यालयों पर शिवसैनिकों ने हमले किये जिसके लिए उन्होंने कभी खेद व्यक्त नहीं किया। वे अपने विरोधियों और सरकार दोनों पर ही अपनी मनमानी थोपते रहते थे। शायद यही निर्भीकता उनके स्थानीय क्षेत्रीयतावादी समर्थकों को बहुत भाती भी थी, और ऐसा लगता था कि बहुत सारे काम वे इसी पसन्दगी को बनाये रखने के लिए करते भी थे।
       पिछले दो दशकों से शिवसेना का जो क्षरण शुरू हुआ वह बाला साहब के निधन के बाद तेज हो गया जिसे न समझ पाने के कारण काँग्रेस एनसीपी सरकार की एंटी इनकम्बेंसी का लाभ भाजपा ने उठा लिया व शिवसेना से समझौता किये बिना ही वह विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। शिवसेना से विद्रोह करके पिछड़े वर्ग के नेता छगन भुजबल बाहर निकले थे, बाद में तो नारायण राणे भी बाहर आ गये। विरासत के सवाल पर उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली और पुत्र मोह से ग्रस्त उम्रदराज होते बाला साहब कमजोर पड़ते गये, पर उनके वचनों में अंतर नहीं आया। उद्धव ठाकरे के अस्वस्थ होने पर उन्होंने राज ठाकरे से मार्मिक अपील करते हुए पुकार लगायी कि उद्धव को तुम्हारी जरूरत है। इस अपील पर राज ठाकरे उन्हें देखने तो आये पर उन्हें अपना नेता स्वीकार नहीं कर सके। उनकी बहू के काँग्रेस की ओर झुकाव की खबरें आयीं तो उनकी पौत्री के अंतर्धार्मिक विवाह की खबरें भी उनकी कमजोरी की प्रतीक की तरह देखी गयीं। प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के असामायिक निधन से भाजपा शिवसेना को जोड़े रखने वाली कड़ी क्रमशः कमजोर होती गयी।    
       इतना सब होने पर भी उद्धव ठाकरे बाला साहब की पुरानी ठसक से भरे रहे और लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर के सहारे मिली जीत को उन्होंने अपनी जीत समझा। एनडीए की जीत में पाँच प्रतिशत हिस्सेदारी के बाद भी जब केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में कुल एक स्थान मिला तो यह उनके लिए संकेतक था। भाजपा के खिलाफ उन्होंने बाला साहब के पुराने अन्दाज़ में मोर्चा खोलना चाहा और शाल साड़ी डिप्लोमेसी की आलोचना कर डाली जिसके विरोध में मोदी को कठोर सन्देश भिजवाना पड़ा था कि इस मामले में उनकी माँ को न घसीटा जाये। यह वही समय था जब अपने सहयोगियों द्वारा विरोध के प्रति कठोर मोदी ने शिवसेना के पर कतरने का फैसला कर लिया। इसी बीच शिवसेना के संसद राजन विचारे ने महाराष्ट्र सदन में एक रोजेदार के मुँह में रोटी ठूंसने की घटना की जो चहुँ ओर निन्दित हुयी पर भाजपा ने अपने एनडीए के साथी का बचाव नहीं किया। शिव सैनिकों द्वारा टोल न चुकाने और माँगने पर तोड़फोड़ की जाती रही जिसे बाद में राज ठाकरे ने भी अपना लिया था।
       किंतु मोदी उद्धव ठाकरे और बाला साहब के अंतर को जानते थे और उद्धव की गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने विधानसभा चुनावों में शिव सेना की शर्तों को मानने से साफ इंकार कर दिया। न तो मुख्यमंत्री का पद देना जरूरी समझा और ना ही उनके द्वारा मांगी गयी सीटें ही उन्हें दीं। उद्धव ने भाजपा से कहा कि वह हवा में तलबारबाजी न करे व ज़मीन पर पैर रखे। गठबन्धन रहे या न रहे पर मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा ने राजनीतिक फायदे के लिए हिन्दुत्व का स्तेमाल किया। उन्हें अफज़ल खान बताते हुए यह भी कहा कि जो भी महाराष्ट्र को जीतने आये वे यहीं दफन हो गये। गठबन्धन टूटने के बाद भी शिवसेना के मंत्री अनंत गीते ने मोदी मंत्रिमण्डल से स्तीफा नहीं दिया। बयानों में कटु होते हुए बात नरेन्द्र मोदी के पिता तक भी पहुँची तो नफरत गहरी होती गयी पर कूटनीतिक भाजपा ने संयम बनाये रखा। शिवसेना ने भाजपा समर्थक दलित नेता रामदास अठावले को जोकर भी कहा और उन्हें शोषित जातियों के प्रति धोखा देने वाला भी बताया।
       इतना सब होने के बाद भी शिवसेना का भाजपा के साथ फिर से पींगें बढाना खतरनाक है क्योंकि जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि मोदी न तो कभी माफी माँगते हैं और न करते हैं। मोदी दोस्ती या विरोध दोनों ही तरीकों से शिवसेना को मिटा कर भाजपा में समाहित कर लेंगे। वचनों में बाला साहब की तरह कठोर होना उद्धव वहन नहीं कर सकते। एनडीए के सारे ही दल क्रमशः टूटने की दशा में पहुँचा दिये गये हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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