रविवार, अक्टूबर 25, 2020

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर] साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह

 

श्रद्धांजलि/ संस्मरण - हरीश दुबे [स्मृति तिथि 28 अक्टूबर]

साहित्य से जनित आभासी संसार का नागरिक था वह  




वीरेन्द्र जैन

वे कालेज से निकलकर रोजगार की खोज वाले दिन थे जब उससे परिचय हुआ था। दतिया जैसे कस्बे में काफी हाउस कल्चर नहीं था और ना ही रोज रोज काफी हाउस का बिल चुका सकने की क्षमता वाले लोग थे. पर उसका विकल्प सस्ती चाय के होटल के रूप में मौजूद था। किला चौराहा इकलौता केन्द्रीय स्थान था जहाँ रोज हाजिरी लगाना हर जागरूक नागरिक का कर्तव्य भी था और मजबूरी भी थी क्योंकि इस स्थान के इर्दगिर्द ही नब्बे प्रतिशत बसाहट थी और कहीं भी जाने के लिए यहीं से होकर गुजरना होता था। हम लोगों जैसे बेरोजगार या खुद के घेरे से से बाहर निकल कर सामाजिक कार्यकर्ता बनने का ‘प्रशिक्षण’ लेने वाले युवा, पत्रकार, लेखक, संगीतकार, बुद्धिजीवी आदि कुछ ज्यादा ही समय उन चाय के होटलों में बिताते थे जिनमें बैठकर क्रिकेट की कमेंट्री भी सुनी जाती थी और बिनाका गीतमाला भी [ तब टीवी नहीं आया था]। इन होटलों में चार पाँच अखबार भी आते थे जिन्हें पढने के लालच में वे सात्विक लोग भी आ जाया करते थे जो होटल के कपों, गिलासों में चाय पीना पसन्द नहीं करते थे। बहरहाल सुन्दर और नरसू के इन दो होटलों में बैठ कर पूरे नगर के प्रमुख लोगों से मिला जा सकता था या उस समय उनकी स्थिति का पता मिल सकता था।

हायर सेकेंड्री स्कूल के एक लेक्चरर दार्शनिक किस्म के श्री वंशीधर सक्सेना की वह स्थायी बैठक थी और वे जब अपने स्कूल या सोने व खाना खाने घर न गये हों तो वहीं मिलते थे। वेतन मिलते ही वे पूरे पैसे लाकर सुन्दर [सिन्धी होटल मालिक]  को सौंप देते थे, और जब जितनी जरूरत पड़ती थी उतने मांगते रहते थे। न उन्होंने कभी हिसाब मांगा और न ही सुन्दर ने कभी खयानत की। वंशीधर मास्साब के बच्चे नहीं थे व उनकी पत्नी दृष्टिहीन थीं, वे अपने बड़े भाई के साथ संयुक्त परिवार में पैतृक मकान में रहते थे। खाने पीने व पहनावे में लापरवाह, वे उम्र का लिहाज किये बिना सबके मित्र, सखा, अभिभावक थे। खूब पढे लिखे थे, पर अपनी पढाई के अहंकार से दूर, और हर विषय पर सहज और निरपेक्ष भाव से बात कर लेने वाले व्यक्ति थे। झेन दर्शन के सहज भाव वाले व्यक्ति वंशीधर जी चुटकलों वाले फिलास्फर ही थे जो बेल्ट नहीं मिलने पर अपनी पेंट को नाड़े से भी बाँध सकते थे। वैसे वे अंग्रेजी और दर्शनशास्त्र में एमए थे। मेरे कुछ अधिक ही मित्र थे क्योंकि वे कहते थे कि मित्रता के लिए उम्र नहीं मानसिकता समान चाहिए होती है। मैं उनकी उदारता के बाद भी उनकी वरिष्ठता का सम्मान करता था किंतु हरीश में बचपना था व वह उनके मुँह लगा हुआ था। वह उम्र को नजर अन्दाज कर खुला सम्वाद कर लेता था। वैसे भी वह जीवन भर मुँहफट रहा।  

सथियों की कमजोरियों का उपहास उस स्थान का मुख्य शगल था। सब एक दूसरे की कमजोरियों का मजाक बना के खूब खिलखिलाते थे और यह काम तब कुछ अधिक ही होता था जब सम्बन्धित अनुपस्थित हो, इसलिए सबकी कोशिश यह होती थी कि समूह के जुटने से पहले ही पहुँच जाये, नहीं तो उसीकी छीछालेदर हो रही होती। उन दिनों हम लोगों के बीच आचार्य रजनीश चर्चा में थे, जो उनके द्वारा खण्डन का दौर था। इन अर्थों में हम सब क्रांतिकारी भी थे।  

यह बहुत बाद में पता चला कि समूह के लोगों में उम्र में सबसे छोटा हरीश बहुत कठिन समय में गुजर रहा था और फिर भी खूब खिलखिला लेता था, और बेलिहाज हो गया था।

दतिया उस सामंती प्रभाव वाला क्षेत्र था जहाँ ज्यादातर लोग निर्धन थे पर ‘गरीब’ नहीं थे। उनके इस चरित्र को कभी किसी ने शब्द दिये थे जो कहावत बन गये। वे शब्द थे-

ऎंठ दतिया में, / पेंठ दतिया में, / सज्जन, सुजान सें न भेंट दतिया में,

मिर्चुन [बिरचुन अर्थात बेरों का चूर्ण] घोर खांय पथरोटिया में।

अर्थात पत्थर की प्याली में बेरों के चूर्ण को घोल कर पीने वाले भी अपनी अकड़ और स्थान बना कर रखते हैं और व्यवहार में सरल व विनम्र लोगों से भेंट होना दुर्लभ ही है। कहने वाले के अपने अनुभव रहे होंगे।  

ये सारी कहावतें मध्यम वर्ग या मध्यमवर्गीय जातियों के चरित्र को लेकर ही बनायी जाती रही हैं क्योंकि उस दौर में निम्न वर्ग या निम्न मानी जाने वाली जातियां तो नगर के चरित्र की पहचान नहीं बनाती थीं। हरीश न केवल जाति से ब्राम्हण था, अपितु स्कूल इंस्पेक्टर के पद पर रहे पिता की सात संतानों में सबसे छोटा था। अपनी नौकरी और जाति के कारण पिता में एक कड़कपन और स्वभाव में कठोरता थी। उन्होंने न केवल अपनी संतानों को बड़ा किया था अपितु उन्हें सरकारी स्कूल में अपने समय की यथा सम्भव उच्चतम शिक्षा प्राप्त करने को प्रेरित किया था। उनके सबसे बड़े बेटे रमेश उस दौर में एमबीबीएस थे अपितु फौज में कैप्टन रहे। उनसे छोटे सुरेश हाईकोर्ट ग्वालियर में अपने समय के सफल वकील रहे। उनसे छोटे लेखक दिनेश चन्द्र दुबे न केवल एडीशनल डिस्ट्रिक्ट जज रहे अपितु अपने लीक से हट कर न्यायिक फैसले लिखने के लिए भी जाने जाते रहे। वे कई कथा व कविता पुस्तकों के लेखक और कवि भी रहे।  प्रारम्भिक दौर में निर्भीकता से उन्होंने आमजन को न्याय दिलाने में स्थापित परम्परा से हट कर भी निर्णय किये। हाईकोर्ट की अनुमति के बिना किसी फिल्म में जज का अभिनय कर लेने के कारण उन्हें समय से पहले सेवा निवृत्त भी होना पड़ा। उनसे छोटे प्रेमचन्द्र दुबे चीफ म्युनिसिपल आफीसर रहे और उनसे छोटे प्रकाश चन्द्र दुबे एमबीबीएस सरकारी चिकित्सक रहे। प्रेम और प्रकाश दोनों बीएस-सी में मेरे क्लासफैलो भी रहे। इनसे छोटे गिरीश चन्द्र दुबे पेशे से तो हायर सेकेंड्री स्कूल में लेक्चरर रहे किंतु इसके अलावा भी अन्य गतिविधियों में सक्रिय रहे। हरीश सबसे छोटा था। हाँ इन सबकी एक बड़ी बहिन भी थीं जिनका विवाह एक डाक्टर साहब से हुआ था जो मध्य प्रदेश के गुना जिले में सिविल सर्जन होकर सेवानिवृत्त हुये। हरीश के चाचा हाईकोर्ट के जज व ला कमीशन के सदस्य रहे और चचेरे भाई भी डिस्ट्रिक्ट जज आदि रहे। अगर हरीश के भाइयों के रिश्तेदार व भतीजी भतीजों के बारे में भी चर्चा की जाये तो उनके सामाजिक रुतबे की बात बहुत दूर तलक चली जायेगी।

इतनी रिश्तेदारियों के बीच भी वह अकेला था और अब कह सकता हूं कि वह हम सब की तरह निर्धन ही था और वह यह बात जानता था। उसने कभी बताया था कि पिता ने अपनी शुरू की संतानों को कठोर अनुशासन में प्रारम्भिक पढाई का माहौल तो दिया किंतु लगभग उन सबने अपना कैरियर खुद ही बनाया, घर में दो एमबीबीएस डाक्टर, एक जज, एक हाई कोर्ट का वकील, एक मुख्य नगर पालिका अधिकारी, एक बेटा लेक्चरर, और एक एपीपी [हरीश] हुये। पिता ने अपने कुल गोत्र अनुसार उनका ब्याह करना अपना दायित्व या कहें कि अधिकार माना व कई मामलों में पुत्रों की इच्छा के विरुद्ध भी उनका ब्याह कर दिया था। हरीश मुझ से कुछ ज्यादा ही खुला हुआ था।  उसमें लेखक हो सकने की पूरी सम्वेदनशीलता मौजूद थी। वह दृष्टा की तरह अपने और अपने परिवेश के जीवन को तट्स्थ भाव से देख सकता था, उनकी अच्छाइयां, बुराइयां मुझे बता सकता था। उसने हँसते हुए बताया था कि उसके एक प्रेमी रहे भाई की शादी के समय उनको घोड़े पर बैठाने के बाद पिताजी ने दो बन्दूक वाले भी लगाये थे ताकि वे भाग न सकें। विवाह के बाद अपने भाइयों को पिता की तरह पालना सबके लिए कठिन होता है जो उनके भाइयों को भी रहा होगा। हरीश के बड़े भाइयों ने अपने से छोटों को अभिभावक बन कर पढाया और अनुशासित रखा किंतु भाई व भाभियों का अनुशासन माता पिता के अनुशासन से अलग महसूस होता है। जिनमें स्वाभिमान की मात्रा कुछ अधिक हो उसे कुछ ज्यादा ही महसूस होता होगा। फिर सबसे बड़े भाई साहब कैप्टन रमेश शार्ट सर्विस कमीशन से जल्दी रिटायर होकर आ गये व फौज की कुछ ऐसी आदतें लेकर आये जो सिविल जीवन के अनुकूल नहीं मानी जाती थीं। वे इतने एडिक्ट हो गये थे कि शराब न मिलने पर टिंचर तक पी जाते थे। उनकी ग्वालियर मे नियुक्त व्याख्याता पत्नी बच्चों ने उनसे दूरी बना ली थी और बाद में हरीश के माँ बाप ने उन्हें भी छोटे बच्चे की तरह पाला। पिता की पेंशन से काम नहीं चलता था इसलिए माँ गाहे बगाहे घर के गहने भी बेच देती थीं।

ऊपर से दूसरे नम्बर के भाई वकील सुरेश चन्द्रजी के संरक्षण में रहने पर हरीश आदि भाइयों को हिसाब से स्कूल फीस, किताबों, कपड़ों के लिए पैसे तो मिल जाते थे किंतु किशोर और युवा मन को अगर सिनेमा देखने के लिए पैसों की जरूरत हो तो वह काम अनैतिक माना जाता था, व भाभी के ताने भी सुनना होते थे। जिन्हें हर समय याद आ जाता था कि तुम्हारी माँ ने हमारे सारे गहने रख लिये हैं। ये ताने माँ के प्रतिनिधि के रूप में हरीश को ही सुनने और सहन करने पड़्ते थे, शायद दूसरे भाइयों को भी सुनने पड़े हों। बाद में इन भाभी ने आत्महत्या कर ली थी।

 जब हरीश दिनेश चन्द्र जी के साथ रहे तो जज के भाई होने के कारण कुछ सम्मान सुविधाएं तो मिलीं किंतु वहाँ भी उनकी सोच के अनुसार चलना पड़ता, जैसा वे चलना नहीं चाहते थे। वैसे दिनेश जी, इस सबसे छोटे भाई को अपने दोस्त का दर्जा भी देते थे, पर यहाँ भी भाभी फैक्टर काम करता था। हरीश को दिनेशजी से साहित्य में कैरियर बनाने से लेकर साहित्य पढने की रुचि भी मिल गयी थी। दिनेशजी हर काम आक्रामक रूप से करना पसन्द करते थे और पद के सहारे कर भी लेते थे। उन्हें छपना पसन्द था और जज होने के कारण उन्हें वरीयता भी मिल जाती थी। हरीश को भी उसका कुछ लाभ मिलने लगा। उस दौर को उसने अपनी परिष्कृत रुचि को और संवारने में लगाया। दिनेशजी के घर पर आने वाली ढेरों पत्र पत्रिकाओं के अलावा उसने लाइब्रेरी और हिन्दी के प्रोफेसरों से प्राप्त कर खूब सारा अच्छा कथा साहित्य पढा, और अपने जीवन के अनुभवों से मिला कर उसके मर्म तक भी पहुंचा। निर्मल वर्मा, गिरिराज किशोर आदि उसके प्रिय लेखक रहे।

उसने कविताएं, कहानियां, और गज़लें लिखीं। इसी साहित्य ने हरीश को गढा। और इसी के कारण उसका जीवन, असामान्य होकर सामाजिक मान्यताओं के अनुसार, बिगड़ा भी। विपुल कथा साहित्य पढ लेने के बाद वह मेरे साथ बैठ कर वह किसी के भी जीवन का विश्लेषण कर उसकी कमजोरियों पर कटाक्ष कर सकता था। इसमें वह मेरे जीवन और परिवार को भी नहीं बख्शता था। उसके कटाक्ष ने मुझे समय समय पर बहुत कुछ संवरने. सुधरने का मौका भी दिया। वह इतना सद्भावी था कि उस निन्दक को आंगन कुटी छवा कर नियरे राखने का मन करता था। ह्रदय से निर्मल होने के कारण मित्रों के घर की महिलाओं के साथ भी वह सबके सामने बेलिहाज बात कर लेता था और उसका कोई बुरा नहीं मानता था। वकार सिद्दीकी साहब बहुत वरिष्ठ थे और मेरे माध्यम से ही वह उनके सम्पर्क में आया था किंतु उनकी पत्नी उसकी सगी भाभी जैसी हो गयी थीं।   

मेरे प्रति हरीश की रुचि इसलिए ही जगी थी क्योंकि मैं उन दिनों धर्मयुग में लगातार छप रहा था और एक खास घटना के कारण मेरे नाम के आगे दतिया भी लिखा जाने लगा था। श्रेष्ठ पत्रिका में प्रकाशित लेखक प्रमाणित लेखक भी माना जाता है क्योंकि उसकी रचनाएं अपने समय के कठोर परीक्षक की निगाह से गुजर कर ही प्रकाशित हो पाती हैं। हरीश ने इस बीच में निर्मल वर्मा आदि को पढा और पसन्द किया। इसी बीच कमलेश्वर सम्पादित सारिका की समानान्तर कहानियां भी उसे पसन्द आती रहीं। उसके जीवन में उतार चढाव आते रहते थे, दिनेश जी के साथ रहता था तो जज के भाई के रूप में प्राप्त विशिष्ट व्यवहार पाता और दतिया में रहता था तो खाली जेब पाया जाने वाला जूनियर दोस्त होता था, जिसे सीनियर पैसे देकर सिगरेट लाने भेज सकते थे। सहकारी पार्टियों में उसे निःशुल्क शामिल किया जाता था। किसी तरह एलएलबी कर लेने के बाद उसे जरूरत थी नौकरी और निर्मल वर्मा के पात्रों की तरह भावुक प्रेम की। दोनों ही कठिन थे, क्योंकि वह निर्मल वर्मा की कहानियों के परिवेश में नहीं ठेठ देशी कस्बे में रह रहा था। इसी दौरान उसने एलएलबी करने के बाद प्रैक्टिस शुरू कर दी। उसके आदर्श विचारों को न तो प्रैक्टिस सूट कर रही थी और न ही वांछित भावुक प्रेम मिल पा रहा था। सामान्य लड़कियों को प्रेमी भी वैसा चाहिए होता है जो जल्दी ही कमाऊ पति होता दिखायी दे रहा हो। रिश्ते की बहिनों का सहारा लेकर उसने कई जगह सम्भावनाएं तलाशीं, पर गहरी समझ और भावुक, त्याग करने वाला प्लेटोनिक लव कहीं नहीं मिला। सारी लड़कियों को पिता व भाई की अनुमति से सुरक्षित जीवन का भरोसा देने वाला पति चाहिए था।

 उसकी उम्र बढ रही थी। खाली जेब वकील के स्वरूप से मुक्त होने के लिए उसने सबसे पहले नौकरी प्राप्त की जिसमें उसकी उच्च पद वाली रिश्तेदारियां भी कुछ काम आयीं और वह असिस्टेंट पब्लिक [तब पुलिस] प्रासीक्यूटर [एपीपी] हो गया। राहत मिली, पर काम चाहता था कि धारा के साथ बहो, जो उसे मंजूर नहीं था। कार्यालय में पीने के पानी के लिए घड़े नहीं होते थे, चैम्बर नहीं था, परदे नहीं थे, यहाँ तक कि विभागीय लाइब्रेरी भी नहीं होती थी। एपीपी को लाइब्रेरी के लिए किसी बड़े वकील के चैम्बर में जाना होता था और उनका अहसान लेना होता था। जिन आरोपियों के खिलाफ उसे पुलिस की ओर से मुकदमा लड़ना होता था उनमें से कई के पास खूब पैसा होता था और वे बड़े बड़े वकील करते थे। वह कहता था कि आम आदमी को न्याय दिलाना बहुत कठिन काम है, क्योंकि पूरी व्यवस्था उसके खिलाफ काम कर रही होती है। सजा दिलाने से पुलिस इंस्पेक्टर का रिकार्ड सुधरता है इसलिए वह कोर्ट साहब [एपीपी] के लिए डायरी में पैसे रख कर लाता है। हरीश ने वे पैसे लेने से मना कर दिया जिसका उसके साथी एपीपियों को बुरा लगा तो पुलिस भी सोचती थी कि कहीं एपीपी साहब नाराज तो नहीं। उसने बाद में पैसे की जगह विकल्प के रूप में पुलिस इंसपेक्टर से आफिस में नये घड़े रखवाने, परदे लगवा देने या भोपाल से कानून की किताबें मंगवा देना स्वीकार करना शुरू कर दिया। आफिस के साथियों को वह सनकी और अलग तरह से काम करने वाला लगने लगा इसलिए चतुर वरिष्ठों ने विभाग का कचरा काम उसकी ओर खिसकाना शुरू कर दिया व कमाई वाला काम खुद लेने लगे। जब उसे लगा कि ये लोग उसे बेबकूफ समझ रहे हैं तो उसने काम के नियमपूर्वक वितरण का सवाल उठाया। परिणाम यह हुआ कि उस की झूठी शिकायत कर साथियों ने उसे ही सस्पेंड करवा दिया। सस्पेन्ड करने वाले कलैक्टर थे श्री अरविन्द जोशी जो बाद में अपनी आईएएस पत्नी सहित कई सौ करोड़ की अवैध कमाई के आरोप में जेल में रहे हैं। उस समय उसकी पोस्टिंग मुरैना में थी और वह ग्वालियर रहता था। शादी की उम्र निकली जा रही थी और वह अपनी भाभियों, भाइयों के तनावपूर्ण रिश्ते देख कर पत्नी नहीं, अपितु प्रेमिका पत्नी की तलाश में था।  

इसी बीच ग्वालियर से मुरैना जाते हुए उसकी मुलाकात ट्रेन में साधना [पत्नी] से हुयी और साधना के घरवालों की असहमति के बाबजूद हिन्दुओं की शादी के आफ सीजन में भी सभी दोस्तों ने मिल कर एक मन्दिर में शादी करा दी। उस दिन तिथि थी आठ आठ अठासी। शादी में बाद में विधायक रहे शम्भू तिवारी समेत लगभग सभी हिन्दू, मुस्लिम सिख, सिन्धी, जैन, ईसाई मित्र सम्मलित थे, और सबको लग रहा था कि कोई ठीक काम किया है, शादी में उसने मित्र अकील वेग से मांग कर लगभग नई कमीज पहिनी थी। वह अपने अध्ययन से जनित भावना के साथ अपनी पत्नी से भरपूर प्रेम करने लगा व उन मित्रों से कट गया जो कभी उसके लिए भाइयों और रिश्तेदारों से भी बढ कर थे। वैसा ही प्रेम उसका बच्चों के साथ भी रहा। वह बच्चों की इच्छा पर उनके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता था। उस लाढ-प्यार और बच्चों के साथ दोस्तों जैसी बातों ने बच्चों के दिमाग में भी उसकी आम पापा से भिन्न छवि निर्मित कर दी थी । बच्चे अपने पिता को सक्षम समझते थे क्योंकि उन्हें पता ही नहीं था कि उसका पिता अपने बच्चों की इच्छाएं कैसे पूरी करता है। वह बेईमानी नहीं करता था किंतु बच्चों के लिए अपने सक्षम मित्रों से उधार लेने में कोई संकोच नहीं करता था।   

उसकी पत्नी साधना का परिवार भी अपने उत्थान पतन का रोचक इतिहास रखता था। साधना के पिता भी कभी मजिस्ट्रेट हुआ करते थे किंतु अपनी सिद्धांतवादिता में उन्होंने नौकरी छोड़ दी थी व प्रैक्टिस करने लगे थे। वे योग्य थे किंतु अच्छी प्रैक्टिस के लिए जो व्यवहारिक व्यावसायिकता चाहिए होती है उसका अभाव था। उनके तीन बेटियां थीं, जब उनकी मृत्यु हुयी तो केवल बड़ी बेटी की शादी हुयी थी। साधना सबसे छोटी थी। सबसे बड़ी बेटी की शादी आगरा में श्री लवानिया जी से हुयी थी जो वहाँ वकील थे और भाजपा के सक्रिय नेता थे। बाद में वे आगरा के मेयर भी चुने गये थे। मझली बेटी बाद में हायर सेकेंडरी स्कूल में लेक्चरर नियुक्त हुयीं। उन्हें जिन से शादी करनी चाही थी उनकी पहले कभी शादी हो चुकी थी व तलाक का केस चल रहा था, जो चलता रहा व उसके फैसले की प्रतीक्षा में इतना लम्बा समय निकल गया और दोनों के दिल से विवाह की तमन्ना ही निकल गयी, पर वे अभिन्न मित्र बने रहे। उन दिनों लिव इन रिलेशन शब्द नहीं आया था और वैसी स्थिति को सामाजिक स्वीकृति नहीं थी। हरीश भी अपनी सैद्धांकिता में उन्हें पसन्द नहीं करता था। साधना के भी ऐसे ही विचार थे। कभी मजिस्ट्रेट रहे साधना के पिता ने जरूरत पड़ने पर किसी साहूकार से पैसे उधार लिये थे और मकान कुर्क होने की नौबत आने पर आगरा वाले दामाद ने वह उधार चुका दिया था। उन्होंने अपनी नैतिकिता में नगर के मुख्य मार्ग पर स्थित अपना मकान दामाद के न चाहते हुए भी उनके नाम कर दिया था। बाद में उन्होंने भी अपनी वसीयत में  वह मकान अपनी पत्नी समेत तीनों बहिनों के नाम कर दिया था जिसके आधार पर साधना और हरीश भी उसके एक हिस्से के हकदार हुये। जब साधना को उसकी मझली बहिन और माँ ने बड़ा किया था। उसे अपनी बड़ी बहिन का मित्र पसन्द नहीं आता था इसलिए बड़ी बहिन से तनाव के सम्बन्ध रहते थे। पर वे ही घर की प्रमुख थीं। घर में परम्परागत रूप से किसी पुरुष का संरक्षण और अनुशासन नहीं था। शिक्षा पूरी करते ही साधना ने पोस्टल विभाग में अस्थायी नौकरी भी की थी और हरीश के अनुसार संरक्षण की चाह में उसकी इच्छा रही होगी कि जल्दी से जल्दी उसकी शादी हो जाये ताकि यह असुरक्षित घर छूटे। इसी दौरान उसकी मुलाकात हरीश से हो गयी थी और जल्दी ही वे अंतरंग हो गये और दोनों ने विवाह का फैसला कर लिया था। घर में पिता नहीं थे, बड़ी बहिन ने माँ की देखभाल का जिम्मा लिया हुआ था और जो खुद की शादी न करने का फैसला कर चुकी थी। बड़ी बहिन की दशा तक पहुँचने से बचने के लिए ही साधना ने हरीश से शादी जल्दी में मन्दिर में गैर परम्परागत ढंग से की थी, जिसमें केवल हरीश के दोस्त ही सम्मलित हुये थे।

कुछ समय बाद हरीश की पोस्टिंग गुना हो गयी। बच्चे हुये। हरीश दोस्तों और उनकी महफिलों को भूल गया। बच्चों से उसने डूब कर प्यार किया। वह परिवार के रहन सहन में शाह खर्च था। उसके पास ना तो कुछ अतिरिक्त आय थी और ना ही किसी मुश्किल वक्त के लिए कुछ बचा कर रखने की आदत थी। स्वाभिमान इतना था कि भाइयों से सहायता मांगना उसे मंजूर नहीं था क्योंकि वे पैसे की जगह अपना जीवन दर्शन देने लगते थे, जिसके प्रति उसे वितृष्णा थी। कुछ समय बाद उसके मिलने जुलने वालों मित्रों का भी यही हाल हो गया, जो सलाह भी साथ में देने लगे थे। अभावों में भी उसने अपने मित्रों ही नहीं अपितु वरिष्ठ अधिकारियों से भी अपने सिद्धांतों के विपरीत किसी तरह का समझौता नहीं किया। खीझ कर उन्होंने उसे मुख्यधारा से हटाने के लिए उसका ट्रांसफर पुलिस प्रशिक्षण संस्थान में करवा दिया। उसका विचार था कि यह ट्रांसफर नियमानुसार नहीं है क्योंकि वह पुलिस विभाग का कर्मचारी नहीं है और प्रासीक्यूशन का डायरेक्टोरेट अलग है। बच्चे गुना के सबसे अच्छे स्कूल में पढ रहे थे और वह उन्हें दूसरी जगह नहीं ले जाना चाहता था। वह ट्रांसफर पर नहीं गया, इसलिए फिर सस्पेंड कर दिया गया। स्वाभिमान की इस लड़ाई में वह दो साल तक सस्पेंड रहा। इस दौरान भी उसने अपने बच्चों की पढाई और खर्चों में किसी तरह की कमी नहीं की। अभावों से परिवार में तनाव बढने लगा और पत्नी ने अपनी बहिन से सहायता मांगी जो उन्होंने दी। हरीश को लगा कि यह मकान के हिस्से के रूप में दी जा रही है। हरीश डिप्रैशन जैसी दशा में चला गया। जब उधार ज्यादा बढ गया तो उन्होंने पत्नी के कहने पर गुना छोड़ देने का निश्चय किया या कहें कि उसे छोड़ना पड़ा।

इस बीच उसकी माँ का निधन हो चुका था और बेसहारे वृद्ध पिता को उनके एक भतीजे ने सहारा दिया व अपने साथ ले गये। पिता ने भी अपने इलाज आदि खर्च पूरे करने के लिए मकान को उसके नाम कर दिया था जिसने देख रेख न कर पाने के कारण बेच दिया था। पिताजी ज्यादा दिन नहीं रहे। अब हरीश के पास कहीं भी कोई अपना मकान नहीं था। उसे ससुराल में ही आकर रहना पड़ा। बड़े हो चुके बच्चों को उस तरह से रहने की आदत नहीं थी। बहिन ने बड़े बच्चे का प्रवेश इन्दौर के एक इंजीनियरिंग कालेज में करा दिया। लड़का इस माहौल से बाहर तो निकलना चाहता था किंतु इंजीनियरिंग नहीं पढना चाहता था। बहरहाल उसको घुटन से राहत मिली। पर हरीश की घुटन बढ गयी थी। संयोग से उन दिनों प्रदेश के गृहमंत्री दतिया से ही थे, जिन से कह कर बड़ी बहिन और पत्नी साधना ने सस्पेंसन हटवा दिया और शाजापुर के आगर मालवा में पोस्टिंग मिली। रोचक यह रहा कि हरीश किसी के भी पास खुद आवेदन लेकर नहीं गया। शायद डाक्टर की सलाह पर वह प्रतिदिन एक घंटे किसी आत्मीय मित्र से बात करना चाहता था और उसके पास वह मित्र मैं ही था, इसलिए रोज फोन पर बातें होती थीं। ऐसा महीनों चला। फिर उसे सरकारी क्वार्टर भी मिल गया व परिवार भी आ गया। बाद में उसका ट्रांसफर भोपाल हुआ।

भोपाल में उसकी नौकरी के सस्पेंशन आदि के समय का निराकरण भी हो गया और सर्विस में ब्रेक नहीं माना गया। पूरी तनख्वाह मिलने लगी, पिछला बकाया भी कुछ मिला, वरिष्ठता भी मिली। बड़े बेटे ने अपने आप इंजीनियरिंग छोड़ कर मीडिया की पढाई शुरू कर दी। हरीश फिर मुझ से कट गया। कई साल बाद उसका रिटायरमेंट आ गया तो वह सेवानिवृत्ति पर मिला पैसा शाही तरीकों से बच्चों पर खर्च करने लगा। एकाध बार मैंने उसे टोका भी किंतु वह हमेशा की तरह मेरी मितव्यता पर हँस दिया। मैं बुझ गया। सलाहों से बचने के लिए उसने मिलना जुलना और बात करना भी बन्द कर दिया था।

शायद उसके साथ फिर ऐसा हो गया था जिसे वह मुझे तक बताना नहीं चाहता था। वह डिप्रेशन में चला गया था। घर से बाहर निकलना बन्द कर दिया था और घुलता जा रहा था। एक दिन साधना का फोन आया कि मैं उन्हें समझाऊं। वह कभी घर पर नहीं बुलाता था, इसलिए मैंने उसे यूनीवर्सिटी में बुलाया जिसके सामने के भवन में वह रहता था। उसने कुछ नहीं बताया किसी सवाल का जबाब नहीं दिया। उसकी काया बिल्कुल जर्जर हो चुकी थी। वह केवल इतना कह रहा था कि सब कुछ बर्बाद हो गया। समझ में आ गया कि उसमें अब जीने की कोई इच्छा बाकी नहीं है। बिना पूरा सन्दर्भ जाने मैंने उसे कुछ सलाहें सी दीं और चला आया। मैं जानता था कि जब वह मुझ से ही कुछ बात नहीं करना चाहता तो और किसी से क्या बात करेगा! वही हुआ, 28 अक्टूबर 2018 के दिन उसके ना रहने की प्रत्याशित खबर भर आयी। उसकी मृत्यु को मैं पहले ही जी चुका था, और निरुपाय था।

उसने खुद कई बार मेरे आक्रोश में लिये फैसलों पर मुझे सम्हाला था और बताया था कि अपने जैसे मध्यमवर्गीय परिवारों में ऐसे दुख सुख आते रहते हैं। मैं उसका अहसानमन्द था किंतु उसके लिए कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं था। इस स्मृति को मैंने हरीश की सामाजिक परिस्तिथियों तक ही सीमित रखा है, उसके निजी जीवन, रचनात्मक योगदान, और उसके विश्लेषणों पर लिखना बाकी है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

                 

गुरुवार, अक्टूबर 08, 2020

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य

 

रिया को जमानत के बड़े परिप्रेक्ष्य


वीरेन्द्र जैन

कुछ टीवी चैनलों, और लगभग भोंकने काटने के अन्दाज में चिल्लाने वाले टीवी एंकरों ने सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु को जानबूझ कर सनसनीखेज बनाया था। यह कहना सही नहीं होगा कि रिया चक्रवर्ती को मिली जमानत ने उसका पटाक्षेप कर दिया है। सच तो यह है कि कहानी यहाँ से शुरू होना चाहिए। इस कहानी ने पूरे देश की राजनीति, अर्थव्यवस्था, कानून व्य्वस्था, संचार व्यवस्था, धर्म, संस्कृति आदि में छुपी सड़ांध को उघाड़ कर रख दिया है।

सबसे पहले तो बता दूं कि किसी भी स्वनिर्मित, सम्भावनाशील, लोकप्रिय, युवा कलाकार के असामायिक निधन पर किसी भी परिचित, अपरिचित मनुष्य को दुख होना स्वाभाविक है। यह दुख मुझे भी हुआ था, किंतु साथ ही साथ बाबा भारती की कहानी की तरह दुख और करुणा के नाम पर ठगने वालों के षड़यंत्र पर गुस्सा आना भी स्वाभाविक है, ऐसे लोगों को सबक सिखाने का तरीका भी अपनी क्षमताओं और परिवेश के अनुसार ही खोजना होगा। रिया और उसके वकील ने बिना उत्तेजित हुये इतने बड़े षड़यंत्र का सामना करने में जिस धैर्य और विवेक का प्रदर्शन करते हुये नियमों का पालन किया व न्याय का सम्मान किया उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए।

सबसे पहले टीवी चैनलों को लें। नई तकनीक आने के बाद इस बात का पता लगना आसान हो गया है कि कौन सा चैनल किस समय में कितना देखा जा रहा है। इसी टीआरपी के आधार पर विज्ञापन कम्पनियां अपने विज्ञापन देती हैं जो उनकी आय का मुख्य स्रोत है। दूसरे सत्ता पर अधिकार करने के लिए राजनीतिक दल और अपने पसन्द के नेता और दल को सत्तारूढ कराने को उत्सुक कार्पोरेट घराने, उनके नेताओं और दल के साथ साथ उनकी सरकार की छवि को बनाने के लिए निरंतर प्रचार कार्य कराते हैं, जिसके लिए टीवी जैसा दृश्य [विजुअल] मीडिया सर्वोत्तम साधन है। यही कारण है कि बहुत सारे समाचार चैनल समाचारों के नाम पर राजनीतिक नेताओं या दलों का विज्ञापन करने लगे हैं। बहसों के नाम पर तयशुदा निष्कर्ष निकालने को ड्रामा रचते हैं। इसी क्रम में वे साम्प्रदायिकता के प्रसार और विरोधियों की चरित्र हत्या की सुपारी भी लेते हैं। अपनी टीआरपी के लिए वे सामान्य घटनाओं को सनसनीखेज बनाने में भी नहीं हिचकते। जिस सामान्यजन में राजनीतिक चेतना के संचार का काम करना चाहिए था, उसे और अधिक कूपमंडूक, अन्धविश्वासी, और पोंगापंथी बनाने का काम वे लोग करा रहे हैं, जो यथास्थिति से लाभान्वित हैं। रिया के मामले में कुछ टीवी चैनलों ने यही काम किया और टीआरपी को देखते हुए लगातार तीन महीने तक जारी रखा। इस क्रम में इन चैनलों ने उसे लुटेरी, हत्यारी, चरित्रहीन, ड्रग व्यापारी, साबित करने के लिए किसी भी झूठ या अतिरंजना से गुरेज नहीं किया। उसकी अनुमति के बिना उसके निजी जीवन के फोटोग्राफ अपनी सुविधा के अनुसार संशोधित करके प्रसारित किये, जिनका खबर से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं था। नैतिकता का तकाजा है कि समाचार को समाचार की तरह और विचार को विचार की तरह उचित जगह पर विचारक के नाम के साथ देना चाहिए। अनुमानों और सम्भावनाओं को समाचार के साथ नहीं मिलाना चाहिए। जरूरत पड़ने पर हर समाचार और विचार की जिम्मेवारी लेने वाला, और भूल के लिए खेद प्रकट करने वाला कोई होना चाहिए। ऐसा खेदप्रकाश, उसी समय पर व उतने ही विस्तार के साथ दिया जाना चाहिए जितने में गलत समाचार दिया गया हो। जिनकी लोकप्रियता से उनका व्यवसाय जुड़ा है, उनके बारे में समाचार देते समय विशेष सतर्कता बरती जाना चाहिए और क्षति के अनुसार ही दण्ड मिलना चाहिए।

विचार विहीन संगठनों को गिरोह तो कह सकते हैं, पर उन्हें राजनीतिक दल नहीं कहा जा सकता। लोकतांत्रिक घोषित हमारे देश में व्यक्तियों या वंशों के नेतृत्व में गठित गिरोह राजनीतिक दलों के रूप में पहचान बनाये हुये हैं, जिन्हें कार्पोरेट घरानों की पूंजी पोषित करती रहती है। जनता को भ्रमित करने के लिए ये कभी पूर्व राजपरिवारों के वंशजों, कभी स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के वंशजों, कभी फिल्मों व टीवी के कलाकारों, लोकप्रिय प्रशासनिक अधिकारियों, सेना व पुलिस में रहे अधिकारियों, धार्मिक वेषभूषा वाले व्यक्तियों, खिलाडियों, साहित्यकारों, गायकों, आदि आदि लोकप्रिय व्यक्तियों को आगे रख, पूंजीपतियों से प्राप्त धन को बांट कर सत्ता पर अधिकार कर लेते हैं। इसके बाद भी उन्हें दलबदल कराने और तरह तरह के हथकंडों का सहारा लेना पड़ता है। कभी 1984 में दो सीटों पर सिमटी भाजपा आज केन्द्र व 19 राज्यों में ऐसे ही हथकण्डों से सत्तारूढ हो चुकी है, और इस सत्ता को भी बनाये रखने के लिए उसे कभी राज्यपाल की मदद से रात के अँधेरे में शपथ ग्रहण कराना होता है तो कभी होटलों में बन्धक बना कर विधायकों की व्यापक खरीद करनी पड़ती है। आगामी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए, भाजपा ने सुशांत सिंह के मामले को ‘आपदा में अवसर’ की तरह लपका व बिहार को छोड़ कर आये उस कलाकार को, बिहार का सपूत और शहीद बनाना चाहा जिसने बिहार के नाम पर ना तो शिव सेना की ज्याद्तियों का विरोध किया ना लाकडाउन में प्रवासी मजदूरों की वापिसी में मदद की। इस योजना के लिए उसे सुशांत सिंह की लगभग स्पष्ट आत्महत्या को हत्या बताना पड़ा, मुम्बई की सबसे अच्छी मानी जाने वाली पुलिस को षड़यंत्रकारी बताना पड़ा व ऐसा करने का कारण गढने के लिए महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के पुत्र का नाम घसीटना पड़ा। और यह सब उन्होंने बिहार के चुनावों में भावनाओं का छोंक लगाने के लिए रचा। इससे बात नहीं बनी तो मृतक के पिता से बिहार में इस आधार पर रिपोर्ट दर्ज करा दी कि मुम्बई पुलिस ठीक से जाँच नहीं कर रही। फिर इसी बहाने बिहार सरकार ने सीबीआई की जाँच का अनुरोध किया जिससे सीधे केन्द्र सरकार के नियंत्रण में मामला चला गया। आजकल सीबीआई की कार्यप्रणाली से सब परिचित हैं। एक कहानी यह भी गढी गयी कि सुशांत की लिव इन पार्टनर रही रिया ने उसके सत्तरह करोड़ रुपये हड़प लिये हैं, इस बहाने से केन्द्र सरकार की एक और जाँच एजेंसी ईडी [एनफोर्समेंट डायरेक्टरेट] को दखल का मौका मिल गया जिसने सूत्र तलाशने की कोशिश की, और पाया कि लिव इन पार्टनर जो कि लगभग पत्नी का दर्जा रखता है के बाबजूद रिया ने सुशांत के पैसे का कोई दुरुपयोग नहीं किया। अगर उसने कुछ पाया भी होगा तो वह सुशांत के हिस्से की ही अनियमितताएं पायी होंगीं, जो किसी भी कला के व्यवसाय के अनिश्चित आय वाले व्यक्ति के खातों में देखी ही जा सकती हैं। इतना ही नहीं उन्होंने नार्कोटिक्स वालों का प्रवेश भी इसमें करा दिया क्योंकि सुशांत सिंह ड्रग एडिक्ट था और लाकडाउन के दौरान अपने मित्र की आदत को पूरा करने के लिए रिया ने अपने भाई से मदद करने के लिए कहा था और अपने पास से पैसे दिये थे।

अपने राजनीतिक लक्ष्यों को पाने के लिए किसी भी हद तक गिरने वाले इन लोगों ने बालीवुड जैसी साम्प्रदायिक सौहार्द वाली जगह में साम्प्रदायिकता का प्रवेश कराने की कोशिश की और भाईभतीजावाद जैसा हास्यास्पद आरोप लगाया। कोई पक्षपात कराके अपने रिश्तेदार को एक बार मौका तो दिला सकता है किंतु कला की दुनिया में सफलता प्रतिभा से ही मिलती है। इन्होंने अधकचरे कलाकारों द्वारा बेढंगे आरोप ही नहीं लगवाये अपितु नोएडा में हिन्दी फिल्म उद्योग स्थापित करने जैसा हास्यास्पद विचार भी सामने ले आये। यह स्पष्ट संकेत था कि भाजपा और उसकी केन्द्र सरकार इन सारी घटनाओं में एक पक्ष की तरह काम कर रही हैं।

रिया को भले ही जमानत बहुत सारे किंतु परंतुओं के बाद ही मिली है और कई शर्तें लगायी गयी हैं किंतु उसकी जमानत के फैसले ने यह स्पष्ट कर दिया है कि देश भर में फैले ड्रग के जाल के प्रति आँखें मूंद लेने वाली केन्द्र सरकार किसी थानेदार की तरह किसी निर्दोष को गिरफ्तार करने के लिए गांजे की पुड़ियां सुरक्षित रखती है।

इस तरह यह मामला केवल एक रिटायर्ड सैन्य अधिकारी की स्वतंत्र विचारों वाली माडल बेटी का ही मामला नहीं है अपितु राजनीति के लिए किसी भी स्तर तक गिरने का मामला भी है। आज जो दल चुनावों में पराजित हो कर विपक्ष में बैठे हैं, उन्हें समझना चाहिए कि किसी चुनावी प्रबन्धक को पार्टी अध्यक्ष पद तक पहुंचाने वाले इस दल की गतिविधियों को समय पूर्व पहचानने और षड़यंत्रों को निर्मूल कर देने पर ही उनकी सुरक्षा है। कभी आगे बढ कर हमला कर के भी सम्भावित हमले के नुकसानों को रोका जा सकता है। काश तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने गणेशजी को दूध पिलाने वाली अफवाहों की जाँच करा ली होती या दो हजार के नोट में चिप बताने वाले टीवी चैनलों के झूठ बोलने को उजागर कर दिया होता तो झूठ की इतनी व्यापक एजेंसियां नहीं खुल पातीं। अभी भी समय है। सवाल पूछा जाना चाहिए कि तीन महीने तक हैडलाइन बनने वाली रिया को जमानत मिलने की खबर पिछले पृष्ठों पर कम जगह में क्यों छपी है?

 वीरेन्द्र जैन

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अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629           

बुधवार, सितंबर 23, 2020

बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति

 


बदलते कानून और सामाजिक जिम्मेवारी से मुक्त व्यापारी व उद्योगपति 

वीरेन्द्र जैन

सरकारें कानून बनाती हैं और हर तरह के नियमों व कानूनों को जनता के हित में उठाये गये कदम बताती हैं। सच तो यह है कि यह सरकारों के चरित्र और उनकी क्षमता पर निर्भर करता है कि ऐसे बदलते कानून वास्तव में जनता के हित में होते हैं या नहीं, और अगर होते भी हैं तो क्या सरकार में उनके अक्षरशः पालन कराने की क्षमता भी है या नहीं। सरकार की प्रशासनिक व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, न्यायिक फैसलों को पालन कराने वाली मशीनरी का चरित्र और क्षमता आदि पर निर्भर करता है कि कानूनों का अंतिम परिणाम क्या निकलता है।

हर सरकार प्रति वर्ष करोड़ों रुपये यह बताने के विज्ञापनों में फूंकती है कि उसने जनता के हित में क्या क्या किया है। मुझे सुप्रसिद्ध कार्टूनिस्ट आर के लक्ष्मण का एक कार्टून याद आता है जिसमें किसी चुनावी सभा में कोई मंत्री किसी गांव में सभा करते हुए लम्बे लम्बे हाथ फटकार कर बता रहे हैं कि उन्होंने जनता और गरीबों के लिए क्या किया है, वहीं दूसरी ओर कुछ फटेहाल श्रोता बैठे हुये हैं और एक व्यक्ति दूसरे से कह रहा है कि हमारे लिए इतना कुछ हो गया और हमें पता ही नहीं चला। सुप्रसिद्ध कवि आनन्द मिश्र एक कविता सुनाते थे-

बादल इतना बरस रहे हैं

पौधे फिर भी तरस रहे हैं

यही चमन को अचरज भारी

पानी कहाँ चला जाता है

सचमुच में हाल यही है। इन सारे विज्ञापनों के बीच उसी अखबार में खबर छपी होती है कि किसी अधिकारी, किसी इंजीनियर, किसी इंस्पेक्टर या बाबू के यहाँ छापे में करोड़ों की सम्पत्ति बरामद हुयी है। ये छापे उन हजारों इसी तरह के लोगों में से किसी एक के यहाँ पड़ते हैं और सूचनाएं बताती हैं कि इस तरह के पदों पर नियुक्त नब्बे प्रतिशत से अधिक लोग इसी तरह से काम करते हैं और पैसा बनाते हैं, आलीशान मकान बनवाते हैं, सोने चाँदी के गहने खरीदते हैं और बेनामी सम्पत्तियां खड़ी करते हैं, जो सबको दिखती है। ये सारी कमाई उसी कथित विज्ञापित विकास में से निकाली गयी होती है जो केवल विज्ञापन देने के काम आता है, जबकि सच्चाई कुछ और होती है। पदों पर बैठे लोगों की अनुपात से बहुत अधिक सम्पत्ति, विकास के विज्ञापनों का खोखलापन बताती है। यह बताती है कि वैसा कुछ नहीं हुआ है, जैसा बताया जा रहा है।

पूंजीवादी व्यवस्था में किसी व्यापारी, किसी उद्योगपति की कोई सामाजिक भूमिका नहीं होती। उसका काम केवल अधिक से अधिक मुनाफा कमाना होता है। जब मुनाफा कम होने लगता है तो वह उस व्यापार से हाथ खींच लेता है और उद्योगों में तालाबन्दी कर देता है। बड़े बड़े कार्पोरेट घराने, जो अपने ग्रुप के दूसरे कारखानों से अनाप शनाप मुनाफा कमा रहे होते हैं, भी घाटे के कारखानों को बन्द करने, मजदूरों को बिना उचित मुआवजे के निकाल देने और बैंकों के कर्जे पचाने में गुरेज नहीं करते। किसी भी नियम या कानून में प्राइवेट कम्पनी या व्यापारी की बढती भूमिका को देख कर ही यह समझ लेना चाहिए कि इसका लाभ व्यापारी को ही मिलेगा। इसलिए अगर व्यापारी और उनकी राकनीतिक पार्टियां अगर किसी कानून के समर्थन में हैं तो लाभ मजदूर किसान को नहीं होगा। दूसरी बात यह है कि किसी भी व्यापार, व्यवसाय में लाभ की एक सीमा होती है। अगर किसी प्रोजेक्ट में उसके किसी एक घटक को लाभ का बड़ा भाग मिलना सुनिश्चित हो  रहा है, और उसकी भागीदारी उसकी मर्जी पर हो तो दूसरे घटकों को नुकसान होना तय है। इसके विपरीत यदि व्यापारी की जगह सरकार भागीदार है तो उसकी कुछ सामाजिक जिम्मेवारी होती है। वह नुकसान उठा कर भी मेहनतकश को बेसहारा नहीं छोड़ सकती व उनकी न्यूनतम जरूरतों को पूरा करती है। सेवानिवृत्ति के बाद पेंशन भी देती है। यही कारण है कि लोग कम वेतन पर भी सरकारी नौकरी करना पसन्द करते हैं।

जो लोग प्राइवेट संस्थानों में हुये लाभों की तुलना वैसे ही सरकारी संस्थानों से कर के प्राइवेट संस्थानों की पक्षधरता करते हैं, वे ऐसा करते समय यह भूल जाते हैं कि सरकारी संस्थान इसी दौर में  सामाजिक उत्थान और कमजोर वर्ग के सशक्तीकरण की जिम्मेवारियां भी पूरी कर रहे होते हैं। क्या प्राइवेट संस्थान दलितों, पिछड़ों को सामाजिक बराबरी के स्तर पर लाने के लिए आरक्षण देकर प्रोत्साहित कर रहे होते हैं? क्या प्राइवेट संस्थान महिलाओं को उचित प्रतिनिधित्व देते हुए उनको मातृत्व लाभ से जुड़ी वैसी ही सुविधाएं और छुट्टियां आदि देती है? क्या उन्हें उचित समय पर प्रमोशन और वेतन वृद्धियां आदि देती है? क्या स्वास्थ सुविधाएं देती है? क्या छुट्टियों में परिवार सहित घूमने जाने आदि की सुविधाएं देकर उनके स्वास्थ की चिंता करती है? क्या अपना मकान बनाने के लिए ऋण या रहने के लिए सरकारी मकान देती है? क्या सेवानिवृत्ति पर पेंशन देती है? अगर सरकारी संस्थानों की प्राइवेट संस्थानों से तुलना करनी है तो इन सब मानवीय सुविधाओं का कुछ मौद्रिक मूल्य तय करें और फिर मूल्यांकन करके देखें।

तरह तरह के दावों के बीच कृषि सम्बन्धी नये कानूनों में प्राइवेट व्यापारियों की भूमिका और उनकी हित में अनेक कदम उठाने वाली सरकार की आतुरता को देखते हुए भी मूल्यांकन करना होगा। इसके लिए अध्यादेश लाने की जरूरत नहीं थी। इसे पास कराने के लिए लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को ताक पर धरना जरूरी नहीं था। सरकार आश्वासन दे रही है, किंतु उसे कानून का हिस्सा नहीं बना रही। सत्तारूढ नेताओं ने इससे पहले भी अनेक आश्वासन दिये थे जिनकी उसने उपेक्षा की है। यही कारण है कि जनता का भरोसा उस पर से उठ चुका है। किसान अन्दोलित है, मजदूर परेशान है। कोरोना बढ रहा है, चीन और पाकिस्तान दोनों ओर से सीमा पर मामला संवेदनशील होता जा रहा है। राम जन्मभूमि मन्दिर, तीन तलाक, धारा तीन सौ सत्तर से अब लोगों को बरगलाया नहीं जा सकता।

 

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023

मो. 9425674629

 

शुक्रवार, सितंबर 18, 2020

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

सुशांत सिंह का दांव कहीं भाजपा को उल्टा तो नहीं पड़ेगा?

वीरेन्द्र जैन


आज की राजनीति इतनी अमानवीय है कि अपनी राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं के लिए किसी को भी बलिवेदी पर चढा सकती है। इस दौर का गिरोह झूठ को सच और सच को झूठ बनाने व उसे प्रचारित करने के लिए पूरा तंत्र सुसज्जित कर के पहले भक्तों को और फिर देश को भटका रहा है। मीडिया पर इतना नियंत्रण है कि समाचार भले ही लिख लिया जाये किंतु वह जनता की पहुंच के स्तर तक छप नहीं सकता, प्रसारित नहीं हो सकता।

गोवा में भाजपा ने गठबन्धन सरकार बनायी थी जिसके कुछ घटकों ने साफ साफ कह दिया था कि वे भाजपा का नहीं अच्छी छवि वाले मनोहर पारीकर को समर्थन दे रहे हैं, और इस सरकार को यह समर्थन पारीकर के मुख्यमंत्री बने रहने तक ही सीमित है। दुर्भाग्यवश पारीकर अस्वस्थ हुये व जांच में एडवांस स्टेज के कैंसर से पीड़ित पाये गये। उन्हें अंतिम दिनों में आराम की सख्त जरूरत थी वहीं दूसरी ओर मोदी-भाजपा को सरकार बचाने के लिए उस पद पर पारीकर की जरूरत थी। उनसे इसी हालत में काम लिया गया और बजट भी पेश कराया गया ताकि सरकार बची रहे। ऐसी ही अवस्था में उनका निधन हुआ। अरुण जैटली हों, सुषमा स्वराज हों, अनंत कुमार हों, अनिल माधव दवे आदि की जरूरत प्रशासनिक निर्विकल्पता नहीं, अपितु राजनीतिक अधिक रही। एक बहुत बड़ी संख्या में सदन की सदस्यता के प्रत्याशी केवल संख्या बल के लिए सामने लाये जाते हैं और उनकी छवि के सहारे बहुमत बना कर मनमानी का अधिकार प्राप्त कर लिया जाता है। दल बदल से लेकर विधायकों के सौदे तक में उनकी पितृ संस्था के पाखंडी आदर्शवाद को कोई आपत्ति नहीं होती। उदाहरण इतने अधिक और जगजाहिर हैं कि उनका अलग से उल्लेख करने की कोई जरूरत नहीं।

इसी क्रम में इन्होंने आगमी बिहार विधानसभा के चुनावों को देखते हुए बालीवुड कलाकार सुशांत सिंह की दुखद मृत्यु पर दांव खेला और इसके लिए अपने सारे संसाधन झौंक दिये। इनका प्रयास आईपीएस भट्ट की तरह कुछ लोगों को जेल में डालने और कुछ आई ए एस को मुख्यधारा से हटा कर, गुजरात में नरसंहार के बाद भी असत्य आधारित भावनात्मक प्रचार से चुनावी लाभ उठाने जैसी योजना का हिस्सा लगता है। अब सीबीआई की जाँच के बाद सामने आये संकेतों से पुष्ट हो चुका है कि सुशांत सिंह ने आत्महत्या ही की है। सीबीआई के संकेतों के बाद उसके पिता ने भी स्वीकार कर लिया था किंतु बाद में उसका बयान बदलवा दिया गया। जिस शिवसेना को काँग्रेस समझ कर इन्होंने राजनीतिक षड़यंत्र  शुरू करवाया, वैसा ही आक्रामक जबाब अगर शिव सेना ने दिया तो भाजपा को भागते राह नहीं मिलेगी। उसके पालतू मीडिया ने आगे बढ बढ कर दो महीने तक इतने अतिरेक में काम किया कि इस विषय पर स्टोरी करने की प्रतियोगिता शुरू हो गयी। इसमें सुशांत सिंह की जिन्दगी का वह निजी पक्ष भी सामने आ गया जिसके ढके रहने पर उसकी एक मनमोहक कलाकार की स्वच्छ छवि बची रह सकती थी। इसी क्रम में यह भी सामने आ गया कि वह अपने घर से दूर होने के प्रयास में ही इंजीनियरिंग की शिक्षा को छोड़ कर बालीवुड भाग आया था, और कि वह अपने पिता को पसन्द नहीं करता था। उसे अपनी बहिनों और उनके पतियों पर भी भरोसा नहीं था, इसलिए वह अपने आसपास रहने वाली लड़कियों में ही दिली सुकून  तलाशता था, उनसे ही अपने दिल की बातें साझा करता था। अपने घर से लेकर व्यवसाय तक में वह प्रोफेशनल प्रबन्धकों पर ही निर्भर था। इसी क्रम में उसे सफलताएं भी मिलती रहीं और कम उम्र में ही उसने अपनी कल्पना से अधिक पैसा व यश कमा लिया। इसके सहारे वह बालीवुड की वर्जना मुक्त जिन्दगी का पर्याप्त आनन्द भी उठाने लगा। यही वह समय था जब वह चरस और मारजुआना आदि के नकली आनन्द का शिकार हो गया। आचार्य रजनीश जब अपनी लोकप्रियता के शिखर पर थे उसी समय दुनिया में हिप्पीवाद फैला था और यौनानन्द की सीमा से अधिक आनन्द की तलाश करने वाला समाज  मेडीटेशन की कठिन राह पर आकर्षित हुआ था। इस साधना की कठिनाई का सरल हल उन्हें उस समय के इसी तरह के नशे एलएसडी में मिलने लगा था। तब रजनीश जी ने अपना एक प्रवचन इसी विषय  पर दिया था जो बाद में “एलएसडी, ए फाल्स वे आफ मेडीटेशन” के रूप में प्रिंट मीडिया में सामने आया था। इसमें वे मानते हैं कि इस तरह के नशे भी ध्यान में मिलने वाले आनन्द के जैसा भ्रम देते हैं और यह शार्टकट आदमी को भटका देता है।

बिहार के आगामी चुनावों की राजनीति ने इस राजनीतिक हथकण्डे में उसकी मृत्यु के काफी समय के बाद सुशांत के पिता और उसकी बहिनों को इस आत्महत्या को हत्या बताने के लिये उकसाया। कहानी बनाने के लिए उसमें रिया चक्रवर्ती उसके परिवार को मुख्य साजिशकर्ता ठहराया व राजनीतिक रंग देने के लिए दिशा सालियान की आत्महत्या के समय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बेटे की काल्पनिक  उपस्थिति व मुम्बई पुलिस द्वारा जाँच में लापरवाही बरतने के आरोप लगा कर गठबन्धन सरकार को कटघरे में खड़ा करने की कोशिश की। ऐसा इसलिए किया ताकि बिहार में रिपोर्ट दर्ज करायी जा सके और रिया चक्रवर्ती को बिहार पुलिस के दबाव में मनमाना बयान दिलवाया जा सके। और इसी बहाने पिंजरे के तोते के आरोपों वाली सीबीआई को शामिल किया जा सके। फिल्मी दुनिया जैसे व्यव्साय में टैक्सों से बचने के लिए दो नम्बर की समानांतर व्यवस्था चलती है जिसका एक जाल जैसा बन जाता है। एक का काला धन दूसरे के पास भी काले धन के रूप में ही पहुंचता है। जब भी इस क्षेत्र में विस्तार से जाँच होगी तो कहीं न कहीं कुछ न कुछ निकल ही आयेगा जबकि इस जाल से जुड़े सभी लोग उसके लिए जिम्मेवार नहीं होते। रोचक यह है कि फिल्मी दुनिया को नशे की दुनिया बताने वाले व इसका विरोध करने वाले काले धन के विषय को नहीं छेड़ रहे। ईडी की जांच रिपोर्ट के बारे में भाजपा के प्रवक्ता समेत सब गुपचुप हैं।   

भाजपा की यह कोशिश थी कि सुशांत को बिहार के सपूत के साथ मुम्बई की गैर भाजपा सरकार द्वारा हुयी ज्यादती की तरह चुनाव में प्रस्तुत किया जाये। उन्होंने फिल्म उद्योग में चल रहे नेपोटिज्म के आरोप के बहाने मुस्लिम कलाकारों और गैर मुस्लिम कलाकारों के बीच तनाव का खेल भी खेलना चाहा, ताकि इसके सहारे चुनावों में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का सहारा मिल जाये। किंतु उनकी सभी चालें बिफल हो गयीं। फिल्म उद्योग हमेशा से साम्प्रदायिकता मुक्त है। अपने निकट के किसी भी व्यक्ति को एक मौका अवश्य मिल जाता है किंतु वह अपनी प्रतिभा से ही आगे बढ पाता है। ना तो अमिताभ बच्चन अपने पुत्र को प्रमोट करने में सफल हो सके और ना ही हेमा मालिनी अपनी बेटियों को। सलीम खान के दूसरे बेटे भी सलमान नहीं बन सके ना ही नितिन मुकेश मुकेश की जगह ले सके। मौका सबको दिया गया। भाजपा के सरकारी लाभांवित कलाकार भी इस मुहिम को आगे नहीं बढा सके। केवल अयोग्यता से असफल हुए व्यक्ति ही अपनी कुंठाएं इस तरह से व्यक्त करते रहे हैं।

मीडिया खबरों के अनुसार तीन तीन केन्द्रीय एजेंसियां अपनी गहन जाँच के आधार पर जिस निष्कर्ष पर पहुंचती दिख रही हैं वह यह है कि सुशांत सिंह लम्बे समय से चरस का आदी था और अपने फार्म हाउस पर पार्टियां किया करता था। पिछले एक साल से वह फिल्मों में कैरियर के सपने देखने वाली रिया चक्रवर्ती के साथ लिव इन में रह रहा था जो उसके प्रेम में थी। इसी भावना में लाकडाउन के दौरान उसने सुशांत के लिए पाउडर मंगवाने में अपने भाई की मदद ली। यह कलाकार डिप्रैशन का भी शिकार था किंतु अपनी प्रोफेशनल जरूरतों के अनुसार इस बात को सार्वजनिक नहीं होने देना चाहता था। रिया उसका इलाज करा रही थी व उसके इलाज को प्रोफेशनल कारण से ही गोपनीय रखना चाहती थी। उसके पैसे का हिसाब उसकी मैनेजर देखती थी जिसका पता ईडी की रिपोर्ट के बाद लगेगा। इससे भी छवि में निखार नहीं आयेगा। कंगना का उत्पाती प्रवेश भी विषय को और मचायेगा, अपना प्रारम्भिक नुकसान वह करा ही चुकी है, फिल्म उद्योग भी सशंकित हो जायेगा। भाजपा को इससे भी मदद नहीं मिलने वाली क्योंकि बिहार सरकार से निराश वहां का मजदूर मुम्बई वापिस जाने की राह देख रहा है।

क्या यह दांव भाजपा को उल्टा ही पड़ेगा?  

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023


मंगलवार, सितंबर 15, 2020

षड़यंत्रकारी राजनीति के मुकाबले आक्रामक राजनीति

 

षड़यंत्रकारी राजनीति के मुकाबले आक्रामक राजनीति 


वीरेन्द्र जैन

इस समय पूरा देश कुछ मीडिया चैनलों द्वारा प्रस्तुत राजनैतिक दंगल देख रहा है। पिछले तीस सालों में ऐसे दृश्य देखने को नहीं मिले थे जैसे इन दिनों देखे जा रहे हैं।

आजादी मिलने पर स्वतंत्रता आन्दोलन की सबसे बड़ी अहिंसक फौज के रूप में भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस देशवासियों के सामने थी और उसे सरकार बनाने का पूरा नैतिक अधिकार था। दूसरे सबसे बड़े दल के रूप में कम्युनिष्ट पार्टी थी जो रूस चीन से लेकर पूरी दुनिया में चर्चित हो रहे कम्युनिष्ट आन्दोलनों की प्रतिनिधि के रूप में स्वाभाविक विपक्ष थी। इसी दौरान देश ने बंटवारे, साम्प्रदायिक हिंसा और गाँधीजी की हत्या के रूप में बड़े बड़े हादसे देख लिये थे। गाँधीजी की हत्या के बाद अपने ऊपर लगे प्रतिबन्ध को हटवाने के लिए आर एस एस ने पटेल को लिखित वादा किया था कि वे सामाजिक संगठन के रूप में ही काम करेंगे और चुनावों में भाग नहीं लेंगे। बाद में सरदार पटेल के निधन के बाद संघ ने अपने चार स्वयंसेवक भेज कर श्यामा प्रसाद मुखर्जी की अध्यक्षता में भारतीय जनसंघ की स्थापना करायी थी। संघ से भेजे गये लोगों में अटल बिहारी बाजपेयी और लालकृष्ण अडवाणी प्रमुख थे। 1951 से 1971 तक  इस दल को 3% से लेकर 6% तक वोट मिलते रहे जबकि 1977 में इन्होंने अपनी पार्टी का विलय जनता पार्टी में कर दिया और सरकार बनने पर कहीं अधिक प्रतिशत में सत्ता में भागीदारी प्राप्त की। बाद में 1980 में इन्हीं के पूरे मन से विलय न करने व इनकी समानांतर रूप से संघ की सदस्यता बनाये रखने के आरोपों के कारण ही पहली बार बनी गैरकांग्रेसी जनता पार्टी सरकार टूटी और इन्हें जैसे गये थे वैसे ही वापिस होना पड़ा। बाद में इन्होंने ही दल का नाम बदल कर भारतीय जनता पार्टी रख लिया, जिसके कार्यक्रम और घोषणापत्र वही रहे जो जनसंघ के थे। उस समय से ही यह स्पष्ट हो गया था कि यह संगठन सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर सकता है। ये लोग ही देश में दलबदल को प्रोत्साहित करने वालों और धन के सहारे वोट प्राप्त करने वालों की दुष्प्रवृत्ति के जन्मदाता के रूप में अंकित हुये हैं, जो बाद में दूसरे दलों में भी फैली। ये पार्टी व्यापारियों, उद्योगपतियों के पक्ष में खड़ी होने वाली पार्टी के रूप में जानी जाती थी इसलिए उसे धन की कमी कभी नहीं रही। बाद में तो राज छिन जाने से नाराज पूर्व राजा रानियों का भी समर्थन उसे मिलने लगा क्योंकि 1969 में कम्युनिष्टों के दबाव में इन्दिरा गाँधी ने पूर्व राजा रानियों के विशेष अधिकार व प्रिवी पर्स को खत्म कर दिया था।

साम्प्रदायिकता और साम्प्रदायिकता फैलाना दो अलग अलग बातें हैं। साम्प्रदायिकता तो अपने परम्परागत धर्म को सर्वश्रेष्ठ और दूसरे के धर्म को गलत मानने के भाव के कारण पैदा हो जाती है किंतु इसी भाव में जानबूझ कर गलत बातें डालकर या सूत्रों की गलत व्याख्या कर के, अपने निहित स्वार्थों के लिए साम्प्रदायिकता फैलायी जाती है और हिंसा के लिए संसाधन उपलब्ध कराये जाते हैं। संघ परिवार का यह विश्वास रहा है कि लोकतंत्र में चुनाव सिर गिनने से होते हैं और अगर चुनावों को धार्मिक आधार पर समाज को बांट कर कराये जायेंगे तो बहुसंख्यक धर्मावलम्बी ही चुनाव जीतेंगे। इसलिए देश की सत्ता पर अधिकार करने के लिए यह संस्था एक ओर तो राजतंत्र के इतिहास की गलत जानकारी व उसे अपने लक्ष्य के अनुसार व्याख्यायित करने का काम करती है, वहीं दूसरी ओर उन मुद्दों को तलाशती है जिनके आधार पर दो समाजों के बीच संघर्ष हो चुका हो या होने की सम्भावना हो। इसलिए समाजों के बीच समरसता और धर्मनिरपेक्षता की बात करने वालों को भी ये बराबर के दुश्मन मानते हैं। स्वतंत्रता संग्राम के दौरान जगायी गयी राष्ट्रभक्ति की भावना को भी ये एक काल्पनिक हिन्दूराष्ट्र से जोड़ कर इसका विदोहन करने का प्रयास करते हैं। वे ऊपर से शरीफ दिखते हैं और प्राकृतिक व निजी आपदाओं के समय अपने संगठन से साम्प्रदायिक आधार पर मदद करके अपना विस्तार करते हैं। देश के सबसे बड़े धार्मिक अल्पसंख्यक मुसलमान हैं जिनके खिलाफ होकर इनको अपना लक्ष्य आसानी से मिल जाता है क्योंकि वे सातसौ साल तक इस देश के शासक वर्ग में रहे हैं और उनके सत्ता संघर्ष को साम्प्रदायिक रूप देकर इन्हें आसानी से अपने संघर्ष की जगह मिल जाती है। मुसलमानों के कुछ नेताओं ने धर्म के आधार पर देश को विभाजित करा के इन्हें एक मजबूत आधार दे दिया है, जबकि पाकिस्तान से अधिक मुसलमान तो धर्म निरपेक्ष भारत में रह गये थे।

भारत में रह गये मुसलमान इनकी हरकतें देख कर रक्षात्मक रूप से साम्प्रदायिक होते गये और इसी आधार पर एकजुट हो उन्हें वोट करने लगे जो भाजपा को हरा रहा होता था। बिना राजनीतिक कर्म किये सत्तारूढ होती रही कांग्रेस के लिए ये एकजुट मुसलमान बड़ी पूंजी साबित हुये। दलितों के वोट बैंक से मिलकर कांग्रेस ने दशकों तक निर्बाध शासन किया जबकि संघ परिवार बिना शोर शराबे के अपना काम करता रहा व इतिहास एवं समाज को विकृत करता रहा।

किसी राजतंत्र की तरह अपना विशेष अधिकार समझने वाले काँग्रेसी सत्ताखोर होते गये। उन्होंने सत्ता के सहारे न केवल धन संचय किया अपितु चुनावी मुकाबलों में भाजपा के साथ धन के प्रयोग की प्रतियोगिता भी करने लगे। एक ओर सरकारें जनता से धन खींचती थीं तो दूसरी ओर ये सत्ताखोर सरकारी व्यवस्था में सेंधें लगा कर उस धन को चूसते रहते थे। क्रमशः वे विलासी होते गये, उन की सम्पत्ति बेतहाशा बढती रही और  रिश्तेदार लाभ के पदों को सुशोभित करते रहे। सुरक्षित वोटों के भरोसे कांग्रेसियों ने राजनीतिक विमर्श ही बन्द कर दिया। उनकी राजनीति अपने नेता के जयकारे तक सीमित हो गयी।

बाद में जब 1969 में श्रीमती गाँधी ने काँग्रेस में विभाजन का सामना किया और उन्हें बहुमत के लिए कम्युनिष्टों की जरूरत पढी तो दबाव में उन्होंने पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्स और विशेष अधिकार बन्द कर दिये व 14 बड़े बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया। इससे मिले व्यापक समर्थन के कारण उन्होंने कुछ लोकप्रिय नारे दिये और भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी की मदद से अपनी छवि निखारी। इससे दक्षिणपंथी विपक्ष एकदम से हमलावर हो गया। परिणामस्वरूप इमरजैंसी व संजय गाँधी के उभरने जैसे संकट सामने आये। संजय गाँधी ने इमरजैंसी में भारतीय कम्युनिष्ट पार्टी को दूध में पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेंका तब उन्हें अपनी भूल समझ में आयी, जिसे उन्होंने सार्वजनिक रूप से स्वीकार की और वाममोर्चे के हिस्से बने। काँग्रेस पहली बार केन्द्रीय सत्ता से बाहर हुयी पर 1980 में जनता ने जनता पार्टी के प्रयोग को ठुकरा दिया जिससे इन्दिरा गाँधी दोबारा सत्ता में आ गयीं। संजय गाँधी का एक दुर्घटना में निधन हुआ। दलितों ने अपनी अलग पार्टी बना ली और इमरजैंसी की ज्याद्तियों के कारण मुसलमान सशंकित हो गये थे, सीपीआई उससे अलग हो चुकी थी, ऐसे में अलगाववादी खालिस्तानी आन्दोलन हिंसक हो उठा। कांग्रेसजन, जो सत्ता में लूट को ही राजनीति मानने लगा था मुकाबला करने में असमर्थ साबित हुआ। कमजोर इन्दिरा गाँधी ने स्वर्ण मन्दिर में छुपे आतंकियों पर हमला करने का दुस्साहसिक फैसला लियी जिसके परिणाम स्वरूप मिले एक धोखे में उन्हें अपनी जान गंवाना पड़ी। उसके बाद सहानिभूति की लहर में काँग्रेस ने सीटें तो जीत लीं, किन्तु अपेक्षाकृत अनुभवहीन राजीव गाँधी को उनकी प्रकृति और रुचि के विरुद्ध प्रधानमंत्री पद सौंपना पड़ा। नेतृत्व की कमजोरी से नियंत्रण ढीला पड़ता रहा, क्षेत्रीय दल मजबूत होते गये। मौका देख कर उनके वित्तमंत्री व्हीपी सिंह ने टंगड़ी मार दी, बोफोर्स कांड का वबंडर खड़ा कर दिया गया। लिट्टे भारत के ही खिलाफ उठ कर खड़ा हो गया। शाहबानो के फैसले के खिलाफ एकजुट हुये मुसलमानों ने ब्लैकमेल कर फैसले को पलटने को मजबूर कर दिया। सरकार पलट गयी और कमजोर हो चुकी काँग्रेस का एक हिस्सा व्हीपी सिंह के साथ हो लिया क्योंकि उसे तो सत्ता चाहिए थी। मध्यावधि चुनाव हुये और इसी दौरान राजीव गाँधी की हत्या हो गयी। काँग्रेस नेतृत्व विहीन हो गयी शेष बचे काँग्रेसी दूसरे को नेता मानने के लिए तैयार नहीं थे।  सब को केक में से दूसरे से बड़ा हिस्सा चाहिए था।

यह वही समय था जब भाजपा ने मौका ताड़ लिया। वैसे तो उसके पास काँग्रेस की नीतियों से अलग कोई आकर्षक और बेहतर नीतियां थी ही नहीं सो उसने साम्प्रदायिकता का सहारा लियी और उसके लिए रामजन्म भूमि मन्दिर का भूमिगत मुद्दा उछाल दिया जगह जगह दंगे करा दिये, अडवाणी जी को एक डीसीएम टोयटा वाहन को रथ का रूप देकर घुमाना शुरू किया और योजनानुसार मुस्लिम बहुल इलाकों में उत्तेजक नारे लगवाते हुये खून खराबा करते गये। उसी समय से मीडिया की खरीद शुरू हो गयी और मनमुताबिक रिपोर्टें सामने आती रहीं। पूरा देश ही ध्रुवीकृत हो गया होता अगर व्हीपी सिंह समय से मंडल कमीशन का दांव नहीं खेल देते। केवल राम जन्मभूमि मुद्दे, व्यापारियों के धन, और संघ के संगठन के सहारे उन्होंने दो से दो सौ तक का सफर किया और अंततः अटलबिहारी की सरकार बनवा ही ली। असत्य, अर्धसत्य, तोड़ेमोड़े सत्य से सफेद झूठ तक व सिद्धांतहीन गठबन्धन से लेकर सांसदों, विधायकों की खरीद फरोख्त से लगातार सत्ता से जुड़े रहे। अपने खरीदे हुये मीडिया से वे अपने सारे खोटे सिक्के चलाते रहे। इस बीच काँग्रेस निरीह सी देखती रही उसने इनके किसी भी खतरनाक प्रयोग का विरोध नहीं किया अपितु छींका टूटने की प्रतीक्षा में टकटकी लगाये रही। जब छींका टूट गया तो जय जय बरना अघाये आलसी की तरह चुपचाप लेटे रहे अथवा आफर मिला तो दल बदल लिया। वह कैंसर के मरीज की तरह धीरे धीरे घुलती रही। बीच में जो मौके आये उसमें किसी काँग्रेसी के किसी प्रयास का कोई योगदान नहीं रहा। यूपीए की दो सरकारें बनने में भाजपा के प्रति जनता की नफरत का ही नकारात्मक योगदान रहा। किंतु भाजपा केन्द्र की मुख्यधारा की राजनीति में आ चुकी थी। यूपीए सरकारों के दौरान भी राजनीतिक एजेंडा उसी ने तय किया। 

इन दिनों महाराष्ट्र में घटित घटनाक्रम इतना ही है कि भाजपा ने जिस शिवसेना नामक शेर पर इतने लम्बे समय से सवारी की थी वही पलट कर सामने आ गया। अब ना तो इन्हें निगलते बन रहा था ना ही उगलते। सुशांत सिंह की मौत के मामले में इन्होंने एक षड़यंत्र के सहारे मुम्बई पुलिस और ठाकरे सरकार को कटघरे में खड़ा किया व सीबीआई और ईडी के साथ साथ एनसीबी को भी लगा दिया। पहले दो में मुँह की खायी तो तीसरी जाँच एजेंसी को मुख्य जाँच एजेंसी की तरह बीच में ले आया गया, जिसमे अपराध तो था किंतु देश भर में चलते रहने वाला अपराध था। उसके सहारे किसी विशेष राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। इस अपराध में इससे पहले कितने लोगों को सजा हुयी? जबकि छापों में जो माल बरामद होता है उसके आधार पर ना जाने कितने लाख लोग उसका सेवन करते होंगे। इसी काम में चर्चित होने को उतावली एक हीरोइन और एक टीवी एंकर को भी लगा दिया गया। वे सोच रहे थे कि लुंज पुंज जर्जर काँग्रेस की तरह शिवसेना पूंछ दबा कर बैठ जायेगी। किंतु उनकी सोच गलत निकली। उसने भले ही राजतंत्र के तानाशाहों की तरह व्यवहार किया किंतु देखना होगा कि दुश्मन कौन था व उसका इतिहास और चरित्र क्या रहा है। ये जैसे को तैसा का सन्देश किसी हीरोइन को नहीं अपितु एक षड़यंत्रकारी पार्टी को दिया गया है।

यह भूलने की बात नहीं है कि भाजपा परिवार के सारे प्रयोग लुंज पुंज काँग्रेस के काल में ही पलते रहे हैं जो ठीक तरह रक्षात्मक भी नहीं हुयी। यदि 1995 में तत्कालीन सरकार ने और कांग्रेस पार्टी ने गणेशजी की मूर्तियों को दूध पिलाने की ही ठीक से जाँच करा के कार्यवाही की होती तो अफवाहें फैलाने के षड़यंत्रों की इतना प्रसार न हो पाता। काँग्रेस ज़िन्दा तभी बच सकती है जब वह आक्रामक होकर काम करेगी। इसके लिए काँग्रेसियों को अपना चरित्र बदलना होगा। शिवसेना ने वही किया है।

वीरेन्द्र जैन

2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड

अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023      

गुरुवार, सितंबर 10, 2020

कंगना रनौत प्रकरण में नारीवादियों पर हमला

 

कंगना रनौत प्रकरण में नारीवादियों पर हमला

वीरेन्द्र जैन

First fully directed film of Kangana Ranaut will be Aparajita Ayodhya | Kangna  Ranaut ने कियाअगली फिल्म Aparajitha Ayodhya का ऐलान, खुद करेंगी डायरेक्शन!  | Hindi News, बॉलीवुड

जब शिवसेना के गठबन्धन वाली महाराष्ट्र सरकार ने कंगना रनौत का अवैध निर्माण तोड़ने की कार्यवाही शुरू की तब परोक्ष में कंगना का समर्थन करने वाली भाजपा की सोशल मीडिया सेना ने एक ओर तो उसकी एकाध अच्छी फिल्मी भूमिका को उसके व्यक्तित्व से जोड़ते हुए उसके अंश पोस्ट करना प्रारम्भ कर दिये तो दूसरी ओर नारी वादियों पर हमला करना शुरू कर दिया कि वे अब क्यों नहीं बोल रहे है। सवाल उठता है कि जब नारीवादी या मानव अधिकारवादी अपनी बात कहते हैं तब क्या ये लोग उनका समर्थन कर रहे होते हैं? ये और ऐसे आरोप केवल उनके पक्ष को कमजोर करने के लिए उछाले जाते हैं, जिसका साफ मतलब उनकी छवि को धूमिल करके उनके पक्ष को कमजोर करना होता है। उल्लेखनीय है कि जब एक जीनियस लोकप्रिय युवा कलाकार सफदर हाशमी की हत्या हुयी थी और पूरी दुनिया में उसकी भर्त्सना हो रही थी तब जनसत्ता के एक सम्बाददाता ने उनके साथ मारे गये एक मजदूर राम बहादुर का मामला इसलिए उछाला था ताकि सफदर की हत्या के खिलाफ उठ रहे वैचारिक आन्दोलन के समर्थकों को कमजोर किया जा सके। इसके विपरीत सच यह था कि सीटू ने मजदूर के परिवार को अपनी ओर से पचास हजार की सहायता उपलब्ध करायी थी। ये लोग जब आये दिन मजदूरों के दमन पर एक वाक्य भी नहीं बोलते वे कला जगत को असंवेदनशील सिद्ध करने के लिए मजदूर राम बहादुर पर कलम चला रहे थे।

नारीवाद कोई जातिवादी आरक्षण जैसा नहीं है कि उसके लाभ जातिमुक्त समाज के निर्माण के मूल लक्ष्य को ही पलीता लगा दें और जातिवाद को बनाये रखने में मदद करें। यह कमजोरों के पक्ष में उठी आवाज है। जरूरी नहीं कि हर नारी कमजोर हो और उसे नारीवादियों के समर्थन की जरूरत हो। उदाहरण के लिए झांसी की रानी लक्ष्मीबाई को ही लें, उनके बारे में अंग्रेज इतिहासकारों ने ही सबसे पहले लिखा कि इतने पुरुषों के बीच वह अकेली मर्द की तरह लड़ रही थी। उनके साथ जुड़ा मर्दानी का विशेषण यहीं से लिया गया है। रजिया सुल्तान हों, मीरा बाई हों, या अहिल्या बाई से लेकर सामाजिक आन्दोलनों में सक्रिय अनेक महिलाएं नारीवादियों की समर्थन को मजबूर नहीं रहीं। नारीवाद का आन्दोलन तो सिमोन द बुउवा के उस कथन से संगठित हुआ है जिसे उन्होंने अपनी पुस्तक ‘द सेकिन्ड सेक्स’ में व्यक्त किया है। इसमें उन्होंने कहा है कि हम नारियां मानव जाति में एक भिन्न जेंडर तो हैं, किंतु दोयम दर्जे के जेन्डर  नहीं हैं, और उतने ही मनुष्य हैं। उल्लेखनीय यह भी है कि परिवार नियोजन के साधनों के विकास के बाद नारी की गुलामी की एक बड़ी जंजीर कटी है। सुप्रीम कोर्ट के एक प्रतिष्ठित वकील और नारीवाद पर खुल कर लिखने वाले अरविन्द जैन अपनी एक पुस्तक में लिखते हैं कि श्रीमती इन्दिरा गाँधी का अपनी बहू मनेका गाँधी के साथ सम्पत्ति का मुकदमा चला, जो हाईकोर्ट तक गया और फैसला इन्दिरा गाँधी के पक्ष में हुआ। फैसले के बाद इन्दिराजी ने वही सम्पत्ति वरुण गाँधी के नाम कर दी। वरुण उस समय तक वयस्क नहीं हुये थे इसलिए नेचुरल गार्जियन के रूप में उनकी मां मनेका गाँधी के पास वह सम्पत्ति वापिस पहुंच गयी। जब ऐसा ही होना था तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी अपने परिवार की प्रतिष्ठा को चौराहे पर क्यों ले गयीं? अरविन्द जी लिखते हैं कि इन्दिरा जी अपने पूरे व्यक्तित्व में और खास तौर पर उस समय किसी नारी की तरह नहीं अपितु किसी पुरुष की तरह व्यवहार कर रही थीं।

अगर ऐसे में कोई नारीवादी उनके पक्ष में नारी और अबला के नाम पर कुछ बोलता तो वह नारीवाद का गलत स्तेमाल कर रहा होता। इसी तरह तस्लीमा नसरीन की पक्षधरता उनके नारी होने के नाम पर नहीं की जा सकती। वे ज्यादा और जल्दी उत्तेजित व हिंसक व्यवहार करने वालों को जानबूझ कर छेड़ती हैं और सरकारों को कटघरों में खड़ा करते हुए अपनी सुरक्षा की चुनौती पेश करती हैं। सरकार और सारे प्रगतिशील किंकर्तव्यविमूड़ होकर रह जाते हैं और वे अपनी लोकप्रियता को व्यवसाय बना कर लाभ में रहती हैं। अगर तस्लीमा के एक्टविस्म को छोड़ दिया जाये तो साहित्यिक मानदण्डों पर उनकी रचनाएं वह स्तर नहीं रखतीं, जिस स्तर की ख्याति उन्हें मिली हुयी है। यह एक ऐसा हथकण्डा बन गया है जिसे लोकप्रियता का व्यापार करने वाले अनेक लोग अपना चुके हैं और अपना रहे हैं। कंगना रनौत उनसे अलग नहीं हैं। जहाँ विरोध नहीं होता है, वहाँ वे विरोध पैदा करती हैं और उसका लक्ष्य किसी महत्वपूर्ण चर्चित व्यक्ति को बनाती हैं ताकि ज्यादा चर्चा हो, ज्यादा ख्याति मिले।

नारीवादियों ने कंगना रनौत का विरोध भी नहीं किया या उनसे किसी गुंडे की तरह बदला लेने वाली शिवसेना का समर्थन भी नहीं किया, भले ही उनका कदम विधिसम्मत था। नारीवादी हों या मानवाधिकारवादी उनकी समझ साफ है और वे हर पीड़ित के पक्ष में खड़े होना चाहते हैं। किंतु नकली घाव बना कर हाथ पैरों पर पट्टी बाँध कर धर्मस्थलों में जाने वालों की दया से कमाई करने वालों के प्रति सजग भी हैं।

सोशल मीडिया के जो सैनिक आज कंगना के पक्ष में खड़े होकर शिवसैनिकों का विरोध कर रहे हैं, वे ही जब तक भाजपा से उनका गठबन्धन था तब तक उनका समर्थन करते थे। आज पूरे देश में न जाने कितने कानून ऐसे हैं जिनका पालन नहीं होता और वे अपने विरोधियों के खिलाफ स्तेमाल करने के लिए सुरक्षित रखे जाते हैं। उत्तर प्रदेश के दो बड़े दल सीबीआई के डर से केन्द्र सरकार का अघोषित समर्थन करते हुए अपने समर्थकों को ठग रहे हैं। यही हाल दक्षिण के कुछ प्रमुख दलों का है। अब तो सीबीआई आदि एजेंसियों के साथ साथ न्यायपालिका के एक हिस्से पर स्तेमाल होते जाने के आरोप लगे हैं, और वे गलत भी नहीं लगते। रिया चक्रवर्ती के मामले में कुछ कुछ ऐसा ही हो चुका है। दुखद यह है कि बिका हुआ मीडिया ही मुख्य धारा बना हुआ है और वह खुली सौदेबाजी के आधार पर झूठ को स्थापित कर रहा है।
     

 

वीरेन्द्र जैन

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