श्रद्धांजलि / संस्मरण
कण्ठमणि बुधौलिया
वे दतिया में गिनती के राजनीतिक व्यक्तियों में से एक थे
वीरेन्द्र जैन
बुधौलिया जी के निधन की सूचना देर से मिली। अचानक ही शकील अख्तर के श्रद्धांजलि लेख को पढ कर ही पता लगा। अब दतिया में ऐसे कम लोग बचे हैं जो उस दौर के व्यक्तियों के योगदान को याद करते हों जिस दौर में बुधौलिया जी सक्रिय थे।
अपनी बातों में मैं अक्सर एक बात कहा करता था कि दतिया में कुल दो लोग हैं जो राजनीति में हैं, और उनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया हैं। राजनीति में होने का दिखावा करने वाले अन्य लोग या तो राजनीति को रोजगार के विकल्प के रूप में लिए हुये हैं या अपनी हीनता की भावना से उबरने के लिए राजनीति में कोई पद हासिल करने की कोशिश में कहीं सम्बद्ध हो गये हैं। वे ना तो अपने दल के विचार के आधार को जानते हैं, ना ही उसके कार्यक्रम से परिचित हैं। राजनीतिक दलों से जुड़े व्यक्ति या तो नगरीय निकायों के सदस्य या सदस्य बन सकने की उम्मीद में काम करने वाले होते रहे थे या बाद में पंचायती राज आने के बाद पंच, सरपंच, जनपद पंचायत, मंडी कमेटी सदस्य आदि में खप जाते हैं। किसी गरीब क्षेत्र में लोग अपने छोटे मोटे पद से जुड़े बजट में से यथा सम्भव नोंचने में लग जाते हैं। बुधौलिया जी समाज को बदलने वाली राजनीति का हिस्सा थे।
कण्ठमणि बुधौलिया अपनी युवा अवस्था से ही समाजवादी विचारधारा के प्रभाव में आ गये थे जिस कारण वे क्षेत्र की कथित मुख्यधारा की राजनीति के नाम से चलने और पलने वाले गिरोहों से मुक्त रहे। वे किसी धन सम्पन्न परिवार से नहीं आते थे। उनका परिवार पण्डिताई करने वाला किसान परिवार था और फिर भी उन्होंने अपनी विचारधारा के प्रभाव में नौकरी के पीछे भागने की जगह वकालत करना स्वीकार किया था। वकालत एक ऐसा काम है जिसमें ज्यादातर वे ही लोग सफल हो पाते हैं जो किसी सफल वकील परिवार से आते हैं या किसी सफल वकील के जूनियर बन जाते हैं। अपनी स्वतंत्र वकालत शुरू करने वाले इक्का दुक्का लोग ही किसी संयोगवश सफल होते पाये जाते हैं। बुधौलिया जी एक योग्य किंतु व्यावसायिक रूप से असफल वकील थे, फिर भी उन्होंने कभी कोई समझौता नहीं किया। अपनी समाजवादी विचारधारा और ईमानदारी पर अडिग रहे।
अपने छात्र जीवन में मेरी पहचान भी एक वामपंथी विचारधारा के छात्र के रूप में विकसित हुयी जिसका कारण मेरे पिता का प्रगतिशील आचरण और उनकी वाम पक्षधरता का प्रभाव था। अपने प्रवेशांक से ही मेरे घर में हिन्दी ब्लिट्ज़ आता था जिसे में नियमित रूप से पढता था और उसमें व्यक्त तर्कों को अपनी बातचीत में लाता था, जिस कारण से ऐसा समझा जाता था। जब राजनीति में केवल काँग्रेस, हिन्दू महासभा का नाम सुनायी देता था तब भी छुटपुट रूप से इस सामंती क्षेत्र में समाजवादी, प्रजा समाजवादी, संयुक्त समाजवादी आदि के नारे लिखे मिल जाते थे। बाद में जनसंघ ने हिन्दू महासभा का स्थान ले लिया था।
1971 तक दतिया में कुल जमा दो समाजवादी थे जिनमें से एक कण्ठमणि बुधौलिया और दूसरे राजाराम श्रीवास्तव। इनके अनुयायी के रूप में एक ओम प्रकाश श्रीवास्तव भी दिख जाते थे, जो कार्यकर्ता अधिक थे। ये तीनों ही लोग अपनी सादगी से पहचाने जाते थे। उन दिनों भिंड से समाजवादी पार्टी के एक विधायक हुआ करते थे, नाम था श्री रघुवीर सिंह कुशवाहा जो विशेष रूप से मुझसे मिलने के लिए दतिया आये थे और वहाँ समाजवादी युवजन सभा स्थापित करने का प्रस्ताव दिया था। मैं इसे स्वीकार तो नहीं कर सका किंतु नगर में एक सहयोगी ग्रुप बन गया था जिस कारण मेरा परिचय बुधौलिया जी से हुआ जो मुझ से सीनियर थे और वकालत प्रारम्भ कर चुके थे। नागरी प्रचारणी सभा की ओर से एक रिसर्च स्कालर श्री उदय शंकर दुबे भी उन दिनों दतिया में सक्रिय थे जो इलाहाबाद बनारस तरफ के थे और पुराने समाजवादी थे। उनसे साहित्यिक विमर्श होता रहता था। स्थानीय अखबारों में कभी कभी हम लोगों के सम्मलित बयान छप जाया करते थे।
उन्हीं दिनों मुख्यधारा की राजनीति में अपना स्थान बनाने के लिए उतावले एक प्रतिभाशाली युवा नेता शम्भू तिवारी उभरे थे जिन्होंने अपना एक निजी संगठन तैयार कर लिया था। वे भी अपनी राजनीति के हिसाब से हमारे वाम ग्रुप से पास और दूर होते रहे। इमरजैंसी के दौरान वे बुधौलिया जी के साथ जेल में रहे, तब तक मैं नौकरी में आकर बाहर चला गया था इसलिए जेल जाने से बच गया था। दतिया जेल में संघ वालों से असहमति रखने वाले ये दो ही प्रमुख लोग थे। तिवारी जी बाद में लोकदल और जनता दल के प्रयोग में भी साथ रहे तथा संभावना अनुसार काँग्रेस और भाजपा की ओर भी आवागमन करते रहे। एक बार तो वे भाजपा की ओर से विधायक बनने में भी सफल हुये, किंतु विधानसभा भंग हो जाने के कारण कार्यकाल पूरा नहीं कर सके थे।
बुधौलिया जी को अपनी विचारधारा के साथ
अकेले खड़े होने भी कभी संकोच नहीं हुआ। देश और प्रदेश में यदा कदा उनकी विचारधारा
के साथ चलने वाली सरकारें भी बनीं किंतु उन्होंने ना तो कभी सरकार से कोई पद चाहा
न लाभ लिया। दतिया में बीड़ी निर्माण का लघु उद्योग चलता था जिसमें बीड़ी वर्कर्स की
एक यूनियन उन्होंने गठित की थी। उस यूनियन को साथ लेकर वे प्रत्येक मई दिवस को नगर
में रैली निकालते थे। इस रैली में बैंक और बीमा आदि की कर्मचारियों की यूनियन भी
भाग लेने लगी थीं। 1990 के आसपास सीटू के नेता वकार सिद्दीकी भी दतिया आ गये थे और
साथ में नेतृत्व करने लगे थे। जब उन्होंने साक्षरता आन्दोलन चलाया तो उसमें भी
बुधौलिया जी ने साथ दिया था। एक बार उन्होंने एक शंकराचार्य से सवाल पूछने के क्रम
में पूछ लिया था कि महाराज जी परमाणु विस्फोट का फार्मूला बताइए और उनका गुस्सा
झेला था।
मैं कामरेड सव्यसाची जी द्वारा जनसामान्य की भाषा में लिखी पुस्तिकाओं से प्रभावित था और उनकी पुस्तकें व पत्रिका मंगाता था व उन्हें जरूर देता था। एक बार जब एरियर मिला तो उस राशि में से मैंने सीपीएम के मुख पत्र लोकलहर के वार्षिक चन्दे को दस लोगों के नाम देकर भेज दिया था। बुधौलियाजी भी उनमें से एक थे। वे स्थानीय अखबारों में सामायिक टिप्पणियां तो लिखते ही थे अपितु कवितायें भी लिखते थे और कवि गोष्ठियों में आते थे। जनवादी लेखक संघ के सदस्य थे। उनका एक कविता संकलन भी प्रकाशित है।
एक बार निजी बातचीत में कैफी आज़मी ने मुझ से कहा था कि कामरेड विचारधारा का रिश्ता खून के रिश्ते से भी बढ कर होता है। इस तरह उनसे एक रिश्ता था। एक समर्पित साथी के जाने का दुख है, सम्भव है कि उनकी स्मृतियों से उनके कदमों पर चलने वाले और लोग भी निकलें।
वीरेन्द्र जैन
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