आवश्यकता अविष्कार
की जननी की तरह ही भाषा का विकास
वीरेन्द्र जैन
जीवित
प्राणियों में केवल मनुष्य ही ऐसा प्राणी है जो अपनी बात को भाषा में बोल और लिख
सकता है और इस तरह दूर दराज तक अपने अनुभवों को काल के किसी भी खण्ड तक ले जा सकता
है। अन्य प्राणी आवाज तो निकालते हैं
किंतु वह आवाज उनकी जाति और उस काल तक ही सम्प्रेषित हो पाती है। यह उनकी अपनी तात्कालिक
जरूरत तक ही सीमित रहती है। मनुष्य सामाजिक अध्य्यन और विकास के लिए भी भाषा का
उपयोग करता है।
भाषा
जीवन के लिए है, जीवन भाषा के लिए नहीं। इसलिए अगर जीवन जड़ या पुरोगामी नहीं है तो
उसके उपयोग के साधन भी समय और जरूरत के अनुसार बदलेंगे। भाषा भी उनमें से एक है। इतिहास
बताता है कि हमारे देश में भी भाषाओं में निरंतर परिवर्तन होता रहा है। जैसा कि
होता है कि यथास्थिति से लाभांवित होने वाले या किसी अन्य कारण से उससे चिपके रहने
वाले लोग ऐसे परिवर्तनों का विरोध करते रहे हैं। हिन्दी के सबसे महत्वपूर्ण कवि
तुलसी दास ने जब आम आदमी की बोलचाल की भाषा में रामकथा लिखी थी तो बनारस के
ब्राम्हणों ने यह कहते हुए उन पर घातक हमले किये थे कि प्रभु का चरित्र तो देव
भाषा [संस्कृत] में ही लिखा जा सकता है भाखा [आम आदमी के बोलचाल की भाषा] में
लिखना उनका अपमान है। इतिहास गवाह है कि तुलसी दास ने कितनी कठिनाइयों के साथ अपने
ग्रंथ का पाठ आयोजित करवाया था और उसे नाट्य रूप देकर जगह जगह रामलीलाएं करवायी
थीं, जो आज लगातार खेले जाने वाला सबसे पुराना जननाट्य है। उसी का परिणाम है कि आज
हिन्दी भाषी क्षेत्र में राम के सबसे अधिक भक्त हैं और अधिकांश मन्दिर इसी
जनप्रियता के बाद ही निर्मित हुये हैं। आज हजारों लोग राम चरित मानस के पाठ और
व्याख्याओं की दम पर ही अपनी रोजी रोटी चला रहे हैं। रामचरित मानस में ही अवधी,
बुन्देली, भोजपुरी और ब्रजभाषा के शब्दों का एक साथ प्रयोग देखने को मिलता है और
कहा जा सकता है कि भाषायी क्षेत्रों की एकता में तुलसी की भाषायी एकता की बड़ी
भूमिका है। इन सारे क्षेत्रों में रिश्तों की नैतिकताओं के पीछे इस एक ग्रंथ के
आदर्श निहित हैं। यदि रामकथा केवल संस्कृत तक सीमित रहती तो वह, और उसके आदर्श
पिछड़ों और दलितों तक नहीं पहुँच पाते।
भाषा
सम्प्रेषण का माध्यम है और भाषा व उसमें शब्दों का चयन इस बात पर निर्भर करता है
कि कौन किसको सम्बोधित कर रहा है और उस सम्बोधन का विषय क्या है। समाज में होने
वाले परिवर्तनों में सम्बोधित करने वाले और सम्बोधित होने वाले व्यक्ति ही नहीं
बदलते अपितु सम्वाद के विषय भी बदलते रहते हैं। उल्लेखनीय है कि जब 1971 में
इन्दिरा गाँधी द्वारा बैंकों, बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण की आँधी आयी और आम
आदमी को बैंकों में प्रवेश मिला तब बड़ी संख्या में हिन्दी अधिकारियों की भर्ती
हुयी क्योंकि बैंकों को आम आदमी के साथ सम्वाद करना था। किंतु 1991 से जब नई
आर्थिक नीतियों के अंतर्गत उदारीकरण, वैश्वीकरण और निजीकरण पर जोर दिया जाने लगा
तो धड़ाधड़ अंग्रेजी सिखाने वाले संस्थान बढ गये। मोबाइल और कम्प्यूटराइजेशन के बढते
ही बहुत सारे लोगों ने कामचलाउ अंग्रेजी सीख ली। जब हम वे वस्तुएं अधिक से अधिक
स्तेमाल करना पड़ेंगीं जो विदेशों में ही अविष्कृत हुयी हैं और वहीं उन वस्तुओं व
पुर्जों का नामकरण हुआ है तो हम उनकी भाषा के शब्दों से कैसे गुरेज कर सकते हैं।
सरकारी कार्यालयों ने हिन्दी के नाम पर अंग्रेजी शब्दों का जो संस्कृतीकरण किया है
वह कितना निरर्थक और हास्यास्पद हुआ है यह हम जानते ही हैं। इसलिए नागरिकों के बीच
जाति, धर्म, रंग भाषा, और लिंग का कोई भेद न मानने वाले लोकतांत्रिक देश में हमें
हर आम जन से अगर सम्वाद करना है तो उस भाषा को अपनाना होगा जो सबकी समझ में आ रही
हो। इसमें संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी, के शब्द भी हिन्दी में आना स्वाभाविक है व
इसी तरह दूसरी भाषाओं में भी अन्य भाषाओं के शब्दों का आदान प्रदान होना तय है।
दूसरी ओर यह भी ध्यान में रखने की बात है कि हम अपनी हीनताबोध में विदेशी भाषा को
ओढने की कोशिश न करें। जिस तरह गंगा में गन्दे नाले मिल कर भी पवित्र हो गये मान
लिये जाते हैं उसी तरह अगर हम दूसरी भाषाओं के सीमित शब्दों को ग्रहण करेंगे तो
उससे हमारी गंगा का कोई नुकसान नहीं होगा। सभी जानते हैं कि अंग्रेजी भाषा कितने
अधिक शब्द दूसरी भाषाओं के सम्मलित करती रही है जिसके करण ही वह विश्व में सम्वाद
की भाषा बन सकी है।
सोचने
का विषय यह है कि हम आज़ादी के बाद कोई नया अविष्कार, या विचार क्यों नहीं दे सके!
जब हम वस्तुओं, विचारों और कार्यक्रमों का आयात ही करते रहेंगे व हमारे पास
निर्यात करने के लिए कुछ नहीं होगा तो हमें न केवल दूसरों की भाषा अपितु संस्कृति
भी अपनानी पड़ेगी। बाज़ार जब आता है तो अपनी मांग पैदा करने के लिए अपने साथ अपनी
संस्कृति भी लाता है। अगर हम पिज्जा और बर्गर का अनुवाद करेंगे तो उसका स्वाद ही
खराब करेंगे। अपनी भाषा के नये शब्दों को प्रचलन में लाने के लिए उसे पूर्व
प्रचलित भाषा और आदर्श व्यक्तियों से जोड़ना पड़ता है। जब दूरदर्शन पर महाभारत
सीरियल आता था तब रिश्तों के आगे श्री लगाना प्रारम्भ हो गया था जैसे जीजाश्री,
भाभीश्री, आदि। यह सीरियल का प्रभाव था। उसी तरह लोकप्रिय फिल्मों के प्रमुख
डायलोग या चरित्र भी प्रचलन में आ जाते हैं।
भाषा
का छुआछूतवाद संवाद की क्षमताओं को घटाता है। दुनिया की समस्त भाषाएं क्रियाओं से
विकसित हुयी हैं। किसी भी काल खण्ड की प्रचलित भाषा किसी दूसरे कालखण्ड में वैसी
ही नहीं रह सकती इसलिए जरूरी है कि हम प्रत्येक ग्रहणीय शब्द को गले लगाने में
गुरेज नहीं करें। ‘आनो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वत’ ।
वीरेन्द्र जैन
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
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