किरण वेदी पर लगाया
भाजपा का दाँव
वीरेन्द्र जैन
भाजपा ने श्रीमती किरण वेदी को दिल्ली विधान
सभा चुनावों में मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी की तरह उतारने का फैसला किया है। इसके
संकेत भाजपा द्वारा देर तक मुख्य मंत्री पद प्रत्याशी न घोषित करने व भाजपा की
सदस्यता ग्रहण करने के बाद श्रीमती वेदी द्वारा भाजपा के पुराने कार्यकर्ताओं के
साथ रंगरूटों जैसे व्यवहार से मिल गया था। यह भाजपा नेतृत्व का हताशा में उठाया
गया कदम है। आम जनता को अपने दुहरे चरित्र से भ्रमित करने वाली भाजपा इस बार अपने
ही शिखर के नेताओं और समर्थकों के साथ धोखा कर रही है। यही कारण है कि इस पार्टी
को मोदी की पार्टी में बदल जाने के बाद आम कार्यकर्ताओं द्वारा पहली बार ऐसा खुला
विद्रोह हुआ जिसे दबाने के लिए पुलिस और आरएएफ बुलानी पड़ी।
श्रीमती
किरण वेदी और भाजपा को जानने वाले एक अनुभवी पत्रकार का मानना है कि यह एक खतरनाक
फैसला है। उनका कहना है कि एक भले व्यक्तित्व की ख्याति रखने वाली किरण वेदी भाजपा
जैसे दल के परम्परागत नेतृत्व की तरह काम करने की दृष्टि से अपात्र हैं। यह एक
संयोग है कि वे देश की पहली आईपीएस अधिकारी हैं और उनकी पदस्थापना दिल्ली में रही
है जहाँ समाचारों के लिए भूखे भेड़ चाल वाले मीडिया के लिए वे एक ज्वलंत विषय बन कर
उभरीं थीं। इसी पहचान ने उन्हें परम्परागत पुलिस अधिकारी से अलग पहचान दी और इसे
बनाये रखने की प्रेरणा भी दी। देश के तत्कालीन प्रधान मंत्री श्रीमती इन्दिरा
गाँधी के किसी ड्राइवर द्वारा गलत स्थान पर खड़ी की गयी कार पर अनजाने में दण्ड लगा
देना और उस दण्ड पर स्थिर रहना केवल इसलिए खबर बन गया था क्योंकि वे एक महिला
आईपीएस थीं और उस समय तक महिला अधिकारियों तक को आमतौर पर कमजोर और ढुलमुल माना
जाता था। इसी दौरान ऐसे ही ढेर सारे दृढ फैसले राज्यों के सैकड़ों आईएएस आईपीएस
पुरुष अधिकारियों द्वारा लिये जाते रहे पर वे खबर नहीं बन सके, बनना भी नहीं चाहिए
थे क्योंकि उन्होंने वही किया था जो उन्हें करना चाहिए था। किरण वेदी में एक बाल
हठ या त्रिया हठ हमेशा रहा जिसे वे अपने पद और मीडिया की निगाह वाली स्थापना के
कारण पूरा भी कर सकीं। पुलिस अधिकारियों का ऐसा ऐसा हठ बिहार, उत्तर प्रदेश या
मध्यप्रदेश के दूर दराज के क्षेत्रों में नहीं चल पाता है। उन्होंने मीडिया द्वारा
बनायी गयी छवि की रक्षा का पूरा प्रयास किया, भले ही दिल्ली में वकीलों से टकराने
के बाद उन्हें हतोत्साहित होना पड़ा हो। एक सेलीब्रिटी बन जाने के बाद उनकी
महात्वाकांक्षाओं ने उन्हें अन्ना आन्दोलन से जोड़ा भले ही पद पर रहते हुए उन्होंने
नौकरशाही में चल रहे भ्रष्टाचार से टकराने का कोई उदाहरण प्रस्तुत नहीं किया। इसी
आन्दोलन से मिली लोकप्रियता ने उन्हें चुनावी राजनीति में आने को प्रेरित किया और
सहज सफलता के लिए उस सत्तारूढ दल से जोड़ दिया जो उनके घोषित विचारों से मेल नहीं
खाता है।
देश
विभाजन के बाद इस में आकर बसे शरणार्थियों के कारण दिल्ली शुरू से ही भाजपा का
प्रभाव क्षेत्र रहा है और समय समय पर विभिन्न चुनावों में वे जीतते भी रहे हैं।
यही कारण रहा कि यहाँ समुचित संख्या में स्थानीय नेतृत्व विकसित हो सका। नगर निगम
पर लम्बे समय तक उनका अधिकार रहा है। जैसे जैसे राजनीति अपनी महात्वकांक्षाओं की
पूर्ति का साधन बनती गयी वैसे वैसे भाजपा नेतृत्व में पद के लिए आपसी टकराहट भी
होती रही है। मदन लाल खुराना और साहिब सिंह वर्मा की टकराहट में श्रीमती सुषमा
स्वराज को एक बार मुख्यमंत्री पद सौंपा जा चुका है और इसी टकराहट के चलते विधान
सभा चुनाव हार भी चुके हैं। अभी भी हर्षवर्धन सतीश उपाध्याय और जगदीश मुखी के बीच
प्रतियोगिता चल रही थी। अभी भी उदित राज, मनोज तिवारी, रमेश बिदूड़ी आदि बाहर के
लोगों के सहारे लोकसभा चुनावों में नैय्या पार लगी थी। किरण वेदी का भाजपा सद्स्य
बनते ही सीधा मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी बनना दिल्ली के किसी भी पुराने नेतृत्व को हजम
नहीं हो सकता। इसे स्वीकार कराने में केवल एक तर्क ही ने काम किया होगा कि उन्हें
बताया गया कि अरविन्द केजरीवाल की पार्टी से जीतने का यह इकलौता सम्भव हथकण्डा है।
यह सन्देश भी केवल दिल्ली के उच्च नेतृत्व के साथ ही साझा किया जा सकता था क्योंकि
निचले स्तर पर यह सन्देश जाने पर समर्थक हतोत्साहित हो सकते थे।
किसी
प्रदेश में या देश में केवल प्रशासनिक क्षमता के सहारे लोकतांत्रिक सरकार नहीं
चलायी जा सकती। भारत जैसे विकासमान लोकतंत्र में तो जनता को उसकी सारी कमियों,
अन्धविश्वासों, अज्ञानों के साथ साधना होता है व उसी में से क्रमशः विकास और
परिवर्तन की राह निकालना होती है। श्रीमती वेदी स्वयं को अच्छी प्रशासक मानती हैं
और अपने चालीस साल के प्रशासनिक अनुभवों के कारण स्वयं को नेतृत्व की अधिकारी भी मानती
हों, किंतु उन्हें पहले लोकतंत्रिक ढ्ंग से भाजपा कार्यकर्ता और फिर दिल्ली की
जनता से अपने नेतृत्व को स्वीकार कराना पड़ेगा। अभी उनका सोच है कि नरेन्द्र मोदी
की लोकप्रियता से भाजपा को विजय मिल जायेगी और उन्हें अच्छा प्रशासन देने के लिए मनमोहन
सिंह की तरह कुर्सी सौंप दी जायेगी, जिसे सब लोग स्वीकार कर लेंगे। बहुत सम्भव है
कि उनकी यह समझ गलत साबित हो। उल्लेखनीय है कि शिक्षा का अधिकार, भोजन का अधिकार,
सूचना का अधिकार, ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना आदि के बाद भी मनमोहन सिंह सरकार
सुचारु रूप से नहीं चल सकी और अंततः उसे जाना पड़ा। यदि भाजपा इतना कैडर वाला संगठन
होता तो श्रीमती वेदी को न तो इतनी आसानी से दल में प्रवेश मिला होता और न ही इतनी
जल्दी इतने महत्वपूर्ण पद का प्रत्याशी बनाया गया होता। सारे दक्षिणपंथी व
मध्यममार्गी दल पद और पैसे के लालची लोगों की दबी छुपी महात्वाकांक्षाओं को दुलरा
सहला कर ही चल रहे हैं। कुछ को नकद लाभ दिया जा रहा है तो कुछ को भविष्य के लिए
उम्मीदें दी गयी हैं। अभी ऊपर से लोगों को लाकर बिठाने और ईमानदारी से प्रशासन
चलाने के वादे से पार्टी नहीं बचायी जा सकती। यही कारण है कि पार्टी नेतृत्व व
कार्यकर्ताओं को साधने के साथ साथ साफ सुथरी सरकार चलाना बहुत कौशल का काम और यह
समन्वय श्रीमती वेदी में नजर नहीं आता। उन्हें इसका कोई अनुभव भी नहीं है।
उल्लेखनीत है कि बेदाग वीपी सिंह, अनुभवी इन्द्र कुमार गुजराल सहित कई राज्यों की ईमानदार
बामपंथी गठबन्धन वाली सरकारें भी बहुत लम्बी नहीं चल सकीं। अपने कार्यकर्ताओं को
पहले सम्बोधन में ही उन्होंने उन्हें जिस तरह से अनुशासित और आज्ञाकारी बनाने की
कोशिश की वैसा अनुशासन तो भाजपा जैसे राजनीतिक दलों में कठिन हैं।
उल्लेखनीय
है कि भाजपा में हमेशा मुख्यमंत्री पद देने, देकर हटाने या देने का लालच देकर न
देने के कारण ही भाजपा में बगावत हुयी है वीरेन्द्र कुमार सखलेचा, शंकर सिंह बघेला,
केशुभाई पटेल, कल्याण सिंह, मदनलाल खुराना, उमा भारती, येदुरप्पा, से लेकर अनेक
प्रसंग हैं, भले ही बाद में सफल न होने पर ज्यादातर वापिस लौट आये हों। यदि एक बार
यह भी मान लिया जाये कि किरन बेदी के मुख्यमंत्री बनने की स्थिति आ जाती है तो भी
उनके द्वारा इस पद पर आवश्यक लोचपूर्ण व्यवहार सम्भव नहीं। लोकसभा चुनावों के
दौरान सातों सीटों पर मिली विजय में दल बदल कर आने वाले उदितराज, मनोज तिवारी,
विधूड़ी, आदि की महत्वपूर्ण भूमिका रही थी, किंतु ये लोग किरन बेदी के इस तरह आने
और नेतृत्व हथियाने से खुश नहीं हैं जिसे दबे स्वर में व्यक्त भी कर चुके हैं। उसी
तरह से मुखर न होने वाले हर्षवर्धन, विजय गोयल, जगदीश मुखी, विजेन्द्र गुप्ता आदि
के समर्थक भी भावनाओं को दबा कर बैठे हैं। पिछले विधानसभा चुनाव में भी सबसे बड़ा
दल होने के बाद भी भाजपा को कोई दल समर्थन देने को तैयार नहीं हुआ था व काँग्रेस
ने आप पार्टी को समर्थन देना अधिक उपयुक्त समझा था। विजय गोयल ने तो अगस्त 2014 के
दौरान राज्यसभा में साफ कह दिया था कि यूपी और बिहार वालों को दिल्ली आने से रोकने
की जरूरत है ताकि दिल्ली के विकास को गति दी जा सके। बहुत सम्भव है उनके इस बयान
का भाजपा को अब नुकसान उठाना पड़े। विधायकों की संख्या कम होने पर कोई दल उनके साथ
गठबन्धन करने नहीं आयेगा।
वैसे
तो चुनाव परिणामों का पूर्व अनुमान सदैव ही सम्भावनाओं का खेल होता है और राजनीतिक
दल जीत के दाँव लगाते रहते हैं किंतु ऊपर से जो प्रतीत होता है उसके अनुसार उन्होंने
गलत प्रत्याशी पर दाँव लगा दिया है।
वीरेन्द्र जैन
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