गुरुवार, फ़रवरी 12, 2015

क्या आआपा इस ज्वाला को ज्योति बना सकेगी?

क्या आआपा इस ज्वाला को ज्योति बना सकेगी?
वीरेन्द्र जैन 

       जब दिल्ली विधान सभा चुनाव 2015 के बारे में चारों ओर भाजपा के औंधे मुँह गिरने की बातें कही जा रही हों तब आपको यह कथन चौंका सकता है कि दिल्ली के चुनावों में उसे भी एक बड़ी सफलता मिली है और वह है काँग्रेस मुक्त भारत की ओर बढने की दिशा में एक और कदम आगे पहुँचना। इसी क्रम में अगर ढीले ढाले संगठन वाली आम आदमी पार्टी को कभी असम में आसू [आल असम स्टूदेंट यूनियन] को मिली सामायिक सफलता के साथ तौलें तो अनुमान लगाते देर नहीं लगेगी कि देर सबेर आम आदमी पार्टी को मिले समर्थन का विचलन  भाजपा में ही विलीन होने तक जा सकता है। किरण बेदी, विनय कुमार बिन्नी, शाजिया इल्मी, एस के धीर, या अन्य दर्जनों नेता हों वे सब अन्ना आन्दोलन और आम आदमी पार्टी से निकल कर अपने अपने लक्ष्य की प्रत्याशा में बंगारुओं, येदुरप्पाओं, व्यापम आदि घोटालों और निरंतर अनैतिक राजनीति करने वाली भाजपा में ही गिरे। वहीं उन्होंने अनुकूलता महसूस की।  दिल्ली विधानसभा के इस चुनाव में भाजपा को भले ही लोकसभा चुनाव में मिले 46 प्रतिशत मतों की तुलना में कम वोट मिले हों किंतु पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में कम वोट नहीं मिले हैं जबकि काँग्रेस के मतों का प्रतिशत 24 से घट कर 09 तक पहुँच गया है और विधानसभा में शून्य पर आने के साथ साथ उसके 70 में से 63 प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी, जो इस क्षेत्र में उसके इतिहास में अभूतपूर्व है। यह पार्टी पिछले 15 साल से यहाँ सत्तारूढ थी। अगर आम आदमी जैसी मध्यम वर्ग में लोकप्रिय होकर उभरी पार्टी अपने सांगठनिक आधार को नहीं सुधार पाती तो काँग्रेस की लोकप्रियता में आयी गिरावट का लाभ अंततः भाजपा तक ही पहुँचेगा।
       जल्दी और ज्यादा खुशफहमियां पाल लेने वाले लोग आम आदमी पार्टी की झाड़ूमार चुनावी सफलता को एक नई क्रांति या एक नई तरह की पार्टी के उदय के रूप में देख सकते हैं जबकि सच यह है कि नई पार्टी का विकास सकारात्मकता में ही सम्भव है नकारात्मकता में नहीं। चुनावी वालंटियरों का जुड़ जाना और तात्कालिक उत्तेजना के सहारे पहले भी कम ज्यादा सीटों की सफलता के साथ ऐसे ही चुनाव जीते जाते रहे हैं, जिन्हें झाड़ूमार जीत कहा जाता रहा है। 1971 में श्रीमती इन्दिरा गाँधी के नेतृत्व में ‘नई काँग्रेस’ जिसे बाद में बहुत दिनों तक काँग्रेस [आई] कहा गया की झाड़ूमार सफलता, 1977 में जनता पार्टी को मिली सफलता सहित असम में आसु, आँध्र में रामाराव की तेलगु देशम पार्टी, बिहार में जेडी-यू सहित अनेक बार लगभग ऐसी ही घटनाएं होती रही हैं। जब तक आम आदमी पार्टी राजनीति के नये कार्यक्रम, संगठन, और उस संगठन को लम्बे समय तक चलाने की व्यवस्था के साथ प्रकट होकर एक निश्चित समायावधि तक अथक काम करके नहीं दिखाती तब तक वह भाजपा के लिए भावी भोजन बनने को ही अभिशप्त है।
       दिल्ली विधानसभा के इन चुनावों के दौरान आम आदमी पार्टी के शिखर नेतृत्व के बयान और व्यवहार भी परखने लायक है। उल्लेखनीय है कि इन नेताओं ने अपने किसी भी प्रचार अभियान में भाजपा की नीतियों और उसके नेतृत्व की कोई तीखी आलोचना नहीं की। इस व्यवहार को उनकी शालीनता और विनम्रता के खाते में डालकर ही नहीं छोड़ा जा सकता क्योंकि उसके नेताओं के साक्षात्कार और बयान उनकी आर्थिक नीतियों के खिलाफ नहीं जाते, जो देश में भ्रष्टाचार का प्रमुख कारण है। इस चुनाव में आप पार्टी ने ढाल बन कर भाजपा के खिलाफ जन्मे असंतोष को वैसे ही बीच में ही लपक लिया है जैसे कोई अच्छा फील्डर क्रिकेट के खेल में बाउंड्री पार जाने वाली गेंद को लपक ले ताकि बालर को वापिस कर सके। दूसरी ओर योगेन्द्र यादव और कुमार विश्वास जैसे लोगों ने खुल कर बामपंथी दलों और विचार को कालातीत बताने की भरपूर कोशिश की जबकि ये दल अपने कर्मचारी, मजदूर, किसान संगठनों के द्वारा अभी भी भारतीय राजनीति में सक्रिय हस्तक्षेप रखते हैं और जिन पर सैद्धांतिक समझौतों या भ्रष्टाचार के आरोप नही हैं। काँग्रेस को छोड़ कर बामपंथी किसी भी दूसरे दल की तुलना में अधिक राष्ट्रव्यापी हैं और आआपा के स्वाभाविक सहयोगी हो सकते थे पर उनके साथ ही दूरियां बनाना उन्हें सन्देहास्पद बनाता है।  त्याग और सादगी के नाम पर अपनी धाक जमाने वाले नेता की आम आदमी पार्टी ने ओबामा यात्रा समेत मोदी के मँहगे और हजारों तरह के फूहड़ रंगों वाले पहनावे को कभी विषय नहीं बनाया। चुनावों के दौरान मिले इमाम बुखारी द्वारा बिना मांगे दिये गये समर्थन को समय से इंकार करके भले ही उन्होंने सफल कूटनीति की हो किंतु पूरे चुनावों के दौरान उन्होंने संघ परिवार की साप्रदायिकता का तीखा विरोध नहीं किया जबकि इसी दौरान उनके साधु साध्वियों के भेष में रहने वाले प्रमुख नेताओं ने जानबूझ कर बेहद भड़काऊ बयान दिये जिसके लिए मोदी और उनकी पार्टी बदनाम है। स्मरणीय है कि उत्तर प्रदेश में उप चुनावों के दौरान खास योजना से योगी आदित्यनाथ को प्रभारी नियुक्त किया गया था, व उनसे बिना किसी तात्कालिक सन्दर्भ के उत्तेजक बयान दिलाये गये थे। त्रिलोकपुरी और बवाना के दंगे भाजपा द्वारा साम्प्रदायिक कार्ड खेलना उनकी नीति के बेपर्द उदाहरण थे।
आम आदमी पार्टी ने निरंतर निराश होती जा रही जनता के लिए एक झरोखा खोले जाने का आभास देकर भले ही इंकलाब ज़िन्दाबाद का नारा लगाया हो किंतु उनके कार्यक्रम केवल प्रशासनिक सुधारों तक ही सीमित हैं, जो इस बात के संकेत हैं कि वे व्यवस्था नहीं बदलना चाहते। हर ज्वलंत सवाल के उत्तर में बार बार ऊपर वाले का नाम लेकर उस सवाल को टाल देने वाले अरविन्द या तो इंकलाब जिन्दाबाद का गलत अर्थ लगा रहे हैं, या उसे बन्दे मातरम  जैसे नारे की तरह स्तेमाल  कर रहे हैं। बिजली सस्ती होने को वे परिचालन रिसाव [ट्रांजीशन लौस] के नाम पर चल रहे घपले से जोड़ कर देखते हैं जबकि कठोर प्रशासनिक सुधारों और सजग कार्यकर्ताओं के संगठन के बिना विद्युत वितरण में चल रहे भ्रष्टाचार को नहीं रोका जा सकता। पूर्ण राज्य का दर्जा पाने के लिए बहुत संघर्ष करना होगा और बिना पुलिस की सहायता के किसी भी तरह की चोरी और स्त्री विरोधी अपराध रोकना सम्भव नहीं है। उसके बाद भी एक उबाऊ और कमजोर न्यायिक प्रक्रिया है जिसमें सम्पन्न अपराधियों के बच निकलने की बड़ी सम्भानाएं छुपी हैं। नौ महीने में मोदी सरकार से निराश हो जाने वाली जनता अब शीघ्र कार्यवाही चाहती है, जो इस शिथिल न्याय व्यवस्था में सम्भव नहीं। पता नहीं मोदी ने उन्हें नक्सली बता कर और जंगल जाने की सलाह देकर उनको कमजोर करना चाहा था या बल देना चाहा था पर इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि जल्दी सार्थक परिणाम चाहने वाली जनता ने आआपा को शायद इसी कारण व्यापक समर्थन दे दिया हो। दिल्ली स्थित देश के एक सबसे प्रमुख विश्वविद्यालय के माहौल को देखते हुए यह भी नहीं कहा जा सकता कि देश के निराश जन मानस के बीच अब नक्सली होना एक गाली है या उम्मीद का नाम है।
       एक परिवर्तनकारी राजनीतिक दल के लिए बेहद जरूरी होता है अपने स्पष्ट लक्ष्य और कार्यक्रम की साफ समझ वाला नेतृत्व और समर्पित अनुशासित कार्यकर्ताओं का संगठन। आम आदमी पार्टी ने जिस तरह से सदस्यता अभियान चलाया तथा जीत और लोकप्रियता के आधार पर टिकिट और पद दिये उसका परिणाम उन्होंने शाजिया इल्मी एम एस धीर अशोक चौहान, शकील अंजुम चौधरी और विनोद कुमार बिन्नी के निःसंकोच भाजपा में सम्मलित होने से समझा जा सकता है।  विधान सभा लम्बे समय तक स्थगित ही इसीलिए रही क्योंकि इनके कई विधायकों को सौदे के लिए तैयार किया जा रहा था, जिनमें से कई तो तैयार भी हो गये थे। अभी भी विपुल संसाधनों और नैतिकता शुचिता की परवाह न करने वाली भाजपा के हाथों बिकने से नये विधायकों और पदाधिकारियों को रोकने की दल के अन्दर कोई उचित व्यवस्था नहीं है।
किसी भी राजनीतिक पार्टी में समुचित संख्या में पूर्णकालिक कार्यकर्ता होने ही चाहिए और उन कार्यकर्ताओं को अगर जीवन यापन भत्ता नहीं दिया जाता तो या तो पार्टी सम्पन्न स्वार्थी घरानों से आये लोगों के हाथों में चली जाती है या उसका कार्यकर्ता भ्रष्ट होने को मजबूर हो जाता है। काँग्रेस और भाजपा इसी कमजोरी की शिकार हैं। किसी परिवर्तनकामी दल के लिए जरूरी है कि वह सदस्यों से उनकी आय के अनुरूप नियमित लेवी लेने, पूर्णकालिक कार्यकर्ताओं को समय से सुनिश्चित भत्ता देने के नियम बनाये। दिल्ली में मिले व्यापक जनसमर्थन को अगर आन्दोलन में नहीं बदला जाता तो इस बात को पहचाने जाने में अब बहुत देर नहीं होगी कि आम आदमी पार्टी भी एक और काँग्रेस या भाजपा आदि का नया नामकरण है।  
वीरेन्द्र जैन                                                                          
2 /1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
मोबाइल 9425674629
    

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें