निर्मम शल्य
चिकित्सा ही काँग्रेस का सर्वोत्तम उपचार है
वीरेन्द्र जैन
2014
के आम चुनावों में अपनी सबसे बड़ी पराजय के बाद भी काँग्रेस सबसे बड़ा विपक्षी और
इकलौता राष्ट्रव्यापी दल है जो देश के प्रत्येक राज्य में अपनी उपस्थिति रखता है
और उसका वहाँ संगठन मौजूद है। इस आम चुनाव में भी उसे देश के हर कोने से लगभग दस
करोड़ मत प्राप्त हुये हैं। काँगेस वह इकलौता दल है जो देश की सांस्कृतिक विविधिता
को ही नहीं अपितु राजनीति की विभिन्न धाराओं के बीच समन्वय बना सकने में सफल रहा
है। जो लोग भी सच्चे दिल और साफ समझ से राष्ट्र की चिंता करते हैं वे इस कालखण्ड
में काँग्रेस की पक्ष या विपक्ष में कम या ज्यादा उपस्थिति की अनिवार्यता समझते
हैं और समतुल्य विकल्प के बिना काँग्रेस मुक्त भारत के नारे को सबसे बड़ा
राष्ट्रद्रोही नारा समझते हैं।
राम
मनोहर लोहिया को श्रद्धांजलि देते हुए श्रीमती तारकेश्वरी सिन्हा ने मासिक पत्रिका
कादम्बिनी में एक लेख लिखा था। तारकेश्वरी जी नेहरू मंत्रिमण्डल में उप
वित्तमंत्री थीं और शायरी की ह्रदयस्पर्शी भाषा में अपनी बात कहने के कारण बहुत ही
लोकप्रिय चित्ताकर्षक युवा और मुखर मंत्री थीं। उन दिनों डा, लोहिया विपक्ष के
सबसे प्रखर नेता हुआ करते थे और नेहरू जी की आलोचना का कोई अवसर नहीं छोड़ते थे। इस
आलोचना में वे नेहरू जी के कुत्ते पर ही नहीं अपितु टायलेट के खर्च को भी विषय बना
देते थे। इस लेख में तारकेश्वरी जी लिखती हैं कि मैंने जब एकांत में लोहिया जी से
पूछा कि आप इतने बड़े चिंतक और सुलझे हुये व्यक्ति हैं तो देश के ह्रदय सम्राट
नेहरूजी की इतने निम्न स्तर पर आलोचना क्यों करते हैं तो उन्होंने बहुत गम्भीरता
से उत्तर देते हुए कहा था कि तारकेश्वरी यह मूर्तिपूजकों का देश है और लोगों ने
नेहरूजी की भी मूर्ति बना ली है। नेताओं की यह मूर्तिपूजा देश के लोकतंत्र के लिए
बड़ा खतरा है और मैं इस मूर्ति को तोड़ना चाहता हूं। मैं चाहता हूँ कि राजनेता जनता
की भाषा के साथ देशवासियों के बीच में अपने गुणों अवगुणों के साथ उपस्थित हों। मैं
नेहरू की जनता से दूरी को तोड़ना चाहता हूं।
देश
में सत्तारूढ होने के बाद काँग्रेस के पास में दुहरा काम था। एक ओर तो उसे एक
अहिंसक आन्दोलन के रास्ते साम्राज्यवाद और सामंती प्रभाव से निकली जनता की चेतना
को जागृत करना था तो दूसरी ओर अनेक तरह की रूढियों से ग्रस्त इसी जनता से जनादेश
भी प्राप्त करना था। इसी के साथ उसे एक लोक कल्याणकारी शासन भी चलाना था। लोकतंत्र
के शैशवकाल वाले नेहरूजी के शासन में जमींदारी उन्मूलन और हिन्दू कोड बिल लाने
समेत सैकड़ों प्रगतिशील काम हुये। जनहित में किये जा रहे ये काम बच्चे की बीमारी को
दूर करने के लिए उसे कढवी दवा खिलाने जैसे थे। प्रतिगामी शक्तियों के उभरने के साथ
श्रीमती इन्दिरा गाँधी के शासन काल से यह जिम्मेवारी और बढ गयी इसलिए उन्होंने जहाँ
एक ओर समाजवाद व गरीबी हटाओ का नारा देते हुए पूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवी पर्स
व विशेष अधिकारों की समाप्ति के साथ बैंकों व बीमा कम्पनियों के राष्ट्रीयकरण जैसा
बड़ा कदम उठाया तो दूसरी ओर अपनी छवि को पार्टी के केन्द्र में लाकर कथित
मूर्तिपूजकों के बीच अपने माध्यम से काँग्रेस की लोकप्रियता को बनाये रखा। किताबी
राजनीति करने वाले आलोचक इसे काँग्रेस की कमजोरी का प्रारम्भ मानते हैं।
सिद्धांतों वाली राजनीति की बहस के बीच यह सच भी हो सकती है किंतु जब निराट
निरक्षर और राजनीतिक चेतना से कमजोर नागरिक का एक वोट भी उतना ही महत्व रखता हो तब
हर वोट कीमती होता है और यह भी देखना होता है कि चुनावी मुकाबला किसके साथ है, सो
उसने दोनों जहान साधने की साधना की। यह समन्वय ही काँग्रेस का गुण रहा है जिसने
उसे लम्बे समय तक सत्ता में बनाये रखा।
श्रीमती
गाँधी के सत्ता सम्हालते ही विरोधियों ने काँग्रेस पर खानदानी शासन का आरोप लगाना
शुरू कर दिया था जबकि सचाई यह है कि खानदानी शासन तब होता है जब किसी जैविक वारिस
को क्रमशः सत्ता मिलती रहे। नेहरू जी की मृत्यु के बाद शासन श्रीमती इन्दिरा गाँधी
ने नहीं अपितु काँग्रेस के सच्चे सरल गाँधीवादी लाल बहादुर शास्त्री ने सम्हाला
था। शास्त्रीजी के असामायिक निधन के बाद भी शासन उनके किसी पुत्र को न मिल कर
श्रीमती इन्दिरा गाँधी को मिला था और जिसके लिए श्री मोरारजी देसाई और श्रीमती
गाँधी के बीच कड़ा मुकाबला हुआ था व फैसला मतदान से हुआ था। 1977 में काँग्रेस की
पराजय के बाद पार्टी छोड़ कर गये वरिष्ठ गाँधीवादी नेता मोरारजी प्रधानमंत्री बने
और श्रीमती गाँधी सत्ता से बाहर रहते हुए कड़े टकराव के बीच जनता से मिले व्यापक
समर्थन के साथ चुन कर आयी थीं। राष्ट्रविरोधी अलगाववादी शक्तियों के हाथों उनकी
दुखद हत्या से जन्मी परिस्थितियों के बीच से श्री राजीव गाँधी के सिर पर ताज रख
दिया गया जिनके बारे में कहा जाता रहा कि वे राजनीति और शासन में नहीं आना चाहते
थे किंतु काँग्रेस की एकता बनाये रखने के लिए आम सहमति से लाये गये थे। उस समय काँग्रेस
में अन्य अनेक प्रतिभाशाली व सक्षम नेता होने के बाद भी उन्हें व्यापक आम सहमति बनाने
के लिए लाना पड़ा था क्योंकि एकता के लिए एक प्रिय मूर्ति को आधार बनाना जरूरी था।
लोहिया जी जिस मूर्ति पूजा को कमजोरी मानते थे वह काँग्रेस को अपनी नीतियां लागू
करने के लिए जरूरी होने लगी। उनके चयन का समर्थन आम चुनाव में एतिहासिक जीत देकर जनता
ने भी किया। राजीव गाँधी के बाद श्री वीपी सिंह, चन्द्र शेखर, नरसिम्हाराव, इन्द्र
कुमार गुजराल जैसे काँग्रेस संस्कृति के नेता और उनके बाद देवगौड़ा, अटलबिहारी जैसे
गैर काँग्रेसी नेता प्रधानमंत्री बने। 2004 में श्रीमती सोनिया गाँधी द्वारा
काँग्रेस की छवि को बनाये रखने के लिए पूर्ण समर्थन मिलने के बाद भी श्री मनमोहन
सिंह को नेता बनाया था। उल्लेखनीय है कि श्रीमती सोनिया गाँधी भी राजनीति में नहीं
आना चाहती थीं और जब नरसिम्हाराव की अध्यक्षता से लेकर सीताराम केसरी की अध्यक्षता
तक काँग्रेस निरंतर कमजोर होती रही तब बेचैन काँग्रेसियों द्वारा श्रीमती गाँधी से
एकमत होकर अनुरोध करने पर ही उन्होंने अध्यक्ष पद स्वीकार किया था और काँग्रेस की
नैतिक छवि बचाने के लिए अपने सिर की टोपी श्री मनमोहन सिंह के सिर पर रख दी थी।
जहाँ पदों के प्रति इतनी निरपेक्षता हो और जब हर स्तर पर लोकतांत्रिक ढंग से निर्विवाद
चुने जाकर ही पदों का परिवर्तन हो रहा हो, उसे खानदानी शासन कैसे कहा जा सकता है।
मूर्ति को
आगे रख कर संगठन चलाने के कारण काँग्रेस की सांगठनिक प्रक्रिया कमजोर होती गयी।
कमजोर सांगठनिक प्रक्रिया और लगातार सत्ता से जुड़े रहने के कारण उसमें नेतृत्व का
स्वाभाविक विकास कमजोर हुआ और सत्ता के दोष पैदा होते गये। पद और पैसे के लिए
राजनीति करने वालों ने संघर्ष और वैचारिकी से जुड़े लोगों को पीछे कर दिया क्योंकि
जन समर्थन तो मिल ही रहा था। यह पार्टी परम्परागत दलित वोट और संघ परिवार की
साम्प्रदायिक हरकतों से भयभीत अल्पसंख्यकों को बँधुआ वोट समझ कर व किसी भिन्न
कारणवश लोकप्रियता रखने वाले लोगों को आगे रख नई उम्मीदें पालने वाले कार्पोरेट
जगत पर निर्भर होती चली गयी। किंतु जब दलित वोटों को बहुजन समाज पार्टी जैसे, और
पिछड़ों को मण्डल कमीशन से निकले दलों ने लुभा लिया तो अल्पसंख्यक नकारात्मक वोट भी
जीत की सम्भावना वाले क्षेत्रों में इन दलों की ओर खिसकने लगे। भाजपा तो वैसे भी
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण पर निर्भर थी जिसको और बढा कर उसने व्यापारिक उदारता के
बड़े बड़े दावों और कुशल प्रबन्धन के द्वारा अपना लगातार विस्तार किया। गठबन्धन
सरकारों के कारण काँग्रेस नेतृत्व वाली यूपीए सरकारों के भ्रष्टाचार सम्बन्धी कई
प्रकरण सामने आये जिसे प्रचार कुशल भाजपा ने अतिरंजित कर प्रचारित किया। इसका
नुकसान बड़ा घटक होने के कारण काँग्रेस को हुआ और भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन से आम
आदमी जैसी पार्टियां जन्मीं। बामपंथी और क्षेत्रीय दल अपनी अपनी जगह घटते बढते
रहे। किसी पुराने किले जैसी काँग्रेस पर लगातार अतिक्रमण हुआ, व किला जर्जर होता
रहा।
सत्ता
की आदतों के कारण काँग्रेस के बहुत सारे नेता उसके प्रति बफादार नहीं रहे व निरंतर
सत्तामुखी होते गये। आज के वे ढेर सारे नेता सत्ता बदलने की सम्भावना देखते ही काग्रेस
को छोड़ गये हैं, जिन्हें केन्द्रीय मंत्रिमण्डल व संगठन में स्थान दिया गया था ।
कुछ ने तो युद्धभूमि में धोखा देने का काम किया। राज्यों में पार्टी की सरकारें कम
हो रही हैं व संसाधन घट रहे हैं। आपसी द्वेष चरम पर है और नेता अपने अहं के लिए
पार्टी को होने वाले नुकसान की भी परवाह नहीं करते। काँग्रेस जिन पायों पर टिकी थी
उसके बहुत सारे लोग छोड़ कर जा चुके हैं व चुनावी समीकरण बदल चुके हैं इसलिए
काँग्रेस को आगे बढने के लिए नये प्रबन्धन की जरूरत है। अगर काँग्रेस का कोई नेता
आमूलचूल परिवर्तन चाहते हुए नई इमारत खड़ी करना चाहता है और उसके लिए जर्जर खण्डहर
को ध्वस्त करना चाहता है तो वह एक सार्थक कदम है। यह काम भावनात्मक रूप से कुछ
लोगों को तकलीफदेह हो सकता है और कुछ दीमकों, चमगादड़ों की विदाई करते समय कबूतरों
को भी डेरा बदलना पड़ सकता है, पर अब यही इकलौता उपाय शेष बचा है जिस पर काँग्रेस
के स्वीकार्य नेता को कठोरता से अमल करना चाहिए। यही काँग्रेस के हित में है और
यही देश के हित में है।
वीरेन्द्र जैन
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अप्सरा सिनेमा के पास भोपाल म.प्र. [462023]
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