मंगलवार, नवंबर 04, 2014

शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था



शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था
वीरेन्द्र जैन

                एक गुर्राता हुआ शेर शिवसेना का प्रतीक था जो बाला साहब ठाकरे के बयानों और कामों से साम्य रखता था किंतु पिछले दिनों घटे घटनाक्रम को देखते हुए अपने दिन गिनता हुआ यही शेर अब शिवसेना के साथ एक व्यंगचित्र की तरह नज़र आने लगा है।
                बाला साहब ठाकरे ने अपना कैरियर एक कार्टूनिस्ट के रूप में प्रारम्भ किया था और दूसरों की गलतियों और दोहरे चरित्रों को उजागर करने का साहस उनमें था। जैसे जैसे उन्होंने राजनेता के रूप में अपना चरित्र विकसित किया यही गुण उनके लेखन और बयानों में दिखने लगा। वे इस मामले में किसी का भी लिहाज नहीं करते थे। अपने मन की बात कहने के लिए उन्होंने कभी भी लाभ-हानि की परवाह नहीं की। वे यह जानते हुए भी कि उनके बहुत सारे काम हमारे राष्ट्रीय आदर्शों से मेल नहीं खाते व इसके लिए उन्हें अपने साथियों और विरोधियों की आलोचना पड़ेगी, वे उन्हें करने में हिचकते नहीं थे। बहुत सारे लोगों को उनका यह दुस्साहस पसन्द आता था। उनकी पार्टी एक छोटी सी क्षेत्रीय पार्टी थी जो बाद में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए का हिस्सा बनी, पर उन्होंने कभी भी खुद को भाजपा का छोटा भाई नहीं बनाया, और जहाँ भी जरूरत समझी वहाँ उनकी खुल कर चुभने वाले शब्दों में आलोचना की।
       उल्लेखनीय है कि एक बार भाजपा उत्तरप्रदेश विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी किंतु उनकी सरकार बिना किसी दूसरी पार्टी की मदद के नहीं बन सकती थी इसलिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया। बहुजन समाज पार्टी ने इसके लिए शर्त रखी कि दोनों दल क्रमशः सरकार बनायेंगे और उनसे कम सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी की सरकार पहले बनेगी। सत्ता के लिए किसी भी तरह का समझौता करने वाली भाजपा ने यह शर्त मान ली पर यह अवधि छह-छह महीने शासन की रखी। यह एक अभूतपूर्व हास्यास्पद समझौता था जिस पर व्यंग करते हुए बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि भाई ये छह छह महीने का समझौता क्या होता है! अरे अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने का समझौता करना था।  
       अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए जब राष्ट्रपति मुशर्रफ भारत आये थे और आगरा में द्विपक्षीय वार्ता हुयी थी तब तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज का उन्हें आदाब करता हुआ एक चित्र समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था जिस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि ये मुजरा करने वाली मुद्रा में मियाँ मुशर्रफ के आगे झुकने की क्या जरूरत थी? प्रमोद महाजन के संचार मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने पिता पर डाक टिकिट जारी करवा लिया। इसी तरह श्रीमती प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के समय उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार की जगह काँग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन किया था। उल्लेखनीय है कि वे शरद पवार को आलू का बोरा कहा करते थे। दिलीप कुमार उनके हमप्याला मित्र रहे तो अमिताभ बच्चन को उनका स्नेह हमेशा मिला, पर समय समय पर ये लोग भी उनकी समीक्षा से बच नहीं सके। बहुत सारी फिल्में उनके विरोध के कारण नहीं बन सकीं व कई अच्छे कलाकारों को उनके विरोध के कारण फिल्म इंडस्ट्री में काम मिलना बन्द हो गया था। श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में वे मुम्बई की साम्प्रदायिक घटनाओं के लिए दोषी ठहराये गये थे तो बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के समय भाजपा के लीपापोती वाले रुख से अलग उन्होंने चारों ओर से हो रही आलोचना के बीच कहा था कि इस काम के लिए उन्हें शिव सैनिकों पर गर्व है। पाकिस्तान की टीम के भारत में खेलने के विरुद्ध वे क्रिकेट मैदान की पिच खुदवा सकते थे और गुलाम अली का प्रोग्राम स्थगित करा सकते थे तहा दूसरी ओर माइकिल जैक्शन का स्वागत कर सकते थे। मीडिया के अनेक लोगों और मीडिया कार्यालयों पर शिवसैनिकों ने हमले किये जिसके लिए उन्होंने कभी खेद व्यक्त नहीं किया। वे अपने विरोधियों और सरकार दोनों पर ही अपनी मनमानी थोपते रहते थे। शायद यही निर्भीकता उनके स्थानीय क्षेत्रीयतावादी समर्थकों को बहुत भाती भी थी, और ऐसा लगता था कि बहुत सारे काम वे इसी पसन्दगी को बनाये रखने के लिए करते भी थे।
       पिछले दो दशकों से शिवसेना का जो क्षरण शुरू हुआ वह बाला साहब के निधन के बाद तेज हो गया जिसे न समझ पाने के कारण काँग्रेस एनसीपी सरकार की एंटी इनकम्बेंसी का लाभ भाजपा ने उठा लिया व शिवसेना से समझौता किये बिना ही वह विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। शिवसेना से विद्रोह करके पिछड़े वर्ग के नेता छगन भुजबल बाहर निकले थे, बाद में तो नारायण राणे भी बाहर आ गये। विरासत के सवाल पर उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली और पुत्र मोह से ग्रस्त उम्रदराज होते बाला साहब कमजोर पड़ते गये, पर उनके वचनों में अंतर नहीं आया। उद्धव ठाकरे के अस्वस्थ होने पर उन्होंने राज ठाकरे से मार्मिक अपील करते हुए पुकार लगायी कि उद्धव को तुम्हारी जरूरत है। इस अपील पर राज ठाकरे उन्हें देखने तो आये पर उन्हें अपना नेता स्वीकार नहीं कर सके। उनकी बहू के काँग्रेस की ओर झुकाव की खबरें आयीं तो उनकी पौत्री के अंतर्धार्मिक विवाह की खबरें भी उनकी कमजोरी की प्रतीक की तरह देखी गयीं। प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के असामायिक निधन से भाजपा शिवसेना को जोड़े रखने वाली कड़ी क्रमशः कमजोर होती गयी।    
       इतना सब होने पर भी उद्धव ठाकरे बाला साहब की पुरानी ठसक से भरे रहे और लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर के सहारे मिली जीत को उन्होंने अपनी जीत समझा। एनडीए की जीत में पाँच प्रतिशत हिस्सेदारी के बाद भी जब केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में कुल एक स्थान मिला तो यह उनके लिए संकेतक था। भाजपा के खिलाफ उन्होंने बाला साहब के पुराने अन्दाज़ में मोर्चा खोलना चाहा और शाल साड़ी डिप्लोमेसी की आलोचना कर डाली जिसके विरोध में मोदी को कठोर सन्देश भिजवाना पड़ा था कि इस मामले में उनकी माँ को न घसीटा जाये। यह वही समय था जब अपने सहयोगियों द्वारा विरोध के प्रति कठोर मोदी ने शिवसेना के पर कतरने का फैसला कर लिया। इसी बीच शिवसेना के संसद राजन विचारे ने महाराष्ट्र सदन में एक रोजेदार के मुँह में रोटी ठूंसने की घटना की जो चहुँ ओर निन्दित हुयी पर भाजपा ने अपने एनडीए के साथी का बचाव नहीं किया। शिव सैनिकों द्वारा टोल न चुकाने और माँगने पर तोड़फोड़ की जाती रही जिसे बाद में राज ठाकरे ने भी अपना लिया था।
       किंतु मोदी उद्धव ठाकरे और बाला साहब के अंतर को जानते थे और उद्धव की गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने विधानसभा चुनावों में शिव सेना की शर्तों को मानने से साफ इंकार कर दिया। न तो मुख्यमंत्री का पद देना जरूरी समझा और ना ही उनके द्वारा मांगी गयी सीटें ही उन्हें दीं। उद्धव ने भाजपा से कहा कि वह हवा में तलबारबाजी न करे व ज़मीन पर पैर रखे। गठबन्धन रहे या न रहे पर मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा ने राजनीतिक फायदे के लिए हिन्दुत्व का स्तेमाल किया। उन्हें अफज़ल खान बताते हुए यह भी कहा कि जो भी महाराष्ट्र को जीतने आये वे यहीं दफन हो गये। गठबन्धन टूटने के बाद भी शिवसेना के मंत्री अनंत गीते ने मोदी मंत्रिमण्डल से स्तीफा नहीं दिया। बयानों में कटु होते हुए बात नरेन्द्र मोदी के पिता तक भी पहुँची तो नफरत गहरी होती गयी पर कूटनीतिक भाजपा ने संयम बनाये रखा। शिवसेना ने भाजपा समर्थक दलित नेता रामदास अठावले को जोकर भी कहा और उन्हें शोषित जातियों के प्रति धोखा देने वाला भी बताया।
       इतना सब होने के बाद भी शिवसेना का भाजपा के साथ फिर से पींगें बढाना खतरनाक है क्योंकि जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि मोदी न तो कभी माफी माँगते हैं और न करते हैं। मोदी दोस्ती या विरोध दोनों ही तरीकों से शिवसेना को मिटा कर भाजपा में समाहित कर लेंगे। वचनों में बाला साहब की तरह कठोर होना उद्धव वहन नहीं कर सकते। एनडीए के सारे ही दल क्रमशः टूटने की दशा में पहुँचा दिये गये हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शनिवार, नवंबर 01, 2014

स्वच्छ भारत अभियान का निहितार्थ



स्वच्छ भारत अभियान का निहितार्थ
वीरेन्द्र जैन
स्वच्छता सुन्दरता की पहली सीढी है। ब्रेख्त ने कहा है- सुन्दरता संसार को बचायेगी।
गालिब के इस व्यंग्य में दर्द था कि- दरो-दीवार पर उग आया है सब्जा गालिब, हम बियावाँ में हैं और घर में बहार आयी है. या- है खबर गर्म उनके आने की, आज ही घर में बोरिया न हुआ।
श्रीलाल शुक्ल के कालजयी व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी में लोग जगह जगह खुले आम ठोस द्रव बहाते दिखते हैं या सड़क के किनारे औरतें गठरी बनी बैठी हुयी रहती हैं। मैथली शरण गुप्त के अहा ग्राम्य जीवन के आदर्श सौन्दर्य के विपरीत इस यथार्थवादी कृति में गाँव के कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर मिलते हैं। यह सभी गाँवों की कहानी है।
आमिरखान और विद्या बालन कई वर्षों से पर्यटकों के विकर्षण या बाहर शौच करने से होने वाली बीमारियों के बारे में स्वच्छता के महत्व का सूचना माध्यमों के द्वारा प्रचार कर रहे हैं। विन्देश्वरी पाठक ने तो सुलभ शौचालयों के माध्यम से देश में जो काम किया है उसका डंका दुनिया भर में बजा है, क्योंकि इस अभियान ने परोक्ष में सिर पर मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति दिलाने की ओर भी कदम बढाया है। प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान कोई नया अभियान नहीं है, किंतु, इस अभियान ने उसी तरह सर्वाधिक ध्यान आकर्षित किया है जिस तरह से कि पतंजलि के योग का प्रचार भले ही दशकों पहले धीरेन्द्र ब्रम्हचारी भी दूरदर्शन पर कर चुके हों पर नई पीढी उसे बाबा रामदेव द्वारा अविष्कृत समझ कर चल रही है क्योंकि उन्होंने उसके सही ग्राहकों के बीच उनके सर्वथा उपयुक्त प्रचार माध्यमों के द्वारा सही समय पर प्रचारित किया।
खुश्बू को फैलने का बहुत शौक है, मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किये बगैर
मोदी भी इन दिनों देश के सर्वाधिक प्रचार कुशल नेता हैं, और जैसा कि राहुल गाँधी ने काँग्रेस के एक अधिवेशन में स्वीकारा था कि हमारे विरोधी गंजों को भी कंघी बेच सकने का कौशल रखते हैं। यही उनकी सफलता का राज भी है। दैनिक भास्कर भोपाल में प्रकाशित एक सूचना के अनुसार मोदी ने अपनी प्रारम्भिक अमेरिका यात्रा के दौरान प्रचार का कोई डिप्लोमा भी लिया था। बहरहाल नकारात्मक आधार पर चर्चाओं में बने रहने के बीच एक सकारात्मक कार्यक्रम के आधार पर जनता के बीच जाना एक अच्छा कदम है और लोकप्रियता की परीक्षा भी है।
सफाई किसे पसन्द नहीं होती। कहावत है कि कुत्ता भी अपने बैठने की जगह को पूँछ से साफ करके बैठता है। हम देखते हैं कि हिन्दुओं में दीवाली के समय, मुसलमानों में ईद के समय, मलयाली लोगों में ओणम के समय और बंगालियों में दुर्गापूजा के समय अपने अपने घरों को सिरे से साफ करने और सजाने की परम्परा है। पर यही समय इनके परिवेश के सबसे अधिक गन्दा होने का समय भी होता है क्योंकि लोग अपने घर का कचरा साफ करके सड़कों, गलियों में फेंकते रहते हैं जिन्हें छुटभैये नेताओं की लूट के संस्थानों में बदल चुकी नगरपालिकाएं तुरंत साफ कराने में सक्षम नहीं होतीं। भारत स्वच्छ अभियान का मुख्य मुद्दा व्यक्तिगत स्वच्छता से ऊपर उठकर सार्वजनिक स्थलों को उसी तरह से स्वच्छ रखने की भावना का विकास करना है। इस अभियान का लक्ष्य लोगों को यह सन्देश पहुँचाना भी है कि परिवेश को स्वच्छ रखे बिना अपनी और अपने घर की स्वच्छता का लाभ दूरगामी नहीं हो सकता।
       इस देश में अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमण्डल में केबिनेट मंत्री कुमार मंगलम की मृत्यु राजधानी के एक नामी अस्पताल में मलेरिया से हो जाती है व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के दो रिश्तेदारों को डेंगू हो सकता है तो स्पष्ट है कि व्यक्तिगत स्वच्छता काफी नहीं होती। कोई कितना भी एसी कमरों में बन्द रह ले या बन्द एसी गाड़ियों में यात्राएं करता रहे पर खुली हवा में तो कुछ देर आना ही पड़ेगा। और यदि परिवेश गन्दा है तो व्यक्तिगत स्वच्छता का लाभ कमजोर हो जाता है। गन्दे नाले के पानी से धुली बाज़ार में बिकती सब्जियां, हमारे वाटर प्यूरीफायर के उपयोग को बेकार कर देती हैं।
इस अभियान की सफलता, व्यक्तिगत को सामाजिक बना सकने की सफलता से जुड़ी है। इस तरह यह आन्दोलन एक सामाजिक आन्दोलन ही नहीं एक राजनीतिक आन्दोलन भी है। विडम्बना यह है कि इसे एक दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक माना जाने वाला दल संचालित करने चला है जिसने सदैव ही व्यक्तिगत हित को सामाजिक हित से ऊपर माना है, व एक सम्प्रदाय के हितों को दूसरे सम्प्रदाय के हितों से ऊपर माना है। सातवें दशक में जब सार्वजनिक क्षेत्रों का विकास किया जा रहा था तब सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी विरोधी भाजपा ही थी जिसका उस समय नाम जनसंघ था, और जो स्वतंत्र पार्टी की सहयोगी थी। इस पार्टी ने अपना विस्तार बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्सों व विशेष अधिकारों को समाप्त करने से प्रभावित उस दौर के पूंजीपतियों और पूर्व समंतों के प्रवक्ता बन कर किया था। केन्द्र में जब जब इनकी सरकार रही तब तब इन्होंने सार्वजनिक क्षेत्रों को बेचने का ही काम किया और मोदी सरकार ने भी वही काम प्रारम्भ कर दिया है। उल्लेखनीय है कि अटल निहारी वाजपेयी की सरकार दुनिया की ऐसी इकलौती सरकार थी जिसने सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने के लिए विनिवेश मंत्रालय बनाया था।
स्वच्छता एक मनोवृत्ति है और सफाई उसका प्रकटीकरण है। अगर मनोवृत्ति सही नहीं होगी तो प्रकटीकरण केवल दिखावा हो कर रह जायेगा। इसलिए स्वच्छता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत हित की भावना को सामाजिक हित की भावना में बदलने के क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे, अन्यथा सारी कार्यवाही सतही और दिखावटी हो कर रह जायेगी। सत्तारूढ दल को सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार तभी मिल सकता है जब वह अपने संगठनों को सार्वजनिक हितों के लिए सक्रिय कर सके। इस की कमी ही काँग्रेस सरकारों की असफलता का कारण बनी पर क्या दूसरी सरकारें इससे कुछ सबक लेने को तैयार हैं?
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शुक्रवार, अक्टूबर 31, 2014

सामाजिक आदर्श और हमारा लोकतंत्र



 सामाजिक आदर्श और हमारा लोकतंत्र               
वीरेन्द्र जैन                  

हाल ही के लोकसभा चुनावों में एक करोड़ इक्यासी लाख वोट लेकर तामिलनाडु में अपनी पार्टी को 95 प्रतिशत सीटें जिताने वाली सुश्री जय ललिता को आय से अधिक सम्पत्ति रखने के आरोप में जेल जाना पड़ा, और वे ऐसी पहली मुख्यमंत्री नहीं है जिन्हें अदालत के फैसले के बाद पद त्यागने को विवश होना पड़ा हो। पिछले दिनों ऐसी अनेक घटनाएं हुयी हैं कि ऐसे सैकड़ों लोग संसद और विधानसभाओं में जनप्रतिनिधि बन कर पहुँचे हैं जिन्हें गैरकानूनी कामों के लिए ज़िम्मेवार माना गया है, और सैकड़ों ऐसे भी हैं जिन पर वर्षों से प्रकरण लम्बित हैं। बहुत सारे लोगों ने तो अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण आरोपों को अदालत में सिद्ध ही नहीं होने दिया है, और बाइज्जत बरी हो चुके हैं, पर सब जानते हैं कि वे दोषी हैं। विडम्बना यह है कि कानून बना सकने का अधिकार भी इन्हीं जनप्रतिनिधियों को प्राप्त है। जिस गति से ऐसे प्रतिनिधियों और उम्मीदवारों की संख्या में वृद्धि हो रही है, उससे लगता है कि हमारे लोकतंत्र के यथार्थ और हमारे लोकतांत्रिक आदर्शों में गहरी दूरी है। कुछ तो गड़बड़ है तब ही तो जो लोग हमारे समाज के नैतिक आदर्शों और कानून की तराजू पर खरे नहीं उतरते वे समाज के प्रतिनिधि के रूप में चुन लिये जाते हैं, व अपने जन समर्थन की ओट लेकर नेता यह सिद्ध करने की कोशिश करते हैं कि जनता उनके किये को पसन्द करती है।  
       जयललिता को सजा मिलने पर समाचार पत्रों में जिस तरह से विलाप करती हुयी तामिलनाडु की महिलाओं के चित्र प्रकाशित हुये हैं और वैकल्पिक मुख्यमंत्री के जयललिता को साष्टांग दण्डवत करते, व पूरे मंत्रिमण्डल को आँसू बहाते हुये शपथ लेते देखा गया है वह गहरे सवाल खड़े करता है। जिन वाय एस आर रेड्डी की दुर्घटना में मृत्यु होने पर सौ से अधिक लोग आत्महत्या कर लेते हैं उन्हीं के पुत्र को उस वित्त वर्ष में सर्वाधिक आयकर चुकाने के बाद भी आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में महीनों जेल में रहना पड़ता है। यह आय उन्होंने अपने पिता के मुख्यमंत्री रहते हुये अर्जित की थी। बाद में अलग पार्टी बना कर चुनाव में उतरने पर वे न केवल विजय प्राप्त करते हैं अपितु लोकसभा चुनावों में एक करोड़ चालीस लाख वोट प्राप्त कर अपनी दम पर अपने परिवारियों समेत अपनी पार्टी के नौ सदस्यों को जिता लेते हैं, जो कई राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलों के मतों और सीटों की संख्या से अधिक हैं।
       जयललिता को कर्नाटक जेल की उसी वीआईपी कोठरी में रखा गया जिसमें कुछ महीने पहले कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री येदुरप्पा को रखा गया था। मुख्यमंत्री पद से हटाये जाने और अनेक आर्थिक अनियमितताओं के आरोप में जेल प्रवास के बाद भी वे लोकसभा का चुनाव जीत जाते हैं, व अपनी पार्टी भाजपा में वरिष्ठ उपाध्यक्ष बना दिये जाते हैं। अपनी पार्टी के इकलौते विजयी उम्मीदवार होते हुए भी गठबन्धन सरकारों के खेल में कभी झारखण्ड के मुख्यमंत्री रहे आदिवासी मधु कौड़ा अभी तक जेल में हैं। आर्थिक अनियमितताओं के कारण ही श्री लालू प्रसाद यादव मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र देकर जेल काट चुके हैं और कई वर्षों तक अपनी कम शिक्षित व राजनीति निरपेक्ष पत्नी को मुख्यमंत्री बनवाकर बिहार जैसे राज्य का शासन चला चुके हैं। पिछड़ों की राजनीति से सक्रिय हुये इस नेता की पार्टी गठबन्धन के कमजोर हो जाने के कारण ही चुनावों में पिछड़ी है बरना उसकी अपनी लोकप्रियता बनी हुयी है। उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह और मायावती के खिलाफ लगातार जाँच चल रही है पर इस बीच वे राज्य का शासन कर चुके हैं और मुलायम सिंह ने ऐसी ही आशंका को ध्यान में रखते हुए ही विधानसभा चुनावों के बाद अपने पुत्र को मुख्यमंत्री बनवा दिया। लोकसभा चुनावों में दो बड़े गठबन्धनों से मुकाबला करते हुये भी मायावती की पार्टी दो करोड़ उनतीस लाख मत प्राप्त कर तीसरे नम्बर पर रहीं। भले ही उसे कोई भी सीट नहीं मिली पर उनके कुल मतों में पिछले चुनावों के मुकाबले वृद्धि ही हुयी। उक्त बड़े नेताओं के अलावा दूसरे और तीसरे नम्बर के चुनावी नेताओं की लोकप्रियता और वित्तीय अनुशासनहीनता के उदाहरण सैकड़ों की संख्या में हैं और इनमें से अधिकांश जनप्रतिनिधि भी चुने जा चुके हैं। विडम्बनापूर्ण यह भी है कि राजनीतिक जीवन में शुचिता और सैद्धांतिक राजनीति के लिए जाने जाने वाले बामपंथियों के मतों और सीटों की संख्या पिछले कुछ चुनावों से लगातार घट रही है। गत लोकसभा चुनावों में तो बड़े हुए कुल मत प्रतिशत के बाद भी उन्हें मिलने वाले मतों की संख्या कम हुयी है।
       उपरोक्त चुनावी विसंगतियों के बाद भी हमारे नैतिक आदर्शों में अधिक बदलाव नहीं हुआ है। हमारे नवनियुक्त प्रधानमंत्री की- न खाऊँगा और न खाने दूंगा- जैसी घोषणाओं का व्यापक स्वागत होता है भले ही उनके अनेक सांसदों के पिछले इतिहास और उनकी पार्टी द्वारा शासित अनेक राज्य सरकारों के चरित्रों को देखते हुए विश्वास नहीं होता हो। पिछले ही वर्षों में हमने सार्वजनिक जीवन में शुचिता के लिए अन्ना और केजरीवाल के नेतृत्व में चले आन्दोलन को व्यापक समर्थन पाते देखा है और अपनी पार्टी बना लेने के बाद केजरीवाल पहली ही बार में दिल्ली में सरकार तक बना लेने में सफल हो जाते हैं।
       हमें समय रहते इस विसंगति पर ध्यान देना होगा कि अगर कानून का उल्लंघन करने के बाद भी कोई व्यक्ति या दल अपनी लोकप्रियता और समर्थन बनाये रखता है तो उसका हल कैसे निकाला जाये! यदि जल्दी ही ऐसा नहीं किया गया तो हमारे संघीय ढाँचे पर खतरा सामने आ सकता है।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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मंगलवार, अक्टूबर 07, 2014

क्या राजनीति एक जुआ और जुआ एक युद्ध है?



दीपावली पर विशेष
क्या राजनीति एक जुआ और जुआ एक युद्ध है?       
वीरेन्द्र जैन

       दीपावली, जिसका संक्षिप्त रूप दीवाली है और यह मुख्य रूप से हिन्दी भाषी क्षेत्र के हिन्दुओं का प्रमुख त्योहार है। अधिक बाज़ार चलने के कारण यह वस्तु उत्पादन से जुड़े सभी धर्मों के मानने वालों के लिए भिन्न भिन्न कारणों से महत्वपूर्ण हो जाता है और सभी धर्मों के कारीगरों और व्यापारियों के लिए उम्मीद लेकर आने वाला त्योहार है। इसमें मुद्राओं का विनमय तीव्र हो जाता है।
       उत्तर भारत के कुछ क्षेत्रों में अन्य रस्मों के अलावा यह जुआ खेलने का त्योहार भी है और पुराने समय में वर्ष भर जुआ न खेलने वाले भी रस्म की तौर पर परिवारियों और पड़ोसियों के बीच बैठ कर कुछ समय जुआ खेलने को बुरा नहीं समझते थे। बुन्देलखण्ड क्षेत्र में बूढे पुराने लोगों को यह कहते सुना जाता था कि दीवाली के एक दिन जुआ खेलने को पुलिस गैरकानूनी नहीं मानती और इस एक दिन जुआ खेलने की खुली छूट रहती है। इस क्षेत्र में कहावत भी है कि ‘दिवाली के लुटे और होली के कुटे[पिटे] की कहीं सुनवायी नहीं होती’। यहाँ मजाक में जुए से सम्बन्धित एक कहावत और भी चलती है – जुआ जुद्ध खों नाँईं करै, ताके पुरखा नरकन परें- अर्थात जुआ रूपी युद्ध में लड़ने के लिए बुलाने पर यदि कोई मना करता है तो उसके पूर्वज नर्क में जाते हैं। शायद इसी बहाने न खेलने वाले भी कुछ दिखावा कर लेने को प्रोत्साहित होते रहे होंगे। अब जुआ रस्मी नहीं रहा इसलिए समर्थों की दुनिया में वर्ष भर चलता है, और बहुत सारे त्योहारों की ज्यादर रस्में महिलाओं के श्रंगार व पुरुषों के मद्यपान पर पूर्ण होने लगी हैं।
       सवाल उठता है कि जुआ क्या है! क्या यह कुछ मुद्राओं से किसी बाजी लगाने के खेल तक सीमित है या किसी दूसरे के द्वारा अर्जित स्वामित्व को पाने के लिए अपना स्वामित्व खोने का दाँव लगाने की एक मनोवृत्ति है! महाभारत ग्रंथ में इसको कथा का आधार बनाया गया है, जो बताता है कि दो हजार वर्ष पूर्व रचित इस ग्रंथ के रचना काल में भी इसकी प्रवृत्ति पायी जाती थी।
       वैसे तो पूंजीवादी व्यवस्था ही श्रमिकों के शोषण और उपभोक्ताओं से अधिक वसूली के नियम पर ही टिकी होती है जिसे सरप्लस वैल्यू कहा गया है, पर सामंती व्यवस्था से ही अनार्जित सम्पत्ति पाने का लालच आदमी को जुये, सट्टे या लाटरी, से जोड़ता रहा है। तय है कि जुआ आदि में हार जाने का जो खतरा रहता है उससे जूझने के लिए साहस की जरूरत होती है। पुराने समय में दूसरे का राज्य जीतने के लिए कोई राजा जो युद्ध करता था उसमें भी पराजित होने के साथ प्राणों के जाने का खतरा होता था, पर फिर भी एक वर्ग के लोग ऐसे हमले करते थे व दूसरों के हमले झेलते भी थे। यही कारण है कि युद्ध के वर्णनों में लिखा जाता रहा है, और सही लिखा जाता रहा है कि उन्होंने प्राणों की बाज़ी लगा दी। इस रूप में जुआ भी पैसों या सम्पत्ति का युद्ध ही हुआ और इस युद्ध से इन्कार करने वाले कायरों को कहावतों में पूर्वजों समेत नर्क में जाने की बद्दुआ दी गयी है।
       मिलीजुली चेतना वाले समाज में चुनावी राजनीति भी एक जुआ ही होती है, जिसमें सभी वोटों का एक समान मूल्य होने के कारण कदम कदम पर खतरे ही खतरे छुपे रहते हैं। पीछे देखें तो हम पाते हैं कि छठे-सातवें दशक में श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने एक बड़ा जुआ खेला था जब काँग्रेस के सिंडीकेट से टकराकर राष्ट्रपति चुनाव में आत्मा की आवाज पर वोट देने की अपील कर दी थी जिसके परिणामस्वरूप काँग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार नीलम संजीव रेड्डी चुनाव हार गये थे व बामपंथियों के उम्मीदवार वी वी गिरि, इन्दिरागाँधी समर्थित मतों के सहारे जीत गये थे। यह एक खतरनाक दाँव था। वी वी गिरि दूसरी प्राथमिकता के मतों के सहारे ही चुनाव जीत सके थे और अगर वे हार जाते तो श्रीमती गाँधी का राजनीति की मुख्यधारा से बाहर हो जाना तय था। पर उन्होंने अपने साहस से खतरा उठाया और जीत गयीं। दूसरी बार उन्होंने इमरजैंसी लगा कर खतरा उठाया, पर इस कदम में हार गयीं। इसी तरह बाँगला देश के निर्माण के समय भी उन्होंने खतरा मोल लिया था पर विजयी रहीं थीं लेकिन खालिस्तान नामक अलगाववादी आन्दोलन के खिलाफ उन्होंने जो आपरेशन ब्लू स्टार का खतरा उठाया तो देश को आतंकवाद से मुक्त करने के प्रयास में अपनी जान गँवा दी।
       श्रीमती गाँधी की राजनीति के तीस साल बाद एक बार फिर से राजनीति में नरेन्द्र मोदी पर दाँव लगाने का खेल संघ ने खेला है। इस दाँव में बड़े खतरे हैं। पहले तो अडवाणी से लेकर बाल ठाकरे तक और गोबिन्दाचार्य से लेकर शत्रुघ्न सिन्हा तक मोदी की उम्मीदवारी के पक्ष में नहीं थे। संघ में भी उनके बारे में भिन्न विचार थे जिसके लिए सबसे पहले तो गुजरात में मोदी के समानान्तर प्रचारक रहे संजय जोशी को अलग करने का कड़ा फैसला लेना पड़ा था। बिहार में सरकार से बाहर आना पड़ा था व लोकसभा चुनावों में पराजय की दशा में राजनीति से ही बाहर होने का खतरा मौजूद था। पर दाँव लगाया गया और संयोग से पाँसे सीधे पड़े। विधानसभा के उपचुनावों में कई सीटें गँवा देने के बाद महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में शिवसेना से समझौता भंग करने का एक और नया दाँव खेला है जिसके परिणामों की प्रतीक्षा बनी हुयी है। लोकसभा में अकेले स्पष्ट बहुमत पा लेने के बाद भाजपा एनडीए को भंग करने का दाँव खेलने की उतावली में दीखती है। उसके पिछले बड़े सहयोगियों में से बीजू जनता दल, जनता दल[यू], हरियाना जनहित काँग्रेस के बाद शिवसेना का अलग होना व अकाली दल का हरियाना विधानसभा चुनावों में चौटाला के इंडियन लोकदल का खुला समर्थन करने से एनडीए समाप्त ही हो गया है। 
       जुये को सदैव से ही अनैतिक माना गया है। जो लोग भी राजनीति को जुये की तरह खेल रहे हैं, वे देश के भविष्य को भी दाँव पर लगा रहे हैं क्योंकि जुये से तात्कालिक लाभ हानि तो हो सकती है, पर इसे व्यवसाय नहीं बनाया जा सकता। चुनावी राजनीति में उत्तेजना से मतों का ध्रुवीकरण तो कराया जा सकता है पर देशहित की दूरगामी राजनीति नहीं की जा सकती।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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