बुधवार, मार्च 14, 2018

समीक्षा निमकी मुखिया सीरियल दूसरा राग दरबारी है


समीक्षा
निमकी मुखिया सीरियल दूसरा राग दरबारी है

वीरेन्द्र जैन
हिन्दी टीवी चैनल स्टार भारत पर इन दिनों  ‘निमकी मुखिया’ नाम से एक सीरियल चल रहा है। इस सीरियल के लेखक निर्देशक है ज़मा हबीब जो वैसे तो थियेटर आर्टिस्ट से लेकर अनेक चर्चित भोजपुरी फिल्मों और सीरियलों के लेखक रहे हैं किंतु उक्त सीरियल के बाद उनकी ख्याति बहुत फैलने वाली है। मैं बहुत जिम्मेवारी के साथ कह रहा हूं कि इस सीरियल की कहानी को दूसरी राग दरबारी कहा जा सकता है और 48 वर्षीय ज़मा हबीब को मनोहर श्याम जोशी की तरह का पटकथा लेखक माना जा सकता है। ‘बुनियाद’ ‘हमलोग’ और ‘कक्काजी कहिन’ जैसे सीरियलों में जो स्थानीयता के सहारे देश व व्यवस्था के दर्शन हुये हैं, वही गुण ‘निमकी मुखिया’ में विद्यमान हैं।
इस सीरियल में यथार्थ के साथ ऐसे घटनाक्रमों से कहानी आगे बढती है जो कल्पनातीत हैं और दर्शक की जिज्ञासा को एपीसोड दर एपीसोड बढाते रहते हैं। कहानी का विषय तो अब अज्ञात नहीं है किंतु उस पर कथा का विषय मोड़ दर मोड़ ऐसे बुना गया है कि रागदरबारी उपन्यास की तरह पेज दर पेज व्यंग्य आता रहता है। कहानी एक ऐसी लड़की को केन्द्रित कर के बुनी गयी है जिसकी मां किसी के बहकावे में आकर अपने तीन छोटे बच्चों को छोड़ कर फिल्मों में गाने के लिए मुम्बई चली जाती है, और असफल हो जाने पर आत्महत्या कर लेती है। लड़की का भावुक और भला पिता रामवचन जो छोटी मानी जाने वाली जाति का है, उन जातियों के हासिये पर बनाये गये मुहल्ले में रहता है व किराये से यूटिलिटी वाहन चलाने का काम करता है। वह अपने बच्चों को बेहद प्यार से पालता है जिसमें बड़ी बेटी निमकी तो बहुत ही लाड़ली है जिसकी हर इच्छा पूरी करने में वह कोई कोर कसर नहीं छोड़ता। आज के युवाओं की तरह निमकी के सपने भी हिन्दी फिल्मों से प्रभावित होकर बने हैं और वह खुद को दीपिका पाडुकोण समझती है व किसी सम्पन्न परिवार के इमरान हाशमी जैसे सुन्दर युवा से शादी का हैसियत से बाहर का सपना पालती रहती है। शोले की बसंती की तरह मुँहफट और मुखर निमकी बीमारू राज्यों की शिक्षा व्यव्स्था की तरह नकल और सिफारिश से डिग्री अर्जित करती है, व अपने मुहल्ले के गरीब पड़ौसी सहपाठी से अपने काम निकलवाती है किंतु अपनी महात्वाकांक्षाओं के कारण उसे प्रेम के योग्य नहीं समझती।
पंचायती राज आने के बाद आम गांव की तरह क्षेत्र के मुखिया पद के दो दावेदार है जिनमें एक वर्तमान मुखिया तेतर सिंह और दूसरा नाहर सिंह। भूमिहार जाति के तेतर सिंह पूर्व जमींदार जैसे परिवार से हैं व बड़ी कोठी में समस्त आधुनिक सुख सुविधाओं के साथ दबंगई से रहते हैं। वे अपनी कम शिक्षा के कारण अपने वकील दामाद को घर जमाई बना कर सरकारी लिखा पड़ी का काम करवाने के साथ विधायक बनने की महात्वाकांक्षा पूरी करने के इंतज़ाम में भी लगाये हुए हैं। उनके तीन लड़के हैं जिनमें से एक जो विवाहित है ईमानदारी से कोई धन्धा करना चाहता है किंतु अनुभवहीन होने के कारण असफल रहता है इसलिए तेतर सिंह उसे कोई भाव नहीं देते। दूसरा लड़का बब्बू सिंह ऐसे परिवारों में विकसित होने वाले आज के युवाओं की तरह ही लम्पट और गुस्सैल है व अपनी पारिवारिक परम्परा के अनुसार सारा काम बन्दूक व पिस्तौल से हल होने में भरोसा करता है। राजधानी के नेता से संकेत मिलता है कि विधायक का पद उसे ही मिलेगा जिसके पास मुखिया का पद होगा इसलिए वे बब्बू सिंह को मुखिया बनवा कर खुद विधायक का पद जुगाड़ना चाहते हैं। अपनी सम्पन्नता, दबंगई, ऊंची जाति, और वर्षों से जमींदारी व मुखिया पद भोगते वे इसे सहज भी समझते हैं। चुनाव घोषित होने से पहले ही वे क्षेत्र में बब्बू सिंह के बड़े बड़े पोस्टर और कट आउट लगवाते हैं जिसे देख कर निमकी उनमें अपनी कल्पना के नायक की छवि देखती है।
दूसरी ओर तेतर सिंह के विरोधी गुट का नाहर सिंह इस बार मुखिया पद हथियाने के प्रयास में जुटा हुआ है और वह राजनीतिक कौशल से मुखिया बनना चाहता है, इसलिए छोटी जाति के मुहल्ले में भी अपने सम्पर्क बनाये हुए है। इसी बीच एक विधुर बीडीओ जिसके एक छोटी बच्ची है, गाँव में पदस्थ होता है व रामवचन के वाहन को कार्यालय हेतु स्तेमाल करने के अहसान के बदले अपने घर का इंतजाम करने की सेवाएं लेता है। इसमें खाना पहुंचाने का काम निमकी को करना होता है। वह एक ओर तो आधुनिक सुख सुविधाओं वाले घर में जाकर अपने सपनों को दुलराती है तो दूसरी ओर बीडीओ की छह सात वर्ष की मासूम अकेली बच्ची के साथ परस्पर स्नेह बन्धन में बँध जाती है।
घटनाक्रम इस तरह आगे बढता है कि मुखिया का पद छोटी जाति की महिला के लिए आरक्षित हो जाता है और तेतर सिंह अपनी घरेलू नौकरानी को पद के लिए उम्मीदवार बना देता है। दूसरी ओर उसका विरोधी नाहर सिंह अपनी ओर से निमकी को मुखिया पद के लिए उम्मीदवार बनवा देता है व अपनी ओर से पैसा खर्च करता है। उसे छोटी जाति के घाट टोला के लोग एकमुश्त समर्थन देते हैं व बीडीओ भी उनका साथ देता है। परिणामस्वरूप निमकी मुखिया बन जाती है व तेतर सिंह के सपनों को ठेस लगती है और वह लगभग विक्षिप्त सा हो जाता है क्योंकि उसके टिकिट मिलने की सम्भावनाएं भी थम जाती हैं। आवेश में वह मुखिया पद घर में बनाये रखने के लिए अपने बेटे बब्बू सिंह की शादी निमिकी से करने का फैसला कर लेता है जिसका भरपूर विरोध उसके घर के सारे सदस्य करते हैं किंतु बन्दूक के जोर पर वह अपनी बात इस आधार पर मनवा लेता है कि निमकी केवल मुखिया पद को घर में रखने व विधायक का टिकिट लेने भर के लिए बहू बना रहे हैं। निमकी और उसके परिवार को यह कह कर बहला देता है कि बब्बू सिंह को निमकी से प्यार हो गया है, व वे जिद कर रहे हैं इसलिए वह छोटी जाति में शादी कर रहे हैं व शादी का पूरा खर्च भी उठा रहे हैं।
सीरियल में हर घटनाक्रम चौंकाता है, व हँसाता है। पात्रों के अनुरूप कलाकारों का चयन और उनके द्वारा भूमिका का निर्वहन इतना परिपूर्ण है कि कथा यथार्थ नजर आती है। भोजपुरी भाषा, मधुबनी की शूटिंग, पात्रों का चयन, पारिवारिक सम्बन्धों, प्रशासन व व्यवस्था की सच्चाइयां, क्रोध, जुगुप्सा, और हास्य तीनों पैदा करती हैं। बीडीओ की छोटी बच्ची समेत सबका अभिनय इतना मंजा हुआ है कि किसी कलाकार विशेष की प्रशंसा की जगह निर्देशक की प्रशंसा ही बार बार उभरती है। इतना जरूर है कि केवल हिन्दी फिल्मों के प्रभाव में गाँव को कुछ अधिक ही चमकीला प्रस्तुत कर दिया गया है जहाँ पर गरीबी और बेरोजगारी दिखायी नहीं देती। सीरियल देखने लायक है और इसमें फिल्म के रूप में रूपांतरण की सम्भावनाएं मौजूद हैं।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


                   

सोमवार, मार्च 05, 2018

लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाते त्रिपुरा विधानसभा चुनाव परिणाम


लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाते त्रिपुरा विधानसभा चुनाव परिणाम
वीरेन्द्र जैन
prashant kishor and amit shah के लिए इमेज परिणाम
त्रिपुरा विधानसभा के चुनाव परिणामों ने वहाँ 25 साल से लगातार चली आ रही वामपंथी सरकार को सत्ता से बाहर कर दिया है। उससे सत्ता भारतीय जनता पार्टी ने छीनी है। उल्लेखनीय यह भी है यह काम तब हुआ है जब मोदी शाह के नेतृत्व वाली भाजपा सबसे अधिक आलोचना की शिकार हो रही थी। न केवल विपक्षी दल अपितु सोशल मीडिया के साथ एक निष्पक्ष मीडिया भी उनकी तीव्र आलोचना कर रहा था व समर्थक हतप्रभ नजर आ रहे थे। चुनाव प्रचार में सीमा को मुद्दा बना कर तत्कालीन सरकार की आलोचना करने वाले इस् दल के शासन में सीमा पर गहरी हलचल थी व प्रति सप्ताह सैनिक शहीद हो रहे थे। न्यायाधीश अपना असंतोष व्यक्त कर रहे थे और साफ संकेत दे रहे थे कि न्यायालय में न्यायिक स्वतंत्रता शेष नहीं रह गयी है। नोटबन्दी से जनित अनेक समस्याओं के बाद व्यवसायियों द्वारा बैंकों को चूना लगा कर विदेश भाग जाने समेत अनेक आर्थिक अपराधों की  घटनाएं प्रकाश में आयी थीं और उनको सहयोग देने के आरोप सत्तारूढ दल पर लग रहे थे। इससे बैंकों में भरोसा कम हुआ था जिससे गहरे आर्थिक संकट की आशंका महसूस की जा रही थी। बैंकों के शेयर गिरने के कारण बाज़ार लुढक रहा थ। साम्प्रदायिक टकराव की घटनाएं वृद्धि पर थीं, तथा दकियानूसी बयानों से बुद्धिजीवी वर्ग सरकार के खिलाफ क्षोभ से भरा हुआ था। बेरोजगारी अपने चरम पर थी और हर वर्ष दो करोड़ रोजगार देने के वादे के जबाब में पकोड़े बनाने जैसे स्वरोजगार की सलाह मिलनेसे युवा ठगा हुआ महसूस कर रहा था। भाजपा के छुटभैए नेताओं से लेकर बड़े बड़े नेता इसे वामपंथी विचारधारा का पतन बता कर सामान्यजन को एक और धोखा देने में लग गये हैं।
इसके विपरीत वामपंथ देश में एक बेहद जिम्मेवार और अनुशासित विपक्ष की तरह सामने था और उसकी त्रिपुरा राज्य में सरकार थी। इसके नेता की ईमानदारी और सादगी के चर्चे दंतकथाओं की तरह प्रचलित थे। उनकी एकमात्र कमजोरी व्यापक जन समर्थन से उनका लगातार पिछले 25 वर्षों से सत्ता में बने रहना था। यही कारण रहा कि वामपंथ ने पिछले चुनावों में प्राप्त साढे दस लाख मतों में से कुल 69000 मत कम पाये। उनकी चुनावी पराजय उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं दर्शाती है, अपितु विपक्षी वोटों को एकजुट करने के प्रबन्धन का परिणाम है।
       चुनाव परिणाम आने से पहले सोशल मीडिया पर एक लेखक ने लिखा था कि “अगर मानिक सरकार हार गये तो लोगों का विश्वास इस लोकतांत्रिक प्रणाली से उठ जायेगा”। उक्त सरकार हमारी लोकतांत्रिक प्रणाली के आदर्श का नमूना थी और उसकी हार उन आदर्शों के समक्ष चुनावी प्रबन्धन के कौशल का नमूना है। यह ठीक उसी तरह है कि कोई छात्र परीक्षा से पहले सलेक्टेड क्वेश्चन पेपर पढ, नकल और सिफारिश के सहारे प्रथम श्रेणी की डिग्री का जुगाड़ कर ले व शिक्षा को ज्ञानार्जन मान कर मेरिट में आने वाला छात्र पीछे रह जाये। एक समर्पित मतदाता और प्रलोभन ग्रस्त मतदाता में फर्क किया जाना चाहिए। वामपंथियों पर कभी यह आरोप नहीं लगा कि उन्होंने चुनाव में धन बांटा या दलबदल का सहारा लिया। उल्लेखनीय है कि चुनावों में अवैध रूप से अर्जित धन ही बांटा जाता है और उसका सीधा सम्बन्ध ऐसा करने वाले दल से प्रत्यक्ष या परोक्ष जुड़ा होता है। शायद ही कोई ऐसा चुनाव रहा होगा जिसमें भाजपा पर पैसा बांटने का आरोप न लगा हो। उनके गठबन्धन की बहुत सारी सरकारें प्रलोभन के द्वारा दलबदल से बनी हैं। भाजपा के मुख्यालय से धन के गबन किये जाने और उसकी रिपोर्ट न कराके किसी प्राईवेट जासूस से जाँच कराने की खबरें अखबारों में प्रमुख रूप से छायी रही हैं। इतनी सारी नकदी का एकत्रित रहना और उसके गायब होने को सामने न ला पाने से ही स्पष्ट है कि वह अवैध ही होगा। पता नहीं वह नकदी नोटबन्दी से पहले बदलवा ली गयी थी या बाद में बदलवायी गयी। जो नोट संसद में लहराये गये थे वे कहाँ से आये थे उसके बारे में देश अब तक अनजान है।
त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में जो भी जीत हार हुयी है वह नियम से ही हुयी होगी। पराजितों द्वारा एवीएम आदि पर बिना प्रमाण के आशंका करना गलत परम्परा है, भले ही भाजपा खुद भी 2004 और 2009 में चुनाव हारने पर ऐसे ही आरोप लगाने की भूल करती रही है। फिर भी कुछ सूचनाएं आशंकाओं को जन्म देती हैं जैसे जब गुजरात विधान सभा, तथा राजस्थान, और मध्य प्रदेश में हुए उपचुनावों के परिणाम से कांग्रेस के पुनर्जीवित होने की उम्मीद बँध रही थी तब उसके वोट आठ लाख से घट कर इकतालीस हजार पर आना जो 36.53% से 1.8% होना है, सीधे सीधे हजम नहीं होता। उसी तरह वहाँ के दो अलगाववादी दलों के मतों के विचलन से संकेत मिलता है आईएनपीटी को पिछले चुनाव में मिले 167078 वोटों की तुलना में इस बार कुल 17568 मत मिले जबकि पहले 10147 वोट पाने वाली भाजपा की सहयोगी आईपीएफटी को इस बार 173603 वोट मिले। यह मात्र संयोग भी हो सकता है किंतु जब दलित नेता जिग्नेश मेवाणी सवाल पूछते है कि हर चुनाव में भाजपा को 41% के आसपास मत ही क्यों मिलते हैं तो ध्यान जाता ही है। स्वयं भाजपा द्वारा पिछले चुनावों में 33808 मतों के साथ छठे नम्बर से उठ, व  999053 वोट प्राप्त कर पहले नम्बर पर आना भी ध्यानाकर्षित करता है। मतों का यह उछाल अभूतपूर्व है, अस्वाभाविक है।
मोदी और शाह के नेतृत्व में लड़े गये पहले लोकसभा चुनाव में ही खुले आम चुनावी इवेंट मैनेजर प्रशांत किशोर को लाया गया था जिनकी सेवाएं बाद में काँग्रेस, जेडीयू, वायएसआर रेड्डी काँग्रेस ने भी लीं जो बताता है कि इन दलों के लिए चुनाव एक इवेंट हैं जिसकी सफलता से सत्ता के सारे सूत्र हाथ में आ जाते हैं। इसी प्रबन्धन ने इस बार त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य से भ्रष्टाचार मुक्त, एक आदर्श सरकार और चुनाव संहिता के अनुसार संचालित दल को पराजित कर दिया है। भाजपा प्रबन्धन के हाथों मिली इस पराजय से लोकतंत्र की आत्मा को दुख पहुंचा है क्योंकि यह जीत हार दूसरी जीत हारों से भिन्न है।   
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 21, 2018

तिरंगे पर खतरा


तिरंगे पर खतरा

वीरेन्द्र जैन
उपरोक्त शीर्षक से हर भारतीय का चौंकना स्वाभाविक है, क्योंकि तिरंगा हमारी राष्ट्रीय भावना का प्रतीक है। यह भावना हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के दौरान ही पैदा और विकसित हुयी जब तिरंगे को पहले कांग्रेस और फिर बाद में राष्ट्रीय झंडे के रूप में स्वीकार किया गया। राष्ट्रीय ध्वज में अशोक चक्र और कांग्रेस के ध्वज में चरखा लगा कर भेद किया गया था, किंतु स्वतंत्रता आन्दोलन की प्रमुख पार्टी होने के कारण व उसके बाद सबसे पहले सत्तारूढ होने के कारण सामान्य लोगों को इस भेद का पता ही नहीं था। उस दौरान यह कहा जाता था कि वोट देने का अधिकार सब को है किंतु वोट लेने का अधिकार सिर्फ काँग्रेस को है।
तिरंगे का विरोध प्रारम्भ से ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा किया गया था, जो मानते थे कि हिन्दुस्तान का राष्ट्रीय ध्वज भगवा होना चाहिए। उन्होंने तो यह भी कहा था कि जब हमारे यहाँ मनु स्मृति है तो अलग से संविधान की क्या जरूरत है। इसी विश्वास के कारण आज़ादी के पचास साल तक आर एस एस कार्यालय पर तिरंगा नहीं फहराया गया और ऐसी कोशिश करने वालों के खिलाफ पुलिस रिपोर्ट भी करवायी गयी। शायद आम लोगों ने इसी कारण से आज़ादी के बाद लम्बे समय तक भारतीय जनसंघ, जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हुआ, को राष्ट्रीय दल के रूप में स्वीकारता नहीं दी व उसे एक सम्प्रदाय विशेष के सवर्ण जाति की पार्टी ही मानते रहे।
अच्छा व्यापारी अपने ग्राहकों को लुभाने के लिए उसकी भावुकता को भुनाता है। एक बार मैं एक पार्क में बैठा हुआ था, जहाँ सामने की बेंच पर एक निम्न मध्यम वर्गीय दम्पति अपने छोटे बच्चे के साथ बैठा था। बच्चा शायद पहला और इकलौता ही रहा होगा। बच्चे को देख कर एक आइसक्रीम वाला झुनझुना बजाने लगा तो बच्चा आइसक्रीम के लिए मचलने लगा जो उसे दिलवायी गयी, फिर पापकार्न, चिप्स, गुब्बारा आदि बेचने वाले क्रमशः आते गये और बच्चे के प्रति अतिरिक्त प्रेम से भरे परिवार की जेब खाली होती गयी। अंततः उन्हें शायद समय से पहले ही पार्क छोड़ कर जाना पड़ा। जिस तरह व्यापारी भावुकता को भुना रहे हैं, उसी तरह राजनीतिक दल व उससे जुड़े संगठन भी यही काम कर रहे हैं। वे धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा, आदि की भावनाओं को पहले उभारते हैं और फिर उसके प्रमुख प्रतिनिधि की तरह प्रकट होकर चुनावों में उनके वोट हस्तगत कर लेते हैं। जिस तिरंगे को संघ परिवार ने पसन्द नहीं किया था उसी के सहारे उन्होंने वोटों की फसल काटनी शुरू कर दी क्योंकि जनता अपने तिरंगे के प्रति भावुक थी।
कर्नाटक के हुगली में ईदगाह से सम्बन्धित विवादास्पद स्थान पर भाजपा नेता उमा भारती को तिरंगा फहराने के लिए भेजा गया था व इस तरह पैदा किये गये संघर्ष में गोली चलाने की नौबत आ गयी थी जिसमें कई लोग मारे गये थे। इस मामले में भाजपा ने विषय को भटकाने के अपने पुराने हथकण्डे का प्रयोग करते हुए बयान दिया था कि अगर भारत में तिरंगा नहीं फहराया जायेगा तो क्या पाकिस्तान में फहराया जायेगा! जबकि यह सवाल तिरंगा फहराने का नहीं था अपितु फहराये जाने वाले स्थान के मालिकत्व और उपयोग का था। वे तिरंगे पर लोगों की श्रद्धा को अपने पक्ष में भुनाना चाहते थे। बाद में जब इसी मामले में उमा भारती को सजा हुयी तो भाजपा ने उन्हें मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री पद से हटाने की प्रतीक्षित योजना का आधार बना लिया था। इसका विरोध करने के लिए उमा भारती ने पार्टी की अनुमति के बिना तिरंगा यात्रा निकाल कर अपना पक्ष रखना प्रारम्भ कर दिया तो उन्हें कठोरता से रोक दिया गया था। जिस तिरंगे को ईदगाह मैदान में फहराना चाहते थे उसे जनता के बीच ले जाने से इसलिए रोक दिया गया क्योंकि दोनों ही बार तिरंगा केवल साधन था। पहली बार वह ध्रुवीकरण के लिए उपयोग में लाया जा रहा था किंतु दूसरी बार वह व्यक्ति विशेष के नेतृत्व को बचाये रखने के लिए उपयोग में लाया जा रहा था।
बाद में तो तिरंगे को एक ऐसा परदा बना लिया गया जिससे हर अनैतिक काम को ढका जाने लगा। जेएनयू के तत्कालीन अध्यक्ष कन्हैया कुमार को जब कोर्ट में ले जाया जा रहा था तब भाजपा समर्थित वकीलों के एक गिरोह ने कोर्ट परिसर में ही उस पर हमला कर दिया था व उस कुकृत्य को ढकने व लोगों की सहानिभूति के लिए उनके ही कुछ साथी कोर्ट परिसर में तिरंगा फहरा रहे थे।
तिरंगे के दुरुपयोग की ताजा घटना तो जम्मू में घटी है जो बेहद शर्मनाक है। एक आठ वर्षीय मासूम लड़की से बलात्कार और हत्या के आरोपी को छुड़ाने के लिए उसके समर्थकों ने तिरंगा लेकर प्रदर्शन किया। इस घटना में तिरंगे की ओट एक ऐसे जघन्य अपराध के लिए ली गयी जो पूरी मानवता को शर्मसार करने वाला है। इस निन्दनीय घटना का विरोध संघ परिवार के किसी संगठन ने नहीं किया अपितु जो लोग इसमें सम्मलित थे वे ही भाजपा के पक्ष में निकाले गये प्रदर्शनों में देखे जाते हैं। ऐसा ही राजस्थान में शम्भू रैगर द्वारा की गयी घटना के बाद उसकी पत्नी के पक्ष में धन एकत्रित करने की अपीलों और उसके समर्थकों द्वारा कोर्ट के ऊपर चढ कर तिरंगे की जगह भगवा ध्वज फहराने में देखने को मिला। इसकी आलोचना करने में संघ परिवार के संगठन आगे नहीं आये जिससे उनकी भावना का पता चलता है।
जो लोग तिरंगे को भगवा ध्वज में बदल देना चाहते हैं वे लोग कुटिलता से उसका उपयोग गलत जगह करके उसे बदनाम करने का खेल खेल रहे हैं। इसी के समानांतर गत दिनों भोपाल में तीन तलाक के पक्ष में हुए मुस्लिम महिलाओं के सम्मेलन के दौरान कहा गया कि वे शरीयत से अलग संविधान को महत्व नहीं देतीं इसलिए तीन तलाक कानून का विरोध कर रही हैं।
यह समय संविधान और राष्ट्रीय प्रतीकों के लिए खतरनाक होता जा रहा है।
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, फ़रवरी 06, 2018

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण

पकौड़ा - एक कटाक्ष का विश्लेषण  
वीरेन्द्र जैन
Image result for पकौड़े की दुकान














      प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने चुनावों के दौरान ऐसे भाषण दिये और चुनावी वादे किये थे जो अव्याहारिक थे और किसी भी तरह से चुनाव जीतने का लक्ष्य प्राप्त करने के लिये थे। उन्होंने मुहल्ले के बाहुबलियों जैसा 56 इंची सीना वाला बयान दिया था जो लगातार मजाक का विषय बना रहा। हर खाते में 15 लाख आने की बात को तो उनके व्यक्तित्व के अटूट हिस्से अमित शाह ने जुमला बता कर दुहरे मजाक का विषय बना दिया और उनके हर वादे को जुमले होने या न होने से तौला जाने लगा। पाकिस्तान के सैनिकों के दस सिर लाने वाली शेखी और अंतर्राष्ट्रीय राजनीति के वास्तविक दबाव में सम्भव सैनिक कार्यवाही में बहुत फर्क होता है जो प्रकट होकर मजाक बनता रहा। इसी तरह के अन्य ढेर सारे बयान और वादों के बीच रोजगार पैदा करने वाली अर्थ व्यवस्था न बना पाने के कारण प्रति वर्ष दो करोड़ रोजगार देने के वादे का भी हुआ, जिसे बाद में उन्होंने एक करोड़ कर दिया था और इस बजट में उसे सत्तर लाख तक ले आये। जब शिक्षित बेरोजगारों को नौकरी न मिलने से जनित असंतोष के व्यापक होते जाने की सूचनाएं उन तक पहुंचीं तो उन्होंने किसी भी मीडिया को साक्षात्कार न देने के संकल्प को बदलते हुए ऐसे चैनल से साक्षात्कार के बहाने अपने मन की बात कही जो उन्हीं के द्वारा बतायी जाने वाली बात को सवालों की तरह पूछने के लिए सहमत हो सकता था। इसमें उन्होंने रोजगार सम्बन्धी अपने वादे को सरकारी नौकरियों से अलग करते हुए कहा कि स्वरोजगार भी तो रोजगार है जैसे आपके टीवी चैनल के आगे पकौड़े की दुकान भी कोई खोलता है तो वह भी तो रोजगार है। उनके इस बयान को नौकरी की आस में मोदी-मोदी चिल्लाने वाले शिक्षित बेरोजगारों ने तो एक विश्वासघात की तरह लिया ही, सोशल मीडिया और विपक्ष ने भी खूब जम कर मजाक बनाया। यह मजाक अब न केवल सत्तारूढ दल को अपितु स्वयं मोदी-शाह जोड़ी को भी खूब अखर रहा है। राज्यसभा में दूसरे वरिष्ठ सदस्यों का समय काट कर विश्वसनीय अमित शाह को समय दिया गया, जिन्होंने पकौड़े के प्रतीक को मूल विषय मान कर उसी तरह बचाव किया जैसे कि मणि शंकर अय्यर के चाय वाले बयान को चाय बेचने वालों पर आक्षेप बना कर चाय पर चर्चा करा डाली थी।
सच तो यह है कि पकौड़े के रूप में जो कटाक्ष किये गये वे पकौड़े बेचने या उस जैसे दूसरे श्रमजीवी काम को निम्नतर मानने के कटाक्ष नहीं थे। पकौड़े बेचने के लिए किसी भी बेरोजगार को मोदी सरकार की जरूरत नहीं थी, वह तो काँग्रेस या दूसरे गठबन्धनों की सरकार में किया जा सकता था या लोग करते चले आ रहे थे। एक कहावत है कि ‘ बासी रोटी में खुदा के बाप का क्या!’ उसी तरह पकौड़े बेचने के लिए सरकार बदलने की जरूरत नहीं पड़ती। एक आम बेरोजगार ने मोदी सरकार से यह उम्मीद लगायी थी कि दो करोड़ रोजगार में उसे भी उसकी क्षमतानुसार नौकरी मिल सकेगी। पकौड़े बनाने जैसी सलाह से उसका विश्वास टूटा है। किसी भी कटाक्ष का पसन्द किया जाना समाज की दशा और दिशा का संकेतक भी होता है। यही कारण था कि न मुस्काराने के लिए जाने जाने वाले अमित शाह की भाव भंगिमा और भी तीखी थी। हो सकता है उसके कुछ अन्य कारण भी रहे हों।
पकौड़े के प्रसंग से एक घटना याद आ गयी। मैं कुछ वर्ष पहले बैंक में अधिकारी था और बैंक के लीड बैंक आफिस में पदस्थ था। यह कार्यालय बैंक ऋण के माध्यम से लागू होने वाली सरकारी योजनाओं के लिए बैंक शाखाओं और सरकारी कार्यालयों के बीच समन्वय का काम करता है। उन दिनों आई आर डी पी नाम से एक योजना चल रही थी जो गाँव के ग्रामीणों को पलायन से रोकने के लिए उन्हें स्थानीय स्तर पर रोजगार देने के प्रयास की योजना थी। इस योजना में सरकार की ओर से अनुदान उपलब्ध था जो अनुसूचित जाति- जनजाति के लिए 50% तक था। कलैक्टर के पास एक शिकायत पहुंची कि एक हितग्राही को बैंक मैनेजर ऋण देने में हीला हवाली कर रहा है। इस शिकायत को देखने के लिए उन्होंने उसे हमारे कार्यालय को भेज दिया। सम्बन्धित बैंक मैनेजर से बात करने पर उसने बताया कि उक्त आवेदन मिठाई की दुकान के लिए था और हितग्राही दलित [बिहारी भाषा में कहें तो महादलित] था। उसका कहना था कि उसकी दुकान से उस छोटे से गाँव में मिठाई कोई नहीं खरीदेगा, इसलिए योजना व्यवहारिक नहीं है। पकौड़ा योजना भी दलितों के हित में नहीं होगी क्योंकि इसमें कोई आरक्षण नहीं चलता।
इसी तरह अगर पकौड़ा बेचने तक केन्द्रित रहा जाये तो गाँवों और कस्बों में इस तरह की दुकानें आज भी इन जाति वर्गों की नहीं मिलतीं। आचार्य रजनीश ने गाँधी जन्म शताब्दी में गाँधीवाद की समीक्षा करते हुए कहा था कि गाँधीजी जाति प्रथा और बड़े उद्योगों के एक साथ खिलाफ थे, किंतु जाति प्रथा तो बड़े उद्योगों के आने से ही टूटेगी। बाटा के कारखाने में काम करने वाला मजदूर होता है जबकि गाँव में जूता बनाने वाला अछूत जाति में गिना जाता है। जातिवाद की समाप्ति के लिए कोई भी राजनीतिक सामाजिक दल कुछ नहीं कर रहा अपितु इसके उलट वोटों की राजनीति के चक्कर में सभी और ज्यादा जातिवादी संगठनों को मजबूत बनाने में सहयोगी हो रहे हैं। दुष्यंत ने लिखा है -
जले जो रेत में तलुवे तो हमने यह देखा
बहुत से लोग वहीं छटपटा के बैठ गये 
बेरोजगारी की स्थिति भयंकर है और बिना उचित नीति के किसी भी पार्टी की सरकार इतने शिक्षित बेरोजगारों को रोजगार नहीं दे सकती स्टार्ट-अप, स्किल इंडिया, आदि के प्रयोग फलदायी नहीं हो रहे। इसके उलट सत्तारूढ दल चुनावी सोच से आगे नहीं निकल पाता, मोदीजी हमेशा चुनावी मूड में रहते हैं जिसे अभी हाल ही में हमने आसियान सम्मेलन के दौरन असम में दिये उद्बोधन के दौरान देखा। दावोस और बैंग्लुरु में तो वो बहुत ही गलत आंकड़े बोल गये जिससे पद की प्रतिष्ठा को ठेस पहुंची। वोटों की राजनीति पारम्परिक कुरीतियों को मिटाने की जगह उन्हें सहेजने का काम कर रही है। यह अच्छा संकेत नहीं है।  
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, फ़रवरी 01, 2018

दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग







दिशाहीन समय में भटकते भटकाते लोग
वीरेन्द्र जैन


कम लोगों को याद होगा कि 1947 के विभाजन के समय पर जो यादगार कहानियां लिखी गयी थीं, उनमें से एक कहानी का शीर्षक ‘बारह बजे’ था जो बाद में ‘सरदार जी’ के नाम से भी प्रकाशित हुयी थी। कहानी में एक सिख की मानवीयता का चित्रण था जो अपनी जान पर खेल कर भी कुछ मुस्लिम महिलाओं की जान बचाता है। कहानी बताती है कि पहले कुछ लोग उस सिख से बारह बजे की याद दिला कर मजाक भी किया करते थे जिस पर वह उत्तेजित भी हो जाता था तथा लड़ने को आ जाता था, किंतु भीषण साम्प्रदायिकता के दौर में जब कोई किसी पर भरोसा नहीं कर रहा था तब एक विरोधी समझे गये व्यक्ति के अन्दर छुपा मानव तलवार लेकर उनकी रक्षा करता है। इस कहानी को एक विशेषांक में सारिका ने तब पुनर्प्रकाशित किया था जब देश में खालिस्तानी आतंकवाद का जोर था। उस समय सारिका के सम्पादक कन्हैया लाल नन्दन हुआ करते थे। परिणाम यह हुआ कि कट्टर सिखों की एक बड़ी भीड़ ने टाइम्स दिल्ली के दरियागंज कार्यालय पर हमला कर दिया था जिसमें टाइम्स का एक गार्ड भी मारा गया था। इन हमलावरों में से शायद किसी ने भी वह कहानी नहीं पढी थी, जिसकी तारीफ कभी राजेन्द्र सिंह बेदी और खुशवंत सिंह जैसे लोग भी कर चुके थे। 
पद्मावती फिल्म जिसे बाद में बदल कर पद्मावत कर देना पड़ा ऐसा ही उदाहरण है। जब दूरदर्शन पर ‘तमस’ सीरियल आता था तब सीरियल प्रारम्भ होने से पहले एक वाक्य आता था ‘ जो लोग इतिहास से सबक नहीं लेते वे उसे दुहराने को अभिशप्त होते हैं’। उक्त फिल्म देखने के बाद यह वाक्य बुरी तरह याद आया। पद्मावत फिल्म देखने के लिए मुझे झारखण्ड यात्रा में समय निकालना पड़ा क्योंकि जैसे लोगों द्वारा जिस तरह से उसका विरोध किया जा रहा था उसका अहिंसक प्रतिरोध फिल्म देख कर ही किया जा सकता था। अब फिल्म देखने के बाद मैं कह सकता हूं कि मेरी रुचियों और समझ के हिसाब से यह ‘बाहुबली’ की तरह खराब फिल्म है और पिछले अनेक अनुभवों के आधार पर माना जा सकता है कि बहुत सम्भव है कि इसके विवाद को फिल्म निर्माता ने स्वयं ही प्रोत्साहित किया हो।
जिस फिल्म को थोड़ी कतरव्योंत के बाद सेंसर बोर्ड ने पास कर दिया, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने प्रदर्शन के लिए दो बार अनुमति दे दी। जिसके विरोध के ढंग के खिलाफ राष्ट्रपति तक को परोक्ष में बयान देना पड़ा, जिसे भाजपा शासित अनेक राज्यों में प्रदर्शन की अनुमति दी गयी हो उसे मध्य प्रदेश राजस्थान और गुजरात में प्रदर्शित नहीं होने दिया गया। पिछले दिनों तो कथित करणी सेना के इतिहासकारों, और राजघरानों के 6 सदस्यीय के पैनल ने भी हरी झण्डी दे दी तथा बीबीसी लन्दन समेत विदेशी चैनलों ने अपनी समीक्षा में यह भी लिख दिया था कि यह राजपूतों की अतिरंजित प्रशस्ति और मुसलमानों को खलनायक ठहराने वाली फिल्म है, पर फिल्म देखे बिना विरोध करने की ज़िद पर अड़े लोगों के विरोध के कारण अभी भी यह फिल्म इन राज्यों में प्रदर्शित नहीं हुयी है।
इस फिल्म को एक तरफ रखते हुए भी देखने की बात यह है कि हमारे देश के कथित शिक्षित और सम्पन्न लोगों के सूचना के माध्यम कितने सही हैं? हमारी सरकारों की जानकारी के अगर यही माध्यम हैं तो किसी भी तरह की झूठी अफवाह फैलाने में सक्षम लोग समाज में कभी भी आग भड़का सकते हैं। अगर शम्भू रैगर किसी व्यक्ति की हत्या करके उसका वीडियो बना कर वायरल कर सकता है, और मान भी लिया जाये कि वह विक्षिप्त था तो उसके पक्ष में कैसे एक भीड़ न्यायालय पर चढ कर भगवा झंडा फहरा देती है! क्या यह सामान्य घटना है? आखिर क्यों और कैसे वे सारे ट्रालर जो अशिष्ट भाषा में भाजपा के पक्ष में बुद्धिजीवियों के खिलाफ विषवमन करते हैं, शम्भू रैगर के पक्ष में बोलने लगते हैं और उसकी पत्नी के नाम पर लाखों रुपयों का फंड जमा हो जाता है!
दूसरी ओर यह सत्य भी सामने आता है कि इस फिल्म में उन्हीं घरानों का पैसा लगा है जो भाजपा को भी बड़ा चन्दा देते हैं और यही कारण है कि भाजपा शासित राज्यों में से ही कुछ राज्य न केवल फिल्म को प्रदर्शित होने देते हैं, अपितु टाकीजों को समुचित सुरक्षा भी देते हैं। फिल्म की भरपूर कमाई के आंकड़ों के प्रचार के बाद जब यह फिल्म प्रतिबन्धित राज्यों में दिखायी जायेगी तो यहाँ भी भरपूर धन्धा करेगी।
क्या यह कार्पोरेट घरानों के हित में राष्ट्रवादी भावनाओं को भुनाने का खेल है? क्या इसीलिए अवैज्ञानिकता फैला कर बेरोजगारों के गुस्से को आपस में लड़वा कर भटकाने का खेल है? यह क्या है कि अचानक मध्य प्रदेश का मुख्यमंत्री पद्मावती को राष्ट्रमाता घोषित कर देता है और उसकी मूर्ति और मन्दिर बनवाने के संकल्प लिये जाने लगते हैं। ऐतिहासिक पद्मावती जो कुछ भी थीं, या उनमें व्यक्तियों या समाजों की जो भी आस्था हो, वह 2018 में ही क्यों पूजनीय हो जाती है, जब एक बड़ी लागत की फिल्म आती है।
जो लोग सोच रहे हैं कि इस तरह से वे राजनीतिक लाभ की स्थिति में हैं, तो वे शायद कमंडल, मंडल वाले समय को भूल गये हैं। कूटनीति दुधारी तलवार होती है जो उनको खुद भी नुकसान पहुँचा सकती है।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

        

शनिवार, जनवरी 20, 2018

क्या तोगड़िया सफल हो गये हैं ?

क्या तोगड़िया सफल हो गये हैं ?


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वीरेन्द्र जैन 
भाजपा अपने पूर्व रूप भारतीय जनसंघ के समय से सच को जानते समझते हुए, राजनीतिक स्वार्थवश गढी हुयी कहानियों, बनाये गये इतिहासों, और मिथकों का सहारा लेती रही है। ऐसा करते समय उन्हें अनेक प्रचारकों का सहारा लेना होता है, जिसमें यह खतरा हमेशा बना रहता है कि ऐसे सहयोगी असंतुष्ट होने की दशा में सारी कूटनीति का खुलासा कर के ताश के महल को धाराशायी कर सकते हैं। यही कारण रहा है कि भाजपा ने हमेशा मीडिया को नियंत्रित करने की नीति प्राथमिकता पर रखी है, जिसमें वह अब तक सफल रही है। मोदी शाह काल में तो सच को सामने न आने देने के मामले में अति ही कर दी गई है।
उल्लेखनीय है कि भाजपा के पहले अध्यक्ष मौल्लि चन्द्र शर्मा ने संघ के हस्तक्षेप से नाराज होकर ही त्यागपत्र दिया था, व बलराज मधोक जैसे पार्टी अध्यक्ष ने पदमुक्त होने के बाद बहुत सारे रहस्य खोले थे किंतु वे आमजन तक नहीं पहुँच सके। उल्लेखनीय यह भी है कि पिछले वर्षों में जब उमा भारती ने पार्टी छोड़ कर नई पार्टी बनाई थी तब तत्कालीन अध्यक्ष राजनाथ सिंह ने कहा था कि भाजपा में कभी खड़ा विभाजन नहीं हुआ, अर्थात यह दो फाड़ नहीं हुयी, जिन छोटे मोटे लोगों ने पार्टी से दूरी बनाई है वे हाशिए पर ही रहे। उनकी यह बात सही साबित हुई जब शिवराज सिंह के मुखर विरोध के बाद भी उमा भारती की पार्टी का भाजपा में विलय हो गया, बस शर्त केवल यह रही कि वे अपने मूल क्षेत्र मध्य प्रदेश में सक्रियता नहीं दिखायेंगीं, जहाँ उन्होंने कभी पार्टी को सत्ता दिलवायी थी व अलग पार्टी बना कर विधानसभा चुनाव लड़ने पर 12 लाख वोट प्राप्त किये थे। सखलेचा, कल्याण सिंह, मदनलाल खुराना, येदुरप्पा, केशू भाई पटेल, जसवंत सिंह, योगी आदित्यनाथ, आदि अनेक लोगों का विरोध अल्पावधि तक ही रहा और वे लौट कर घर वापिस आ गये। एक समय था जब 2004 का आम चुनाव हारने की जिम्मेवारी मोदी पर डालते हुए आज की सबसे बड़ी समर्थक स्मृति ईरानी ने उन्हें गुजरात के मुख्यमंत्री पद से हटाने के लिए अनशन भी किया था। प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित होने तक नरेन्द्र मोदी का चारों ओर से विरोध हुआ किंतु उसके बाद तो उनकी ऐसी अन्धभक्ति पैदा की गयी कि उन्हें देवता का दर्जा दिया जाने लगा, सम्बित पात्रा जैसे प्रवक्ताओं ने तो टीवी चैनलों पर उन्हें पिता तुल्य बतलाया। मोदी ने अपने अन्ध समर्थन की दम पर अमित शाह को न केवल निर्विरोध अध्यक्ष के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया गया, अपितु राज्यसभा में भी बैठा दिया गया। अडवाणी, जोशी, शांता कुमार, गोबिन्दाचार्य की बोलती बन्द कर देने के बाद शत्रुघ्न सिन्हा, कीर्ति आज़ाद, भोला सिंह, आदि की आवाज तूती की आवाज बन कर रह गयी। पुणे के सांसद नाना पटोले ने तो स्तीफा ही दे दिया। किंतु पूर्ण सत्ता का पहली बार रसास्वादन कर रहे भाजपा के भक्त समर्थकों पर कोई असर नहीं हुआ भले ही नोट बन्दी, जीएसटी आदि अनेक असफल योजनाएं व्यापक आलोचना का शिकार हुयी हों और  दिल्ली, पंजाब और बिहार के चुनावों में करारी हार के साथ गोवा व मणिपुर में दल बदल का सहारा लेना पड़ा हो।
ऐसी स्थिति में संघ के ही समान महत्व के एक सहयोगी संगठन के प्रमुख तोगड़िया द्वारा मोदी की ओर इशारा करते हुए सीधे एनकाउंटर का आरोप लगाना बहुत बड़ी घटना है। शाह मोदी के प्रबन्धन से चुनाव जीत कर सत्ता सुख पा रहे समर्थकों की सम्वेदनाएं मौथरी हो चुकी हैं। वे यह भूल चुके हैं कि संसद में दो सदस्यों की संख्या तक पहुँच चुकी भाजपा को दो सौ तक पहुँचाने में राम जन्मभूमि के सुप्त विषय पर आन्दोलन खड़ा करने में योजनाकार गोबिन्दाचार्य व अडवाणी की हिंसा उकसाने वाले नारों की रथयात्रा व उमा भारती समेत विश्व हिन्दू परिषद के तोगड़िया, ऋतम्भरा जैसे लोगों के उत्तेजक भाषणों, त्रिशूल दीक्षा, विवादास्पद स्थलों पर सरस्वती पूजा, आदि की बड़ी भूमिका रही थी। इनके सहारे कभी जो ध्रुवीकरण किया गया उसी के असर को गुजरात के नरसंहार व मोदी शाह की चुनावी योजनाओं में भुनाया गया है।
जब भी संघ परिवार में मतभेद उभरता है तब संघ प्रमुख अपने विशेष अधिकार का प्रयोग करके शांत करते रहे हैं। संजय जोशी भले ही संघ के प्रिय लोगों में रहे हैं किंतु मोदी से नाराजी के चलते उन्हें कोने में बैठाने  में भी संघ के हस्तक्षेप की भूमिका रही है। उल्लेखनीय है कि तोगड़िया द्वारा बताये गये घटनाक्रम से एक दो दिन पहले उनकी भैयाजी जोशी और ऋतम्भरा के साथ बैठक हुयी थी। इससे पूर्व भुवनेश्वर में 29 दिसम्बर को विहिप के कार्यकारी बोर्ड की बैठक में तोगड़िया को कार्यकारी अध्यक्ष न बनने देने की कोशिश हुयी थी और गुजरात चुनाव में उन पर भाजपा विरोधी काम करने के आरोप भी सामने आये थे, किंतु न तो कार्यकारी अध्यक्ष तोगड़िया को हटाया जा सका और न ही अध्यक्ष राघव रेड्डी को हटाया जा सका। मोदी शाह जैसे लोगों को असहमति बिल्कुल भी स्वीकार नहीं होती इसलिए बहुत समय से लम्बित प्रकरणों को सामने लाया गया।
विहिप का ध्रुवीकरण ही भाजपा का मूल आधार रहा है। अगर किसी नाराजी में उसकी पुरानी योजनाओं का विश्वसनीय खुलासा हो जाता तो उसके विरोधियों की कही बातों को बल मिलता व उसकी ज्यादा किरकिरी होती । यह स्थिति संघ परिवार में किसी के हित में नहीं होती,  इसलिए हमेशा की तरह बात दबा दी गयी। तोगड़िया ने भी किसी ब्लैकमेलर की तरह अपने पूरे पत्ते नहीं खोले, और उचित समय का नाम लेकर धमकी दे दी। यह सौदेबाजी का अन्दाज़ था, इससे लगता है कि यह मामला अब ठंडे बस्ते में चला गया। अगर प्रकरण पहले ही वापिस लिये जाने का फैसला हो गया था तो उसे तीन साल तक कोर्ट को क्यों नहीं बताया गया व अभी सामने आने में तीन दिन क्यों लग गये! तोगड़िया ने सही समय पर नस दबा दी और बाजी पलट गयी। उमा भारती भी हमेशा इसका फायदा उठाती रही हैं।
इस घटनाक्रम से मोदी कमजोर पड़े हैं और सत्ता प्राप्ति की योजनाओं में किये गये अवैध, अनैतिक कामों में भागीदारी करने वालों का दबाव बढ सकता है। भाजपा की सफलता में महाभारत की तरह की कूटनीतियों की बड़ी भूमिका रही है, किंतु कूटनीति दुधारी तलवार होती है वह कभी कभी खुद को भी नुकसान पहुँचा देती है। सच तो यह है कि “ दादी के मरने का दुख नहीं है, दुख तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है”।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जनवरी 05, 2018

गोपालदास नीरज – हिन्दी के पहले लोकप्रिय गीतकवि

गोपालदास नीरज – हिन्दी के पहले लोकप्रिय गीतकवि
वीरेन्द्र जैन

कोई उन्हें गीत सम्राट कहता है, तो कोई गीतों का राजकुँवर, और यह सब कुछ कहने से पहले यह जान लेना चाहिए कि नीरज जी तब एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में गीतकार के रूप में पहचाने गये जब हमने राजतंत्र को तकनीकी रूप से विदा कर दिया था। इसलिए उन्हें श्रेष्ठता की दृष्टि से शिखर का कलाकार दिखाने के लिए राजकुँवर और सम्राट उस हद तक ही ठीक हैं जैसे माँएं अपने बच्चों को प्यार में राजा बेटा कहती हैं। ऐसी उपमाएं समाज में शेष रह गई सामंती मानसिकता की सूचक हैं। पर क्या करें कि लोगों की श्रद्धा प्रेम इससे कम पर व्यक्त ही नहीं हो पाता, इसलिए ये उपमाएं भी सटीक हैं।
नीरज जी के गीतों पर मैं सैकड़ों पृष्ठ लिख सकता हूं किंतु इस लेख में केवल उनके व्यक्तित्व के बारे में कुछ मामूली बात करना चाहता हूं। मेरे जीवन में दिल और दिमाग दोनों का हिस्सा है और दिल वाले हिस्से को समृद्ध करने का काम नीरज जी के गीतों रजनीश के भाषणों, व अमृताप्रीतम के उपन्यासों ने किया तो उसके मुकाबले दिमाग वाले हिस्से को प्रेमचन्द, हरिशंकर परसाई, मुकुट बिहारी सरोज, प्रो. सव्यसाची, कमलेश्वर, राजेन्द्र यादव, और विभिन्न अन्य लेखकों के लेखन व सामाजिक कार्यों ने समृद्ध किया। उक्त बात लिखने का आशय यह है कि ज्ञान को सम्वेदना के साथ जोड़ने में मेरे ऊपर नीरज जी का प्रभाव इतना अधिक है कि मैंने अपनी पहली संतान का नाम ही नीरज रख दिया। एक समय था जब मुझे नीरज जी के सभी लोकप्रिय गीत कंठस्थ थे।
मेरे गृह नगर दतिया में प्रतिवर्ष एक कवि सम्मेलन का आयोजन होता था व कवि सम्मेलन का अर्थ होता था नीरज जी का आना। कवि सम्मेलन की तिथि नीरज जी की उपलब्धता के आधार पर ही तय होती थी व श्रोताओं के रूप में उमड़ने वाले ‘मेले’ में शामिल होने वाले लोग अपने निजी कार्यक्रम भी उसके अनुसार तय करते थे। कवि सम्मेलन सूर्य की पहली किरण के साथ ही समाप्त होते थे व आमंत्रित कवि जनता की फर्माइश पूरी करने से कभी पीछे नहीं हटते थे। वे खजाना लुटाने की तरह जी भर कर सुनाते थे, जिनमें नीरज जी भी होते थे। उन दिनों गीतों की किताबें मुश्किल से मिलती थीं इसलिए अनेक श्रोता अपने साथ पैन व कापी लेकर आते थे और गीत को दर्ज करते रहते थे। मैंने सबसे पहले नीरज के गीत अपने एक दोस्त की रिश्ते की बुआ की कापी से पढे थे जो उन्होंने छोटे छोटे मोती से सुन्दर अक्षरों में लिखे हुए थे। कापी भी फुल साइज के कोरे पन्नों को मोड़ व अन्दर सुई धागे से सिल कर बनायी गयी थी। बाद में यह बात पुष्ट भी हुई कि हम लोगों से पहले की पीढी ने भी अपने प्रेमपत्र लिखने में नीरज के गीतों का सहारा लिया था। मुकुट बिहारी सरोज ने बतलाया था कि हिन्दी भाषी क्षेत्र के प्रत्येक नगर में नीरज के गीतों के प्रति दीवानगी रखने वाली महिलाएं थीं। एक रेल यात्रा में उनके लिए हर स्टेशन पर खाने का टिफिन लिये कोई गीत मुग्धा खड़ी थी। नीरज जी ने खुद भी लिखा है कि
उसकी हर बात पर हो जाती हैं पागल कलियां
जाने क्या बात है नीरज के गुनगुनाने में
हाँ, नीरज जी का गुनगुनाना दिल के तारों को झंकृत कर देने वाला होता रहा है। उनका स्वर अन्दर से निकली झंकार की तरह होता था, ऐसा लगता था कि जैसे बोलने के लिए मुँह के अन्य सहयोगी अंगों का उपयोग किये बिना वे केवल गले गले से गाते हों। क्या पता इसी कारण उन्होंने अपने बेटे का नाम गुंजन रखा हो। मेरे एक मित्र जो बाद में विधायक भी बने नीरज जी के अन्दाज में उनकी रचना पढते थे और उस समय उनका आनन्द उनके चेहरे से झलकता था जब वे पढते थे – आदमी को आदमी बनाने के लिए, जिन्दगी में प्यार की कहानी चाहिए, और इस कहानी को सुनाने के लिए, स्याही नहीं, आंसू वाला पानी चाहिए। उनके एक मित्र जो आजकल मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री हैं, भी नीरज की कविताएं डूब कर पढते थे और मनोरंजन के लिए कहते थे कि यह रचना मेरी खुद की चुराई हुयी है।
नीरज जी सम्भवतः वे पहले हिन्दी कवि हैं जिनके बारे में उनके श्रोता जानते थे कि हिन्दी कवि सम्मेलन के मंच पर मदिरापान करके आते हैं। और उनके प्रति उनके श्रोताओं की दीवानगी को इस आधार पर भी नापा जाये तो गलत नहीं होगा कि किसी भी वैष्णवी श्रोता तक ने इस आधार पर उनकी आलोचना नहीं की। नीरज जी की लोकप्रियता को इस आधार पर भी नापा जा सकता है कि बहुत से मंचाकांक्षी छुटभैया कवियों ने इस सम्भावना के वशीभूत मदिरा पान करने की कोशिश की कि शायद इससे वे नीरज जी जैसी कविता लिख लेंगे, और प्रस्तुत भी कर देंगे। इस मूर्खता में वे बुरी तरह असफल हुये, और नीरज तो नहीं बन पाये पर शराबी जरूर बन गये। वे यह भूल गये कि सैकड़ों गीतों के गीतकार नीरज ने कभी डायरी लेकर नहीं पढा व नब्बे साल के नीरज को बीमारी में भी अपने सभी गीत याद रहे क्योंकि वे उनकी ज़िन्दगी का हिस्सा हैं। न कवि सम्मेलन के मंच पर और न ही किसी बैठक में किसी ने उन्हें बहकते देखा।
हर मुग्ध श्रोता/पाठक की तरह मैंने उनके निकट जाने का कोई अवसर नहीं छोड़ा यहाँ तक कि अपनी आदत के विपरीत उनके मंच पर रचना पाठ करने की जुगाड़ भी जमाई, मुहावरे में कहूं तो दर्जनों बार उनकी चिलम भी भरी, पर मैं यह नहीं कह सकता हूं कि वे मुझे पहचानते होंगे। मैं ऐसी अपेक्षा भी नहीं रखता क्योंकि उन्होंने चालीस साल तक लगातार सैकड़ों सम्मेलनों में लंगोटा घुमाया है और मेरे जैसे अनेक लोग तो हर जगह उनके इर्दगिर्द रहते ही हैं, वे किस किस को याद करें जब तक कि बारम्बार का साथ न हो, या कोई न भूलने वाली रचना या घटना न हो। पर यह भी सच है कि कभी भूले भटके उनके साथ का अवसर पाने वाले हर व्यक्ति की स्मृति में वह गौरवपूर्ण क्षण दर्ज होगा, जब उसे उनका साथ मिला होगा।
जो भी सच्चा कवि है उसमें स्वभिमान भी जरूर होगा और वह खुद के बारे में गलत बयानी नहीं करेगा। कभी गालिब ने लिखा था कि-
 ‘हैं और भी दुनिया में सुखनवर बहुत अच्छे, कहते हैं कि गालिब का है अन्दाजे बयां और’
या फिराक गोरखपुरी ने कहा था कि-
आने वाली नस्लें तुम पर रश्क करेंगी हम असरों
जब ये खयाल आयेगा उनको, तुमने फिराक को देखा था
पर हिन्दी में इतनी क्षमता और साहस वाला दूसरा कोई नीरज जैसा कवि नहीं मिलेगा जो कह सकता हो कि-
आज भले कुछ भी कह लो तुम, पर कल विश्व कहेगा सारा
नीरज से पहले गीतों में सब कुछ था पर प्यार नहीं था
या
इतने बदनाम हुये, हम तेरे जमाने में  / लगेंगी आपको सदियां हमें भुलाने में
एक बार अट्टहास के कार्यक्रम में मैं लखनऊ के गैस्ट हाउस में रुका था तभी मालूम हुआ कि नीरज जी भी किसी कवि सम्मेलन में जाने के पड़ाव में वहीं ठहरे हुए थे। उनसे मिलने मैं, प्रदीप चौबे, और सूर्य कुमार पांडॆ, भी उनके कमरे में जा पहुँचे। कहीं से फिल्मी गीतों की बात निकल पड़ी। सच तो यह है है कि नीरज जी ने फिल्मी दुनिया में जाकर जो श्रेष्ठ गीत लिखे हैं उनसे फिल्मी दुनिया में हिन्दी साहित्य का सम्मान बढा है, किंतु उनसे ईर्षा रखने वाले कई लोग इसी आधार पर उनको कमतर करने की कोशिश करते रहे हैं। नीरज जी ने कहा कि अच्छा यह बताओ कि ‘ स्टेशन पर गाड़ी जब छूट जाती है तो एक-दो-तीन हो जाती है” इस एक दो तीन हो जाने के मुहावरे का इससे पहले प्रयोग किस हिन्दी गीत वाले ने किया? फिल्मी गीत भी नये प्रयोग कर रहे हैं व हिन्दी को समृद्ध कर रहे हैं। इसी दौरन उन्होंने अपने गीत का एक मुखड़ा सुना कर पूछा, अच्छा बताओ यह कौन सा छन्द है? मुखड़ा था-
सोना है, चाँदी है, हीरा है, मोती है, गोरी तिरा कंगना
किसी के पास भी उत्तर नहीं था तो नीरज जी खुद ही बोले यह रसखान का वह छन्द है जिसमें कहा गया है –
मानस हों तो वही रसखान बसों बिच गोकुल गाँव के ग्वालन
हिन्दी साहित्य और दर्शन शास्त्र में प्रथम श्रेणी में स्नातकोत्तर उपाधि प्राप्त करने वाले नीरज ने जो सूफियाना गीत लिखे हैं उन्हें सुधी श्रोताओं के बीच सुनाते हुए जब वे व्याख्या देते थे तब हम जैसे लोगों को उनका महत्व समझ में आता था। विस्तार में नहीं जाना चाहता हूं क्योंकि विषय की सीमाओं की घोषणा पहले ही कर चुका हूं, पर एक घटना याद आ रही है। नागरी प्रचारणी सभा के एक अन्वेषक उदय शंकर दुबे अपने कार्य के सिलसिले में कई वर्षों तक दतिया में रहे व दतिया के साहित्य जगत में सम्मानीय स्थान रखते थे। वे विचारों से समाजवादी थे। उन्होंने बातचीत में कह दिया कि नीरज की कविताएं तो स्त्रैण कविताएं हैं। मैं साहित्य का संस्थागत विद्यार्थी नहीं रहा किंतु उस दिन नीरज जी के प्रति प्रेम में मैंने भक्ति काल के कवियों की जो श्रंगार रस की कविताओं के उदाहरण देते हुए पूछा कि क्या इन्हें भी आपने पहले कभी स्त्रैण कवि कहा है? मैंने धारा प्रवाह रूप से नीरज जी का गीत – बद्तमीजी कर रहे हैं, आज फिर भौंरे चमन में, साथियो आँधी उठाने का ज़माना आ गया है।‘ सुना दिया तब दुबे जी मेरी याददाश्त पर भी हक्के बक्के रह गये। बोले अभी नीरज को सुना भर है, उन्हें और पढूंगा। नीरज के मृत्यु गीत के कई किस्से हैं जो कई बार बयां हुये हैं।
अनेक संस्मरण हैं जो लेख की सीमा रेखा के बाहर चले जायेंगे। उन्हें फिर कभी लिखूंगा। पिछले दिनों नीरज जी अस्वस्थ होकर अस्पताल में भर्ती हो गये थे। अपने चाहने वालों की शुभेक्षा से वे जल्दी स्वस्थ होंगे और शतायु होंगे यह भरोसा है।  
वीरेन्द्र जैन
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