शुक्रवार, जुलाई 27, 2018

आत्म विश्वास हीन पार्टी को विश्वास मत


आत्म विश्वास हीन पार्टी को विश्वास मत

वीरेन्द्र जैन
भाजपा में प्रारम्भ से ही आत्मविश्वास की कमी रही है और यह कमी देश की संसद में पूर्ण बहुमत पाकर व दो तिहाई मतों के गठबन्धन से सरकार बना लेने के बाद भी नहीं पैदा हो सका। अभी भी वे किसी वीर बहादुर की तरह रण के मैदान में नहीं उतरते हैं अपितु छापामारों की तरह हमला कर के अपराध बोध से ग्रस्त और बदले के हमले से भयभीत बने रहते हैं। इस दल ने अपने जनसंघ स्वरूप के समय से ही सत्ता के लिए हथकंडों का स्तेमाल करना प्रारम्भ कर दिया था।
आज जो भाजपा की स्थिति है उसके पीछे उनके सिद्धांतों या नेतृत्व में उपजा भरोसा नहीं अपितु रामजन्मभूमि मन्दिर के नाम पर किया गया आन्दोलन है जिसने क्रमशः उसे दो सीट तक सिमटने के बाद दो सौ पचहत्तर तक ला दिया। फैजाबाद के जिस कलैक्टर के के नायर ने 23 दिसम्बर 1949 की रात्रि में बाबरी मस्जिद में मूर्तियां रखवा दी थीं। बाद में उन्होंने स्वेच्छिक सेवा निवृत्ति ली और 1952 में उन्हें बहराइच से जनसंघ का टिकिट देकर सांसद बनवा दिया गया था। उनके निधन के बाद उनकी पत्नी को टिकिट दिया गया था और वे भी जनसंघ के टिकिट पर ही संसद पहुँची थीं। अंग्रेजों के समय 20 साल तक आईसीएस की स्वामिभक्ति दिखाने वाले नायर ने आज़ाद भारत में पाँच साल भी कलैक्टर नहीं रहना चाहा। संसद में ये ऐसे ही अपनी संख्या बनाते रहे। वर्तमान सरकार में भी लगभग दो दर्जन प्रशासनिक, पुलिस और फौज के अधिकारी सांसद हैं, या दूसरे पदों पर हैं। कुछ प्रमुख नामों में 
जस्टिस पी के मोहन्ती झारखंड के राज्यपाल बनाये गये
-उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जस्टिस सतशिवम केरल के राज्यपाल बनाये गये।
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पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह सासंद और फिर विदेश राज्यमंत्री बनाये गये।
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मुम्बई के पूर्व पुलिस कमिश्नर सत्यपाल सिंह सासंद व मंत्री बनाये गये।
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भारत के पूर्व गृह सचिव आर के सिंह सांसद व मंत्री बनाये गये।
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दिल्ली के पूर्व पुलिस कमिश्नर बी एस बस्सी उत्तराखंड के राज्यपाल बनाये गये ।
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पूर्व आईपीएस किरण बेदी पुन्दूचेरी की राज्यपाल बनायी गयीं ।
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आसाम के पूर्व मुख्य सचिव ज्योति प्रसाद राजखोवा अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल बनाये गये।
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पूर्व सीएजी विनोद राय बैंक बोर्ड ब्यूरो के अध्यक्ष बनाये गये।
म.प्र. के भागीरथ प्रसाद जैसे अनेक आईएएस सांसद बनाये गये, और मंत्री पद पाने की प्रतीक्षा में हैं। फिल्मी और टीवी कलाकारों में हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, दारा सिंह, स्मृति ईरानी, किरन खेर, अरविन्द त्रिवेदी, दीपिका चिखिलिया, परेश रावल, मनोज तिवारी, अंगूर लता डेका, नितीश भारद्वाज, बाबुल सुप्रियो, रूपा गांगुली, तो जीत कर पहुँचे थे, उसके अलावा भी बप्पी लहरी जैसे अनेक लोगों को टिकिट दिय गया था जो जीत नहीं सके।
1962 में चीन के साथ हुए सीमा संघर्ष में मिली पराजय के बाद काँग्रेस का आकर्षण कम हुआ था। 1964 में जवाहरलाल नेहरू का निधन, 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध, व खाद्यान्न संकट से जो वातावरण बना था वह भी काँग्रेस को सत्ता से बाहर नहीं कर पाया था, किंतु लोहिया के गैरकाँग्रेसवाद ने बहुत सारे विपक्षी दलों को इस बात पर सहमत कर लिया था वे एकजुट होकर काँग्रेस को सत्ता से बाहर करें। ऐसे बनी संविद सरकारों में  सम्मलित होने के लिए भाजपा/ जनसंघ हमेशा आगे रही। उनके पीछे हमेशा आर एस एस खड़ा रहा और खुद को उनसे दूर बताता रहा। आत्मविश्वास के अभाव में जनसंघ भी खुल कर कभी नहीं बता सकी कि आरएसएस के साथ उसके क्या सम्बन्ध हैं। यह पार्टी हमेशा आरएसएस के साथ अपने सम्बन्धों पर नकाब डाले रही और अपने उन समर्थकों को धोखा देती रही जिन्हें आरएसएस पसन्द नहीं है। उसे उनके भी वोट चाहिए थे इसलिए उसने इस अन्दाज में कभी नहीं कहा कि-
शिवद्रोही मम दास कहावा, सो नर मोहि सपनेहु नहिं भावा
1977 में जब उन्होंने एक गुप्त योजना के अंतर्गत जनसंघ का विलय जनता पार्टी में दिखा कर पहली गैर काँग्रेसी सरकार में महत्वपूर्ण स्थान हथिया लिये थे तब अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए तब तक सत्ता का स्तेमाल किया जब तक कि इन्हें पहचान नहीं लिया गया कि इनका विलय दिखावटी है। ये जिस संख्या में गये थे उसी संख्या में बाहर आ गये और फिर भारतीय जनता पार्टी के रूप में प्रकट हो गये।
चुनाव जीत कर सता की शक्ति हथियाने के लिए बिना किसी सिद्धांत के समझौता कर लेना इनकी कूटनीति में रहा है क्योंकि ये खुद भी अपने सिद्धांतों की अस्वीकारिता की कमजोरी को समझते थे। 1967 से जो भी संविद सरकारें बननी शुरू हुयी उन सब में ये सम्मलित रहे या इन्होंने रहना चाहा। 1989 में वी पी सिंह की पहली मिली जुली सरकार थी जिसे सीपीएम और भाजपा दोनों के समर्थन की जरूरत थी व सीपीएम ने कह दिया था कि हम सरकार में सम्मिलित हुए बिना समर्थन देंगे और वह भी तब जब भाजपा को सरकार से बाहर रखा जाये। उस सरकार के खिलाफ इन्होंने पर्दे के पीछे काँग्रेस से हाथ मिला कर मण्डल कमीशन की सिफारिशों के खिलाफ आत्मदाह की कहानियां रचीं और रामजन्म भूमि आन्दोलन तेज किया। अभी भी कई राज्य सरकारों में ये जूनियर पार्टनर बने हुए हैं, पर बाहर से समर्थन देने की बात नहीं सोचते।  
आत्मविश्वास की कमी के कारण ये तत्कालीन सरकारों पर इस तरह आरोप लगाते रहे और वादे करते रहे जैसे इन्हें कभी सत्ता में नहीं आना है। मोदी सरकार की ज्यादातर समस्याएं इसी आदत के कारण हैं। इन्होंने 15 लाख का जुमला ज्यादा वोट जुटाने के लिए ही यह मान कर उछाला था कि इन्हें तो पूरा करने का अवसर ही नहीं आयेगा। एक के बदले दस सिर लाने का जुमला भी ऐसा ही था। दो करोड़ रोजगार देने का वादा भी ऐसा ही था। जीएसटी का विरोध भी ऐसा ही था। आत्मविश्वास की कमी के कारण ही नरेन्द्र मोदी ने दो जगह से चुनाव लड़ा था और जब तक चुनाव घोषित नहीं हो गया तब तक मुख्यमंत्री का पद नहीं छोड़ा था। इससे पहले भी म,प्र. विधानसभा के 2003 के चुनाव में आत्मविश्वास की कमी के कारण ही किसी विधायक को जिम्मेवारी नहीं दी थी और भगवा वेषधारी केन्द्रीय मंत्री उमा भारती पर दाँव लगाया था। संयोग से वे जीत गयी थीं तब उन्हें मुख्यमंत्री बनाने व बनाये रखने में आफत आ गयी थी। संयोग से उन्हें निकालने का मौका मिल गया था और उनके साथ किया वादा न निभाने के कारण ही पार्टी में विभाजन हुआ था। आत्मविश्वास की इसी कमी के कारण उ.प्र. के विधानसभा चुनाव में मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी अंत तक घोषित नहीं किया।
यह आत्मविश्वास की कमी ही है कि अडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, शांता कुमार आदि को मुँह बन्द रखने को विवश कर दिया गया और प्रत्येक मंत्री के पीछे गुप्तचर लगाये गये हैं और प्रत्येक सांसद के निजी सचिव पार्टी के निर्देश पर नियुक्त हुये हैं।
अगर अन्दर की आवाजें सुनायी दे रही हों, और दीवार पर लिखी इबारत पढ पा रहे हों तो पढना चाहिए कि संख्या बल के विश्वास मत से अविश्वास कई गुना अधिक है, भले ही उसका कोई मूर्त रूप नहीं बन सका हो।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


















सोमवार, जुलाई 16, 2018

फिल्म समीक्षा के बहाने ; फिल्म संजू

फिल्म समीक्षा के बहाने ; फिल्म संजू
 गाँधी दर्शन और पारिवारिक प्रेम पर एक फिल्म  
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फिल्म एक बड़ी लागत का व्यवसाय है और व्यवसाय मुनाफे के लिए किया जाता है, इसलिए फिल्म की सफलता को उसके टिकिट खिड़की की सफलता से मापा जाता है। अब वे दिन नहीं रहे जब किसी एक टाकीज में लगातार 25 सप्ताह तक चलने वाली फिल्म को सिल्वर जुबली फिल्म कहा जाता था। अब उसका मापदण्ड पहले और दूसरे हफ्ते में सौ दो सौ करोड़ की टिकिट बिक्री से होने लगा है। यही कारण है कि फिल्मों की विषय वस्तु को उस तरह से प्रचारित किया जाता है जो जनरुचि को छू सके, भले ही कथानक कुछ और बोलता हो।
देश के प्रतिष्ठित लेखक सम्पादक स्व. राजेन्द्र यादव ने एक सम्पादकीय में लिखा था कि अब कहानी से ज्यादा संस्मरण और आत्मकथाएं लोकप्रिय हो रही हैं क्योंकि वे जीवंत कहानियां होती हैं, इसलिए विश्वसनीय होती हैं। अब हम सब कुछ लाइव देखना चाहते हैं, चाहे क्रिकेट का मैच हो या किसी नेता की चुनावी रैली हो। संजू फिल्म को भी संजय दत्त की आत्मकथा या कहें कि अब तक की जीवन गाथा कह कर प्रचारित किया गया है। इस फिल्म में संजय दत्त के जीवन की चर्चित घटनाओं को आधार बनाया गया है जिसमें उसके ड्रग एडिक्ट होने से लेकर ए के 47 रखने तक की रोमांचक घटनाएं पिरोयी गयी हैं। फिल्मों के नायक नायिकाओं से सम्बन्धित समाचार लगभग सारे समाचार पत्रों के फिल्म से सम्बन्धित स्तम्भ में प्रकाशित होते रहते हैं जिनमें सच और झूठ का अनुपात तय करना मुश्किल होता है क्योंकि वे बराबरी की होड़ करते रहते हैं।
संजू फिल्म संजय दत्त की जीवनी से ली गयी जीवन कथा के रूप में बनायी गयी बतायी गयी है, किंतु इसमें उनके जीवन की केवल एक दो घटनाओं का विस्तार भर है। इस फिल्म के लोकप्रिय होने के पीछे वह सच्चा प्यार, त्याग और समर्पण है जो इस  परिवार के सदस्यों के बीच दिखता है। दत्त परिवार का पूरा जीवन ही घटनाओं से भरा हुआ है। फिल्म मदर इंडिया की शूटिंग करते समय सैट पर आग लग गयी थी और सुनील दत्त ने अपनी जान पर खेल कर नरगिस को बचाया था व उनका यही साहस नरगिस के समर्पण का आधार बना जबकि उस दौर की इस सुन्दरतम नायिका से बहुत सारे प्रसिद्ध कलाकार शादी करना चाहते थे जिनमें कहा जाता है कि राजकपूर जैसे चोटी के अभिनेता भी थे। इस विवाह में उस दौर के नामी गिरामी माफिया सरदार हाजी मस्तान बाधा बन कर उभरे थे किंतु प्रगतिशील शायर साहिर लुधियानवी की मध्यस्थता और सुनील दत्त की गाँधीवादी निर्भीकता व सच्चाई से प्रभावित हुये थे और सहयोगी बन गये थे। हिन्दू मुस्लिम विवाह से उन्होंने देश के उस आदर्श को प्रमाणित किया जो हमारे संविधान निर्मताओं के मन में था। सच तो यह है कि संजय दत्त को “लगे रहो मुन्ना भाई” के लिए प्रेरित करने वाले सुनील दत्त का जीवन स्वयं में गाँधीवाद का जीवंत उदाहरण था। उन्होंने  अहिंसा के सहारे बिना किसी भय के सत्य के मार्ग पर चलना शुरू किया और उससे कभी नहीं डिगे। नरगिस से प्रेम करने के बाद वे किसी से नफरत नहीं कर सके। देश से प्रेम किया और काँग्रेस में रहते हुए बेहद सादगी से लोकसभा का चुनाव लड़ा व जनता के प्रेम से विजयी हुये। बाबरी मस्जिद टूटने के बाद देश में साम्प्रदायिक हिंसा की जो लहर उठी उसमें साम्प्रदायिकता से लाभ उठाने वाले कुटिल लोगों के खिलाफ भी उनका कोई कटु बयान देखने में नहीं आया। संजू फिल्म की पृष्ठभूमि में ही उनका पीड़ित परिवारों को राशन पहुँचाना था जो एक वर्ग के साम्प्रदायिकों को पसन्द नहीं आ रहा था। वे जान से मारने की धमकी से लेकर फोन पर उनकी लड़कियों के बलात्कार तक की धमकियों दे रहे थे और उसी भय की अवस्था में संजय दत्त ने घर में हथियार रखने की सलाह को मान लिया था। यह सुनील दत्त ही थे जिन्होंने साम्प्रदायिक सद्भाव के लिए मुम्बई से अमृतसर तक की पद यात्रा की थी और अपनी फिल्मी कलाकार की लोकप्रियता को साबुन तेल के विज्ञापनों में बर्बाद करने की जगह सद्भाव के स्तेमाल किया था। जैसा कि फिल्म में दिखाया गया है कि उन्होंने हिन्दुओं के बाहुबली साम्प्रदायिक नेता द्वारा संजय दत्त को विसर्जन समारोह में आमंत्रित किये जाने से विनम्रता पूर्वक मना करवाया था और निर्भय होकर हिंसा पर अहिंसा की विजय का उदाहरण प्रस्तुत किया था।
यह फिल्म लगे रहो मुन्नाभाई के बाद इस परिवार की दूसरी गाँधीवादी फिल्म है। इसमें सत्य, अहिंसा, निर्भीकता, सादगी, कमजोर की सहायता, ही नहीं सत्याग्रह और सविनय अवज्ञा भी है। इस तरह यह गाँधीवादी दर्शन को आगे बढाती हुयी राजनीतिक फिल्म भी है।
सुनील दत्त नरगिस से प्रेम करते हैं और नरगिस सुनील दत्त से। दोनों मिल कर अपने बच्चों से प्यार करते हैं। वे देश से प्यार करते हैं। धर्मनिरपेक्षता को जीते हैं और उसकी रक्षा के लिए निर्भय होकर जान की बाजी लगा दे रहे हैं। ज्यादा प्रेम, और आज़ादी में कुसंगति से बेटा बिगड़ कर एडिक्ट हो जाता है किंतु बेटे को प्रेम करने वाला पिता अपने प्रेम के बल पर ही उसे इस बुरी आदत से बाहर निकालने में सफल होता है। सब कुछ जानते हुए भी संजू की पत्नी उसकी सफाई देश के सामने लाने के लिए उसकी जीवन कथा लिखवाती है और पूरे समर्पित भाव से उसकी जेल यात्रा के दौरान घर सम्हालती है। रिश्तों के अलावा एक दोस्त का प्रेम है जो उसको दुष्चक्र से बाहर निकालने के लिए निरंतर लगा हुआ है। इसी प्रेम और समर्पण के देख कर बार बार दर्शकों की आँखें और दिल भर आता है, और इस तरह वह दर्शकों को सम्वेदनशील बनाने में सफल है। संजय दत्त की जीवन गाथा में से फिल्म के लिए चुनिन्दा हिस्से ही लिये गये हैं किंतु वे प्रभावी हैं। फिल्म को बायोपिक कहना सही नहीं होगा।
फिल्म में एक गम्भीर आलोचनात्मक टिप्पणी मीडिया के व्यवहार पर भी है जो अपना अखबार बेचने के लिए हर खबर को सनसनीखेज बनाना चाहता है और अपने बचाव के लिए एक प्रश्नवाचक चिन्ह लगा देते हैं। किंतु पाठक उस प्रश्नवाचक चिन्ह को न समझ कर उसे सच मान लेते हैं। यह अभी भी हो रहा है, समाचार के रूप में अखबार के मालिकों के हितैषी विचार प्रचारित हो रहे हैं।  
 रूसो ने अपनी आत्मकथा की प्रस्तावना में लिखा है कि मेरी आत्मकथा पढ कर आप कहेंगे कि रूसो संसार का सबसे बुरा आदमी था, पर विश्वास कीजिए कि मुझ से भी बुरे आदमी दुनिया में हैं किंतु उनमें सच कहने का साहस नहीं है। संजय की पुस्तक रूप में कहानी मैंने नहीं पढी है इसलिए उसके बारे में कुछ नहीं कह सकता, पर फिल्म यही सन्देश दे रही है।  
रणवीर कपूर की पूरे दिल से एक्टिंग की तारीफ के बिना फिल्म के बारे बात अधूरी रहती है, वहीं मनीषा कोइराला और परेश रावल ने अपनी अपनी भूमिकाओं से जान डाल दी है। कहानी के अनुसार फिल्म सफल है।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जुलाई 02, 2018

दुष्कर्मी अपराधियों से कमतर नहीं है इनका अपराध


दुष्कर्मी अपराधियों से कमतर नहीं है इनका अपराध
वीरेन्द्र जैन

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मन्दसौर में एक सात वर्षीय बालिका के साथ जो दुष्कर्म और दरिन्दगी हुयी वह पिछले कई वर्षों से घट रही घटनाओं की श्रंखला में एक कड़ी और जोड़ती है। ऐसी घटनाओं के प्रति जन आक्रोश विकसित होना सामाजिक संवेदना बढने की दिशा में शुभ संकेत माना जा सकता है और इस आक्रोश में अपराधियों को तुरंत चौराहे पर फाँसी देने की माँग आवेश की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसी आक्रोश में पिछले दिनों अनेक लोगों को बच्चा चोरी के आरोप में भीड़ ने पीट पीट कर मार डाला है और यह बात बाद में पता चली कि कई घटनाओं में मारे गये लोग बच्चा चोर नहीं थे। अचानक ही बच्चा चोरी के आरोप में पीट पीट कर मार दिये जाने के घटनाएं कुछ ही समय के अंतराल में झारखण्ड, असम, तामिलनाडु, और महाराष्ट्र में घटित हुयी हैं, इससे शंका पैदा होती है कि कहीं यह हत्या का वैसा ही बहाना तो नहीं बन रहा जैसा कि गौकशी के नाम पर या देशविरोधी नारे लगाये जाने की ओट में की जाने वाली हिंसक घटनाओं के लिए बनाये जाते रहे हैं।  
यह खतरनाक समय है। न्याय पर भरोसा कम हो रहा है क्योंकि न केवल न्याय दिलाने वाली व्यवस्था ही ईमानदार नहीं है अपितु बमुश्किल मिले न्याय में लगने वाली देर के कारण ऐसा लगता है कि घाव सूख जाने के बाद चोट का उपचार हुआ। झूठ और षड़यंत्र के आधार पर की गयी हिंसा को भी उन सामाजिक संस्थाओं से मदद मिल रही है जो सत्ता से जुड़ी हुयी हैं, जिस कारण सुविधाओं के लालच में समाचार माध्यम भी पक्षपाती होते जा रहे हैं। कोबरा पोस्ट का स्टिंग आपरेशन इसका ज्वलंत उदाहरण प्रस्तुत करता है।
मन्दसौर में घटित दुष्कर्म की घटना जिस समय घटी, उसी के आसपास पिछले वर्ष मन्दसौर में किसान आन्दोलन में मारे गये किसानों की बरसी मनाने के लिए विपक्षी दल एकत्रित हुये थे और इसी वर्ष होने वाले विधानसभा चुनावों की तैयारी में विपक्ष सक्रिय और एकजुट होने की तैयारी कर रहा था। इस आयोजन में भाग न लेने देने के लिए सरकार ने किसानों पर हर तरह का दबाव बनाया था। इसी दौरान हार्दिक पटेल की सक्रियता भी इस क्षेत्र में बढी थी। यह संयोग ही है कि इन्हीं दिनों दिल्ली में भाजपा अध्यक्ष ने भाजपा के लिए सोशल मीडिया पर काम करने वाले साढे तीन सौ कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण के टिप्स दिये।
दुष्कर्म की इस घटना में दो युवा पकड़े गये जिनका पिछला आचरण भी अच्छा नहीं बताया गया। उनकी पहचान किसी सीसी टीवी कैमरे की रिकार्डिंग से हुयी जिसमें चेहरा तो नहीं पहचाना गया किंतु जूतों के ब्रांड से पहचाना गया। वे दोनों लड़के मुसलमान थे। घटना के खिलाफ आन्दोलन शुरू हुआ, जलूस निकलने लगे, मन्दसौर बन्द का आवाहन हुआ जो व्यापक रूप से सफल हुआ, इसमें सभी वर्गों के लोगों ने भाग लिया। आम तौर पर ऐसे आन्दोलन सरकार के खिलाफ होते हैं किंतु आन्दोलन आरोपियों के खिलाफ केन्द्रित कर दिया गया। दुष्कर्म और दरिन्दगी की घटना से आक्रोशित लोगों ने आरोपियों को ही अपराधी मान कर उन्हें तत्काल चौराहे पर फाँसी देने की मांग की और उनके पुतलों को जलाया जाना व फाँसी देने के प्रतीक रचे गये। एबीपी के विशेष संवाददाता लिखते हैं कि हर थोड़ी देर में समाज के अलग अलग तबके ज्ञापन देने आ रहे थे और एसपी कलैक्टर के साथ फोटो खिंचवा रहे थे। वे एसपी मनोज सिंह के हवाले से लिखते हैं कि शहर में तनाव का महौल है और कुछ लोग इस घटना की आड़ में महौल बिगाड़ कर समाजों के बीच बंटवारा कर लड़वाने की फिराक में हैं, और इसके लिए रात में अलग अलग संगठनों के दफ्तरों में जाकर दबिश देनी पड़ती है।
मुस्लिम संगठनों ने भी न केवल घटना की भर्त्सना की अपितु आन्दोलन में बराबरी से भाग लिया, अपराधियों को फाँसी की सजा देने की मांग की अपितु कहा कि वे अपने कब्रिस्तान तक में उन्हें जगह नहीं देंगे।
दूसरी ओर इस घटना को साम्प्रदायिक रूप देने के लिए वे लोग उतावले हो गये जिन्हें साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण से राजनीतिक लाभ मिलता है। सोशल मीडिया एक ऐसा माध्यम है जिसमें अपनी पहचान छुपा कर कुछ भी सच झूठ फैलाया जा सकता है और जब तक असली अपराधी तक पहुँचा जा सके तब तक बड़ा नुकसान हो चुका होता है। पता नहीं कि क्यों हर जगह आधार कार्ड को अनिवार्य करने वाली सरकार इस क्षेत्र में बेनामी लोगों के खाते बन्द करने के लिए कुछ भी नहीं कर रही। उल्लेखनीय है कि वर्तमान सरकार के नेताओं पर ही सबसे पहले इसके दुरुपयोग के आरोप लगे थे और अब तो यह बीमारी सर्व व्यापी हो चुकी है। इस घटना के बाद एक नये तरह का साम्प्रदायिक राजनीतिकरण किया गया। ट्राल्स ने गैर भाजपा नेताओं पर आरोप लगाया कि उन्होंने सोशल मीडिया पर इस घटना के खिलाफ वैसा प्रतिरोध नहीं किया जैसा कि जम्मू के कठुआ की घटना में किया था। उल्लेखनीय है कि उस घटना में शिकार और बाद में मार डाली गयी लड़की मुस्लिम थी और इस घटना में रेप की शिकार पीड़िता हिन्दू थी। इस तरह से वे एक ओर तो उस घटना का विरोध करने वालों को धार्मिक तुष्टीकरण करने वाला बता रहे थे और इस घटना का विरोध न करने को हिन्दू विरोधी सिद्ध कर रहे थे। सवाल उठता है कि कठुआ काण्ड में क्या बलात्कार और हत्या नहीं हुयी थी? क्या उसका विरोध करना गलत था? क्या शांतिपूर्ण ढंग से अपना प्रतिरोध दर्ज करने और मृतक को श्रद्धांजलि देने के लिए मोमबत्ती जलाना तुष्टीकरण है? दूसरी ओर आरोपियों के पक्ष में खुले आम एक मंत्री और विधायक का जलूस में शामिल होना और सर्वाधिक निष्पक्ष और कर्मठ पुलिस अधिकारियों को बुरा भला कहना उचित था? मन्दसौर में हुयी दरिन्दगी के विरोध में ऐसा कौन है जो आरोपियों के पक्ष में खड़ा होगा या ऐसा कौन सा दल था जो विरोध में नहीं उतरा? जो लोग समाज में साम्प्रदायिकता नहीं चाहते वे क्षणिक उत्तेजना से संचालित नहीं होते क्योंकि साम्प्रदायिकों के हथकण्डों को समझना भी होता है। अगर आज सुबह मैंने नहीं कहा कि सदा सच बोलो, तो उसका मतलब यह तो नहीं निकलता कि मैं झूठ बोलने का समर्थन करता हूं।
उल्लेखनीय है कि अफजल गुरु और कसाव को न्यायिक प्रक्रिया पूरी होने से पहले फाँसी देने की मांग कर के राजनीतिक लाभ के लिए कैसा वातावरण बनाने की कोशिश की गयी थी? परोक्ष में यह भारत के मुसलमानों के प्रति विषाक्त वातावरण बनाना था कि मुसलमान इन लोगों को बचाने की कोशिश करने वालों के पक्ष में वोट करते हैं, इसीलिए तत्कालीन सरकार के लोग इन्हें फाँसी नहीं दे रहे हैं। जबकि मुम्बई के मुसलमानों ने उन हमलावरों को अपने कब्रिस्तान में स्थान देने से मना कर दिया था। मुम्बई के पुलिस प्रासीक्यूटर ने पद्मश्री मिलते समय बताया था कि कसाव को बिरयानी खिलाने की बात मनगढंत थी, जिसके आधार पर एक बड़ा साम्प्रदायिक राजनीतिक वातावरण बनाया गया था।
एक बार फिर से रेखांकित करना चाहता हूं कि मन्दसौर सहित ऐसी सारी घटनाएं चाहे वे दिल्ली में घटी हों, जम्मू में घटी हों, बिहार में घटी हों या मन्दसौर में घटी हों वे भयानक हैं और उनसे सम्बन्धित सभी अपराधियों को कानून के अनुसार अधिकतम दण्ड शीघ्र से शीघ्र मिलना ही चाहिए। किंतु इन घटनाओं के सहारे अपनी राजनीति के लिए साम्प्रदायिकता फैलाना ऐसा ही है जैसा कि उत्तराखण्ड में भयानक भूस्खलन और बर्फीले तूफान से पीड़ित महिला तीर्थयात्रियों के हाथ काटने वाले साधुवेषधारियों ने किया था। यह दुष्कर्म किसी तरह से भी उस मासूम बालिका के साथ घटित दुष्कर्म से कम नहीं है।
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जून 28, 2018

श्रद्धांजलि हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े हास्य लेखक थे मुस्ताक अहमद यूसिफी


श्रद्धांजलि
हिन्दुस्तानी के सबसे बड़े हास्य लेखक थे मुस्ताक अहमद यूसिफी  
वीरेन्द्र जैन













मैं अपने को हिन्दी हास्य व्यंग्य का ठीकठाक पाठक मानता हूं और उसके आधार पर कह सकता हूं कि उर्दू के लेखक मुस्ताक अहमद यूसिफी के बराबर का हास्य लेखक  अब तक मेरी नजरों से नहीं गुजरा। यह भी तब जब कि मैंने उन्हें केवल उस सब कुछ के माध्यम से जाना है जो देवनागरी में प्रकाशित हुआ है। मैंने इस विषय के अन्य अध्येताओं से भी बात की और वे सभी मेरी बात से सहमत थे। वे ऐसे लेखक थे जो पाकिस्तान में अविभाजित हिन्दुस्तान का प्रतिनिधित्व करते थे। उनके पूरे लेखन से आप पता ही नहीं लगा सकते कि हिन्दुस्तान और पाकिस्तान अलग अलग मुल्क हो चुके हैं। साहित्य से जुड़े जितने भी पाकिस्तान के श्रेष्ठ सम्मान हैं वे सब उन्हें मिले हैं, जैसे 1999 में पाकिस्तान के प्रैसीडेंट द्वारा सितारा-ए- इम्तियाज, 2002 में पाकिस्तान के प्रैसीडेंट द्वारा हिलाल-ए- इम्तियाज, कायदे आज़म मैमोरियल मैडल, 1990 में श्रेष्ठ किताब के लिए दिया जाने वाला पुरस्कार पाकिस्तान अकादमी आफ लैटर्स, हिजरा अवार्ड, व अदमजी अवार्ड फर बैस्ट बुक, आदि।  ऐसा कैसे सम्भव हो सका यह बात उनके जीवन परिचय को पढ कर समझ में आ जाती है।
यूसिफी जी का जन्म 4 सितम्बर 1923 को राजस्थान के टोंक में हुआ था। उनके पिता पठान थे और यूसुफजई जनजाति से आते थे। उनकी वंश परम्परा उन लोगों से जुड़ती है जो महमूद गज़नवी के साथ इस क्षेत्र में आये थे और लम्बे समय तक शासक वर्ग से सम्बन्धित रहे।  उनके पिता जो जयपुर के पहले पढे लिखे मुसलमान थे पहले जयपुर नगर निगम के चेयरमैन और बाद में जयपुर विधानसभा के अध्यक्ष रहे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा राजपूताने में हुयी तथा बाद में उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से बीए किया। आगे उन्होंने अलीगढ मुस्लिम यूनीवर्सिटी से फिलोस्फी में एमए और एलएलबी किया। विभाजन के बाद उनका परिवार कराची में रहने लगा था। 1950 में उन्होंने मुस्लिम कामर्सियल बैंक में सेवायें प्रारम्भ की और डिप्टी जनरल मैनेजर हो गये। 1965 में वे एलाइड बैंक लिमिटेड में मैनेजिंग डायरेक्टर नियुक्त हुये। 1974 में वे यूनाइटिड बैंक लि. के प्रैसीडेंट बने, व 1977 में पाकिस्तान बैंकिंग काउंसिल के चेयरमैन चुने गये। अपनी श्रेष्ठ बैंकिंग सेवाओं के लिए उन्हें कायदे आज़म मैमोरियल मैडल प्रदान किया गया।
एक बार में मुम्बई गया तो रामावतार चेतन ने कहा कि शरद जोशी से मिल कर अपनी किताब दे आना। मैंने यही किया तो शरद जी ने पूछा कि मुम्बई कैसे आये थे। मैंने कहा कि यूं ही बिना किसी काम के आया था। वे बोले कि आते रहना चाहिए। क्योंकि जीवन शैली का जो कंट्रास्ट सामने आता है वह व्यंग्य को बल देता है। उन्होंने मुम्बई और भोपाल के आदमी की गति के अंतर का रोचक चित्रण कर के समझाया। जिसके जीवन में जितनी विविधता होगी उसका व्यंग्य भी उतना ही तेज होगा।
यूसिफी जी ने अध्य्यन, और नौकरी में जितनी विविधिता का सामना किया उन्हें उतने ज्यादा चरित्र मिले। कानपुर की ग्वालिन से लेकर अमृतसर के सिखों, व वलूची पठानों से लेकर मुहाजिरों तक के वर्णन बताते हैं कि उन्होंने कितनी निरपेक्षता के साथ सूक्ष्म निरीक्षण किया हुआ है। हास्य व्यंग्य के लेखक को जनक जैसे सन्यासी की तरह समस्त रागों से असम्पृक्त होकर देखना होता है। उनके छोटे छोटे वाक्यों में जो चुटीले जुमले होते हैं, वे मुस्कराने और खिलखिलाने के लिए विवश कर देते हैं। मजहबियों पर कुछ उदाहरण देखिए-
·        जो मुल्क जितना गरीब होगा, उतना ही आलू और मजहब का चलन ज्यादा होगा
·        मुसलमान किसी ऐसे जानवर को मुहब्बत से नहीं पालते जिसे जिबह करके खा न सकें।

·        नाई की जरूरत सारी दुनिया को रहेगी जब तक कि सारी दुनिया सिक्ख धर्म ना अपना ले और सिक्ख ऐसा कभी होने नहीं देंगे।

·        इस्लाम के लिए सबसे ज्यादा कुर्बानी बकरों ने दी है।

·        इस्लाम की दुनिया में आज तक कोई बकरा स्वाभाविक मौत नहीं मरा

·        कुछ लोग इतने मजहबी होते हैं कि जूता पसन्द करने के लिए भी मस्जिद का रुख करते हैं

वैवाहिक सम्बन्धों और प्रेम से सम्बन्धित कुछ जुमले देखिए –
·        हमारे जमाने में तरबूज इस तरह खरीदा जाता था जैसे आजकल शादी होती है, सिर्फ सूरत देख कर।
·        जो ज़हर देकर मारती तो दुनिया की नजर में आ जाती, अन्दाज-ए-कातिल तो देखो, हमसे शादी कर ली.
·        मर्द की आंख और औरत की जबान का दम सबसे आखिर में निकलता है
·        उस शहर की गलियां इतना तंग थीं कि अगर मुख्तलिफ जिंस आमने-सामने आ जायें तो निकाह के अलावा कोई गुंजाइश नहीं रहती.
·        मुहब्बत अंधी होती है, लिहाजा औरत के लिए खूबसूरत होना जरूरी नहीं, बस मर्द का अंधा होना काफी होता है।
·        बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में जरा भी फर्क नहीं, सोते में भी एक आंख खुली रखनी पड़ती है।
कुछ अन्य उदाहरण देखिए-

·        लफ्जों की जंग में फतह किसी भी फरीक की हो, शहीद हमेशा सच्चाई होती है।
·        दुश्मनों के तीन दर्जे हैः दुश्मन, जानी दुश्मन और रिश्तेदार।
·        आदमी एक बार प्रोफेसर हो जाए तो उम्र भर प्रोफेसर ही रहता है, चाहे बाद में समझदारी की बातें ही क्यों ना करने लगे।
·        सिर्फ 99% पुलिस वालों की वजह से बाकी एक प्रतिशत भी बदनाम हैं।

हिन्दी में लफ्ज़ सम्पादक तुफैल चतुर्वेदी ने न केवल उनकी पुस्तकों के अनुवाद ही किये हैं अपितु उन्हें प्रकाशित भी किया है। ये किताबें हाथों हाथ बिक भी गयीं। उनकी 1961 में किताब ‘चिराग तले’ आयी तो 1969 में ‘खाकम बा दहन’ 1976 में ‘जर्गुरस्त’ तो 1990 में ‘आब-ए-गुम’ , 2014 में ‘शामे-ए- सैरे यारां’ आयी।अनेक पुस्तकों के अनुवाद अंग्रेजी व अन्य भाषाओं में हुये हैं। स्वस्थ होने और समय रहते वे सेमिनारों और विभिन्न साहित्यिक कार्यक्रमों में भागीदारी करते रहे।  
गत 20 जून 2018 को वे नहीं रहे और उर्दू व हिन्दी का या कहें कि हिन्दुस्तानी भाषा और संस्कृति का बहुत बड़ा लेखक विदा हो गया। 
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


 



शनिवार, जून 16, 2018

चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा


चमत्कार की उम्मीद से भ्रमित समाज में बाबा  

वीरेन्द्र जैन
लगभग एक दशक पहले मीडिया में एक फोटो आयी थी जिसमें भगवा वस्त्रों में प्रज्ञा सिंह जिन्हें बाद में साध्वी प्रज्ञा के नाम से प्रचारित किया गया, बीच में विराजमान हैं और उनके दोनों तरफ क्रमशः राजनाथ सिंह और शिवराज सिंह चौहान अपनी पत्नी सहित श्रद्धा की मुद्रा में बैठे हैं। यह फोटो तब ज्यादा प्रसारित हुयी जब प्रज्ञा सिंह को आतंकी गतिविधियों और उससे जुड़ी हत्याओं के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया था। अनेक लोगों से पूछने पर भी कोई संतोषजनक उत्तर नहीं मिला कि देश के इतने बड़े बड़े नेता जो देश के प्रतिष्ठित धर्म गुरुओं के सम्पर्क में भी रहते हैं, इन कथित साध्वी की किस प्रतिभा से प्रभावित होकर श्रद्धानवत बैठे दिख रहे हैं। क्या केवल वस्त्रों के रंग और माथे पर लगे तिलक टीके ही श्रद्धा का आधार बन जाते हैं!
तब से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है व हर दूसरे तीसरे महीने कोई न कोई बाबा, स्वामी, संत, महंत कहलाने वाला व्यक्ति किसी न किसी अनैतिक कर्म से जुड़ा पाया जा रहा है। इसके साथ ही यह बात भी प्रकाश में आती है कि उसके पास कितनी जमीन, बंगले, बगीचे, आश्रम, और दौलत के खजाने मौजूद हैं, व उनके पास कितने नामी गिरामी लोग श्रद्धापूर्वक आते हैं। जब इतने सारे धर्म हैं और उनकी अनेक शाखाएं उपशाखाएं हैं तो उनके गुरु तो होंगे ही किंतु उन सब के अलग होने के पीछे कुछ सिद्धांत, नीति नियम भी होंगे, उपासना की भिन्न विधियां भी होंगीं। अनेक मामलों में ऐसा है भी। किंतु जब अस्पष्ट दर्शन, सिद्धांतों, या आचरणों के बाबजूद कोई धर्मगुरु बहुत बड़ी संख्या में अनुयायी बना लेता है, उनसे ढेर सारा धन निकलवा लेता है व संदिग्ध जीवन जीता है तब सरकार और उसके अनुयायियों को सन्देह क्यों नहीं होता! धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार को धर्म की ओट में मनमानी करने का अधिकार क्यों बना लिया गया है। धर्मस्थलों की पवित्रता अपराधियों के प्रवेश से भंग नहीं होती किंतु पुलिस के प्रवेश से भंग हो जाती है।  
महेश योगी, ओशो रजनीश, श्री श्री रविशंकर, गायत्री पीठ के श्रीराम शर्मा, रामदेव, आदि की स्थापनाएं समझ में आती हैं जिन्होंने विचारों, आचरणों, या प्रयोगों में कुछ नया कर के अपने अभियान को मौलिक रूप देकर आगे बढाया है, किंतु आसाराम, राम रहीम, रामपाल, निर्मल बाबा, राधे माँ, आदि आदि से लेकर दाती महाराज तक अपने अनुयायी किस आधार पर बना लेते हैं जो अपने मूल इष्ट को छोड़ कर नई आस्था की भीड़ बना लेते हैं। इस भीड़ के लोग  किसी भी सामान्य बुद्धि के व्यक्ति को प्रथम दृष्ट्या हास्यास्पद लगने वाला आचरण करते हुए लगते हैं। उनके इन गुरुओं के आपराधिक कृत्य सामने आने, उनके गिरफ्तार हो जाने के बाद भी कुछ भक्तों की आस्था कम नहीं होती। रोचक यह है कि वे इस विषय पर बात भी नहीं करना चाहते हैं। खेद इस बात का भी है कि इस अन्ध आस्था से होने वाले खतरों के प्रति शासन प्रशासन भी उदासीन है और कोई भी जनता को तब भी शिक्षित नहीं करना चाहता, जब कि सम्बन्धित धर्मगुरु के भेष में रहने वाला पुलिस की गिरफ्त में आ चुका होता है। इन कथित आश्रमों या धार्मिक संस्थानों में एकत्रित धन का बड़ा हिस्सा काला धन होता है और बहुत सारे मामलों में अवैध ढंग से कमाया हुआ होता है। घटनाक्रम बताता है कि लगभग सभी डाकुओं ने मन्दिर बनवाये हैं और पुजारियों व बाबाओं को पाला है, भले ही यह काम उन्होंने अपनी भयमुक्ति के लिए किया हो। समस्त काले धन वाले लोग अपनी कमाई का एक हिस्सा धार्मिक संस्थानों को देते हैं। इस प्रकार ये संस्थान देश की अर्थव्यवस्था को प्रभावित कर रहे हैं और सरकार की सतत निगाह इन पर रहनी चाहिए।
 धार्मिक संस्थानों की वित्तीय व्यवस्था को पारदर्शी बनाये बिना अर्थव्यवस्था में सुधार सम्भव नहीं है। जिस तरह बड़े कार्पोरेट घरानों, पब्लिक सेक्टर आदि को अपनी आडिट की हुयी बैलेंस शीट को सार्वजनिक करना अनिवार्य होता है उसी तरह एक निश्चित राशि से अधिक लेन देन वाली हर सार्वजनिक संस्था को अपनी बैलेंस शीट सार्वजनिक करना जरूरी होना चाहिए।  
साधु भेष में धोखा देने की परम्परा सबसे प्रसिद्ध रामकथा से शुरू होती है जिसमें रावण ने साधु भेष रख कर ही सीता का हरण किया था। इसी कथा में कालनेमि ने ही साधु का भेष रख कर हनुमान को धोखा देने का प्रयास किया था। कबीर ने झूठे साधुओं के लिए ही कहा है कि मन न रंगायो, रंगायो जोगी कपड़ा। “पानी पीजे छान कर और गुरु कीजे जानकर” भी इसीलिए कहा गया है क्योंकि गलत लोग भी धर्मगुरु के रूप में आ जाते हैं और लूट कर चल देते हैं। “ मुँह में राम, बगल में छुरी’ भी ऐसे ही नकली भक्तों के लिए कहा गया होगा, जैसे कि “बगुला भगत” शब्द आया है।
सच यह भी है कि बिना श्रम किये उपलब्धि पाने की इच्छा रखने वाले लोग चमत्कार की उम्मीदों में ऐसे बाबाओं के चक्कर में फँस जाते हैं और संयोगवश लाभ हो जाने से वे उनके स्थायी गुलाम बन जाते हैं। दूसरे जिन कार्यों में परिणाम अनिश्चित होता है या कहें कि जहाँ दाँव होता है वहाँ भी लोग अन्धविश्वासी हो जाते हैं और बाजी जीतने पर वे गलत विश्वासों के शिकार हो जाते हैं। सभी राजनीतिक दलों, मीडिया व सामाजिक संस्थाओं सहित सच्ची धार्मिक संस्थाओं को चाहिए कि प्रत्येक धार्मिक संस्थानों पर निगाह रखे जाने की मांग करें, व उसका समर्थन करें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629
    
    

गुरुवार, जून 07, 2018

मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत


मनमोहन वैद्य की मनमानी बात अन्दर के भय का संकेत
वीरेन्द्र जैन

फैज़ अहमद फैज़ का एक शे’र है जिसने पाकिस्तान की तात्कालीन सरकार को आग बबूला कर दिया था। वह शे’र था-
वो बात सारे फसाने में जिसका जिक्र न था
वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है
संघ की तरकीब रही है कि वे पहले अपने विरोधियों के मुँह में अपने शब्द डाल देते हैं और फिर उनका विरोध शुरू कर देते हैं। संघ के सरकार्यवाह मनमोहन वैद्य ने प्रणव मुखर्जी के संघ मुख्यालय जाने पर समाचार पत्रों में एक लेख लिखा है। उन्हें उम्मीद रही होगी कि प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर वामपंथी विरोध करेंगे इसलिए उन्होंने वाम पंथियों के बहाने वामपंथ पर हमला करने के लिए पहले से ही लेख तैयार कर लिया था। किंतु जब वामपंथ की ओर से इसे काँग्रेसियों का निजी पतन मानते हुए किसी तरह की टिप्पणी की जरूरत नहीं समझी तो खीझ कर अपनी मन की बात में मनमोहन वैद्य जी कहते हैं कि “यदि विरोध करने वालों का वैचारिक मूल देखेंगे तो आश्चर्य नहीं होगा। भारत का बौद्धिक जगत उस साम्यवादी विचारों के ‘कुल’ और ‘मूल’ के लोगों द्वारा प्रभावित है, जो पूर्णतः अभारतीय विचार है। इसलिए उनमें असहिष्णुता और हिंसा का रास्ता लेने की वृत्ति है। साम्यवादी मित्र विचार के लोगों की बातें सुनने से न केवल इंकार करते हैं अपितु उनका विरोध भी करते हैं।.....”
वैद्यजी का यह बयान गलत और हास्यास्पद है। वे मानते हैं कि संघी विचार को छोड़ कर सारे विचारों का ‘कुल’ और ‘मूल’ साम्यवाद से प्रभावित है, क्योंकि देश में कोई अन्य कोई वैचारिक दल उनके विचार से सहमत नहीं दिखता। ऐसे में वैद्यजी को अपने विश्वासों पर पुनर्विचार करना चाहिए। विचारों का मूल्यांकन उनकी मनुष्यता के प्रति उपयोगिता से किया जायेगा या उनके उद्गम के राजनीतिक भूगोल से किया जायेगा। अगर वैद्यजी साम्यवादी विचारों के दिग्दिगंत प्रसार के आतंक में वेदों को न भूल गये हों तो उन्हें याद कराना जरूरी है कि ऋगवेद का एक सूत्र कहता है-
‘आ नो भद्राः क्रतवो यंतु विश्वतः’ अर्थात अच्छे विचार विश्व से सभी ओर से आना चाहिए।
जब वैद्य और उनके प्रचारक निशि दिन यह कहते हुए नहीं थकते हैं कि साम्यवादी विचारधारा सारी दुनिया से समाप्त हो गयी है तो फिर उस कथित मृत विचारधारा का इतना आतंक क्यों कि हर विचार में उसी का कुल और मूल देख रहे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि उस विचारधारा का भूत महसूस कर उससे डरते हुए कह रहे हैं कि नहीं है, कोई नहीं है और जरा सी सरसराहट होते ही चीख पढते हैं। राजस्थान के सीकर में किसानों का सप्ताह भर चला बन्द हो या महाराष्ट्र में पचास हजार किसानों का लांग मार्च हो ये इस विचारधारा कि मृत बताने वालों को डराते तो होंगे।
 उक्त लेख में वे एक गलत बात स्थापित करने की कोशिश कर रहे हैं कि साम्यवादी लोग विचारों के आदान प्रदान में विश्वास नहीं करते जबकि यह बात खुद उनके संगठन पर लागू होती है। विचारों के आदान प्रदान के मंचों पर सबसे अधिक सक्रिय रूप से भाग लेने वालों में वामपंथी ही रहे हैं। उन्होंने सबसे अधिक सभाओं, सेमिनारों में भाग लिया है, लेख और पुस्तकें लिखी हैं, वे शिक्षा जगत में सक्रिय हैं, साहित्यकारों, और कला के क्षेत्रों में वे सबसे अधिक हैं, संसद में सबसे समझदार, जिम्मेवार और भागीदारी करने वाले सांसद विधायक वामपंथी ही हैं, विभागों की समितियों में उनके सांसद ही सबसे समझदारी वाली सलाहें देते हैं व विषय की जानकारी के साथ आते हैं। उनकी उपस्थिति सर्वाधिक होती है। वे बहसों से इसलिए नहीं भागते क्योंकि उनके अन्दर कोई अपराध बोध नहीं होता जबकि वैद्य जी के संगठन षड़यंत्रों और असत्यों की राजनीति करते हैं व पोल खुल जाने के डर से  बहसों से बचते हैं।  
क्या बहसों की जगह वही हो सकती है जिसे संघी तय करें, जहाँ अज्ञानी, कुशिक्षित, और कुतर्की लोग बाँहें चढाते हुए बैठे हुए हों, और उनकी हाँ में हाँ मिलाने वाली प्रायोजित भीड़ पहले से जोड़ कर रखी गयी हो। जहाँ पर भी स्वस्थ बहस के साथ ज्ञान के आदान प्रदान के अवसर होंगे वहाँ वैज्ञानिक विचारधारा में भरोसा करने वाला बेदाग व्यक्ति कभी संकोच नहीं करेगा। आम तौर पर जब गाँव कस्बों में लड़ाई होती है तो एक गाली दी जाती है कि हम तुम्हारे बाप को भी जानते हैं, जिसका इशारा उक्त लेख में भी वैद्यजी ने प्रणव मुखर्जी के संघ कार्यालय जाने पर विरोध करने वालों के लिए कुल और मूल का प्रयोग करते हुए किया है। इसी को अगर संघ की विचारधारा के लिए प्रयोग किया जाये तो वह हिटलर मुसोलिनी से जुड़ती है और गोएबिल्स का तरीका अपनाती है। अगर किसी के मानस और व्यवहार का पता हो तो उसके साथ निरर्थक बहस में समय बर्बाद करना ठीक बात नहीं यह बात वामपंथी समझते हैं। उसके साथ यह भी तय है कि वे किसी भी संवाद से बचने की कोशिश नहीं करते और न ही किसी को अछूत समझते हैं। ऐसा करने का कोई कारण भी नहीं है। अगर फिर वेद का उल्लेख किया जाये तो उसमें कहा गया है – वादे वादे जायते तत्व बोधः अर्थात बातचीत से ही तत्व ज्ञान प्राप्त होता है/ हो सकता है। वैज्ञानिक विचारधारा ज्ञान का सदैव स्वागत करती है।
बहरहाल संघ कार्यालय में जाने का प्रणव मुखर्जी का कदम जितना खतरनाक था, उतना ही गलत उनका विरोध करना था और विरोध करने वाले गैर जिम्मेवार काँग्रेसियों के आचरण के नाम पर वामपंथ के विरोध का अवसर तलाशना भी उतना ही गलत है।
भारत में वामपंथ पर हिंसक होने के आरोप लगाये जाते रहे हैं किंतु लोकतांत्रिक ढंग से काम करने वाले वामपंथ ने कभी राजनीति के लिए प्रत्यक्ष या परोक्ष हिंसा का सहारा नहीं लिया। इसके उलट वे ही सबसे अधिक हिंसा का शिकार हुये हैं। हथियारों के प्रशिक्षण की शाखाएं कौन लगाता है। देवताओं के सद्गुणों को छोड़ कर उनके हथियारों को प्रतीक कौन बनाता है! भाजपा परिवार जिस तरह अफवाह फैला कर साम्प्रदायिकता फैलाती है, उससे जनित हिंसा किसके हिस्से में आयेगी। रथयात्रा के द्वारा दंगे किसने करवाये! 1984 में सिखों के खिलाफ हिंसा हो, गुजरात की हिंसा हो, बाबरी मस्जिद टूटने के बाद भड़के मुम्बई के दंगे हों, भाषा के दंगे हों, क्षेत्र के दंगे हों, ममता बनर्जी के तृणमूल काँग्रेस के लोगों द्वारा की गयी हिंसक कार्यवाही हो इनमें वामपंथ कभी शामिल नहीं रहा। यदा कदा हिंसा से पीड़ित वामपंथी परिवार के सदस्य  प्रतिक्रिया में या आवेश में  हिंसा में लिप्त हो जाते हों तो उस इक्की दुक्की घटना को सोची समझी राजनीतिक हिंसा नहीं कहा जा सकता। यद्यपि उनके विचार का समर्थन नहीं किया जा सकता, पर, हिंसा का आरोप झेलने वाले नक्सलवादी मानते हैं कि वे वर्ग युद्ध लड़ रहे हैं इसलिए वे उन पर हमला करने वाले सशस्त्र बलों पर या मुखबिरों पर हिंसा का प्रयोग करते हैं, क्योंकि उनका मानना रहता है कि अगर उन्होंने पहले हमला नहीं किया तो वे खुद हिंसा का शिकार हो जायेंगे। वे अपनी हिंसा को रक्षात्मक बताते हुए कहते हैं कि उन्होंने लक्ष्य बना कर कभी किसी निर्दोष नागरिक को नहीं मारा।
वैद्य जी को चाहिए कि वे निष्पक्ष वैचारिक आदान प्रदान के मंचों पर वामपंथियों को आमंत्रित करें और खुद भी प्रतिनिधित्व करें।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
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