बुधवार, नवंबर 21, 2018

फिल्म समीक्षा संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो


फिल्म समीक्षा
संक्रमण काल में सामाजिक अवधारणाओं की चुनौतियां पर मनोरंजक फिल्म – बधाई हो
वीरेन्द्र जैन

बधाई हो के लिए इमेज परिणाम
टीवी इंटरनैट के आने से पहले कालेज के दिनों में जब अंग्रेजी फिल्में देखने का फैशन चलन में था, तब तीन घंटे की फिल्म के अभ्यस्त हम लोगों को दो घंटे की फिल्म देख कर कुछ कमी सी महसूस होती थी, पर अब नहीं लगता क्योंकि बहुत सारी हिन्दी फिल्में भी तीन घंटे से घट कर दो सवा दो घंटे में खत्म हो जाती हैं। पहले फिल्में उपन्यासों पर बना करती थीं अब कहानियों या घटनाओं पर बनती हैं और उनमें कई कथाओं का गुम्फन नहीं होता। पिछले कुछ दिनों से इसी समय सीमा में किसी विषय विशेष पर केन्द्रित उद्देश्यपरक फिल्में बनने लगी हैं। कुशल निर्देशक उस एक घटनापरक फिल्म में भी बहुत सारे आयामों को छू लेता है। अमित रवीन्द्रनाथ शर्मा के निर्देशन में बनी ‘बधाई हो’ इसी श्र्ंखला की एक और अच्छी फिल्म है।
       यौन सम्बन्धों के मामले में हम बहुत दोहरे चरित्र के समाज में रह रहे हैं। वैसे तो सुरक्षा की दृष्टि से सभी गैर पालतू प्रमुख जानवर यौन सम्बन्धों के समय एकांत पसन्द करते हैं और सारी दुनिया की मनुष्य जाति में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है पर हमारी संस्कृति में ब्रम्हचर्य को इतना अधिक महत्व दिया गया है कि पति पत्नी के बीच के यौन सम्बन्धों को स्वीकारने में भी पाप बोध की झलक मिलती है। भले ही विवाह के बाद पूरा परिवार शिशु की प्रतीक्षा करने लगता है, दूधों नहाओ पूतों फलो के आशीर्वाद दिये जाते रहे हैं जिसके के लिए यौन सम्बन्धों से होकर गुजरना होता है, किंतु उसकी समस्याओं पर सार्वजनिक चर्चा नहीं की जा सकती। पैडमैन फिल्म बताती है कि यौन से सम्बन्धित सुरक्षा सामग्री भी अश्लीलता समझी जाती रही है। प्रौढ उम्र में गर्भधारण इसी करण समाज में उपहास का आधार बनता है भले ही यौन सम्बन्धों की उम्र दैहिक स्वास्थ के अनुसार दूर तक जाती हो।
यह संक्रमण काल है और हम धीरे धीरे एक युग से दूसरे युग में प्रवेश कर रहे हैं। यह संक्रमण काल देश की सभ्यता, नैतिकिता, और अर्थ व्यवस्था में भी चल रहा है। हमारा समाज आधा तीतर आधा बटेर की स्थिति में चल रहा है। फिल्म का कथानक इसी काल की विसंगतियों से जन्म लेता है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश का मूल निवासी कथा नायक [गजराव राव] रेलवे विभाग में टीसी या गार्ड जैसी नौकरी करता है, व दिल्ली की मध्यम वर्गीय कालोनी में रहता है, जहाँ पुरानी कार सड़क पर ही पार्क करना पड़ती है। दिल्ली में बढे हुये उसके लगभग 20 और 16 वर्ष के दो बेटे हैं। उसकी माँ [सुरेखा सीकरी] भी उसी छोटे से फ्लेट में उसके साथ रहती है और कमरे की सिटकनी बन्द करने की आवाज तक महसूस कर लेती है। वह परम्परागत सास की तरह बहू [नीना गुप्ता] को ताना मारते रहने में खुश रहती है। कविता लिखने का शौकीन भला भोला मितव्ययी कथा नायक भावुक क्षणों में भूल कर जाता है और लम्बे अंतराल के बाद उसकी पत्नी फिर गर्भवती हो जाती है जिसका बहुत समय बीतने के बाद पता लगता है। वह गर्भपात के लिए सहमत नहीं होती।
उसका बड़ा बेटा [आयुष्मान खुराना] भी किसी कार्पोरेट आफिस में काम करता है व उसका प्रेम सम्बन्ध अपने साथ काम करने वाली एक लड़की [सान्या मल्होत्रा] से चल रहा होता है। लड़के के परिवार के विपरीत माँ [शीबा चड्ढा ] के संरक्षण में पली बड़ी पिता विहीन लड़की अपेक्षाकृत सम्पन्न मध्यमवर्गीय परिवार से है व उनके रहन सहन में अंतर है। लड़की की माँ आधुनिक विचारों की है तदानुसार लड़की अपना मित्र व जीवन साथी चुनने के लिए स्वतंत्र है। वे साझे वाहन से कार्यालय जाते हैं, और अवसर मिलने पर दैहिक सम्बन्ध बना लेने को भी अनैतिक नहीं मानते।
लड़के की माँ के गर्भधारण के साथ ही उसके परिवार में व्याप्त हो चुका अपराधबोध सबको गिरफ्त में ले लेता है। पड़ोसियों की मुस्कराती निगाह और तानों में सब उपहास के पात्र बनते हैं और इसी को छुपाने के क्रम में लड़का और लड़की के बीच तनाव व्याप्त हो जाता है जो दोनों के बीच एकांत मिलन का अवसर मिलने के बाद तब टूटता है जब वह लड़का अपनी चिंताओं के कारण को स्पष्ट करता है। लड़की के लिए यह हँसने की बात है किंतु लड़के के लिए यह शर्म की बात है।
जब लड़की अपनी माँ को सच बताती है तो माँ अपनी व्यवहारिक दृष्टि से सोचते हुए कहती है कि रिटायरमेंट के करीब आ चुके लड़के के पिता की नई संतान का बोझ अंततः उसे ही उठाना पड़ेगा। लड़का यह बात सुन लेता है और गुस्से में उन्हें कठोर बातें सुना देता है, जिससे आहत लड़की से उसका मनमुटाव हो जाता है। इसी बीच लड़के की बुआ के घर में शादी आ जाती है जिसमें शर्मिन्दगी के मारे दोनों लड़के जाने से मना कर देते हैं। उनके माँ बाप और दादी जब वहाँ जाते हैं तो सारे मेहमान भी उन्हीं की तरफ उपहास की दृष्टि से देखते हैं। यह बात दादी को अखर जाती है और वह गुस्से में अपनी बेटी और बड़ी बहू को लताड़ते हुए कहती है कि जिन संस्कारों को भूलने की बात कर रहे हो उनमें वृद्ध मां बाप की सेवा करना भी है जो कथा नायिका गर्भवती बहू को तो याद है पर उपहास करने वाले भूल गये हैं, जो कभी भूले भटके भी उससे मिलने नहीं आते। बीमार होने पर इसी बहू ने उनको बिस्तर पर शौच कर्म कराया है जब कि वे लोग देखने तक नहीं आये। वह विदा होती नातिन के यह कहने पर कि वह अमेरिका जाकर नानी को फोन करेगी, कहती है कि उसने मेरठ से दिल्ली तक तो फोन कभी किया नहीं अमेरिका से क्या करेगी। इसे सुन कर एक पुरानी फिल्म ‘खानदान’ में भाई-भाई के प्रेम के लिए रामायण को आदर्श बताने वाले नायक के आदर्श वाक्य का उत्तर देते हुए का प्राण द्वारा बोला गया वह डायलाग याद आता है, जब वह कहता है ‘ कौन सी रामायण पढी है तुमने? हमारी रामायण में तो यह लिखा हुआ है कि बाली को उसके सगे भाई सुग्रीव ने मरवा दिया और रावण को उसके सगे भाई सुग्रीव ने’।
अंग्रेजी में कहावत है कि मोरलिटी डिफर्स फ्रोम प्लेस टु प्लेस एंड एज टु एज। लगता है इसके साथ यह भी जोड़ लेना चहिए कि क्लास टु क्लास।     
            लड़के की माँ को जब पता लगता है कि उसके कारण उसका उसकी गर्ल फ्रेंड से मनमुटाव हो गया है तो वह लड़के को गोद भराई का कार्ड देने के बहाने भेजती है और लड़की की माँ से माफी मांगने की सलाह देती है। यही बात उनके मन का मैल दूर कर देती है। और एक घटनाक्रम के साथ फिल्म समाप्त होती है।
इस मौलिक कहानी को बुनने और रचने में पर्याप्त मेहनत की गयी है व पश्चिमी उत्तर प्रदेश की स्थानीयता और दिल्ली की आधुनिकता के बीच की विसंगतियों को सफलता से उकेरा गया है। पान की दुकान को युवा क्लब बनाये रखने, घर में अपनी बोली में बोलने, पड़ोसियों द्वारा ताक झांक करने व दूसरी ओर आधुनिक परिवार में माँ बेटी का एक साथ ड्रिंक करना पार्टियां देना आदि बहुत स्वाभाविक ढंग से व्यक्त हुआ है। सारी शूटिंग स्पाट पर की गयी है और डायलाग में व्यंग्य डाला गया है, जिसका एक उदाहरण है कि जब माँ के गर्भवती होने पर हँसती हुयी लड़की से नाराज लड़का कहता है कि अगर ऐसी ही स्थिति तुम्हारी माँ के साथ हुयी होती तो तुम्हें कैसा लगता। लड़की कहती है, तब तो बहुत बुरा लगता।.......... क्योंकि मेरे पिता नहीं हैं। चुस्त कहानी और पटकथा लेखन के लिए अक्षर घिल्डियाल, शांतुन श्रीवास्तव, और ज्योति कपूर बधाई के पात्र हैं। फिल्म की व्यावसायिक सफलता ऐसी फिल्मों को आगे प्रोत्साहित करेगी जो बदलते समय के समानांतर सामाजिक मूल्यों में बदलाव को मान्यता दिलाती हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


          

रविवार, अक्टूबर 21, 2018

कथित धार्मिक परम्पराओं में विभ्रमित मध्यम वर्ग


कथित धार्मिक परम्पराओं में विभ्रमित मध्यम वर्ग
वीरेन्द्र जैन

ईसा मसीह ने सूली पर चढते समय कहा था कि हे प्रभु इन्हें माफ कर देना ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं। आज जो कुछ भी धर्म संस्कृति के नाम पर हो रहा है वह ऐसा ही है। एक ऐसी अन्धी भेड़ चाल में मध्यम वर्ग भागा जा रहा है कि उसे होश ही नहीं है कि वह क्या कर रहा है। रावण को जलते हुए देखने को वह धर्म समझ रहा है और दुर्घटनाओं में मर जाने तक में वह दूसरों की भूल तलाशता है और अपनी भूल पर पश्चाताप नहीं करता।  
केवल एक अमृतसर में रावण दहन के दौरान घटी घटना ही अकेली दुर्घटना नहीं है अपितु प्रति वर्ष हजारों लोग किसी विशेष दिन पर किसी विशेष धर्मस्थल में पहुँचने में न केवल सड़क दुर्घटनाओं के शिकार हो जाते हैं अपितु भीड़ की भगदड़ में कुचल कर मर जाते हैं। वे जल्दी जल्दी कथित धर्मलाभ लेने के चक्कर में इतने स्वार्थी और अमानवीय हो जाते हैं कि भगदड़ में कोई व्यक्ति एक बार गिर जाता है तो वह दुबारा उठ ही नहीं पाता अपितु सैकड़ों लोग उसे कुचलते हुए आगे बढते जाते हैं। वे नहीं जानते कि ऐसी अमानवीयता धर्म की मूल भावना के ही खिलाफ है। किसी दर्शन पूजा से पुण्य लाभ का सन्देश देने वाले धर्म ने ही मानवीयता के सन्देश भी दिये हैं।
सभी धर्मों में उपवास के लिए कहा गया है और उसका प्रमुख उद्देश्य जीवन में अनुशासन लाना व इन्द्रियों की दासता से मुक्त होना होता है। किंतु पहले धर्मस्थल तक पहुँचने की कोशिश में वे सारे अनुशासन भूल जाते हैं। वे केवल दूसरे की देखादेखी किसी दिन विशेष को पहुंच कर वह सब कुछ करना चाहते हैं जिसे उनके वर्ग के दूसरे लोग करते आ रहे हैं और वे उससे पीछे नहीं रहना चाहते। किसी समय संतोषी माता का व्रत शुक्रवार को करने वाली लाखों महिलाओं ने एक दूसरे की नकल में यह किया था पर आज कोई व्रत करता नजर नहीं आता। उन्हें याद ही नहीं कि वे कब क्या और क्यों कर रहे थे। उच्च मध्यम वर्ग की नकल में निम्न मध्यम वर्ग भी जानवरों की तरह रेल के डिब्बों में ठुंसे हुये, भूखे प्यासे, जागे, या अधसोये गन्दा पानी और बासा भोजन खाते हुए वहाँ तक पहुँचते हैं और वैसी ही अवस्था में वापिस लौटते हैं। वे कभी इस बात का परीक्षण नहीं करते कि इससे उन्हें क्या हासिल हुआ है। पिछले दिनों विकसित उच्च मध्यम वर्ग के पास निजी वाहनों की संख्या भी बड़ी है किंतु मार्गों का विकास व सुधार उस अनुपात में नहीं हुआ है, जिसका परिणाम यह हुआ कि खराब मार्गों पर एक साथ अत्यधिक वाहनों के बीच होने वाली जल्दी पहुँचने की प्रतियोगिता में पचासों दुर्घटनाएं घटती हैं जिनमें न केवल सैकड़ों लोग मरते हैं अपितु हजारों जीवन भर के लिए विकलांग हो जाते हैं जो फिर भी यह मानते हैं कि देवता की कृपा से वे जीवित बच गये। मन्दिर बनवाने के लिए एक दिन में ही लाखों करोड़ों जोड़ लेने वाला समाज धर्मस्थल तक की सड़क बनवाने के लिए कुछ नहीं करता।  
किसी उद्देश्य विशेष के लिए झांकियों को किसने कब शुरू किया था यह अधिकांश लोग नहीं जानते व उनके वर्तमान स्वरूप को ही वे सदियों पुराना परम्परागत धार्मिक कार्य समझते हैं और उसमें आने वाले किसी भी व्यवधान के विरुद्ध जान देने की हद तक उत्तेजित हो सकते हैं। वे इनके लिए न केवल दूसरे धर्म वालों से उलझ सकते हैं अपितु अपने धर्म के दूसरे झांकी वालों से भी टकरा सकते हैं। विज्ञान की नई से नई उपलब्धि को भी वे अपनी परम्परा में समाहित मान लेते हैं और उसके लिए लड़ मर जाते हैं। झांकियों में लाउडस्पीकर, डीजे, बुरी फिल्मी धुनों पर रिकार्डिड भजन, रंगीन लाइटें, बड़े बड़े पंडालों में प्लास्टर आफ पेरिस की विशालकाय मूर्तियां और उनकी मँहगी सजावट के स्तेमाल को शुरू हुए बहुत दिन नहीं हुये किंतु उनकी रक्षा, धर्म की रक्षा की तरह की जाने लगी है। कागज का रावण जलाने और उसमें बारूद के पटाखों के स्तेमाल सहित आतिशबाजी को भी सैकड़ों साल नहीं हुये किंतु उसको इतना जरूरी माना जाने लगा है जैसे यह पौराणिक काल से चला आ रहा हो। दीपावली का नाम ही दीपों की श्रंखला को जलाने के कारण ही पड़ा था किंतु अगर आज किसी शहर में दीवाली के दिन बिजली न आये तो शहर में विद्युत मंडल का कार्यालय तक फूंका जा सकता है। दूसरी ओर खील बताशों के त्योहार में चाकलेट और शराब की बिक्री अपने रिकार्ड तोड़ने लगी है, पर खील बताशे भी अपनी जगह यथावत हैं। विडम्बना यह है कि हम पुराने को छोड़े बिना नई नई चीजें अपनाते जा रहे हैं और जीवन को कबाड़ से भरते जा रहे हैं। मध्यम वर्ग की नकल निम्न मध्यम वर्ग करता है और वह उसमें अपनी अर्थ व्यवस्था को बिगाड़ लेता है। तीर्थयात्रा और पर्यटन का ऐसा घालमेल होता जा रहा है कि दोनों में से कोई भी ठीक तरह से नहीं हो पा रहा है। लोग अकारण मँहगे होते जा रहे पैट्रोल, डीजल, गैस आदि के बारे में एकजुट प्रतिरोध के बारे में सोचे बिना उनका स्तेमाल बढाते जा रहे हैं , एक स्तम्भकार ने सही लिखा है कि कम से कम झांकियों में तो समाज का सही चित्रण करते हुए गलत के प्रति अपना प्रतिरोध दर्शाया जा सकता है, पर उसमें वही पौराणिक दृश्य दिखाये जा रहे हैं।
आयोजन स्थलों पर स्वच्छता, वृक्षारोपण, जल के स्तेमाल की मितव्यता का कोई सन्देश नहीं दिया जाता इसे किसी भी भंडारे के बाद उस स्थल को देख कर समझा जा सकता है। धर्म के नाम पर होने वाले इन बेतरतीब तमाशों में अनुशासन हीन भीड़ के बढते जाने और व्यवस्थाओं के प्रति ध्यान न दिये जाने के कारण भविष्य में भी दुर्घटनाएं बढने ही वाली हैं। इन दुर्घटनाओं के लिए भले ही राजनीतिक दल इस या उस सरकार या नेता को दोष देकर अपना उल्लू साधने की कोशिश करें पर अगर समय से नहीं चेते तो जान से हाथ तो जनता ही धोयेगी।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, अक्टूबर 15, 2018

मी टू का प्रभाव दूरगामी है


मी टू का प्रभाव दूरगामी है
वीरेन्द्र जैन

जिस दिन मी टू आन्दोलन की खबर आयी थी मैं बहुत खुश था क्योंकि इससे मेरे ही एक विचार को बल मिला था। जब और लोग भी आपकी तरह सोचने लगते हैं तो आपको अपने विचार पर भरोसा बढता है।
       यौन अपराधों की संख्या रिपोर्ट होने वाले अपराधों की संख्या से कई कई गुना अधिक होती है क्योंकि इसमें पीड़िता न केवल शारीरिक मानसिक चोट ही भुगतती है अपितु बदनामी भी उसी के हिस्से में आती है। यह ऐसा अपराध होता है जिसमें अपराधी को तो पौरुषवान समझा जाता है और पीड़िता को चरित्रहीन समझा जाता है। ऐसे अपराध से जुड़े पुरुष के लिए रिश्तों की कमी नहीं रहती जबकि निर्दोष पीड़िता से शादी करने के लिए कोई सुयोग्य तैयार नहीं होता। खबर सुनने वालों से लेकर प्रकरण दर्ज होने तक पुलिस, डाक्टर, वकील और अदालत से जुड़े अनेक लोग किसी पोर्न कथा का मजा लेते हैं। घर में बैठ कर अखबार में खबर पढने वाले भी इन्हीं कारणों से अधिक रुचि लेकर पढते हैं। इस तरह की घटना से सम्बन्धित किसी विरोध जलूस में भी घर परिवार से जुड़ी लड़कियां या महिलाएं हिस्सा नहीं ले पातीं। बड़े शहरों में भी हास्टल में रहने वाली लड़कियां या एनजीओ व राजनीतिक दलों में काम करने वाली महिलाएं ही नजर आती हैं। अगर किसी को पता न चला हो तो पीड़िता और उसके माँ बाप भी दूरदृष्टि से बात को दबाने की कोशिश करते हैं। यह अपराध आर्थिक सामाजिक रूप से कमजोर महिलाओं के प्रति अधिक होते हैं जिसका मतलब एक ओर उनकी आवाज न उठा पाने की कमजोरी तो दूसरी ओर आवाज उठाने पर दूसरे सामाजिक नुकसान की आशंका में उनको चुप रहने को मजबूर होना होता है। यह कमजोरी इसलिए है कि प्रभावकारी संख्या में पीड़िताएं एकजुट नहीं हो पातीं। इस पृष्ठभूमि में मेरा सुझाव था कि किसी एक तय दिन को दुनिया की सेलीब्रिटीज समेत सारी महिलाएं एक साथ अपने साथ हुए शोषण या उसके प्रयास का खुलासा करें जिससे किसी को हीनता बोध महसूस न हो और महिलाओं की व्यापक एकजुटता बने। इसके लिए मैंने 14 फरबरी का दिन सुनिश्चित करने का सुझाव दिया था जो वेलंटाइन डे होने के कारण पूर्व से ही चर्चित और सम्वेदनशील दिन होता है। मेरे प्रस्ताव पर तो किसी का ध्यान नहीं गया था किंतु समानांतर रूप से प्रारम्भ हुये मी टू कैम्पैन की खबर मुझे अच्छी लगी थी।
हाल ही में हुए खुलासों में हमने देखा है कि सुशिक्षित और सक्रिय महिलाओं ने भी साहस जुटाने में कितने वर्ष लगा दिये। इसमें केवल सम्बन्धित व्यक्तियों का ही दोष नहीं है अपितु यह सामाजिक दोष है जिसे पूरे समाज को बदल कर ही ठीक किया जा सकता है। यदि हम सामूहिक खुलासे का एक दिन निश्चित करने में सफल होते हैं तो उस दिन पुरुषों को भी इस बात के लिए तैयार होना पड़ेगा कि वे अपने घर परिवार की महिलाओं द्वारा दबा दिये गये मामलों को सहानिभूति के साथ लेंगे और दोषी को क्षमा याचना या दण्ड तक पहुंचाने में सहयोगी बनेंगे। हमें अपनी उन पौराणिक कथाओं से जनित नैतिकिताओं का भी पुनर्मूल्यांकन करना होगा जिन कथाओं में पीड़ित महिलाओं को ही शपित या दण्डित होना पड़ा था। मी टू अभियान के बाद जितने बड़े पैमाने पर एक साथ खुलासे होंगे उसके बाद हमें यौन शुचिता के नये मापदण्ड बनाने होंगे। ह्रदय की पवित्रता और समर्पण को देह की पवित्रता से अधिक महत्व देने की मानसिकता का वातावरण बनाना होगा।
हम लोग सबसे अधिक दोहरे मापदण्डों वाले लोग होते हैं। इससे कुण्ठित रहते हुए सामाजिक फैसले करते हैं। सच तो यह है कि परिवार नियोजन से सम्बन्धित सामग्री की व्यापक उपलब्धता के बाद नारी गर्भ धारण की मजबूरी से मुक्त हुयी है जिससे स्त्री पुरुष के बेच की ज़ेंडर असमानता कम हुयी है। अब वह समान रूप से शिक्षित है और लगभग हर वह काम करने में सक्षम है जो पुरुषों के लिए ही सुरक्षित माने जाते थे, किंतु यौन अपराधों का भय उसे अकेले बाहर निकलने, देर से न लौटने आदि मामलों में कमजोर बनाता है। इसका परिणाम यह होता है कि लड़कियां पढती तो थीं किंतु अपनी पढाई के अनुरूप समाज को योगदान नहीं दे पाती हैं। जैसे ही यौन अपराधों के अपराधियों को दण्ड और सामाजिक अपमान मिलने लगेगा वैसे ही अपराधों में कमी आयेगी। महिलाओं की शिक्षा भी बढेगी, रोजगार बढेगा।
पिछले दिनों सुप्रीम कोर्ट से यौन सम्बन्धों से सम्बन्धित कुछ महत्वपूर्ण फैसले भी आये हैं। ये फैसले उच्च स्तर पर सामाजिक सम्बन्धों में परिवर्तन लाने वाले हैं। यह सही समय है जब यौन अपराधों में भी पीड़िता की लुकाछुपी द्वारा अपराधी को मदद मिलने का सिलसिला समाप्त हो। अपराधियों की मदद करने वाले लोग समय की सीमा का सवाल उठा रहे हैं जो अनुचित है। जब कोई महिला अब सवाल उठा रही है तो परिस्तिथियां अनुकूल होने पर तब भी उठा सकती थी, किंतु तब परिस्तिथियां अनुकूल नही थीं। पौराणिक कथाएं भी कुछ संकेत देती हैं, हमारे देश का नाम जिस भरत के नाम पर भारत पड़ा बताया जाता है उसकी माँ शकुंतला भी न्याय मांगने दुश्यंत के पास तब गयी थी जब भरत इतना बड़ा हो गया था कि शेर के बच्चों के साथ खेलते हुए उनके दांत गिनने लगा था। तब दुष्यंत ने समय की शिकायत नहीं की थी बस सबूत मांगा था।  
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
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बुधवार, अक्टूबर 10, 2018

बहुजन समाज पार्टी [मायावती] और राजनीति की विडम्बनाएं


बहुजन समाज पार्टी [मायावती] और राजनीति की विडम्बनाएं
वीरेन्द्र जैन

बहुजन समाज पार्टी के साथ कोष्ठक में मायावती लिखा होने के कारण यह सोचा जा सकता है जैसे यह एक अलग पार्टी है। ऐसा होते हुये भी नहीं है। यह पहेली नहीं एक सच्चाई है। एक बहुजन समाज पार्टी थी जिसे कांसीराम जी ने स्थापित किया था। उसकी विकास यात्रा बामसेफ, डीएसफोर से होती हुयी बहुजन समाज पार्टी नामक आन्दोलन तक गयी थी जिसने बाद में उस राजनीतिक दल का स्वरूप ग्रहण किया जिसे सत्ता में आने की कोई जल्दी नहीं थी और जो अपने सिद्धांतों से किसी तरह का समझौता नहीं करता था। अब ऐसा नहीं है, कांसीराम जी के निधन के बाद अब सुश्री मायावती के नेतृत्व में चल रही इस पार्टी के लक्ष्य और तौर तरीके बिल्कुल बदल गये हैं, इसलिए कहा जा सकता है यह एक नई बहुजन समाज पार्टी [मायावती] है। 
बहुजन समाज पार्टी उर्फ बीएसपी के गठन से पहले बामसेफ का गठन हुआ था। संविधान ने जब अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लोगों को आरक्षण दिया तो प्रारम्भ में तो समुचित संख्या में सरकारी नौकरी के लिए सुपात्र लोग ही नहीं मिले क्योंकि समुदाय में वांछित संख्या में शिक्षित लोग थे ही नहीं। आरक्षण के बाद भी कुछ वर्षों तक ये स्थान गैर आरक्षित लोगों से भरे जाते रहे, और कुछ मामलों में तो सुपात्रों को भी अपात्र बना दिया गया तब यह नियम बनाना पड़ा कि आरक्षित पदों में भरती गैर आरक्षित वर्ग से नहीं होगी, भले ही स्थान रिक्त रखे जायें। जो लोग आरक्षण के आधार पर सरकारी सेवाओं में आये थे उन्हें भी जात-पांत से ग्रस्त सहयोगी और अधिकारी वर्ग का एक हिस्सा स्वीकार नहीं कर रहा था। न उनके साथ समान रूप से उठना बैठना होता था और न ही सामाजिक व्यवहार होता था। कार्यस्थलों में उनकी सामान्य भूलों के प्रति भी उनकी जाति से जोड़ कर अपमान किया जाता था। ट्रेड यूनियनों तक के अनेक पदाधिकारी भी जाति की मानसिकता से मुक्त नहीं हो पाये थे या जातिवाद मानने वाले अपने बहुसंख्यक सदस्यों के साथ थे। यही कारण रहा कि अम्बेडकर के जीवन और विचारों से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी में आये लोगों ने अपना अलग घेरा बनाना शुरू कर दिया। कांसीराम भी ऐसे ही लोगों में से थे जिन्होंने बाद में घेरे को संगठन का रूप देकर इस वर्ग का नेतृत्व किया और इसी अलगाव की भावना को अपने संगठन की ताकत बनाया। यही सफर बामसेफ से डीएसफोर और बाद में बहुजन समाज पार्टी तक ले गया। बामसेफ कर्मचारी संगठन था तो डीएसफोर पिछड़ों व मुस्लिमों को मिला कर गैरसवर्ण लोगों की व्यापक एकता का मंच था जो बाद में बहुजन समाज पार्टी की ओर गया।
चुनावी पार्टी बनते ही इस भावनात्मक आन्दोलन को दूसरी जातियों के सहयोग और संसाधनों की जरूरत पड़ी जो नौकरीपेशा आरक्षित वर्ग द्वारा की जा रही सहायता से सम्भव नहीं था इसलिए उन्होंने अपने दल को विस्तार दिया, भले ही दलितों और पिछड़ों में भी एकता सहज नहीं थी। प्रारम्भ में तो जातिवादी भावना के कारण उक्त वर्ग साथ में नहीं आया किंतु दलित वर्ग की एकजुटता से अर्जित शक्ति को हथियाने के लिए उन्होंने कुछ राजनीतिक समझौते किये। कांसीराम जी ने अपने लोगों की सामूहिक वोटशक्ति को पहचान कर उसे ही संसाधन जुटाने का माध्यम भी बनाया। उनका फार्मूला बना कि जहाँ वे अपने वर्ग के प्रतिनिधियों को चुनाव जिता सकते हैं वहाँ तो किसी से कोई समझौता नहीं करेंगे किंतु जहाँ नहीं जिता पा रहे हैं वहाँ अपनी वोटशक्ति को ट्रांसफर करके संसाधन जुटाने के लिए स्तेमाल करेंगे। उन्होंने दलित वर्ग को जाति स्वाभिमान की लड़ाई के लिए हर तरह का बलिदान देने के लिए तैयार कर लिया था।  
इसी के समानांतर जनता पार्टी से बाहर की गयी जनसंघ ने भाजपा का गठन किया। इस दल के पास देश भर में विस्तारित संघ का एक ढांचा तो था किंतु वह इतना सीमित था कि अपनी दम पर चुनाव नहीं जिता सकता था। उनको सवर्ण समाज और व्यापारी वर्ग की सहानिभूति तो प्राप्त थी किंतु जीतने के लिए कुछ अतिरिक्त सहयोग की जरूरत थी। कांसीराम ने जिन दलित वर्ग के मतों को कांग्रेस के बंधुआ होने से मुक्त करा लिया था वे उनकी पूंजी बन गये थे, और पिछड़े वर्ग की समाजवादी पार्टी से समझौता फेल हो गया था। सत्ता के लिए किसी भी स्तर पर सौदा करने को तैयार भाजपा ने अतिरिक्त मतों का सौदा बहुजन समाज पार्टी से करना तय किया और कभी गठबन्धन के नाम पर तो कभी उनके सदस्यों से दलबदल करा के सत्ता पर अपनी पकड़ मजबूत करती गयी। कांसीराम के अस्वस्थ होते ही पूरी ताकत मायावती के हाथों में आ गयी जिन्होंने उनका संघर्ष नहीं देखा था पर राजनीतिक सौदेबाजी जरूर देखी थी, इसलिए उन्होंने दो काम किये, एक तो जाति स्वाभिमान के नाम पर अपने वोटों के बड़े हिस्से को सुरक्षित रखा, दूसरे इसी नाम पर उन वोटों को उचित सौदे के साथ स्थानांतरित करने की ताकत बनाये रखी।
दलितों का अन्धसमर्थन पाकर, बहुजन समाज पार्टी में पार्टी लोकतंत्र कभी नहीं रहा। कांसीराम कहते थे कि हमारी पार्टी के पास कोई आफिस नहीं है, कोई फाइल नहीं है, कोई हिसाब किताब नहीं है, कोई चुनाव नहीं होते। वे जिस कमरे में पार्टी की बैठक करते थे उसमें केवल एक कुर्सी होती थी और बाकी सब को नीचे बैठना पड़ता था। वे सूचनाएं प्राप्त करते थे किंतु किसी से सलाह नहीं करते थे। उनकी पार्टी में उनके कद का कोई नहीं था। जो उनके पास आता था उसे कद घटा कर आना पड़ता था। यही कारण रहा कि मायावती के आने के बाद लोगों ने झुका हुआ सिर उठाना शुरू कर दिया। जो लोग विभिन्न पदों पर रह कर सम्मान व सत्तासुख प्राप्त कर  चुके थे वे उनके आगे कांसीराम युग की तरह झुकने को तैयार नहीं हुये और पार्टी छोड़ते चले गये। उनमें से अनेक तो अपने साथ बिना हिसाब किताब वाली पार्टी द्वारा अर्जित संसाधनों को भी साथ लेते गये।
अब मायावती अपने शेष बचे समर्थन की दुकान चला रही हैं। वे 2009 में 6.17% वोटों के साथ 21 सीटें जीतने के बाद अब 4.19 प्रतिशत वोट और शून्य सीटों तक आ चुकी हैं। उनके अपने वर्ग का समर्थन घट कर भी बहुत बचा हुआ है और मत प्रतिशत में वे अब भी तीसरी सबसे बड़ी पार्टी हैं। उनके घटते समर्थन को देखते हुए आगामी आम चुनावों में देखना होगा कि महात्वाकांक्षी और सुविधाभोगी होती जा रही दूसरी पंक्ति कब तक उनके अनुशासन में रह पाती है।
मायावती ने राजनीतिक सौदों से जो संसाधन जोड़े वे पार्टी के नाम से नहीं अपितु निजी या रिश्तेदारों के नाम पर रखे। उन पर आय से अधिक सम्पत्ति के प्रकरण सीबीआई में चल रहे हैं और केन्द्र में शासित दल उस आधार पर दबाव बनाते रहते हैं। गत लोकसभा चुनाव में जब कोई भी सीट नहीं जीत सकी थीं, तब समाचार पत्रों में कहा गया था कि हाथी [चुनाव चिन्ह] ने अंडा [शून्य] दिया है । देश के दूसरे दलित दल व नेता उनके बड़े आलोचक हैं। आश्चर्य की बात तो यह है कि दलित और कमजोर वर्ग के पक्ष में बिना कोई उल्लेखनीय कार्य किये, बिना कोई आन्दोलन चलाये वे केवल जाति स्वाभिमान के नाम पर कैसे अपना समर्थन बचाये हुये हैं और उसका भी सौदा करने में समर्थकों की कोई सलाह नहीं लेतीं। उनके इकलौते सबसे बड़े सलाहकार उस ब्राम्हण वर्ग से हैं जिससे नफरत को बनाये रखना उनकी पार्टी का मूलाधार रहा है। राज्यसभा के टिकिट का सौदा करने में भी वे जातिवाद नहीं देखतीं। आगामी पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों में फैसला लेते समय उन्होंने न अपने वर्ग का हित सोचा है न देश का हित सोचा है। देश के प्रमुख दलों ने भी उनके समर्थकों से सम्वाद करने के कभी प्रयास नहीं किये।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629


     
       

रविवार, अक्टूबर 07, 2018

पुस्तक विमर्श – यादों का कारवाँ [रुस्तम सैटिन स्मृति अंक]


पुस्तक विमर्श – यादों का कारवाँ [रुस्तम सैटिन स्मृति अंक]
वीरेन्द्र जैन

पिछले दिनों एक संयोग घटित हुआ।
जनसत्ता में महामना मदन मोहन मालवीय के पौत्र श्री लक्ष्मीधर मालवीय संस्मरण लिख रहे थे। उनमें से एक संस्मरण में उन्होंने रुस्तम सैटिन की चर्चा की जिनके छात्र जीवन में किये जा रहे स्वतंत्रता आन्दोलनों से प्रभावित होकर मालवीय जी ने स्वयं उन्हें बीएचयू में लाने और पढाई जारी रखने के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था की थी। यह व्यवस्था उनके यह कहने के बाद भी की थी कि वे कम्युनिष्ट हैं। बाद में कामरेड रुस्तम सैटिन बनारस से विधायक भी चुने गये थे और चरण सिंह के नेतृत्व में बनी पहली संविद सरकार में पुलिस विभाग के उपमंत्री रहे थे।
इस लेख के साथ रुस्तम सैटिन जी का चित्र भी प्रकाशित हुआ था जिसे देख कर मुझे अपने पिता [श्री लक्ष्मी चन्द्र जैन] की कही बातें याद आयीं जो उनके साथ ही मैकडोनेल्ड हाई स्कूल झाँसी में पढते थे व उनके ही नेतृत्व में स्काउट के रूप में काम करते हुए राष्ट्रीय आन्दोलन में सहयोगी हुए थे। शायद उन्हीं से उन्होंने वामपंथी रुझान ग्रहण किया था। इसी रुझान के कारण उन्होंने उस समय चन्द्र शेखर आज़ाद के ग्रुप में सम्मलित होने का प्रयास किया था किंतु एक दुर्घटना में बचपन से ही उनका सिर हिलने के कारण उन्हें शामिल नहीं किया गया था क्योंकि भूमिगत आन्दोलन में उससे पहचान का खतरा था। बाद में वे उनके आउटर सर्किट में सहयोगी रहे थे व ललितपुर में नगरपालिका की नाकेदारी करके सूचना केन्द्र स्थापित किया था। आज़ाद जब खनियाधाना के जंगलों में बम बनाते थे तब सूचना और सामग्री पहुँचाने का केन्द्र यही नाका भी हुआ करता था। पिताजी से कामरेड रुस्तम सैटिन का नाम कई बार सुना था। जब वे चरण सिंह के मंत्रिमण्डल में मंत्री बने थे तब पिताजी बहुत खुश हुये थे। उनकी वह खुशी तब से मेरी स्मृतियों में दर्ज होकर रह गयी थी।  
जनसत्ता से फोटो लेकर अपने पिताजी के फोटो के साथ फेसबुक पर पोस्ट कर के मुझे आत्मीय खुशी मिली थी। यह बात आयी गयी हो गयी थी किंतु फेसबुक पिछले वर्षों की घटनाओं को फिर से याद दिलाया करता है सो इस वर्ष [2018] जब उसने उस पोस्ट की याद दिलायी तो मैंने उसे फिर शेयर कर दिया। संयोग यह हुआ कि इस पोस्ट को देख कर मेरी एक फेसबुक मित्र श्रीमती स्मिता तिवारी ने लाइक करते हुए लिखा कि कामरेड सैटिन उनके पिता के भी मित्र थे और उनके पुत्र श्री राजीव सैटिन उनके साथ ही बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी में पढते थे। दुर्भाग्य से राजीव तो अब नहीं हैं किंतु उनकी जीवन संगिनी श्रीमती रविन्दर सैटिन भी उनकी मित्र हैं।
उनकी इस टिप्पणी को श्रीमती रविन्दिर सैटिन ने लाइक किया और इस पोस्ट के माध्यम से वे भी मेरी फेसबुक मित्र बन गयीं। पिताजी के छात्र जीवन व उनके सामाजिक कार्यों के बारे में मैं और अधिक जानना चाहता था क्योंकि इस विषय पर उनसे अधिक संवाद नहीं हुआ था, पर मेरी सबसे बड़ी बहिन ने जरूर कभी कभी कुछ बताया था। इस जिज्ञासा में श्रीमती रविन्द्र सैटिन से अपने पिता के साथ रुस्तम जी के सम्बन्धों की चर्चा करते हुए उनके जीवन से सम्बन्धित किसी पुस्तक की उपलब्धता के बारे में जानना चाहा। उत्तर में मुझे 2001 में प्रकाशित उक्त पुस्तक प्राप्त हुयी, जो कामरेड सैटिन के जीवन के बारे में सम्भवतः इकलौती पुस्तकाकार सामग्री है। कामरेड सैटिन की पीढी ने अपने बारे में कम से कम सोचते हुए निरंतर समाज के लिए काम किया। उनके जीवन संघर्ष को देखते हुए लगता है कि अगर इतना काम आज के किसी नेता ने किया होता तो वह और उसके समर्थक लगातार अतिरंजित गाथाएं बखानते रहते।
उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद प्रकाशित यह स्मृति ग्रंथ कामरेड सैटिन के जीवन से सम्बन्धित उपलब्ध सामग्री का ग्रंथन भर है जिसमें उन्होंने अपने अंतिम दिनों में अस्वस्थता की दशा में स्मृति अनुसार बोल बोल कर कुछ लिखवाया था। यह पुस्तक परम्परानुसार सजग होकर लिखवायी जीवनी जैसी नहीं है इसलिए इसमें बनावट नहीं है और सब जैसे का तैसा कहा गया है। स्मृतियों के अलावा इसमें उनकी राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में लिखी गयी छन्द कविताएं हैं जो ऎतिहासिक महत्व रखती हैं। उल्लेखनीय है डा. शिवमंगल सिंह सुमन बनारस में उनके सहपाठी ही नहीं आन्दोलन के साथी भी थे जिन्होंने रेलवे के कुलियों की हड़ताल से लेकर अनेक मजदूर आन्दोलनों में भी कन्धे से कन्धा मिला कर उनका साथ दिया था। कामरेड सैटिन के निधन के बाद विभिन्न समाचार पत्र पत्रिकाओं में उन पर जो सामग्री प्रकाशित हुयी उसमें से भी जो उपलब्ध हो सकी उसे भी जैसे का तैसा संकलित किया गया है। पूरी पुस्तक में 360 पृष्ठ हैं। एक कम्युनिष्ट की तरह उन्होंने अपने जीवन के बारे में बताते हुए अपने ऎतिहासिक आन्दोलनों का श्रेय स्मृति में रहे अपने सैकड़ों आन्दोलनकारी साथियों को देते हुए उन्हें याद किया है और पुस्तक के 27 पृष्ठों में उनकी चर्चा है।
कामरेड रुस्तम, जिनका जन्म 1910 में कराची के एक पारसी परिवार में हुआ था, का जीवन निरंतर उतार चढाव भरी घटनाओं से भरा रहा है और हमारे स्वतंत्रता आन्दोलन के प्रमुख वर्ष उनके जीवन में समाये हुये हैं। उनका जीवन भी स्वतंत्रता आन्दोलन और स्वतंत्रता के बाद कम्युनिष्ट आन्दोलन में समाया हुआ है। वे अपने सीमित संसाधनों के साथ आजीवन अनथक संघर्षरत रहे। उन्होंने न केवल समाज सुधार, शिक्षा, स्वतंत्रता संग्राम, मजदूर किसान आन्दोलनों में ही हिस्सेदारी की अपितु चुनावी राजनीति में भी शामिल रहे। 1952 के पहले आमचुनाव से लेकर चौथे आमचुनाव तक वे कम्युनिष्ट पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। अपने पहले आम चुनाव में उन्होंने तत्कालीन मुख्यमंत्री सम्पूर्णानन्द को लगभग हरा ही दिया था अगर परिणाम बदलने के लिए नौकरशाही ने अस्वस्थ तरीके न अपनाये होते। उन दिनों चुनाव प्रणाली अपनी प्रारम्भिक अवस्था में थी और उम्मीदवार के अनुसार मतपेटियां हुआ करती थीं। मुख्यमंत्री जैसे सरकार के सबसे प्रमुख व्यक्ति के लिए नौकरशाही कुछ भी कर सकती थी।
जलियांवाला कांड के समय अमृतसर में ही प्राथमिक कक्षा के छात्र होने के कारण उन्होंने नौ साल की उम्र में जो प्रभाव ग्रहण किया उसने उन्हें अंग्रेजों से नफरत और उन्हें हटाने के लिए लगातार संघर्ष की राह पर चला दिया था। व्यापारी पिता के व्यापार में उतार चढाव, कम उम्र में माँ का निधन आदि घटनाओं ने उन्हें बार बार स्थान बदलने व विभिन्न आश्रयों में रहने को विवश किया। उनकी अच्छी वक्तव्य कला को बचपन में ही जो पहचान. प्रोत्साहन और सराहना मिली उसने उनकी सम्वाद क्षमता को कई गुना बढा दिया था व उन्हें एक अच्छे संगठनकर्ता की भूमिका दे दी थी। आज अनुमान लगाया जा सकता है कि कैसे उन्होंने मैकडोनेल्ड हाई स्कूल झाँसी में पढते हुए स्काउटों का ग्रुप बना लिया होगा और उसके ग्रुप लीडर बन गये होंगे। इसी ग्रुप ने काँग्रेस अधिवेशन में स्वयंसेवकों के रूप में काम किया था।
उन दिनों 1857 की क्रांति को साठ सत्तर साल ही हुए थे। झांसी में अंग्रेजों की छावनी हुआ करती थी। यद्यपि इस पुस्तक में उसकी चर्चा नहीं है किंतु उस समय उस हाईस्कूल के जो प्रिंसिपल विपिन बिहारी बनर्जी हुआ करते थे. उनके दादा या परदादा वकील थे। कहा जाता है कि उनको महारानी लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों से अपना केस लड़ने के लिए बुलवाया और बसाया था। यह बात कम ही याद की गयी है कि अंग्रेजों के खिलाफ बगावत करने से पहले लक्ष्मीबाई ने चार साल तक अदालती लड़ाई लड़ी थी। प्रिंसिपल बनर्जी जी प्रगतिशील और अंग्रेज विरोधी ही रहे होंगे इसीलिए उनके कार्यकाल में पढे जो लोग निकले उनमें से कई नाम तो विभिन्न क्षेत्रों के इतिहास में रेखांकित हुये हैं, उनमें कामरेड रमेश सिंहा, सुप्रसिद्ध आलोचक डा. रामविलास शर्मा, हाकी खिलाड़ी ध्यानचन्द, और रुस्तम सैटिन जैसे नाम तो हैं ही, न जाने कितने और होंगे। जब एक हाकी मैच के बाद मेरे पिता की साइकिल एक अंग्रेज बच्चे से टकरा गयी थी व उसके डैमफूल कहने पर उन्होंने उसकी पिटाई कर दी थी तब कठोर प्रिंसिपल बनर्जी ने उन्होंने दण्ड देने की जगह हाकी मैच जीतने पर खुशी जता कर जाने दिया था।
जब जलियांवाला बाग का नरसंहार हुआ था तब गाँधीजी ने पूरे देश को एक दिन का उपवास करने के लिए कहा था तब उनकी [कामरेड सैटिन की] माँ ने भी उपवास किया था जबकि वे राजनीति के बारे में कुछ नहीं जानती थीं। इसी नरसंहार के प्रतिरोध में उन्होंने अंग्रेज सम्राट के भाई ड्यूक आफ केनोट के आगमन पर मिले मैडल को जूते के फीते से बांध लिया था जिसका अन्य छात्रों ने भी अनुशरण किया था। उसकी सजा भी मिली थी। कुछ ही दिनों बाद उन्हें अमृतसर से कराची में आना पड़ा। कराची में पहली बार कांग्रेस के बड़े नेता मौलाना मुहम्मद अली व शौकत अली की उपस्थिति में उन्हें स्कूल में बोलने का मौका मिला और उस उम्र में इतना अच्छा बोला कि वे एक पारसी के लड़के के इतने अच्छे विचारों से बहुत खुश हुये। दोनों नेताओं ने भरपूर प्रशंसा की और वे सबकी निगाहों में विशिष्ट हो गये। बाद में पारिवारिक परिस्तिथियोंवश उन्हें झंसी आना पड़ा था। अपने छात्र जीवन से ही उन्होंने भाषण देने का कौशल अर्जित कर लिया था। वे अपनी प्रतिभा से अपने साथियों को सहयोगी बना लेने में सक्षम हो गये थे।  
 1928 में झांसी में कांग्रेस का उत्तर प्रदेश का राजनैतिक सम्मेलन हुआ जिसमें उनके नेतृत्व में छात्रों की एक बड़ी टीम ने स्वयंसेवकों की भूमिका निभायी थी। इसमें जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता थी जिन्होंने उनके काम की जानकारी मिलने पर उनसे काफी देर बात की और अमृतसर व कराची की प्रेरणाप्रद घटनाओं को विस्तार से सुना। नेहरू जी ने उनसे कहा था कि मुझे उम्मीद है कि पढाई पूरी करने के बाद तुम अपना पूरा समय देश सेवा में दोगे। इस कांफ्रेंस की समाप्ति के बाद उसी पण्डाल में दूसरी कांफ्रेंस पीजेंट्स एंड वर्कर्स पार्टी के नाम से हुयी। इस कांफ्रेंस को संगठित करने के लिए पीसी जोशी आये थे, [ जिन्हें बाद में कम्युनिष्ट आन्दोलन के संस्थापक सदस्यों की तरह याद किया जाता है] जो उस समय इलाहाबाद यूनीवर्सिटी में पढते थे। इस कांफ्रेंस का मुख्य उद्देश्य कम्युनिष्ट आंदोलन को संगठित करना था जिसकी अध्यक्षता बम्बई के मजदूर नेता झाबवाला ने की थी। इस कांफ्रेंस के स्वयंसेवक भी कामरेड रुस्तम सैटिन ने ही जुटाये थे। पीसी जोशी वहाँ दस दिन रुके थे और इन दस दिनों में उन्होंने कामरेड सैटिन को कम्युनिष्ट बना दिया था व झांसी में एक गुप्त कम्युनिष्ट पार्टी की कमेटी बनवा दी थी। इन लोगों ने क्रांतिकारी नाम से एक साप्ताहिक अखबार भी निकाला था। इसके बाद रेलवे में एक हड़ताल हुयी थी जिसके लिए अंग्रेज कम्युनिष्ट कामरेड स्प्रेट और कामरेड ब्रेडले झांसी आये थे जिनके साथ कामरेड सैटिन ने मिल कर काम किया था। बाद में झांसी के बहुत सारे कम्युनिष्ट नेता मेरठ षड़यंत्र केस में गिरफ्तार कर लिये गये थे किंतु घर की तलाशी में कुछ न मिलने के कारण कामरेड सैटिन बच गये थे। इस भागीदारी और पुलिस दमन से निकल कर वे कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे। उन दिनों काँग्रेस स्वतंत्रता के लिए चलने वाला आन्दोलन थी जिसमें कम्युनिष्ट भी काम करते थे।
इसी दौरान उनका परिचय काँग्रेस नेत्री पिस्ता देवी से हुआ जो स्वतंत्रता आन्दोलन की बहुत सक्रिय नेता थीं। उनसे उन्हें मातृवत स्नेह मिला और बचपन में ही छूट गयी माँ की कमी की भरपाई सी लगी। कई वर्ष बाद इन्हीं की एक बेटी मनोरमा से उनकी शादी हुयी। विदेशी कपड़ों की होली जलाने में पिस्तादेवी और उनकी चारों लड़कियां आगे रहती थीं। उल्लेखनीय है कि चन्द्रशेखर आज़ाद भी फरारी के दौरान इन्हीं पिस्तादेवी के पड़ोस में रहने वाले मास्टर रुद्र नारायण के यहाँ रुकते थे। पूछ्ताछ के लिए कामरेड सैटिन को हवालात में बन्द कर भीषण यातनाएं दी गयी थीं पर उन्होंने आज़ाद के प्रवास के बारे में मुँह नहीं खोला था।
पूर्ण स्वतंत्रता की मांग के लिए कांग्रेस ने सरकार को एक साल का नोटिस दिया था और जनता को जानकारी देने व समर्थन व सहयोग पाने के लिए गांधीजी ने देश भर का दौरा शुरू कर दिया था। इसी दौरे के अंतर्गत वे झंसी भी आये थे। छात्र सैटिन ने भी चन्दा एकत्रित किया व छात्रों की ओर से 101/- रुपयों की थैली भेंट करना तय किया। थैली भेंट करने का कार्यक्रम एक बड़ी आमसभा में रखा गया था जिसमें कृपलानी जी की घोर असहमति के बाबजूद उन्होंने थैली देने से पहले बोलने की शर्त रखी जो गाँधीजी के हस्तक्षेप के बाद स्वीकार कर ली गयी। वे दस मिनिट बोले और गाँधी जी को कहा कि अगर आप लाहौर में होने वाले अगले अधिवेशन में पूर्ण स्वतंत्रता का प्रस्ताव पास नहीं करेंगे तो हम लोग आपका भी विरोध करेंगे। गाँधीजी ने मुस्करा कर पीठ ठौंकी और कहा कि जैसा तुम लोग चाहते हो वैसा ही होगा।
उस दौर में यह गाँधीजी का ही प्रभाव था जिसमें सामाजिक और राजनीतिक कामों में भेद नहीं था, अपितु वे एक दूसरे के पूरक थे। कामरेड सैटिन ने न केवल दलित समाज के साथ खानपान का भेद नहीं रखा अपितु हैजे या प्लेग के समय में अपने साथी छात्रों का सहयोग जुटाया। लाहौर अधिवेशन में पास 1930 में पूर्ण स्वराज की घोषणा को हर नगर में पढे जाने का कार्यक्रम रखा गया था और ऐसा करने वालों की गिरफ्तारियां हुयीं। झांसी में जो पाँच लोग गिरफ्तार हुये थे उनमें सबसे कम उम्र के रुस्तम सैटिन ही थे जो इस कारण से अपनी इंटर की परीक्षा भी नहीं दे सके थे।
इसके बाद तो उनका आन्दोलन, गिरफ्तारी, यातना, अनशन आदि का लगातार चलने वाला इतिहास है। वे जेल में भी कैदियों की मांगों के लिए अनशन करते रहे और जेलें बदलती रहीं। झांसी से फतेह गढ, फिर फर्रुखाबाद, प्रतापगढ और न जाने कहाँ कहाँ की जेलों में भेजा गया। स्वतंत्रता आन्दोलन के इतिहास के बड़े बड़े नाम उनके साथ जेलों में रहे जिनसे जुड़े संस्मरण इस पुस्तक में दर्ज हैं। पं. बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ उनकी बगल वाली बैरक में थे और उसी दौरान उन्हें तनहाई में डाले जाने के समय जयशंकर प्रसाद की ‘आंसू’ पढने को मिली जिसका प्रभाव उनकी कविताओं पर पड़ा। झांसी में उसी समय बाबू सम्पूर्णानन्द भी जेल में आये थे जब सी क्लास के कैदियों को मिलने वाले खराब खाने के खिलाफ इन्होंने अनशन किया। बाद में जब इनका ट्रांसफर फैजाबाद जेल में कर दिया गया तब ए क्लास में जवाहरलाल नेहरू के साथ बी क्लास में राधेश्याम शर्मा, मंजर अली सोख्ता, फिरोज गाँधी, केशव देव मालवीय, महावीर त्यागी, बालकृष्ण शर्मा आदि इनके साथ थे। गदर पार्टी के मुस्तफा साहब भी थे जो जपानी जहाज पर भारत पर आक्रमण करके उसे मुक्त कराने के लिए आये थे। वे जौनपुर के थे और वर्षों से एक कोठरी में रहते हुए वृद्ध हो चुके थे किंतु छूटने के बाद फिर से अंग्रेजों से मोर्चा लेने के लिए कृत संकल्प थे। इसी जेल में कुछ दिन पहले हे अशफाक उल्लाह को फांसी लगी थी। साथी कैदियों ने बताया कि था कि वह बहुत सुन्दर स्वस्थ पढा लिखा नौजवान था जिसका स्वभाव इतना अच्छा था कि जेल सुप्रिंटिन्ट भी उसकी फांसी की कोठरी के आगे खड़े होकर आधे आधे घंटे तक बात किया करता था। जिस दिन उसे फांसी लगने वाली थी वह बहुत खुश था और गा रहा था। जेलर सुप्रिंटिंडेंट और मजिस्ट्रेट व सारे सिपाही इस तरह रो रहे थे जैसे उनके बेटे को फांसी लगनी हो।
फैजाबाद जेल में उनके अलावा कामरेड अशोक बोस भी बन्द थे। इन दो कम्युनिष्टों के साथ अनेक कांग्रेसी भी थे जो मेरठ षड़यंत्र केस के आरोपियों ने जो कम्युनिष्ट थे, खुल कर अपने ऊपर लगे आरोप स्वीकारे थे और उसको सही ठहराने के लिए अदालत में जो लम्बे लम्बे बयान दिये थे वे अखबारों में छप रहे थे जिससे पाठकों का एक बड़ा वर्ग प्रभावित हो रहा था।
एक बार छूटने के बाद उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया और लखनऊ के कैम्प जेल में रखा गया था जो टीन की चादरों वाले छत की जेल थी। इस जेल की गर्मी में अठारह सौ लोग मर गये थे। यहाँ खाना बनाना पड़ता था। उनके साथ झांसी के ही कृष्णा, बनारस के कमलापति त्रिपाठी, देहरादून के महावीर त्यागी आदि थे। जल्दी ही इन लोगों को बी क्लास मिल गया और कैम्प जेल से लखनऊ के ही जिला जेल में ट्रांसफर कर दिये गये। यहाँ बाबू शिव प्रसाद गुप्त, जवाहरलाल नेहरू के साले श्रीकृष्ण कौल आदि कई लोग थे। कौल साहब इंगलैंड से सांपों के जहर के बारे में पढ कर लौटे थे। जेल में उनके साथी कैदियों में गोबिन्द बल्लभ पंत, ही नहीं थे अपितु फिरोज गाँधी का बिस्तर बगल में लगता था जो पारसी होने के कारण उनके प्रति अतिरिक्त रूप से सह्रदय थे। काँग्रेस की 1933 का अधिवेशन कलकत्ता में रखा गया था तब पार्टी पर प्रतिबन्ध था इसलिए आयोजन गुप्त रूप से रखा गया था जहाँ छापा पड़ने के बाद वे गिरफ्तार कर लिये गये, उनके साथ आत्माराम गोबिन्द राम खेर भी थे। उन्हें दमदम जेल में रहना पड़ा। बीच में गिरफ्तार होते हुए जब अधिवेशन के अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय कलकत्ता पहुँचे तब तक बहुत लाठी चार्ज हो चुके थे और सैकड़ों लोगों के सिर फूट चुके थे। उन्होंने इन घटनाओं की जाँच करने का निर्णय किया और सबसे बात की। रुस्तम सैटिन के प्रतिरोध को जानकर जब उन्होंने विस्तार से जाना कि आन्दोलनों के कारण वे पिछले तीन सालों में पढाई छूट जाने के कारण इंटरमीडिएट का इम्तिहान नहीं दे सके तो उन्होंने आगे पढने के लिए बनारस चलने और यूनीवर्सिटी में पढने का प्रस्ताव किया। कुछ संवाद के बाद वे बनारस जाने को तैयार हो गये जो उनके जीवन का अगला पढाव था। बाद में तो उनकी पढाई, आन्दोलन, जेल, अनशन, फिर चुनावों आदि के विस्तारित रोमांचक किस्से हैं। विधायक बनने के बाद किसानों के सम्बन्ध में उन्हीं के सवाल पर सरकार गिरी थी और काँग्रेस छोड़ने वाले चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में सरकार बनी जिसमें वे उप पुलिस मंत्री बने और इस दौरान एक कम्युनिष्ट की तरह कुछ मानक स्थापित किये।
इस अमूल्य पुस्तक का कोई मूल्य मुद्रित नहीं है पर मेरे लिए अलग तरह से मूल्यवान है क्योंकि  इसके साथ मेरे पिता की यादें जुड़ी हैं। पर मैं यह जानता हूं कि पुस्तक की समुचित प्रतियां उपलब्ध नहीं होंगीं इसलिए आकांक्षा है कि इस पुस्तक को थोड़े संक्षिप्तीकरण और सम्पादन के साथ पुनर्प्रकाशित किया जाये। ऐसी पुस्तक स्वतंत्रता आन्दोलन में कम्युनिष्टों के योगदान व मुख्यधारा से सहयोग का अध्ययन करने वालों के लिए बहुत उपयोगी होगी।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, सितंबर 28, 2018

अब वह एक आदमी की वेश्या नहीं रहेगी


अब वह एक आदमी की वेश्या नहीं रहेगी
वीरेन्द्र जैन

एडल्ट्री से जुड़ी धारा 497 को पाँच जजों की बेंच ने असंवैधानिक घोषित करके हजारों लोगों को उद्वेलित कर दिया है। मजा यह है कि उनकी भौहें जरूर चढी हुयी हैं किंतु उनके पास परम्परा की दुहाई देने के अलावा कहने के लिए कुछ नहीं है। जो लोग तीन तलाक को मुस्लिम महिलाओं के भले से ज्यादा अपने दुश्मन की तिलमिलाहट देख कर परपीड़ा आनन्द ले रहे थे उनके चेहरे भी देखने लायक हैं।
अमृता प्रीतम लम्बी कहानी की तरह लघु उपन्यास लिखती थीं। उनमें से एक है जिसका नाम डाक्टर देव या नागमणि में से कोई एक है। इस की कहानी इस तरह है कि एक कलाकार ने किसी पहाड़ी पर अपना स्टूडियो बनाया हुआ है। वह अपनी कला को इतना समर्पित है कि बहुत बहुत दिनों तक पहाड़ी से नीचे नहीं उतरता। वहीं एक बार में खाने पीने का सामान ले आता है। उसकी कला की प्रशंसा सुन कर नीचे मैदान में रहने वाली एक लड़की उसके पास प्रति दिन सीखने के लिए जाने लगती है। कलाकार के प्रति मुग्ध वह लड़की उससे शादी के बारे में पूछती है तो वह कहता है कि वह शादी की जिम्मेवारियां नहीं ओढना चाहता और तय किया है कि कभी शादी नहीं करेगा। जब लड़की उससे शरीर की जरूरतों के कारण शादी के सम्बन्ध में सवाल करती है तो वह कहता है कि कभी कभी वह मैदान में एक जगह चला जाता है जहाँ बीस रुपये में औरत मिल जाती है, उससे शरीर की जरूरतें पूरी हो जाती हैं। एक दिन वह लड़की उससे कहती है कि क्या मैं आपके हेतु एक दिन के लिए वह बीस रुपये वाली लड़की बन सकती हूं। कुछ सोच कर और भावनात्मक न होने की चेतावनी के साथ वह अनुमति दे देता है। सुबह जब वह अपने घर जाने लगती है तो वह उसे बीस रुपये निकाल कर देता है। शर्त के अनुसार वह उसे रख लेती है। लौटने पर वह सोचती है कि जिस तर्क के आधार पर मैं अपने को वेश्या कह सकती हूं, उसी तर्क के आधार के आधार पर एक दिन की पत्नी भी कह सकती हूं।
अगर बीच में प्रेम का बन्धन न हो तो पत्नी भी क्या एक आदमी की वेश्या नहीं होती।  
क्या वे समस्त पत्नियां जो प्रेम के धागे से बँधी नहीं हैं और जिनका जीवन अपनी सोच के विपरीत अपने पति की दया पर चल रहा है क्या एक आदमी की वेश्या नहीं हैं?
सुप्रीम कोर्ट के पाँच जजों की बेंच का यह फैसला नारियों को स्वतंत्रता देता है। उनकी देह के व्यवहार पर दूसरे के अधिकार से मुक्त करता है। जो लोग इस अधिकार के प्रयोग को वेश्यावृत्ति की ओर उन्मुख कदम बता रहे हैं वे यह भूल रहे हैं कि किसी मजबूरी में अपनी देह का स्तेमाल करने देने की स्वीकृति देना ही वेश्यावृत्ति है, चाहे वह एक आदमी की वेश्या हो या एक से अधिक की। हमें नहीं भूलना चाहिए कि हमारी नैतिकिता को परिभाषित करने वाली पुराण कथाओं में पाँच पतियों की द्रोपदी को श्रेष्ठ पंच कन्याओं में स्थान मिला है। संतति के लिए नियोग की चर्चा आती है और दुष्यंत शकुंतला के गन्दर्भ विवाह को भी मान्यता मिली हुयी है। इसलिए यह फैसला सांस्कृतिक परम्परा के विपरीत नहीं है। आवश्यकता होगी नारी के श्रम के मूल्य की सुनिश्चितता की ताकि उसे अपनी स्वतंत्रता को गिरवी न रखना पड़े।   
हमने बहुत सारे ऐसे कानून बना लिये हैं जिन्हें संवैधानिक स्वीकृति तो मिली है किंतु सामाजिक स्वीकृति मिलना बाकी है। महात्मा गाँधी के बाद ऐसे राजनीतिज्ञ नहीं मिलते हैं जो सामाजिक सुधारों को राजनीति का हिस्सा बना सकें। काँग्रेस के पार्टी संविधान में मदिरापान वर्जित है किंतु इसका पालन करने वाले कितने प्रतिशत हैं। खादी का प्रयोग भी राजनीति की यूनीफार्म की तरह हो रहा है और निजी जीवन में खादी पहिनने वाले मुश्किल से मिलते हैं।
सम्पादक कथाकार राजेन्द्र यादव ने नारी की स्वतंत्रता के लिए हंस के अनेक अंक नारी विमर्श के नाम से निकाले, व अनेक महिलाओं की संघर्ष कथाओं को स्थान दिया। यह स्थान देने के लिए उन्हें भी अनेक पुरातनपंथी लोगों से टकराना पड़ा था, किंतु उनका जीवट अद्भुत था। वे निर्भय होकर अपने विचार रखते थे। आज जरूरत है कि हंस के उन अंकों का पुस्तकाकार प्रकाशन हो। जरूरत है कि तस्लीमा नसरीन की किताब ‘ औरत के हक में ‘ की फिर से चर्चा हो। यह फैसला इतनी आसानी से जड़ समाज को हजम नहीं होगा भले ही ‘पीकू’ ‘पिंक’ ‘क्वीन’ ‘बोल’ और ‘खुदा के लिए’  जैसी फिल्में सफल हो चुकी हों। इन फिल्मों को मनोरंजन के माध्यम से अलग कर के फिर से देखा दिखाया जाना चाहिए, उन्हें समझना समझाना चाहिए।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 19, 2018

क्रमशः विकृत होती जाती लोकतांत्रिक व्यवस्था


क्रमशः विकृत होती जाती लोकतांत्रिक व्यवस्था
वीरेन्द्र जैन

हिन्दी के सुप्रसिद्ध राजनीतिक कवि मुकुट बिहारी सरोज की एक कविता है-
क्यों जी ये क्या बात हुयी
ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी, त्यों त्यों रात हुयी
क्योंजी ये क्या बात हुयी!
उम्मीद थी कि दिनों दिन हमारी राजनीतिक चेतना बढेगी और हम सामंती युग से मुक्त होते जायेंगे। सूचना माध्यमों के विकास और प्रसार के साथ हमारी जानकारियां बढेंगी व प्रगतिशीलता का वातावरण बनेगा। प्रशासनिक व्यवस्था के डिजिटलाइजेशन से पारदर्शिता बढेगी और कार्यपालिका में स्वच्छता व काम करने की गति का विकास होगा। खेद की बात है कि वैसा नहीं हुआ अपितु हम तेजी से प्राचीन मूल्यों, अवैज्ञानिकता, भ्रष्टाचार और जंगली राज की ओर बढते जा रहे हैं। दिन प्रति दिन धर्म की ओट में धूर्तता करने वाले धर्म गुरु पकड़े जा रहे हैं, फिर भी उनके प्रति अन्धभक्ति व उनके जैसे ही दूसरे धर्मगुरुओं के आश्रम नाम के फार्म हाउस और उन्हें प्राप्त होने वाले धन की मात्रा बढती जा रही है। कथित धार्मिक क्षेत्रों में तय तिथियों पर पूजा अर्चना के लिए जाने वाली भीड़, जिसमें बेरोजगार युवा भी शामिल हैं, बढती जा रही है जो केवल सांस्कृतिक उत्सव का हिस्सा भर नहीं है अपितु यह भीड़ इस विश्वास से संचालित है कि इससे न केवल उनकी सामाजिक समस्याएं हल हो जायेंगीं अपितु अब तक की उपलब्धियों की सुरक्षा भी हो जायेगी। रोचक यह है कि सैकड़ों तरह की पूजा पद्धतियां, विभिन्न विभिन्न स्थलों पर स्थित धार्मिक स्थान, आश्रम, धर्म गुरु आदि अपने अपने ढंग से सबकी लगभग एक जैसी समस्याएं हल कर देने का विश्वास पैदा कर पा रहे हैं। सृष्टि के जन्म और उसके संचालित होने के सम्बन्ध में सबके अलग अलग विश्वास हैं किंतु चुनाव जिता देने, परीक्षा में पास करा देने, नौकरी दिलवा देने, प्रमोशन व ट्रांसफर करा देने का भरोसा सबने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से दिलाया हुआ है। भक्तों के मन में यह विश्वास इतना गहरा है कि उनकी अपेक्षाएं पूरी हो जाने का श्रेय तो इन्हीं को देते हैं और न पूरा होने की दशा में वे अपनी भक्ति या पूजा में ही कुछ कमी मानते हैं।
उम्मीद की गयी थी कि लोकतंत्र दस वर्ष में ही परिपक्व हो जायेगा व जाति, धर्म, रंग, लिंग, भाषा, क्षेत्र आदि से मुक्त नागरिकों का ऐसा समाज स्थापित हो जायेगा जो किसी भेद को नहीं मानते होंगे। यह स्थिति लाने के लिए सदियों से पिछड़ी जातियों को सूची बद्ध किया गया था व विशेष प्रोत्साहन के द्वारा उन्हें कुछ प्रतिशत स्थानों पर अपने वर्ग में प्रतियोगिता करने के लिए स्थान आरिक्षित किये गये। आशा यह की गई थी कि इस तरह से अतीत में पिछड़ गये वर्ग के व्यक्तियों को मिले अवसरों से उनकी पूरी जाति सम्मानित और विकसित हो जायेगी। किंतु यह आशा पूरी नहीं हुयी। जिन्हें अवसर मिला उन्होंने अपनी जाति के लोगों के उत्त्थान के लिए भी वह सहानिभूति नहीं दिखायी जैसी उम्मीद वे दूसरे वर्ग के लोगों से करते थे। कई स्थानों पर तो उन्होंने अपनी जाति ही छुपा कर सवर्ण वर्चस्व वाले स्थानों पर अपनी अस्मिता की रक्षा की। जब कार्यालयों कालेजों आदि में वे संगठित हो गये व नौकरशाही में उनके अधिकारों की रक्षा करने वाले व्यक्ति व संगठन प्रकट होने लगे तब वे अपने को व्यक्त करने लगे, नफरतों का मुकाबला करने लगे और अपने अधिकारों की रक्षा के लिए कानून बनवाने लगे। इस सब में महत्वपूर्ण तीस साल लग गये, और यही वह समय था जब आरक्षण का विरोध पनपने लगा। इसी दौर में विभिन्न पिछड़ी एवं अन्य जातियों ने अपनी जाति का नाम अनुसूचित जति में सम्मलित करने का आग्रह किया या कुछ अपात्र लोग गलत प्रमाण पत्रों से लाभ लेने लगे। जिस जाति प्रथा को समाप्त करने के लिए आरक्षण लाया गया था उसे बनाये रखना अनुसूचित जातियों, राजनेताओं, और सशक्तिकरण के बजट से अपना हिस्सा हासिल कर लेने वाले नौकरशाहों को ज्यादा ठीक लगने लगा। आरक्षण से कुछ जातियों के कुछ परिवारों का उत्थान तो हुआ किंतु सामाजिक समरसता का लक्ष्य दूर ही रहा। पहले से सशक्त सवर्ण वर्ग यथावत सत्ता केन्द्रों पर जमा रहा व उसकी शक्ति और सम्पत्ति में बढोत्तरी ही होती रही। सत्तारूढों ने रोजगार के कम होते अवसरों से जनित वंचना को आरक्षण की ओर मोड़ दिया व गम्भीरता से सोचे बिना सवर्ण अनुसूचित जातियों को शत्रु मानने लगे। साम्प्रदायिकता प्रभावित क्षेत्रों  के साथ एक और रणक्षेत्र तैयार हो गया।   
म.प्र. समेत देश के चार राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। इनमें से म.प्र., राजस्थान और छत्तीसगढ में तो सीधी लड़ाई दो राष्ट्रीय दल भाजपा और काँग्रेस के बीच बतायी जा रही है, जो अभी तक कुल मतों का अस्सी- पिचासी प्रतिशत हस्तगत करते रहे हैं। । दोनों ही दलों के पास चुनाव के लिए नकारात्मक बातें ही हैं। दोनों ही एक दूसरे को भ्रष्ट, व नाकारा बता रहे हैं जिनमें से एक तो खुली साम्प्रदायिकता कर के मुद्दे को भटकाने की कोशिशें करता नजर आ रहा है, और दूसरा उनके इस कदम की निन्दा कर रहा है। दोनों ही पक्ष आशंकित हैं और समान रूप से आशान्वित भी हैं। उल्ल्र्खनीय है कि दोनों ही दलों ने इस बार खुले रूप से जाति की शक्तियों को पहचाना है और जो अब तक नहीं हुआ था वह हो रहा है। इस बार प्रत्येक जाति के संगठकों ने भिन्न भिन्न क्षेत्रों में अपनी अपनी जातियों के सम्मेलन आयोजित किये हैं। इन सम्मेलनों को दलों की पहचान से मुक्त रखा गया है और कहा जा रहा है कि हमारी ही जाति सत्ता से दूर है इसलिए हमारी जाति एकजुट होकर प्रत्येक दल से अपील करती है कि वह हमारी जति के लोगों को अधिक से अधिक टिकिट दे। ऐसा करने पर ही उनकी जाति एकजुट होकर उस दल के पक्ष में मतदान करेगी। अब तक अग्रवालों से लेकर दलितों तक की सैकड़ों जातियों के सम्मेलन हो चुके हैं और लगभग सभी में एक जैसी मांग रखी गयी है।
ऐसी मांगों और उनको मान लेने के संकेतों ने लोकतंत्र की आत्मा को कलंकित कर दिया है। पहले ही पन्द्रह प्रतिशत मुसलमान गैरराजनीतिक आधार पर उस दल को वोट करते रहे हैं जो भाजपा या उनके सहयोगी शिव सेना, आदि को हरा सके। अब यह दूसरा शगूफा सामने आया है जिसमें किसी दल की कार्यप्रणाली, उसके कार्यक्रम व चुनाव घोषणा पत्र की ओर ध्यान न देकर केवल इस बात पर मतदान करने के लिए तैयार किया जा रहा है कि उक्त दल उनकी जाति को कितने टिकिट देता है। मध्य प्रदेश में ऐसे अनेक सम्मेलन हो चुके हैं और उनके ही मंचों से राजनेता उनकी जाति को समुचित टिकिट देने की घोषणाएं कर चुके हैं।  
 क्या हम वापिस कबीला युग की ओर बढ रहे हैं!       
वीरेन्द्र जैन
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