मंगलवार, अगस्त 25, 2020

निबन्ध एक उत्तर भारतीय ड्रामे का समापन


निबन्ध
एक उत्तर भारतीय ड्रामे का समापन
How to deal with post-festival waste – The Earthbound Report
वीरेन्द्र जैन
      क्लाईमेक्स तक उठाया गया झाग तलछट में बाकी कुछ मैल और गन्दा पानी छोड़ कर बैठ चुका है नशा उतरने के बाद वाली स्थिति जैसे सूजे हुये चेहरों पर एक बासीपन सा छा गया है।
       दीवाली के त्योहार का समापन हो गया है।
            जिस कचरे को घरों के कोने कोने से बुहार कर सड़क पर फेंक दिया गया था और जिसे समेटने में नगर निगम, या नगर पालिकाओं में कार्यरत एक खास जाति के लोग त्योहर की तिथि के  दस दिनों पहले से निरंतर जुटे हुये थे वे अब उन्हीं मार्गों पर नया कचरा देख रहे हैं। एक ऐसा कचरा जिसमें धू मिट्टी तो कम है पर पटाखों की बारूद से चिन्दी चिन्दी हुये कागजों की भरमार है। इसमें मिठाई के भाव तौले हुये डिब्बों के गत्ते भी शामिल हैं। नये नये इलोक्ट्रोनिक आइटमों को सम्हालने के लिए प्रयुक्त हुये थर्मोकौल के सांचे हैं, बेचने वाली दुकान या सामग्री के ब्रांड नेम मुद्रित पालिथिन थैले हैं जो प्रतिबन्ध के बाद भी धड़ल्ले से कानून का धुआँ उड़ाते हुए उपयोग में रहे हैंतेल सोख कर जल चुके मिट्टी के कुछ दिये हैं, बच्चों वाले घरों में टूट फूट गयी कच्ची मिट्टी और कच्चे रंगों से पुती ग्वालिनें हैं। अपनी हैसियत को बढा-चढा कर दिखाने के लिए मेहमानों को पिलायी जा चुकी अच्छी पैकिंग में बन्द अंग्रेजी शराब की खाली बोतलें हैं। एक आवेशित उत्साह में पैदा किये गये कचरे की और भी नई नई किस्में हैं जिन्हें कचरे में से बीन कर कबाड़ वाले को बेचने वाले बच्चे अधिक जानते हैं हमने त्योहार के नाम पर पिछले दिनों जो कुछ  किया है उसके लिए तो जीसस का वह अंतिम वचन याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि - हे प्रभो, इन्हें माफ कर देना, ये नहीं जानते कि ये क्या कर रहे हैं।
            पिछले एक महीने से चारों ओर जोर शोर से यह फैलाया जा रहा था कि खुशी का त्योहार रहा है। खुशी, खुशी, खुशी, खुशी खुशी हिटलर के प्रचार मंत्री गोयेबिल्स के झूठ को फैलाने की तरकीब का अनुशरण करके  फैलायी जा रही थी। केवल खुशी खुशी जैसे कि और कुछ हो ही नहीं। नये विदेशी बाजार के वाहक प्रिंट और दृश्य मीडिया ने एक आभासी खुशी की बाढ ला दी थी और उसमें सब डिग्री धारी मध्यम वर्गीय कुशिक्षित डूब गये थे। खुशी का यह दुष्प्रचार अपने दुखों को तलाशने और सहलाने का अवसर ही नहीं दे रहा था। परम्परा से जोड़ कर बाजार ने एक सामूहिक सम्मोहन का जाल डाल दिया था। बहुत सारे लोगों को तो पता ही नहीं है कि खुशी कैसी होती है, इसलिए उसे चीख चीख कर बताया जा रहा था तथा दुखी आदमी को भी उसमें खींचा जा रहा था। टीवी के सारे चैनल और एफ एम बैंड की महिला उदघोषिकाएं अपनी खनकती आवाज में बता रही थीं कि [अबे अन्धो] चारों ओर खुशी उल्लास का वातावरण छाया हुआ है। दूसरों, तीसरों की तरह तू भी उठ और जेब में डेबिट क्रेडिट कार्ड डाल अपने घर के लिए नये से नया मँहगे से मँहगा चमकीला पेंट लेकर आ। इस पेंट किये हुए घर को चीन से आयी हुयी सजावटी सामग्री से सजा। कभी दीपों के कारण इस त्योहार का नाम दीपावली पड़ा था, पर अब उसकी जगह बिजली की झालरों और दूसरे रंग बिरंगे विद्युत उपकरणों से सजा। प्लास्टिक के बन्दनवार, प्लास्टिक के गमलों में प्लास्टिक के फूल लगे प्लास्टिक के पौधे सजा। मँहगी साड़ियां, सूटों, और बच्चों के कपड़ों से पूरे परिवार को तैयार कर। सौन्दर्य प्रसाधनों से भरपाई [मेक-अप] करके अपनी त्वचा, केश आदि को मानक सौन्दर्य में ढाल ले। परम्परागत हाजोड़ने की मुद्रा से लेकर हाथ मिलाने और गले मिलने के साथ एक झूठी मुस्कान ओढ ले। उपहार दे, उपहार पा। उपहार के बारे में जो तुम्हें नहीं पता है उसे चैनल वाले बताने में लगे हुए हैं। नये से नये माडल की कारें, बाइकें, स्कूटर, छरहरे होते जाते टीवी, कम्प्यूटर, लैपटाप, आईपैड, टूजी थ्रीजी, फोर जी, सोने चाँदी के गहने, बगैरह बगैरह। ये किश्तों में भुगतान की सुविधा के साथ साथ बैंक ऋण से भी उपलब्ध हैं। तू हो या हो पर तुझे ये सामान खरीदकर खुश दिखना है, ताकि तुम्हारा प्रतियोगी पड़ोसी यह नहीं कह सके कि वो तुम से ज्यादा खुश है।
            जिनको ये सब कुछ करने में जेब परेशान करती हो उन्हें भी करना है। इस अवसर पर तुम्हारा दायित्व है कि खुश दिखो।
            खुशी कभी स्वाभाविक होती थी, और तिजोरी या बक्से में आयी रकम , मौसम, फसल, या स्वास्थ के आधार पर व्यक्त होती थी, उसे। अब एक सभ्यता अर्थात झूठ का हिस्सा बना दिया गया है। कभी लोग खुशी में गा उठते थे या नाचने लगते थे, पर अब महौल बदल गया है। अब गाने के लिए गाने वाली मशीनें हैं जो हमारे दैनिन्दन उपयोग की वस्तुओं तक में फिट हो गयी हैं। हमारे भजनों से लेकर मण्डलियों तक को इन मशीनों ने स्थगित कर दिया है। मन्दिरों में मशीनें लगा दी गयी हैं जो गाती रहती हैं जिससे पता ही नहीं चलता कि हमारे अन्दर भक्तिभाव है या नहीं। इनके चक्कर में हम गाना भूल गये हैं। बहुत सारी नकली हँसी खुशी में हम असली खुश होना ही भूल गये हैं। पूजा पाठ का तय समय और महूर्त होना एक बात थी पर खुश होने का समय तय कर देना बिल्कुल ही दूसरा मामला है।
            जिस तरह नाटक के खत्म होते ही सब अपनी अपनी पोषाकें उतार कर रख देते हैं, ठीक उसी तरह खुशी के मुखौटे उतार कर रख दिये गये हैं। भ्रष्ट नेता, रिश्वतखोर अधिकारी, कमीशनबाज ठेकेदार, और टैक्सचोर व्यापारियों की योजना में इस खुशी का बजट होता है। पर जो लोग इस नकल में कूद पड़ते हैं, उनके झल्लाने चिड़चिड़ाने  का भी समय है। लाखों लोग जबरदस्ती ट्रैनों, बसों, में ठुसे यहाँ से वहाँ होते हैं। ऊपर से पैसे देकर भी गिड़गिड़ा कर जगह पाते हैं और समय से वापिस पँहुचने के लिए इसी प्रक्रिया को दुहराते हैं।
            यह नकलीपन उत्तरोत्तर वृद्धि पर है और एक भी हाथ अस्वीकृति में नहीं उठ रहा। कोई नहीं कह रहा कि हे चैनलो, हमें मत सिखाओ कि हमें अपनी परम्परा को कैसे निभाना है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629


शनिवार, अगस्त 22, 2020

और अब बालीवुड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास


और अब बालीवुड में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के प्रयास
वीरेन्द्र जैन

सबसे पहले तो यह समझ लेना है कि लोकतंत्र के पहले की साम्प्रदायिकता और बाद की साम्प्रदायिकता अलग अलग है, भले ही वह हमेशा से ही सत्ता का औजार रही है। पहले जो धर्म के लक्ष्य होते थे, उन्हें प्राप्त करने के तरीकों में भेद होने व अपने तरीके को अधिक सही मानने के अहं के कारण टकराव होते थे। बाद में राजाओं ने प्रजा को अनुशासित करने के लिए पुरोहितों आदि के माध्यम से नियम बनवाये और पालन कराने के बदले में उन्हें दक्षिणाएं दीं। परिणाम यह हुआ कि जनता भगवान के डर से स्वतः अनुशासित हो कर रहती थी। राजा को भगवान का रूप मानती थी तथा उसी की न्ययिक व्यवस्था के अनुरूप ही मृत्योपरांत ईश्वर के न्याय की कल्पना रची गयी। लोकतंत्र में साम्प्रदायिक विभाजन से एक बड़े वर्ग का समर्थन प्राप्त करने का प्रयास किया जाता है जो चुनावों में बहुमत बनाने के काम आता है। किसी समाज में बहुसंख्यकों का दल इससे लाभ में रहता है इसलिए वह पहले तो बहुसंख्यकों के धर्म का सबसे बड़ा शुभचिंतक बना दिखता है और फिर स्वाभाविक रूप से विद्यमान न होने के बाबजूद समाज में साम्प्रदायिकता पैदा करने की कोशिश करता है। जब तनाव या हिंसा शुरू हो जाती है तो दोनों तरह के कट्टरवादी अवसर देख कर हमलावर या रक्षात्मक हो जाते हैं। इसका लाभ बहुसंख्यकों के दल को ही मिलता है इसलिए आमतौर पर इसकी शुरुआत बहुसंख़यकों के दलों की ओर से ही होती है। वे जरूरत के अवसर पर इनका उपयोग करने के लिए बारहों महीने अपने लठैत संगठनों की कक्षाएं लगाते रहते हैं। इतिहास और पुराणों को अपने अनुरूप ढालते हैं और उन्हें समाज में स्थापित कराने के लिए षड़यंत्र रचते रहते हैं। इसके लिए आजकल न केवल खरीदा हुआ मुख्य मीडिया अपितु सोशल मीडिया का प्रयोग बहुतायत में होने लगा है। 
साम्प्रदायिकता फैलाने के सुगठित संस्थान हैं जिन्हें उनसे लाभान्वित होने वाले दल और उन दलों से लाभान्वित होने वाले घराने पोषित करते रहते हैं। हमारे देश में सामंतवाद और पूंजीवाद का अनोखा गठजोड़ है और वे सिद्धांतों में विरोधी होने के बाबजूद एक जुट होकर काम कर रहे हैं। संघ और उसका आनुषांगिक संगठन भाजपा यही काम कर रहा है। बालीवुड में साम्प्रदायिकता फैलाना उसका नया पैंतरा है। स्मरणीय है कि हमारे देश का फिल्म उद्योग और उसमें विभिन्न स्तर पर काम करने वाले लोग मानक रूप से धर्मनिरपेक्ष रहे हैं और उन्होंने जो फिल्में बनायी हैं वे भी साम्प्रदायिकता और सामंती मूल्यों के खिलाफ समाज को सन्देश देती रही हैं। आजादी के बाद प्रगतिशीलों के नाट्य ग्रुप इप्टा के बहुत सारे सदस्य फिल्मों में अपनी प्रतिभा के लिए मशहूर हुये हैं। पृथ्वीराज कपूर, बलराज साहनी, गुरुदत्त, ख्वाजा अहमद अब्बास, कैफी आजमी, साहिर, हसरत, शैलेन्द्र, ए के हंगल, से लेकर एक लम्बी श्रंखला है। ये हिन्दी फिल्में ही हैं जिनमें सबसे ज्यादा लोकप्रिय मनभावन भजन शकील के लिखे, नौशाद के संगीतबद्ध किये और मुहम्म्द रफी के गाये हुये हैं। किसी आदर्श हिन्दू महिला की भूमिका निभाने के लिए मीना कुमारी की ही याद आती है जो मुस्लिम थीं जिनके घनिष्ठ मित्र अशोक कुमार, धर्मेन्द्र और गुलजार आदि रहे। एक बार मीना कुमारी बीमार थीं और डाक्टरों ने उन्हें रोजा न रखने की सलाह दी थी। उन्होंने अपना दुख गुलजार को बताया तो उन्होंने कहा कि कोई बात नहीं आपकी जगह मैं रोजा रख लेता हूं। और उसके बाद सिख परिवार में जन्मे सम्पूर्ण सिंह कालरा अर्थात गुलजार वर्षों तक रोजा रखते रहे। साम्प्रदायिक सद्भाव पर ढेर सारी फिल्में ही नहीं बनीं उस विषय के गीत भी भरपूर लिखे गये हैं और वे जनमानस में अपना प्रभाव छोड़ते रहे हैं। दिलीप कुमार [यूसुफ खान ] आमिर खान, शाहरुख खान, सलमान खान, कादर खान, मेहमूद आदि ने भारतीय चरित्रों की जो भूमिकाएं निभायी हैं वे अविस्मरणीय और भारतीय संविधान के आदर्शों को ही प्रस्तुत करती हैं। गीत संगीत निर्देशन और निर्माण में हर वर्ग के लोग मिल कर काम करते हैं, व निजी शादी ब्याह में भी धर्म को आड़े नहीं आने देते। वे वह समाज बना और उसमें जी रहे होते हैं, जैसे का सपना हमारे स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों व संविधान निर्माताओं ने देखा था। हिन्दी फिल्मों और गीतों के माध्यम से उन्होंने हिन्दी भाषा को पूरे देश के स्तर पर फैला कर उसे सच्चे अर्थ में राष्ट्र भाषा बनाने का बड़ा काम किया है। यही बात साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वालों को हजम नहीं हो रही। आज़ादी के समय धर्म के आधार पर अलग पाकिस्तान बन जाने और तीन तीन युद्ध हो जाने से धर्मनिरपेक्ष हिन्दुस्तान के हिन्दुओं के बीच में मुसलमानों के प्रति नफरत बोना अपेक्षाकृत आसान हो गया है। साम्प्रदायिक राजनीति करने वालों की कुल पूंजी यही है, जिसके सहारे वे आज केन्द्रीय सत्ता तक पहुंचने में सफल हो गये हैं, और इसको आगे के लिए भी बनाये रखना चाहते हैं।   
भाजपा के पितृ पुरुष लालकृष्ण अडवाणी भी पहले फिल्म पत्रकार रहे हैं और अटलबिहारी वाजपेयी भी दिलीप कुमार के फैन रहे हैं। ये लोग राजनीति में अपनी विचारधारा की अलोकप्रियता और समाज में फिल्मी अभिनेताओं की लोकप्रियता के महत्व को समझते रहे हैं इसलिए चुनाव जीतने के लिए इन्हें अनुबन्धित कर संसद में भेज कर बहुमत बनाने में सबसे आगे रहे हैं। हेमा मालिनी, धर्मेन्द्र, विनोद खन्ना, शत्रुघ्न सिन्हा, परेश रावल सनी देउल, से लेकर आज तक के सर्वाधिक लोकप्रिय अभिनेता, अभिनेत्रियों को चारा बना कर भीड़ जुटाने के लिए स्तेमाल करते रहे हैं। टीवी आने के बाद रामायण के कलाकार अरविन्द त्रिवेदी, दीपिका चिखलिया, दारा सिंह, किरण खेर या भोजपुरी और बंगाली फिल्मों के मनोज तिवारी, रविकिशन, रूपा गांगुली, बाबुल सुप्रियो या फिर दूसरी सर्वाधिक लोकप्रय सीरियलों में सास बहू की स्मृति ईरानी आदि को आगे करके उन्होंने इतना चुनावी लाभ उठाया है कि आज बुद्धिजीवी वर्ग में सबसे ज्यादा अलोकप्रिय सरकार को लोकप्रियता के आधार पर चुने गये सांसदों के बहुमत के सहारे वर्षों से चला रहे हैं। ये वे लोग हैं जो खुद् के विचार नहीं रखते अपितु दूसरों के लिखे डायलाग ही बोलने के आदी होते हैं, इसलिए संसद में चुप रहते हैं।
पिछले दो-एक सालों से फिल्म उद्योग में महात्वाकांक्षी किंतु वांछित सफलता पाने में असफल अभिनेता अभिनेत्रियों, व निर्माता निर्देशक गायकों संगीतकारों ने सरकार से सहयोग पाने के लिए एक गुट बना लिया है व उसके माध्यम से सफल लोगों पर भाई भतीजावाद चलाने के साथ साम्प्रदायिक विभाजन के आरोप लगाने शुरू कर दिये हैं। अनुपम खेर जैसे दो एक सफल और अच्छे अभिन्नेता भी अपनी पत्नी को टिकिट मिलने और अपने लिए पद्म पुरस्कार से उपकृत होकर सरकार की वकालत करने लगे हैं। सच तो यह है कि कला के क्षेत्र में भाई भतीजावाद एकाध बार ही चल सकता है। हेमा मालिनी धर्मेन्द्र की बेटियों को एकाध फिल्म तो मिल गयी किंतु वे सफल नहीं हो सकीं। इसी तरह अमिताभ जया के पुत्र और ऐश्वर्या राय के पति अभिषेक बच्चन भी परिवार के सहारे खास कुछ नहीं कर सके।
साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण के सबसे ताजे उदाहरणों में सुशांत सिंह राजपूत का प्रकरण है जिनकी पिछले दिनों मृत्यु हो गयी जिसे आत्महत्या बताया गया। कोई सुसाइड नोट न मिलने और स्पष्ट कारण समझ में ना आने के कारण एक रहस्य सा बन गया। वे अच्छे कलाकार थे और सामान्य परिवार से उठकर उन्होंने युवा अवस्था में भरपूर धन कमाया जिससे उनकी एकाधिक महिला मित्र भी बनीं। वे परिवार से अपने धन और निजी जीवन को साझा नहीं करना चाहते थे इसलिए उन से दूर दूर रहने लगे थे। उनके निधन के बाद उनके वैधानिक उत्तराधिकारी उनके पिता को लगा कि उनके द्वारा कमाया गया धन उनकी कमाई से कम है तो पहले तो उन्होंने एक अनुमानित राशि को उनकी महिला मित्र द्वारा हड़प लिये जाने का आरोप लगाया और फिर सफलता के लिए बिहार सरकार का सहयोग चाहा, जो घटनाक्रम मुम्बई में घटित होने के कारण सम्भव नहीं था। बिहार में भाजपा गठबन्धन वाली सरकार है इसलिए उन्होंने उनका विशिष्ट सहयोग लेने के लिए मुस्लिम निर्माता निर्देशकों व कलाकारों पर भाई भतीजावाद चलाने व उन्हें काम न देने का आरोप लगा दिया। उन्होंने कहा कि इसी भाई भतीजावाद से निराश होने के कारण उन्होंने ऐसा कदम उठाया। ऐसा करते ही उन्हें बिहार सरकार का सहयोग मिल गया, उनकी रिपोर्ट दर्ज हो गयी व बाद में सीबीआई से जाँच की सिफारिश भेज दी गयी जो केन्द्र की भाजपा सरकार द्वारा मंजूर भी कर ली गयी।
सुशांत सिंह के पिता को न्याय मिलना चाहिए व अपराध की सही सही जांच भी होना चाहिए किंतु उसके लिए पूरे फिल्म उद्योग पर साम्प्रदायिक होने का आरोप लगा देना और उसे एक प्रकरण से जोड़ देना ठीक नहीं है। अपनी राजनीति के लिए राममन्दिर जैसा विषय उत्खनन करने वाली भाजपा से ऐसी उम्मीद अस्वाभाविक नहीं है किंतु कला के क्षेत्र के लोगों को सोचना  चाहिए कि किसी के राजनीतिक हितों के लिए फिल्मी दुनिया के सुन्दर वातावरण को विषाक्त न होने दें। दिलीप कुमार, नसरुद्दीन शाह, आमिर खान, जावेद अखतर जैसे लोग फिल्मी जगत और इस देश के कलाजगत के हीरे हैं। इन को नुकसान पहुंचाने की कोशिश देश को नुकसान पहुचाने के बराबर है। स्मरणीय है कि इसी तरह की हरकतों से हम लोगों ने पिछले दिनों एम एफ हुसैन को मौत की तरफ धकेल दिया। जिसका देश ने अभी तक प्रायश्चित नहीं किया। अब बकायदा अभियान चला कर मुस्लिम अभिनेताओं की फिल्मों का बहिष्कार करने की अपीलें की जाने लगी हैं।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 9425674629
      

गुरुवार, अगस्त 20, 2020

सच कह सकने का साहस - क्या उमा भारती ही भाजपा में इकलौती उम्मीद हैं?


सच कह सकने का साहस - क्या उमा भारती ही भाजपा में इकलौती उम्मीद हैं?
वीरेन्द्र जैन

मैं जानता हूं कि मेरी बात सुन कर लोग हँसेंगे, या मुस्करायेंगे और कुछ लोग तो इसे व्यंजना में कही बात समझेंगे, किंतु मैं इसे पूरी गम्भीरता से कह रहा हूं। इस उम्मीदी का सबसे बड़ा कारण उमा भारती कम हैं, अपितु भाजपा और परोक्ष रूप से देश की दशा ज्यादा है। जब पाकिस्तान में जिन्ना की मजार से लौट कर लालकृष्ण अडवाणी संघ वालों की निगाहों में गिर गये थे तब 2011 में मैंने एक लेख लिखा था जिसमें संभावना व्यक्त की गयी थी कि 2014 के आम चुनाव में अगर भाजपा अडवाणी जी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित नहीं करती तो उसके पास नरेन्द्र मोदी के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं होगा। मैंने कहा था कि भले ही श्री मोदी इस समय राष्ट्रीय नेता नहीं हैं किंतु वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बदनाम नेता तो हैं, और अमेरिका, ब्रिट्रेन आदि ने उन्हें वीजा न देकर उनकी नकारात्मक छवि को और बड़ा कर दिया है। जो छवि एक सोच के लोगों के बीच नकारात्मक है, वही दूसरे पक्ष के लोगों के बीच नायक बना देती है।  मैंने लिखा था -

और अंत में विख्यात या कुख्यात नरेन्द्र मोदी आते हैं जिन्होंने भले ही गुजरात में मुसलमानों का नरसंहार करने के आरोप में दुनिया भर की बदनामी झेली हो पर इसी कारण से वे हिन्दू साम्प्रदायिकता से ग्रस्त हो चुके एक वर्ग के नायक भी बन चुके हैं। जो मोदी पहली बार विधानसभा के उपचुनाव में उस सीट के पूर्ववर्ती द्वारा अर्जित जीत के अंतर के आधे अंतर से ही जीत सके हों, पर आज वे गुजरात में सौ से अधिक विधानसभा सीटों या गुजरात की 75% लोकसभा सीटों में से जीत सकने में सक्षम हैं। संयोग से वे जिस राज्य के मुख्यमंत्री हैं वह प्रारम्भ से ही औद्योगिक रूप से विकासशील राज्य रहा है, जिसने मोदी के कार्यकाल में भी अपनी गति बनाये रखी। दूसरी ओर मोदी सरकार पर अपने विरोधियों के खिलाफ गैरकानूनी ढंग से हत्या करवाने तक के आरोप लगे हों, पर आर्थिक भ्रष्टाचार का कोई बड़ा आरोप नहीं लगा। वहाँ तुलनात्मक रूप से प्रशासनिक भ्रष्टाचार की शिकायतें कम हैं जिससे उनकी एक ऐसे प्रशासक की छवि निर्मित हुयी है जिसकी आकांक्षा आम तौर पर नौकरशाही से परेशान जनता करती है। केन्द्रीय सरकार की योजना के अंतर्गत सड़कों के चौड़ीकरण का काम तेजी से हुआ है जिससे प्रदेश के प्रमुख नगर एक ऐसी साफ सुथरी छवि देने लगे हैं जो मध्यम वर्ग को प्रभावित करती है। मोदी वाक्पटु भी हैं और अडवाणीजी की तरह शब्दों को चतुराईपूर्वक प्रयोग करने की क्षमता रखते हैं।“
मेरे द्वारा व्यक्त आशंका सही साबित हुयी थी। संघ ने सारे अनुमानों को नकारते हुए नरेन्द्र मोदी को ही प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया था।
नरेन्द्र मोदी ने आते ही भाजपा में उसके नाम के अलावा बहुत कुछ बदल गया।  उन्होंने पार्टी को हाथ में लेते ही वरिष्ठ व मुखर नेताओं तथा संजय जोशी जैसे अपने दुश्मनों को किनारे कर दिया। मीडिया हाउसों के साथ सौदा किया। भाजपा के पक्षधर पत्रकारों से ही वाजपेयी सरकार और उनके प्रति भक्तिभाव रखने वालों की छवि खराब करवायी, काँग्रेस नेताओं के भ्रष्टाचार की अतिरंजित छवि, और अपेक्षाकृत साफ छवि के नेताओं को अयोग्य व हास्यास्पद बताने में सोशल मीडिया का स्तेमाल करने की संस्थाएं बनवायीं। फिल्मी कलाकारों, लोकगायकों, पूर्व राजपरिवार के सदस्यों, धार्मिक वेषधारियों, खिलाड़ियों सहित हर तरह के सैलीब्रिटीज का सहारा चुनव जीतने के लिए लिया। काँग्रेस से लेकर राज्य स्तर की पार्टियों के नामी सदस्यों, रिटायर्ड सेना, पुलिस, और प्रशासनिक अधिकारियों को पार्टी में उनकी शर्तों पर शामिल किया। मुजफ्फरनगर आदि दंगों से हुए ध्रुवीकरण के एक पक्ष को खुला समर्थन देकर उसका फायदा उठाया। कार्पोरेट जगत से चुनावी सहायता भरपूर मात्रा में अर्जित की और उसे मतदाताओं के बीच वैसे ही खुले हाथों से खर्च भी किया। ड्रोन कैमरे से लेकर भीड़ को अतिरंजित दिखाने की तकनीक का भी सहारा लिया। इसके विपरीत मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस की बारात का कोई नियंत्रक नहीं था। परिणाम स्वरूप उन्होंने न केवल सरकार बनाने का वांछित नम्बर पा लिया अपितु राज्य सरकारों में भी दखल बनाने में सफलता प्राप्त की। 
चुनावी सफलता के बाद मंत्रिमण्डल के गठन में अरुण जैटली और सुषमा स्वराज को छोड़ कर कोई इस कद का नहीं था जो कभी मोदी के लिए चुनौती बन सकता हो। इन दो का मुकाबला करने के लिए उन्होंने अमित शाह को न केवल मंत्रिमण्डल में शामिल कराया अपितु उन्हें भाजपा का अध्यक्ष भी बनवा दिया। अब पूरी सरकार और पार्टी उनकी पकड़ में थी। अटल जी पहले ही लकवा ग्रस्त हो गये थे। इसे संयोग ही कहेंगे कि गोपीनाथ मुंडे, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, अनंत कुमार, अनिल माधव दवे, मनोहर पारीकर, आदि को बीमारी ने दूर कर दिया। कभी कभी सिर उठाने वाले जसवंत सिंह अस्वस्थ हो गये। यशवंत सिन्हा, शत्रुघ्न सिन्हा का विरोध किसी काम नहीं आया। अडवाणी और सुषमा भक्त शिवराज सिंह ने मौका देख कर हथियार डाल दिये। मदन लाल खुराना दिवंगत हो गये, कल्याण सिंह को राज्यपाल बना दिया, राजनाथ सिंह कभी महात्वाकांक्षी नहीं रहे। जो नये लोग मोदीजी की कृपा से सरकारी पार्टी के सांसद बन गये वे उपकृत थे और उन्हें इससे अधिक नहीं चाहिए था, जिन्हें चाहिए था वे किसी ना किसी स्कैम या प्रकरण में फंसे हुये थे।
काँग्रेस केवल सत्ता की लूट के गिरोह का नाम होकर रह गया है सो जिन से सम्भव हुआ उन लोगों ने मौका देख कर दल बदल लिया, कुछ विपक्षियों पर सीबीआई के प्रकरण चल रहे थे और जिन पर कुछ नहीं था वे चुनावों में संसाधनों का मुकाबला कर सकने में सक्षम नहीं थे । राज्य स्तर की जो पार्टियां विपक्ष में थीं वे अपना उपयुक्त स्थान पाकर खुश रहने की आदत पाल चुकी थीं। मीडिया के मालिक चाशनी पी रहे थे और महत्वपूर्ण प्रशासनिक व सैनिक पदों पर विश्वस्त लोग बैठाये जा चुके थे। ध्यान भटकाने के लिए राम मन्दिर व दूसरे साम्प्रदायिक मुद्दों को सुलगता रखा जाता था। अर्थशास्त्री, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, कलाकार आदि जरूर निराश थे किंतु उनके पास देश में अभिव्यक्ति का मंच ही नहीं था, सो उनके विचार निष्प्रभावी थे। अर्थ व्यवस्था बुरी तरह डूब चुकी है, बेरोजगारी की स्थिति विस्फोटक है। ऐसे में परिवर्तन की उम्मीद केवल भाजपा में घुट रहे नेताओं द्वारा प्रभावी आवाज उठाने से ही सम्भव हो सकती है। ऐसी आवाज उठाने वाले नेतृत्व हेतु केवल एक नाम याद आता है और वह है उमा भारती का। यह नाम उस निर्भय बच्चे की तरह है जो राजा को नंगा कह सकता है।
उमाजी अपने दुस्साहस के भरोसे ही आज इस ऊंची स्थिति तक पहुंची हैं। वे जिस परिवेश से आयी थीं वहाँ उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं था, जो कुछ था वह पाने के लिए था। अवसरवादी षड़यंत्रकारी घाघ नेताओं ने उनकी मुखर अभिव्यक्ति और महिला प्रवचनकर्ता होने के कारण मिली सुविधा का जम कर उपयोग किया। जब उन्होंने उसका पारितोषक चाहा तो उन्हें धता बता दी गयी। पर अपने हक के लिए उन्होंने रणनीति में शामिल होने से जानी भाजपा की कमजोरियों की दम पर उल्टा दबाव बनाना शुरू किया। मजबूर होकर उन्हें वह सब कुछ देना पड़ा जो उन्होंने मांगा। उन्हें खजुराहो सीट से लोकसभा का टिकिट देना पड़ा, फिर उन्हें नेताओं के न चाहते हुए भी भोपाल से टिकिट देना पड़ा। केन्द्र में मंत्रीपद देना पड़ा। मध्यप्रदेश में चुनाव के लिए भेजा गया तो मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करना पड़ा, और जीत होने पर मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। एक कमजोर सा अवसर देख कर उन्हें बदल तो दिया गया, किंतु दुबारा बनाने का आश्वासन देना पड़ा। उन्होंने पार्टी की बिना अनुमति के तिरंगा यात्रा निकाली। फिर भी जब मुख्यमंत्री पद वापिस नहीं दिया तो उन्होंने राम रोटी पदयात्रा शुरू कर के मुश्किल खड़ी की। फिर पूरी प्रैस के सामने अटल और अडवाणी की क्लास ले ली क्योंकि अरुण जैटली ने उनके खिलाफ खबरें लीक की थीं। पार्टी अध्यक्ष वैंक्य्या नाइडू को इतना भला बुरा कहा कि उन्हें स्तीफा देकर भागना पड़ा। जब उन्होंने स्तीफे के पीछे पत्नी की बीमारी का झूठा बहाना बनाया तो उमाजी ने सार्वजनिक रूप से कहा कि उन्होंने अपनी पत्नी की रजोनिवृति को राष्ट्रीय बीमारी बना दिया। सोनिया गाँधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने के खिलाफ जब सुषमा स्वराज ने सिर मुंड़ाने और चने खाकर जमीन में सोने की धमकी दी तो उमा जी ने भी बिना अनुमति के ऐसा करने की घोषणा करके बात का मजाक बनवा दिया। फिर पार्टी छोड़ कर नई पार्टी बनायी, जिससे विधानसभा चुनाव लड़ा और भरपूर नुकसान पहुंचाया। इसी बीच गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जो खुद को विकास पुरुष बताते थे को विनाश पुरुष बताने का साहस किया। उन्हें समझौता करना पड़ा। अंततः उन्हें पार्टी में वापिस लेना पड़ा पर शिवराज सिंह की जिद के कारण मध्य प्रदेश से बाहर काम करने की शर्त रखी गयी । उनसे उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव लड़ने के लिए कहा गया तो उन्होंने मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित करने की शर्त रख दी जिसे मानना पड़ा. भले ही कल्याण सिंह और योगी नाराज हो गये। वे विधायक बन गयीं किंतु शपथ लेने के अलावा कभी वहां की विधानसभा नहीं गयीं। 2014 के आम चुनाव में उन्हें फिर लोकसभा  का टिकिट देना पड़ा और केन्द्र में मंत्री बनाना पड़ा, भले ही विभाग और काम केवल अपने बंगले में पड़े रहने का दिया गया। उन्हें हटाने का फैसला लेकर भी मोदी उन्हें नहीं हटा सके, केवल मंत्रालय बदला गया। फिर उन्होंने अपनी मर्जी से लोकसभा का चुनाव नहीं लड़ा, राजनीति से सन्यास की घोषणा की व कुछ दिनों बाद वापिस सक्रिय हो गयीं। भाजपा में उन्होंने सुन्दरलाल पटवा व उनके पटशिष्य शिवराज सिंह चौहान, सुषमा स्वराज, अरुण जैटली, वैंकय्या नायडू, कैलाश जोशी, अडवाणी जी, नरेन्द्र मोदी, आदि अनेक वरिष्ठ नेताओं से खुली टकराहट मोल ली।
उनके सलाहकार भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय सचिव गोबिन्दाचार्य हैं, जिन्होंने ही राममन्दिर अभियान के नाम से भाजपा को आज की स्थिति में पहुंचाया है। वे उनके राजनीतिक गुरु हैं। उमा भारती का दुस्साहस, मुखरता, उनसे कुछ भी करवा सकती है। वे भाजपा में घुट रहे पार्टी सदस्यों की आवाज बन सकती हैं। गोविन्दाचार्य के नेतृत्व में वे स्वदेशी आन्दोलन को पुनर्जीवित करेंगी तो विपक्ष का भी व्यपक समर्थन मिल सकता है, क्योंकि वे जमीन से जुड़ी नेता हैं। एक बार तो वे कह चुकी हैं कि मेरे पिता तो कम्युनिष्ट थे।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, अगस्त 12, 2020

राहत इन्दौरी और उनकी शायरी की लोकप्रियता


राहत इन्दौरी और उनकी शायरी की लोकप्रियतानागरिकता कानून: राहत इन्‍दौरी ने ...
वीरेन्द्र जैन
राहत इन्दौरी के निधन के बाद उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करने के साथ उनकी शायरी को याद करने वालों की बाढ सी आ गयी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि उनके शे’रों ने हर एक को गुदगुदाया था और वे शे’र उनकी स्मृतियों में दर्ज हो गये थे।
किसी समय मैंने भी कवि सम्मेलन के मंचों पर स्थान बनाने की कोशिश की थी। इसी कोशिश में मैंने लोकप्रियता पाने के लिए पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया था। ज्यादा छपने के लिए जैसा सम्पादक छापते थे, वैसा लिखना शुरू कर दिया था। मैं सुन तो लिया जाता था पर दूरगामी प्रभाव नहीं छोड़ पाता था। उन दिनों मेरे एक मित्र हास्य- व्यंग कवि हरि ओम बेचैन हुआ करते थे, जो मंचों पर बुलाये जाते थे। एक दिन उन्होंने मुझे सलाह दी कि मंच कोई भी हो रंगमंच या कविता का मंच, वहाँ प्रस्तुतीकरण बहुत महत्वपूर्ण होता है। मेरी समझ में बात आ गयी थी और मैंने उस दिशा में प्रयास बन्द कर दिये थे। राहत इन्दौरी की लोकप्रियता का मूल्यांकन करता हूं तो बेचैन की बात याद आती हैं। राहत जी की जो विशेषताएं थीं, उनमें से एक उनका सशक्त प्रस्तुतिकरण था। वे सम्वाद की तरह अपने शे’र सुनाते थे इसमें उनके हावभाव आकाश की ओर देखना हाथों का संचालन और स्वर का गर्जन शामिल था। श्रोताओं में कोई ऐसा नहीं होता था जो उनके रचना पाठ के समय आपसी बात कर रहा हो या सो रहा हो। आप पसन्द करें या ना करें किंतु जब राहत इन्दौरी सुना रहे होते थे तो आपको सुनना जरूरी होता था, कोई उठ कर नहीं जा सकता था। मंच से लेकर श्रोता समुदाय तक सबको ऐसा लगता था कि जैसे उसे ही सम्बोधित कर रहे हैं। उनकी गज़लें फिसलती नहीं थीं अपितु कील की तरह ठुकती थीं। यह सुनार की तरह की ठुक ठुक नहीं होती थी अपितु लुहार की तरह पूरी शक्ति से किये गये प्रहार की तरह होती थीं। वे दीवार में ठुकी उस कील की तरह होती थीं कि अगर ठोकने वाला उसे खुद भी उखाड़ना चाहे तो उसे मुश्किल पड़ेगी।
राहत इन्दौरी के कथ्य को मैं दुष्यंत कुमार से जोड़ कर देखता हूं। वे समकालीन राजनीति और समाज पर वैसी ही टिप्पणियां करते थे जैसी कि दुष्यंत ने इमरजैसी से पहले जय प्रकाश के सम्पूर्ण क्रांति आन्दोलन पर की थीं। वह जनता का स्वर था जिसे दुष्यंत ने शे’रों में ढाला था, ठीक इसी तरह राहत के शे’रों ने साम्प्रदायिक नफरत फैलाने वाले दौर में धर्म निरपेक्ष लोगों की आवाज बन कर किया। उनकी विशेषता यह भी थी कि वे अपने निशाने को साफ साफ लक्षित करते थे, और दूसरे धर्मनिरपेक्ष कवियों की तरह घुमा फिरा कर बात नहीं करते थे। इस स्पष्टवादिता के कुछ व्यावसायिक खतरे भी होते हैं, जिसे उठाने का काम राहत इन्दौरी ने किया और इस दुस्साहस को ही अपनी सफलता का आधार बना लिया। यह इस बात का भी प्रमाण था कि जनता क्या सोच रही है। राहत इन्दौरी का विरोध भी हुआ और इस विरोध ने भी उन्हें एक पहचान दी। उनका विरोध करने वालों में एक खास तरह की साम्प्रदायिक राजनीति करने वाले ही सामने आये। कुछ लोग इसी आधार पर उन्हें मुस्लिम पक्षधर बता कर हिन्दू साम्प्रदायिकता से प्रभावित लोगों में उनके खिलाफ प्रचार करते थे। उनके मुँह से तो मैंने कभी नहीं सुना किंतु मेरे मन में उनकी पक्षधरता के लिए जो तर्क उभरे वे स्वाभाविक थे। मैं ऐसे लोगों से कहता था कि पाकिस्तान बनाने के लिए जिम्मेवार लोगों का अपराधबोध हिन्दुस्तान का मुसलमान क्यों सहे जबकि यहां रह जाने वाले वे लोग थे जिन्होंने उनके धर्म पर आधारित एक देश बन जाने के बाबजूद भी ऐसे देश में रहना मंजूर किया जो गांधी, नेहरू, पटेल और अबुल कलाम आज़ाद का मुल्क था जिसने एक स्वर से इसे धर्मनिरपेक्ष राज्य बनाने की घोषणा की थी। उनका पकिस्तान न जाना उन्हें दूसरे गैर मुस्लिम धर्मावलम्बियों से अधिक देशभक्त बनाता है। जिनके पूर्वजों ने सात सौ साल इस देश पर बादशाह्त की वे इस देश को छोड़ कर क्यों जाते। राहत इन्दौरी का यही स्वर था जिसे पूरे हिन्दुस्तान का भरपूर समर्थन मिला कि – सभी का खून है शामिल वतन की मिट्टी में /किसी के बाप का हिन्दोस्तान थोड़े है। इस देश के मुसलमानों को भी इस पर गर्व करने का उतना ही हक है और इसे व्यक्त करने के लिए राहत को कहना पड़ा कि – हमारे ताज अजायब घरों में रक्खे हैं। हमारे मिली जुली बस्तियों और उनके बीच एकता की जरूरत को रेखांकित करने के लिए उन्होंने कहा कि – लगेगी आग तो आयेंगे कई घर ज़द में, यहाँ पर सिर्फ हमारा मकान थोड़े है। लोकतंत्र में पद के अस्थायित्व की चर्चा करते हुए तानाशाही, राजशाही के तरीके अपनाने वालों को चेताते हुए वे कहते हैं- आज जो साहिबे मसनद हैं, कल नहीं होंगे, किरायेदार हैं, जाती मकान थोड़े है। मेरा मानना है के राष्ट्रगीत सुजलाम सुफलाम मलयज शीतलाम से ही नहीं ऐसे भी लिखा जा सकता है-
चलते फिरते हुए मेहताब दिखायेंगे तुम्हें
मुझसे मिलना कभी पंजाब दिखायेंगे तुम्हें
राहत की भाषा हिन्दी या उर्दू नहीं अपितु हिन्दुस्तानी है। प्रेमचन्द से लेकर नीरज तक ने इसी भाषा में साहित्य रचना के पक्ष में समर्थन दिया है। नीरज जी ने तो लिखा था –
अपनी बानी, प्रेम की बानी, घर समझे न गली समझे,
या इसे नन्द लला समझे, या इसे ब्रज की लली समझे /
हिन्दी नहीं यह उर्दू नहीं यह/ ये है पिया की कसम /
आंख का पानी इसकी सियाही / दर्द की इसकी कलम/
लागे किसी को मिसरी सी मीठी/ कोई नमक की डली समझे/  
इस दौर के जितने भी रचनाकारों ने लोकप्रियता अर्जित की है वे सभी हिन्दुस्तानी में लिखने वाले लोग हैं। नीरज, मुकुट बिहारी सरोज, बलवीर सिंह रंग, दुष्यंत कुमार, बशीर बद्र, मुनव्वर राना, निदा फाज़ली,  सभी अपनी भाषा विम्बों, और प्रतीकों में मिली जुली संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। राहत भी उनमें से एक हैं। उन्हें शायद ही कभी किसी शब्द का अर्थ बताने की जरूरत पड़ती थी। वे हिन्दी के कवि सम्मेलनों में भी उतने ही सम्मान के साथ बुलाये जाते थे, जितने कि मुशायरों में और दोनों में ही हर धर्म और भाषा बोलने वाले लोग उन्हें उतने ही चाव से सुनते थे।
वाचिक कविता का एक और गुण सहज ग्राह्यता का होना भी है। लुत्फ देने वाला शे’र जल्दी प्रवेश कर जाता है। जैसे खाना स्वादिष्ट और हल्का हो व उसके साथ ही चटनी भी हो। राहत की कविता में ये दोनों ही गुण थे। जिन लोगों की कविता में ये गुण नहीं होते उन्हें अपनी कविता सुनाने के पहले और बीच में लतीफों का सहारा लेना पड़ता है। राहत के शे’रों में ही ये गुण गुंथे हुये थे। हिन्दी के नये समीक्षकों के बीच भले ही साहित्य में स्थान देने के लिए लोकप्रियता को दुर्गुण की तरह लिया जाता हो, किंतु मुझे विश्वास है कि यह मापक किसी दिन गलत साबित होगा और लोकप्रियता को दूसरे मानकों के साथ उचित स्थान प्राप्त होगा। राहत के शे’र इतनी विविधता के साथ जनमानस में फैले हुये हैं कि उनका अलग से जिक्र करने की जरूरत मुझे महसूस नहीं हो रही है।   
वीरेन्द्र जैन
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गुरुवार, जुलाई 30, 2020

सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे उठे सवाल


सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या और उससे उठे सवाल  
Sushant Singh Rajput Suicide Case SIT can arrest Riya Chakraborty ...
वीरेन्द्र जैन
बालीवुड के एक लोकप्रिय फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत, जिन्होंने पिछले दिनों अनेक सफल फिल्में की थीं, ने अचानक आत्महत्या कर ली, और पीछे कोई सुसाइड नोट भी नहीं छोड़ा। इस घटना को लेकर लगातार अनेक तरह की कहानियां चर्चा में रहीं। ये चर्चाएं इस बात का संकेतक हैं कि हमारे समाज, राजनीति और व्यवस्था में क्या चल रहा है। हम कितने दोगले समाज को ढो रहे हैं।
कहने को हमारे यहाँ लोकतांत्रिक व्यवस्था है, किंतु सच तो यह है कि हमारे समाज ने अभी उस व्यवस्था को आत्मसात नहीं किया है। स्वतंत्रता संग्राम से उभरे नेताओं के आभा मन्डल के अस्त होने के बाद सत्ता का लाभ लेने के लिए सामंती समाज से जन्मे लोगों ने अपनी चतुराइयों से सारे संस्थानों पर अधिकार कर लिया और दिखावे के लिए कथित लोकतंत्र का मुखौटा भी लगा कर रखा। वैचारिक राजनीति ही लोकतंत्र की आत्मा होती है जिसे पनपने ही नहीं दिया और उसके छुटपुट अंकुरों को खरपतवार की तरह मिटा दिया गया। अब सत्ता पर अधिकार जमाने के लिए धार्मिक आस्थाओं का विदोहन करने वाली साम्प्रदायिकता, जातियों में बंटे समाज में जाति गौरव को उभारना, सामंती अवशेषों की शेष लोकप्रियता भुनाना, पूंजी की मदद से अभावग्रस्त व लालची लोगों से वोट हस्तगत कर लेना, पुलिस और दूषित न्यायव्यवस्था के सहारे बाहुबलियों की धमकियां, साधु वेषधारियों समेत कला और खेल के क्षेत्र में अर्जित लोकप्रिय सितारों का उपयोग किया जाता है। इसमें नीलाम होने वाला मीडिया अधिक बोली लगाने वाले के पक्ष में बिक जाता है। सारी राजनीति राजनीतिक रूप से निष्क्रिय नागरिकों को उत्प्रेरित कर मतदान के दिन वोट गिरवा लेने तक सीमित होकर रह गयी है। दलों के बीच की सारी प्रतियोगिता सत्ता और उसके लाभों के लिए नये नये हथकण्डे अपनाने में होने लगी हैं। मुख्यधारा के सभी प्रमुख दलों का कमोवेश यही स्वरूप है। समाज के अच्छे परिवर्तन और तेज विकास के लिए किसी भी दल की सरकार के कोई प्रयास नहीं होते। भूल चूक से या दिखावे के लिए हो भी जायें तो स्थास्थिति से लाभ उठाने वाली ताकतें उन्हें अपने कदम पीछे खींचने को मजबूर कर देती हैं।
युवा अभिनेता सुशांत कुमार की आत्महत्या एक लोकप्रिय स्टार की ध्यानाकर्षक खबर थी। वह बिहार का रहने वाला था और बिहार में इस साल चुनाव होने वाले हैं इसलिए लोकप्रिय व्यक्ति के साथ घटी अस्वाभाविक घटना और सुसाइड् नोट न छोड़ जाने के कारण पैदा रहस्य की अपने अपने हिसाब से मनमानी व्याख्या हुयी। उसका भरपूर राजनीतिक लाभ लेने के लिए उसे और विवादास्पद बनाया गया व सनसनी बेच कर धनोपार्जन करने वाले मीडिया ने जरूरी सवालों से कन्नी काटते हुए इसी पर सारी चर्चाएं केन्द्रित कीं।
सुशांत एक महात्वाकांक्षी और लगनशील युवा था जिसने अपनी इंजीनियरिंग की पढाई छोड़ कर फिल्मी कैरियर अपनाया। उसकी मेहनत और लगन से उसे सफलता भी मिली व उसने भरपूर धन भी कमाया। युवा अवस्था में कमाये गये धन से युवा अवस्था के सपने ही पूरे किये जाते हैं व सुशांत बिहार जैसे राज्य के एक बन्द समाज से खुली हवा में आया था। उसके द्वारा अर्जित धन, व लोकप्रियता ने उसे अनेक युवतियों का चहेता बनाया होगा जिसमें से दो की चर्चा हो रही है क्योंकि वह खुद भी क्रमशः इनके निकट आया। एक से दूरी होने, जिसे आज की भाषा में ब्रेकअप कहा जाता है, के बाद वह जिस दूसरी युवती के निकट आया तो दोनों के बीच प्रतिद्वन्दिता स्वाभाविक है।
एक और बात पर ध्यान दिया जाना भी जरूरी है कि अपनी सफलता और सम्पन्नता के बाद उसने  अपने परिवार के साथ दूरी सी बना कर रखी। अपने धन को उनके बीच नहीं बांटा। अपने जीवन जीने के तरीके में उनका कोई अनुशासन नहीं चाहा व अपना सुख दुख उनके साथ नहीं बांटा। वह अपने तरीके से मकान और मित्र बदलता रहा। वह ना तो किसी राजनीतिक दल का प्रचारक बना, ना उसने शिवसेना द्वारा बिहारियों के खिलाफ किये गये विषवमन के खिलाफ कोई बयान दिया। यहाँ तक कि प्रवासी कहे जाने वाले मजदूरों पर जो संकट आया उसमें भी उसका बिहारी प्रेम या मजदूरों के साथ सहानिभूति नहीं जगी। उसने सोनू सूद की तरह अतिरिक्त रूप से आगे आकर उनके लिए कुछ नहीं किया, या करना चाहा। उसकी मृत्यु के बाद उससे सहानिभूति रखने वाले जो लोग पैदा हुये वे पहले उसके साथ नहीं दिखे। अगर किसी माफिया गिरोह द्वारा भाई भतीजावाद करते हुए उसके साथ कोई पक्षपात किया जा रहा था तो ये लोग तब कहाँ थे। एक सुन्दर अभिनेत्री तो विवादों से ही अपना स्थान बनाने व बनाये रखने के लिए बहुत दिनों से इसी तरह के भागीरथी प्रयास कर रही है। कला जगत में फिल्मी क्षेत्र ज्यादा लागत का क्षेत्र है और मुनाफे के साथ अपनी लागत वसूलने के लिए निवेशक प्रतिभाओं को बिना भेदभाव के स्थान देते हैं। उनकी चयन समिति में अगर फिल्मी दुनिया के लोग होते हैं तो वे कभी कभी अपने रिश्तेदारों को प्राथमिकता दिला देते होंगे। पर टिका वही रह सकता है। हेमा मालिनी व धर्मेन्द्र की बेटियों को अवसर तो मिला पर वे अपना स्थान नहीं बना सकीं। कला के क्षेत्र में सफलता में प्रतिभा और सम्पर्क दोनों की भूमिका रहती है। राजनीति में तो यह बात फिल्मी दुनिया से कई गुना अधिक है, व व्यापार में तो विरासत ही चलती है। किंतु बिहार के चुनावों को देखते हुए साम्प्रदायिक राजनीति खेलने वालों ने सुशांत की दुखद मृत्यु को एक साम्प्रदायिक मोड़ देने की कोशिश की और उसकी आत्महत्या को कुछ मुस्लिम कलाकारों की उपेक्षा को जिम्मेवार ठहराने का प्रयास किया। करणी सेना जैसे लोगों से प्रदर्शन करवाया।  चिराग पासवान जैसे लोग देश की सबसे अच्छी महाराष्ट्र पुलिस की तुलना में बिहार पुलिस को उतारने की बात पर बल देने लगे व बिहार सरकार से चुनावी सौदेबाजी के उद्देश्य से बिहार सरकार की आलोचना करने लगे।
एक कलाकार के भावुक फैसले के बाद असली सवाल उसके द्वारा अर्जित धन के खर्च या निवेश का है।  यह धन जरूर किसी ना किसी के पास होगा और उसके विधिवत विवाह न करने के कारण परिवार के सदस्यों का कानूनी अधिकार बनता है, जिन्हें उसने जीते जी नहीं दिया था और अपने मित्रों या महिला मित्रों की मदद से खर्च या विनियोजित किया होगा। एक खबर यह भी चल रही थी कि वह उसे केरल में किसी खेती में निवेश करना चाहता था जिसको न करने के लिए उसकी महिला मित्र ने विपरीत सलाह देकर रुकवा दिया था।
समाज बदल रहा है तो सामाजिक सम्बन्धों पर भी उसका प्रभाव पड़ेगा। कुछ को वह अच्छा लगेगा व कुछ परम्परावादियॉं को नहीं लगेगा। विरासत का कानून परम्परावादी रिश्तों को ही मान्यता देता है। कथित दिल और आत्मा के रिश्तों को ना तो मापा जा सकता है और ना ही उनका कोई स्थान है। दुखद यह है कि इसके लिए दोनों तरफ से ही अनावश्यक कथाएं गढी जाती हैं, फैलायी जाती हैं। कुछ के लिए तो आपराधिक षड़यंत्र भी रचे जाते हैं। संजय गाँधी की मृत्यु के बाद इन्दिरा गाँधी और मनेका गाँधी के बीच सम्पत्ति के हक के लिए मुकदमेबाजी भी हुयी थी व मुकदमा जीतने के बाद इन्दिरा गाँधी ने वह सम्पत्ति वरुण गाँधी के नाम कर दी थी। रोचक यह है कि उस समय तक वरुण गाँधी वयस्क नहीं हुये थे इसलिए वह फिर से उनकी नेचरल गार्जियन मनेका गाँधी के हाथों में पहुंच गयी थी।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, जुलाई 20, 2020

पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित चीनी विद्वान जी जियानलिन



हमारे पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित चीनी विद्वान जी जियानलिनRenowned Chinese scholar Ji Xianlin dies in Beijing - China News ...
वीरेन्द्र जैन
                6 जून 2008 जब अमृतसर में खालिस्तानी आन्दोलन का समर्थन करने वाले लोग तत्कालीन  राज्य सरकार की शह पर सिमरन जीत सिंह मान के नेतृत्व में अमृतसर मन्दिर में अलग खालिस्तान की वकालत कर  रहे थे, और जब ताकतवर गुर्जरों के लाठीधारी समूह राजस्थान में कई जगह रेल की पटरियों पर धरना देते हुये अपने को कमजोर वर्ग में सम्मिलित करने की मांग पर रेल यातायात रोक कर बैठे हुये थे, तब भारत के तत्कालीन विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी चीन के फौजी अस्पताल में एक 97 वर्षीय चीनी विद्वान को भारत के प्रथम चार सम्मानों में से एक पद्मभूषण सम्मान से सम्मनित कर रहे थे। सम्मानित होने वाले व्यक्ति का नाम जी जियानलिन था, जो सारी दुनिया के लोगों के विचारों को अनुवाद के द्वारा फैलाने का यथार्थवादी तरीका अपनाये जाने के पक्षधर रहे। हमारे प्राचीन ग्रन्थ ऋगवेद में जो कहा गया है-
आ नो भद्रा क्रतवो यंतु विश्वतः(अच्छे विचार सारी दुनिया से आने दीजिये)। यह अनुवाद के द्वारा ही संभव है।
                भारत के गणतंत्र दिवस पर विभिन्न क्षेत्रों में काम करने वाली चुनिंदा हस्तियों को भारत के राष्ट्रपति की ओर से सम्मानों की घोषणा की जाती है। सन 2008 की 26 जनवरी को भारत के राष्ट्रपति ने जिन लोगों को पद्म सम्मानों की घोषणा की थी उनमें चीन के विद्वान जी जियानलिन का नाम भी सम्मिलित था जिन्हें पद्मभूषण सम्मान के लिए चुना गया था। वे उन विरले विदेशी व्यक्तियों में से एक थे जिन्हैं साहित्य व शिक्षा के क्षेत्र में इस सम्मान  के लिए चुना गया था। इस चयन ने उनके व्यक्तित्व और कृतित्व के प्रति बरबस ध्यान आकर्षित किया था।
                जी जियानलिन की उम्र उस समय 97 वर्ष थी, र उस उम्र में भी वे सक्रिय थे। इस सम्मान के अगले वर्ष 11जुलाई 2009 को 98 वर्ष की उम्र में उनका देहांत हुआ। वे इतना जीवन से भरे हुए थे कि कहते थे कि असली उम्र तो सौवर्षों के बाद ही प्रारंभ होती है। गत 6 अगस्त 2005 को जी के 94वें जन्मदिन पर चीन की कन्फयूसियस फाउन्डेशन ने बीजिंग में जी जियानलिन रिसर्च इंस्टीट्यूट की शुरूआत की थी। यह संस्था जी के शोध कार्यों पर काम करने के लिए बनायी गयी व जिसमें चीन के शीर्षस्थ विद्वान तंगयीज्जी, ले दियान, और ली मेंग्यस्की वरिष्ठ सलाहकार के रूप में सम्मिलित हैं।
जब सन 2006 में चीन की सरकार द्वारा उनके अनुवाद कार्यों के लिए  लाइफ टाइम अचीवमेंट अवार्ड दिया गया था तो उस अवसर पर जी ने कहा था कि गत पांच हजार सालों से चीन की संस्कृति के सतत जीवंत और सुसम्पन्न बने रहने का कारण यह है कि हम अनुवाद से जुड़े रहे। दूसरी संस्कृतियों से अनुवाद ने हमारी देह में सदा नये रक्त का संचार किया है।
                जी का एक स्थल पर कथन है कि ‘‘ चीन की नदियां घटती बढती रहती हें पर वे कभी सूखती नहीं हैं क्योंकि उनमें सदा नया जल आता रहता है। इसी तरह हमारी संस्कृति की नदी में भी भारत और पश्चिम से सदा नया जल आता रहता है इन दोनों ही स्थलों ने हमें अनुवाद के माध्यम से धन्य किया है। यह अनुवाद ही है जिसने चीनी सभ्यता को सदा जवान बनाये रखा है। अनुवाद बेहद लाभदायक है।’’

                भारत के गणतंत्र दिवस पर जब जी को पद्मभूषण सम्मान की घोषणा हुयी थी तब भारत चीन संस्कृतिक संबंधों के विशेषज्ञ जू के कियो ने कहा था कि चीन के लोग भारत की परंपरा और संस्कृति के बारे में जो कुछ भी जानते हैं वह जी के माध्यम से ही जानते हैं। उन्होंने भारत के प्राचीन ग्रन्थों को मूल संस्कृत से अनुवाद करके उसे चीनी काव्य में रूपान्तरित किया है।
                अपने नैतिक मूल्यों, उज्जवल चरित्र और व्यक्तित्व के लिए जी को चीन में बहुत आदर प्राप्त है। चीनी प्रीमियर वेन जियाबों ने भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से कहा था कि जी हमारे सर्वोत्तम सलाहकार हैं। परम राष्ट्रभक्त जी का कहना था कि जब में राख में बदल जाऊॅंगा तब भी चीन के प्रति मेरा प्रेम कम नहीं होगा। उन्होंने अपने छात्र जीवन में ही जापान द्वारा घुसपैठ करने पर च्यांग काई शेक के खिलाफ याचिका दायर की थी।
                खाकी पोशाक और कपड़ों के जूतेां में स्कूल बैग लटकाये हुये जी एक ख्यात विद्वान से अधिक एक किसान और मजदूर नजर आते थे। वे सुबह साढे चार बजे उठ जाते और  पांच बजे नाश्ता करने के बाद लिखना प्रारंभ कर देते थे। उनका कहना था कि लिखने के लिए ही सुबह मुझे उठाती है। वे बहुत ही तेजी से लिखते थे पर विचारों के साथ भाषा पर मजबूत पकड़ होने के कारण उनके लेखन में कहीं झोल नहीं आता था। कहा जाता है कि उन्होंने अपना बहुप्रसि़द्ध निबंध ‘‘फारएवर रिग्रैट’’ कुछ ही घंटों में लिख लिया था, जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा।
                जी अपने विचारों की अभिव्यक्ति में निर्भयता के लिए भी जाने जाते रहे। उन्होंने चीन की सांस्कृतिक क्रान्ति के दौरान ही रामायण के चीनी अनुवाद का दुस्साहसपूर्ण काम किया था। 1986 में उन्होंने अपने दोस्तों की सलाहों के खिलाफ विवादास्पद हू शी के बारे में लिखा ‘‘ फ्यिू वर्डस् फार हूशी”। हू उस समय चीन में अनादर भाव से देखे जा रहे थे और उनके विचारों पर लिखने बोलने का कोई साहस नहीं कर रहा था। तब जी का कहना था कि रचनात्मक कार्यों को पहचाना जाना चाहिये और न केवल उनकी कमजोरियों को ही सामने आना चाहिये अपितु उनके आधुनिक साहित्य की अच्छाइयों को भी जाना जाना चाहिये। उनके लिखे हुये का ही परिणाम था जो चीन ने हूशी के काम को पुनः देखा और मान्यता दी।
जी का कहना था कि सांस्कृतिक आदानप्रदान ही मनुष्यता की बड़ी संचालक शक्ति है। वे कहते हैं कि एक दूसरे से सीख कर और उनकी कमियों को ठीक करके ही हम सतत प्रगति कर सकते हैं । उनका कहना था कि वैश्विक सद्भाव ही मानवता का लक्ष्य है। जी मानव संस्कृति को दो भागों में बांट कर चलते रहे, एक चीन-भारत अरब-इस्लामिक संस्कृति तथा दूसरी यूरोप-अमेरिकन पश्चिमी संस्कृति। वे पूरब और पश्चिम की संस्क्तियों के बीच में निरंतर समन्वय और आदानप्रदान के पक्षधर रहे।
जी को सम्मानित करके भारत सरकार ने विश्वबंधुत्व के एक प्रमुख यथार्थवादी घ्वजवाहक को सम्मानित करने का काम किया था। हजारों भाषाओं वाली दुनिया को अनुवाद से ही समझा जा सकता है।
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग रायसेन रोड
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शुक्रवार, जुलाई 03, 2020

म.प्र. में अस्थिर सरकारों का दौर


म.प्र. में अस्थिर सरकारों का दौर


Madhya Pradesh cabinet expansion: Jyotiraditya Scindia has become ...

वीरेन्द्र जैन 
गत दिनों म.प. में एक अंतराल के बाद भाजपा सरकार के पुनरागमन के सौ दिन पूरे होने के उपलक्ष्य में एक सभा आयोजित की गयी।यह सभा सौ दिन से प्रतीक्षित मंत्रिमण्डल विस्तार के दूसरे दिन ही आयोजित की गयी जिसमें ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने प्रमुख वक्ता की तरह भाषण दिया।
उल्लेखनीय है कि पूरे देश की तरह मध्य प्रदेश में भी कांग्रेस गुटों में विभक्त है और विधानसभा व लोकसभा चुनाव में कमलनाथ, ज्योतिरादित्य व दिग्विजय सिंह के गुटों ने एकजुट होने के दिखावे के साथ चुनावों में भाग लिया था। दिग्विजय सिंह ने अपनी राजनीतिक सूझ बूझ से प्रदेश के मुख्यमंत्री पद के लिए कमलनाथ के नाम पर सहमति दे दी, व स्वयं अपने अनुभवों व सम्बन्धों का लाभ नेपथ्य में रह कर देने लगे। विरोधियों ने आरोप तो यह भी लगाया कि वे परदे के पीछे रह कर सरकार चला रहे हैं। ज्योतिरादित्य ने समझौते में अपने क्षेत्र के अनेक लोगों को विधानसभा का टिकिट दिलवाया जिनमें से अनेक जीत भी गये और उचित संख्या में मंत्री भी बनाये गये। ऐसे सब लोग सिन्धिया परिवार के बफादार थे। कठिन समय में भी जिस सीट से सिन्धिया परिवार के लोग लगातार जीतते रहे थे उस सीट से गत लोकसभा चुनाव में ज्योतिरादित्य अपने ही एक समर्थक से हार गये। इसे उन्होंने काँग्रेस के दूसरे गुटों का षड़यंत्र माना और एक आखिरी कोशिश के रूप में राज्यसभा के लिए प्रयास किया, पर काँग्रेस के सदस्यों की जितनी संख्या थी, उतने में केवल एक सदस्य ही जीत सकता था, जिस पर दिग्विजय सिंह की हर तरह से उचित दावेदारी थी।
अतः अपनी राजनीतिक हैसियत को बचाने के लिए ज्योतिरादित्य सिन्धिया ने आखिरी दाँव खेला। उन्होंने अपने समर्थक विधायकों से त्यागपत्र दिलवा दिया जिससे कमलनाथ की सीमांत समर्थन वाली सरकार अल्पमत में आ गयी। निर्दलीय व अन्य छोटे दलों के साथ सौदेबाजी करके भाजपा ने सरकार बना ली। सिन्धिया समेत सभी त्यागपत्र दिये विधायकों ने भाजपा की सदस्यता ले ली और ज्योतिरादित्य भाजपा के टिकिट पर राज्यसभा में पहुंच गये। अगली चुनौती त्यागपत्र दिये हुए व खाली सीटों पर होने वाले उपचुनावों की थी, जिसका गणित बैठाने के लिए मंत्रिमण्डल का विस्तार रोके रखा गया। जब उपचुनाव सिर पर ही आ गये तब विस्तार किया गया जिसमें वादे के अनुसार काँग्रेस से त्यागपत्र देकर आये सिन्धिया समर्थकों को उचित प्रतिनिधित्व दिया गया जिनमें से अधिकतर चम्बल क्षेत्र के थे। वैसे काँग्रेस के पक्ष में कोई स्पष्ट माहौल तो नहीं है किंतु सिन्धिया की बफादारी में इनका पाला बदल कर भाजपा में जाना ना तो क्षेत्र के कांग्रेस के परम्परागत वोटरों को हजम होगा और ना ही अपने ऊपर वरीयता दिये जाने के कारण भाजपा के परम्परागत वोटरों को हजम होगा। सरकार और मंत्री पद की चाशनी ही एक मात्र आकर्षण हो सकता है।
उपरोक्त सौ दिन वाले आयोजन के अवसर पर ज्योतिरादित्य सिन्धिया का भाषण उत्कृष्ट चापलूसी का निकृष्टतम उदाहरण था। स्मरणीय है कि श्री सिन्धिया काँग्रेस के पूर्व अध्यक्ष और वर्तमान में प्रमुख नेता राहुल गाँधी के हम उम्र और निजी मित्रों में थे। लोकसभा की चुनिन्दा बहसों में श्री गाँधी ने उन्हें महत्वपूर्ण वक्तव्य देने का अवसर दिया था। वे काँग्रेस के प्रमुख नेताओं में गिने जाते थे। उल्लेखनीय है कि जब एक दिन अचानक लोकसभा में राहुल गाँधी ने नरेन्द्र मोदी को गले लगा लिया था व उसके बाद ज्योतिरादित्य सिन्धिया की ओर देख कर ही आँख मार कर संकेत दिया था कि यह दोनों की योजना थी। उपरोक्त भाषण उनके अभी तक के भाषणों के ठीक विपरीत था और किसी सामंत के चारण गान जैसा था। सीधा प्रसारण बता रहा था कि वह भाषण भाजपा के कार्य परिषद के सदस्यों को भी बचकाना व अविश्वसनीय लग रहा था और पच नहीं पा रहा था।
गत पन्द्रह वर्षों तक भाजपा के पूर्ण बहुमत की सरकारें रही थीं भले ही शुरू में उन्हें दो मुख्यमंत्री बदलना पड़े हों किंतु स्थिरिता पर फर्क नहीं पड़ा। अब ऐसी स्थिति नहीं है। मध्य प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवीय है और 2018 के विधानसभा चुनावों के बाद दोनों दलों को पूर्ण बहुमत नहीं था व निर्दलीय बसपा, सपा, आदि से समर्थन लेने के बाद ही सरकार बन सकती थी। यह समर्थन हथियाने में काँग्रेस ने बाजी मार ली और भाजपा पीछे रह गयी। इन पन्द्रह सालों में भाजपा ने अपनी एकता के खोल में कई टकराव देखे किंतु वे सतह पर प्रभाव नहीं दिखा सके। 2003 में उमा भारती को इसलिए मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया था क्योंकि भाजपा को जीतने की उम्मीद नहीं थी व उसके पास दिग्विजय सिंह की टक्कर का कोई उम्मीदवार नहीं था। संयोग से काँग्रेस हार गयी और भाजपा ने अप्रत्याशित मुख्यमंत्री उमा भारती पर नियंत्रण लगा कर उन्हें संचालित करना चाहा जिसके खिलाफ कुछ समय बाद उन्होंने विद्रोह कर दिया। संयोग से एक प्रकरण में घोषित सजा के बाहने उन्हें बाहर करने का मौका मिल गया। उस समय भी अरुण जैटली के साथ शिवराज सिंह चौहान को शपथ लेने के लिए दिल्ली से भेजा गया था किंतु उमा भारती ने उन्हें पदभार ट्रांसफर करने से इंकार करते हुए अपनी पसन्द के सीधे सरल महात्वाकांक्षा न पालने वाले बाबूलाल गौर को पद दिया ताकि मौका आने के बाद वे पद खाली कर दें। जल्दी ही ऐसा मौका भी आ गया किंतु भाजपा ने यह कह कर रोक दिया कि इतनी जल्दी जल्दी मुख्यमंत्री नहीं बदले जाते। बाद में उनकी तिरंगा यात्रा, के बाद पार्टी छोड़ने और दूसरा दल बनाने का दौर चला। शिवराज नामित कर दिये गये थे। 2008 के चुनावों में उन्होंने अलग दल से चुनाव लड़ कर भाजपा को नुकसान पहुंचाया। पर अन्दर से चतुर शिवराज ने उन्हें न केवल पराजित कराया अपितु जब उन्होंने वापिस आना चाहा तो दो तीन साल तक उनकी वापिसी को रोके रहे। वापिस भी इसी शर्त पर होने दिया कि वे मध्य प्रदेश में प्रवेश नहीं करेंगी। उन्हें उत्तर प्रदेश से विधायक का चुनाव लड़वाया गया और उनकी इच्छा के अनुसार उन्हें उत्तर प्रदेश में भी मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित किया गया क्योंकि पार्टी को सरकार बना लेने की उम्मीद नहीं थी। हुआ भी ऐसा ही, वे शपथ ग्रहण के बाद दुबारा उत्तर प्रदेश विधान सभा में नहीं गयीं। बाद में 2014 में लोकसभा चुनाव भी उन्हें उ.प्र. से लड़वाया गया। इस बीच में उनके पक्षधर नेताओं को राजनीतिक रूप से निर्मूल कर दिया गया जब तक कि वे शिवराज के आगे समर्पित नहीं हो गये। इस मंत्रिमण्डल विस्तार के बाद भी उमा भारती ने अपना असंतोष व्यक्त किया था कि उनके समर्थकों को उचित स्थान नहीं मिला।
शिवराज ने अपने कार्यकाल के दौरान अपने सारे विरोधियों को बहुत कुशलता से बाहर करवा दिया। कैलाश विजयवर्गीय को संगठन में पदोन्नति के बहाने, प्रभात झा और अरविन्द मेनन आदि को कार्यकाल पूरा होने के बहाने दूर कर दिया। अब तक वे सर्वे सर्वा बने रहे, किंतु अब उन्हें उन  सिन्धिया की चुनौती झेलना पड़ेगी जिनमें बाल हठ जैसा राजहठ है। सरकार उन की इच्छा पर ही टिकी है क्योंकि जो विधायक उनके कहने पर त्यागपत्र दे सकते हैं वे उन्हीं के आदेश का पालन करेंगे। भाजपा ने सरकार बनाने और मंत्रिमण्डल विस्तार में तो झुक कर समझौता कर लिया किंतु  एक सीमा से अधिक वह समझौता नहीं कर सकेगी। अगर इन विधायकों में एक सुनिश्चित संख्या हार जाती है तो भी सरकार बदलेगी। संसाधनों की बहुलता के कारण खरीद फरोख्त में कोई दल पीछे नहीं है। इसलिए अस्थिर सरकारों का दौर शुरू हो सकता है। जिस तरह की राजनीतिक जोड़ तोड़ चल रही है उसमें सोशल डिस्टेंस, मास्क आदि के प्रति कोई सावधान नहीं दिख रहा है।   
वीरेन्द्र जैन
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