बुधवार, फ़रवरी 10, 2010

थ्री ईडियट्स जैसी फिल्म का विरोध किसने किया था

[मुम्बई में थ्री ईडियट्स के पोस्टर फाड़ते भाजपा कार्यकर्ता अपने झन्डों के साथ]
थ्री ईडियटस- जैसी एक बहु प्रशंसित फिल्म के विरोधी कौन थे?
वीरेन्द्र जैन
थ्री ईडियट्स आमिर खान की बेहतरीन फिल्मों की श्रंखला में एक मील का पत्थर साबित हुयी है जिसने भरपूर मनोरंजन के साथ आज के युवावर्ग की इतनी सारी समस्याएं एक साथ उठायी हैं कि आश्चर्य होता है। इस फिल्म को न केवल व्यापारिक स्तर पर ही सफलता मिली है अपितु हर वर्ग के फिल्म समीक्षक को इसकी मुक्त कण्ठ से प्रशंसा करने के लिये विवश होना पड़ा है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और भूतपूर्व उपप्रधान मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी जो अपनी जवानी के दिनों में फिल्मी पत्रकार हुआ करते थे और फिल्मों की समीक्षा लिखते थे, को भी इसकी तारीफ करने को विवश होना पड़ा है।
जहाँ इस फिल्म की चारों दिशाओं में तारीफ हुयी है वहाँ इसका विरोध करने वाले केवल भाजपा के कार्यकर्ता थे जो आमिर खान द्वारा रंग दे बसंती जैसी फिल्म बनाने के बाद से ही उनसे नाराज चल रहे हैं क्योंकि उस फिल्म में न केवल अमर शहीद भगत सिंह के विचारों पर ही प्रकाश डाला गया अपितु साम्प्रदायिकता और तत्कालीन भाजपा सरकार के आचरण को भी समीक्षा के केन्द्र में लाया गया था। यही कारण था कि भाजपा के इकलौते फासिस्ट शासन वाले राज्य गुजरात में रंग दे बसंती जैसी बेहतरीन फिल्म को प्रदर्शित नहीं होने दिया गया और लोगों को सीडी और टीवी पर देख कर काम चलाना पड़ा।
उसके बाद से वे आमिर की हर एक फिल्म का विरोध करते हैं, भले ही उसके सफल हो जाने के बाद जनता का मूड भाँप कर आडवाणी जी आग को ठंडा करने का स्वाँग करते रहते हों। जब तारे ज़मीं पर अत्यंत सफल हुयी तो आगामी चुनाव और जनता का मूड भाँप कर आडवाणी जी ने फिल्म देख कर आँसू भी बहाये और उन आँसुओं के बहने को प्रचारित भी कराया था।
थ्री ईडियट्स में वैज्ञानिक दृष्टिकोण और विज्ञान विषय के रट्टू तोतों के बीच फर्क दिखाया है जिसमें विज्ञान में टाप करने की चाह रखने वाला रट्टू लड़का देवी देवताओं को पूज कर सफल होना चाहता है जबकि फिल्म का हीरो अपनी छोटी छोटी समस्याओं को अपनी वैज्ञानिक बुद्धि से हल करता है। फिल्म में गरीबी की विवशता है, तो अमीरी की बदमाशी भी है जो दूसरे के नाम से परीक्षा की डिग्री हासिल करके धन कमाता है। फिल्म में रैगिंग के रोग का प्रोटेस्ट भी है तो शिक्षा की भाषा का सवाल भी उठाया गया है। फिल्म में नवधनाड्यों की सोच की सीमा भी बतायी गयी है तो गरीबी की विशाल ह्रदयता और ईमानदारी की मिशालें हैं। फिल्म में गीता का दर्शन- जो होता है सब अच्छा होता है- को गीत आल इज वैल के माध्यम से दिया गया है, तो रोचकता बनाये रखने के लिये ग्लोबल वार्मिंग जैसी हल्की फुल्की टिप्पणी भी है। सुशिक्षित लोगों द्वारा कहीं भी गन्दगी कर देने की बुरी आदतों पर कटाक्ष भी है तो परीक्षकों के पक्षपात के दोष भी दर्षाये गये हैं। निर्देशन का कमाल हर जगह नज़र आता है जिसमें गरीबी को ब्लेक एंड व्हाइट दिखा कर उनके उसी पुराने युग में जीने की विवशता को बताया गया है। माँ बाप के सपनों को बच्चों पर लाद कर उन्हें पैसा पैदा करने की मशीन में ढालने की भूल को भी उभार कर बताया गया है कि बच्चे अपनी सामर्थ और रुचि के अनुसार ही सही विकास पाते हैं।
जब लोगों के द्रष्टिकोण में वैज्ञानिकता आयेगी तब चीजों को विवेक के आधार पर देखने की तमीज़ भी जागेगी जिससे ढोंग, पाखण्ड और अन्धविश्वासों को फैला कर मलाई काटने वालों का पत्ता साफ हो जायेगा। तब लोग एक अफवाह पर गणेशजी की मूर्ति को दूध पिलाने नहीं दौड़ पड़ेंगे। इसलिये अन्न्धविश्वासों से लाभांवित लोग हर वैज्ञानिक कदम को भटकाने का प्रयास करते हैं या उसका विरोध करने लगते हैं।
फिल्म को सफल करके लोगों ने न केवल अपनी परिपक़्वता का ही परिचय दिया है अपितु साहित्य चित्रकला फिल्म और विभिन्न कलाओं का डंडे से विरोध करने वाली भाजपा को करारा जबाब भी दिया है। शायद यही कारण है कि शाहरुख खान की फिल्म का विरोध उन्होंने अपने गठबन्धन वाले शिव सेना पर ही छोड़ दिया है। कला और संस्कृति के संगठनों और मोर्चों की ज़रूरत आज पहले से ज्यादा बड़ गयी है।
वीरेन्द्र जैन
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