बुधवार, फ़रवरी 26, 2014

ऐसे गठजोड़ हताशा की निशानी हैं

ऐसे गठजोड़ हताशा की निशानी हैं
वीरेन्द्र जैन

       ताज़ा राजनीतिक घटनाक्रम में उदितराज ने भाजपा की सदस्यता ग्रहण कर ली है, और अपनी पार्टी इंडियन जस्टिस पार्टी का भाजपा में विलय कर दिया है। नेताओं का अचानक दल या गठबन्धन का विपरीत ध्रुवीय परिवर्तन न केवल आश्चर्यचकित करता है अपितु लोकतंत्र से जनता की आस्थाओं को कमजोर भी करता है। यह परिवर्तन अपने मतदाताओं को बँधुआ मानने के गलत विश्वास से ही सम्भव होता है।
       उदितराज दलितवर्ग में जन्म लेने वाले एक शिक्षित युवानेता हैं जो भारतीय राजस्व सेवा को छोड़ कर राजनीति में आये हैं। पिछले दो दशकों के दौरान आरक्षण के पक्ष में अपने स्पष्ट विचारों व तर्कों के साथ अनेक टीवी बहसों में सक्रिय भागीदारी करके बुद्धिजीवी दर्शकों को प्रभावित करने वाले उदितराज अपना अलग दल गठित करके चुनावों में भागीदारी भी कर चुके हैं और विचार आधारित राजनीति की विडम्बनाओं का सामना भी कर चुके हैं। सवर्ण जातिवादियों के खिलाफ वे बाबा साहब अम्बेडकर के पद चिन्हों पर चल हजारों दलितों का धर्म परिवर्तन कराके कट्टर हिन्दुत्व और उस पर आधारित राजनीतिक सामाजिक दलों व संगठनों को चुनौती भी दे चुके हैं। चुनावी राजनीति में पिछड़ने की हताशा में उनका किसी मुख्यधारा के दल में सम्मलित हो जाना तो एक मानवीय कमजोरी मानी जा सकती थी किंतु इसके लिए उस दल में सम्मलित होना विडम्बनापूर्ण है जो अब तक उन लोगों के समर्थन से चल रहा हो जिनके खिलाफ वे अब तक लड़ते रहे हैं। स्मरणीय है कि आरक्षण की व्यवस्था भले ही संविधान के लागू होते ही प्रारम्भ हो गयी थी किंतु आरक्षित वर्ग को शिक्षित होकर उसका लाभ लेने में समय लगा जिसके बाद ही आरक्षण व्यवस्था प्रभावी हुयी थी। जब से  सभी आरक्षित पदों पर अनुसूचित जातियों जनजातियों के लोग उपलब्ध होने लगे हैं तब से ही सवर्ण वर्गों द्वारा आरक्षण का विरोध भी शुरू हो गया है। इस विरोध को सत्ता के लिए सर्वाधिक लालायित पार्टी भाजपा ने परोक्ष रूप से हवा देती रही है। मनुवाद को देश का संविधान बनाने का इरादा रखने वाली यह पार्टी आरक्षण विरोधियों को सबसे अधिक सुहाती रही थी व उनका समर्थन इसी पार्टी को मिलता रहा है। दूसरी ओर उदितराज की पहचान आरक्षण के मुखर पक्षधर के रूप में बनी है इसलिए उनका विचारों से बेमेल भाजपा में सम्मलित होना चकित करता है और चुनावी राजनेताओं की सैद्धांतिकी पर सन्देह पैदा करता है।
       उत्तर भारत में दलित समाज का सर्वाधिक जातीय समर्थन बहुजन समाज पार्टी को मिलता रहा है जिसका नेतृत्व कभी कांशीराम ने किया था और अब मायावती कर रही हैं। उदितराज ने मायावती का बहुत विरोध किया किंतु वे अपनी बेहतर बौद्धिक प्रतिभा के बाद भी उनको मिलने वाले समर्थन को अपने साथ नहीं ले सके। यही कारण रहा कि वे चुनाव परिणामों में अपनी प्रभावी उपस्थिति दर्ज़ नहीं करा सके। उनका अपना वोट बैंक बहुत मामूली है, जो भाजपा जैसे मनुवादी दल के पक्ष में नहीं ले जाया जा सकता। उनकी पार्टी में उनके अलावा कोई दूसरा समतुल्य नेतृत्व भी नहीं है इसलिए भाजपा उनको उस आरक्षित सीट का टिकिट देगी जहाँ से जीत की सम्भावनाएं सबसे कम होंगीं। इससे उसके दोनों ही हाथों में लड्डू रहेंगे।            
       सोनिया गाँधी के सक्रिय राजनीति में आने के बाद भाजपा ने ईसाई मिशनरियों पर धर्म परिवर्तन का आरोप लगाने के बहाने परोक्ष में सोनिया गाँधी पर निशाना साधना प्रारम्भ कर दिया था और उसी श्रंखला में गिरिजाघरों पर हमले और मिशनरियों की हत्याएं होने लगी थीं और आरोपियों में संघ परिवार से जुड़े लोग पहचाने गये थे। इसी दौरान उदितराज ने अटलबिहारी वाजपेयी के शासन काल में पच्चीस हजार दलितों को दिल्ली में धर्म परिवर्तन कराके बौद्ध बनाया था। भले ही सामूहिक धर्म परिवर्तन की परम्परा अम्बेडकर ने नागपुर में पाँचलाख दलितों को एक साथ बौद्ध बनाकर डाली हो पर उदितराज ने इसे आगे बढा कर बहुजन समाज पार्टी से बाजी मार ली थी क्योंकि मायावती ने लम्बे समय तक उत्तर प्रदेश में शासन करने के बाद भी ऐसा कोई प्रयास नहीं किया। उल्लेखनीय है कि उस समय उदितराज का विरोध करने वालों में विभिन्न नामों से चलने वाले संघ के संगठन ही प्रमुख थे। अब स्थिति की विडम्बना यह है कि यदि उदितराज अपने उन तेवरों को वैसे ही दबा देते हैं जैसे कि भाजपा ने एनडीए सरकार चलाते समय अपने तीनों प्रमुख मुद्दे दबा दिये थे, तो वोटबैंक विहीन उदितराज की पहचान खो जायेगी, और यदि वे अपनी पहचान बनाये रखते हैं तो भाजपा के लोगों के बीच खप नहीं सकते। पार्टी का विलय होने के कारण उसकी चल अचल सम्पत्ति पर भाजपा का अधिकार हो जाना स्वाभाविक है, किंतु बाहर निकलने का अवसर आने पर उन्हें खाली हाथ ही बाहर होना पड़ेगा।
       भले ही संवैधानिक व्यवस्थाओं के अनुसार 18% सीटें अनुसूचित जातियों व जनजातियों के लिए आरक्षित हैं जिस कारण से भाजपा को भी समुचित संख्या में उम्मीदवार चाहिये होते हैं किंतु इतिहास गवाह है कि इस मनुवादी पार्टी ने कभी भी दलित नेताओं को मन से नहीं अपनाया। संघ प्रिय गौतम से लेकर मायावती के साथ बनी सरकारों तक का अनुभव सबको मालूम है। देखना होगा कि जरूरत पर काका बना लेने वाली इस पार्टी में उदितराज कितने दिन तक टिक पायेंगे ?
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, फ़रवरी 21, 2014

श्रद्धांजलि ः कामता प्रसाद सड़ैया

श्रद्धांजलि ः कामता प्रसाद सड़ैया
ज्वाला को ज्योति में बदलने वाला व्यक्ति

वीरेन्द्र जैन
       सड़ैया जी के देहावसान की हतप्रभ कर देने वाली दुखद खबर जिस दिन और समय मिली तब तक बहुत देर हो चुकी थी और था उनके अंतिम दर्शन के लिए भोपाल से इन्दरगढ तक पहुँचना सम्भव नहीं था। मन में एक कसक बनी रही।
       सड़ैयाजी मुझ से वरिष्ठ थे और उनके छोटे भाई चन्द्र प्रकाश मेरे सहपाठी थे किंतु जब से मेरी साहित्यिक रुचि से वे परिचित हुये थे तब से वे मेरे बड़े भाई समान मित्र जैसे हो गये थे। उनका व्यक्तित्व ऐसा था कि मुझे याद नहीं पड़ता कि मैंने उन्हें कभी नाराज होते या किसी का अपमान करते देखा हो। उन्हें अन्य दतियावासियों की तरह किसी की कमजोरियों का उपहास करते भी नहीं देखा। उनके स्वभाव से इतनी भलमनसाहत प्रकट होती थी कि कई बार बड़ी कोफ्त होती थी क्योंकि भरोसा ही नहीं होता था कि इस दौर में कोई ऐसा भी हो सकता है जो बुरे से बुरे को भी बुरा नहीं कहता हो। अप्रिय व्यक्तियों के प्रति भी उनके इस ठंडेपन से परेशान होकर मैं कह देता था कि आपके व्यवहार में नकलीपन झलकता है, पर वे न तो इसका बुरा मानते थे और न ही गुस्सा ही करते थे। मैंने उनसे एक बार कहा था कि आप भी मेरी तरह सीता किशोर जी के मुरीद हैं और लगता है कि वह पंक्ति उन्होंने आपके लिए ही लिखी है।
                “कौन सी? उन्होंने तुरंत पूछा था क्योंकि वे कविताओं पर मंत्रों की तरह श्रद्धा रखते थे।
       वही कि कम से कम इस सड़ाँध को सड़ाँध तो कहो मैंने कहा था और वे हँस कर टाल गये थे।
       बहुत निकट जाने पर पता चला था कि उनके अन्दर एक आग भरी है। इन्दरगढ के पास ही उनका गाँव था, और वे छात्र जीवन में लोकप्रिय सक्रिय छात्र नेता थे। उसी गाँव की स्थानीय राजनीतिक शत्रुता ने उनके घर पर डकैती डलवा दी थी। उनके परिवारियों पर प्राण घातक हमले हुये थे, और उनके परिवार को गाँव छोड़ना पड़ा था। इतना ही नहीं पिछली सदी के छठवें दशक की प्रभावी राजनीतिक शक्तियों ने उक्त अपराध के चिन्हित अपराधियों को पनाह दी थी क्योंकि छात्र नेता श्री सड़ैया उनका साथ नहीं दे रहे थे। इस अन्याय और अपमानबोध को उस क्षेत्र की परम्परा के अनुसार प्रतिहिंसा में बदल जाना चाहिए था किंतु श्री राधा रमण वैद्य से प्रशिक्षित सीताकिशोर और शिवचरन पाठक जैसे साथियों के प्रभाव ने उनके आक्रोश को साहित्य में रूपांतरित किया। उन्होंने उस ज्वाला को ज्योति बनाया। अब वे समझ गये थे कि यह व्यक्ति का नहीं व्यवस्था का दोष है और व्यवस्था को ही बदलना चाहिए। व्यक्तियों के प्रति उनके गुस्से की दिशा बदल चुकी थी। वे व्यवस्था बदलने के रास्ते की तलाश में थे और उन्हें हर वह व्यक्ति पसन्द था जो व्यवस्था बदलने की कोई बात करता था। दुर्भाग्य से सामंती व्यवस्था से मुक्त न हो पाने वाले इस क्षेत्र में व्यवस्था परिवर्तन का कोई प्रभावी आन्दोलन या संस्था नहीं थी इसलिए वे किसी से बँध नहीं सके। कुछ समय उन्होंने ग्वालियर में भी बिताया था और मुकुट बिहारी सरोज के निकट रहे। कभी वे विनोबा के सर्वोदय के प्रभाव में रहे तो कभी सुब्बाराव के साथ जुड़े। गाँधीवाद उन्हें अनुकूल लगता था इसलिए वे उसके पक्षधर थे। वे परम्पराओं से भी निरंतर जुड़े रहे और पूजा पाठ आदि के प्रति भी विरक्त नहीं हो सके भले ही हम लोगों के सामने उस पर बातचीत से बचते रहे हों। एक दौर में श्री राम उनका तकिया कलाम हो गया था और किसी भी टिप्पणी के लिए या टिप्पणी करने से बचने के लिए वे श्री राम का उद्घोष इस अन्दाज़ में करते थे कि हम सब लोगों के चेहरों पर मुस्कराहट खेल जाती थी। पर जब जय श्री राम को एक साम्प्रदायिक संगठन ने उत्तेजक नारे के रूप में बदल दिया तो वे श्री राम की जगह श्री कृष्ण कहने लगे थे, जो इस बात का प्रतीक था कि वे जड़ नहीं थे और समय अनुसार बदल सकते थे। प्रो. केबीएल पांडे जी के मार्गदर्शन में वे प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े और उसके जिला सचिव रहे तथा 1972 के एतिहासिक बाँदा सम्मेलन से लेकर अनेक राष्ट्रीय व प्रादेशिक सम्मेलनों, लेखक सम्मेलनों में भाग लिया।
       अपने सभी परिचितों, मित्रों, के लिए वे निकट के परिवारीजन की तरह थे और वैसे ही उनकी चिंता भी करते थे। बच्चों की शिक्षा की चिंता, उनके रोजगार की चिंता, शादी व्याह की चिंता, उनकी अच्छी बुरी आदतों की चिंता वे घर के बुजुर्ग की तरह करते थे पर कभी भी अपनी वरिष्ठता का दबाव नहीं बनाते थे।
       कविता उनका एकमात्र शौक था जिसके लिए वे किसी भी समय, किसी भी मौसम में, कितनी भी दूर जा सकते थे। जो कविताएं उन्हें पसन्द थीं वे उन्हें कंठस्थ थीं और वे उन्हें जीवन दर्शन की तरह मुग्धभाव से सुनाते थे। उन्हें प्रसाद, निराला, भवानी प्रसाद मिश्र, नीरज, जितना पसन्द थे उतने ही मुकुट बिहारी सरोज, रंग, चन्द्रकांत देवताले, सीताकिशोर खरे, आदि भी पसन्द थे। अपनी कविताएं सुनाने के लिए कभी दुराग्रह नहीं करते थे पर यदि सच्चे मन से आग्रह किया जाता था तो नखरे भी नहीं करते थे। उनकी कविता का कलेवर उनकी रुचियों के अनुसार परम्परावादी और प्रगतिशील कविता से मिलकर बना है। श्री राधा रमण वैद्य के स्कूल से निकले डा. सीता किशोर खरे, वेद शर्मा, डा, श्याम बिहारी, डा. कामिनी, के साथ सड़ैयाजी भी कविता जगत से जुड़े और प्रशिक्षित हुये। बाद में डा. केबीएल पांडे, डा. रत्नेश, डा. शफी हिदायत कुरैशी, वकार सिद्दीकी, अलमदार ज़ैदी, राज नारायण बौहरे, राम भरोसे मिश्र, जगदीश सुहाने, आदि के साथ चले विमर्श से निरंतर मँजते और माँजते चले गये। पाठक मंच के अंतर्गत आने वाली पुस्तकों के वे नियमित पाठक थे और व्यवस्था अनुसार उन पुस्तकों पर टिप्पणी भी करते थे। हम लोगों को यह रोचक लगता था कि वे हमेशा उन पुस्तकों के अच्छे पक्ष का ही चयन करके उनकी प्रशंसा करते थे जबकि हम लोग चाहते थे कि उन्हें उन पुस्तकों की कमियों पर भी निगाह डालना चाहिए। हम लोगों की यह इच्छा कभी पूरी नहीं हुयी क्योंकि वे बुरा देखने के लिए कभी तैयार ही नहीं होते थे।
       निरंतर घटती आत्मीयताओं की इस दुनिया में किसी ऐसे आत्मीय व्यक्ति का जाना जीवन में कितनी कमी पैदा करता है इसे आज महसूस कर रहा हूँ। उनके निकट के मित्र अलमदार ज़ैदी जो सेवानिवृत्ति के बाद और अधिक निकट हो गये थे, उनकी मृत्यु से कुछ दिन पहले ही दुनिया छोड़ गये और पीछे से सड़ैयाजी भी उनसे मिलने चले गये। प्रसिद्ध शायर इज़लाल मज़ीद का शे’र है-
कोई मरने से मर नहीं जाता
देखना वो यहीं कहीं होगा
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 19, 2014

तमाशों और षड़यंत्रों की राजनीति

तमाशों और षड़यंत्रों की राजनीति
वीरेन्द्र जैन

       अपने शैशव काल में बच्चे कपड़ों में ही मलमूत्र विसर्जन कर देते हैं जिसे उनकी गलती नहीं माना जाता, किंतु यही काम जब वे थोड़ा बड़ा होने पर करते हैं तो यह असहनीय होता है। खेद है कि हमारा लोकतंत्र एक लम्बा समय गुजार लेने के बाद भी वैसी ही भूलें कर रहा है जैसी वह अपनी शैशव काल में करता था। प्रारम्भिक चुनावों में स्वतंत्रता आन्दोलन की सेना के रूप में कार्यरत कांग्रेस देश में लोकतांत्रिक रूप से चुनी जाने की स्वाभाविक अधिकारी थी, और कांग्रेस के अलावा कम्युनिष्ट या समाजवादी धड़ों में भी कांग्रेस के स्वतंत्रता आन्दोलन से निकले लोग थे। मुझे अपने बचपन की याद है कि 1962 में कांग्रेस का प्रचार करने आये लोगों से राष्ट्रकवि मैथली शरण गुप्त ने एक रोचक वाक्य कहा था कि वोट देने का अधिकार सबको है पर वोट लेने का अधिकार केवल कांग्रेस को है। प्रारम्भिक दिनों में हिन्दू महासभा एक प्रमुख दल हुआ करता था और उसकी लोकप्रियता जनसंघ से अधिक थी। मैंने सातवें दशक में इसके अध्यक्ष बृज नारायण बृजेश के कुछ भाषण सुने हैं जिनके अंश अब भी स्मृति में हैं। 1967 में श्रीमती विजयाराजे सिन्धिया के जनसंघ में चले जाने पर टिप्पणी करते हुये बृजेशजी का भाषण इस तरह का हुआ करता था- राजमाता ने आपको क्या दिया?
दिया [दीपक जो जनसंघ का चुनाव चिन्ह होता था]
ग्वालियर की जनता को क्या दिया?
दिया
बेटे को क्या दिया?
दिया [माधव राव सिन्धिया पहले जनसंघ के सदस्य थे]
और इस ‘दिया’ की लम्बी श्रंखला के बाद वे कहते थे कि कुछ लिया न दिया और तुम्हारे दरवाजे पर चिपका दिया। अरे तुम लोग क्या राजमाता को देखने भीड़ बना कर चले आते हो, एक पाँच रुपये की लक्स की बट्टी [साबुन] खरीदो और उससे अपनी घरवाली को नहलाओ तो वही राजमाता जैसी दिखने लगेगी।
       श्री बृजेश के भाषण आम जनता के बीच आकर्षण का केन्द्र होते थे और कहा जाता है कि इसी शैली की नकल जनसंघ के तत्कालीन नेता अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी और हिन्दी पट्टी में उन्होंने भी भाषण की लगभग इसी परम्परा को आगे बढाया था। 1971 के आम चुनावों के दौरान उनके भाषण का एक अंश याद आता है- इन्दिरा गान्धी कैत्ती यें [कहती हैं] कि गरीबी हट्टाओ, अरे भाई हट्टान्ने का अर्थ है इधर से हट्टा कर उधर रख दी, उधर से हट्टा कर इधर रख दी। पर मैं नईं कैत्ता कि गरीबी हट्टाओ, मैं कैत्ता हूँ कि गरीबी मिट्टाओ। इन्दिराजी कैत्ती यें कि जब मैं दोनों हाथ उठाकर भाषण देता हूं तो उन्हें हिटलर की याद आती है, पर मुझे भाषण की कोई ऐसी शैली नहीं पता कि जिसमें टाँग उठाकर भाषण दिया जाता हो। इत्यादि। बाद में स्थानीय भाषा और मुहावरे के साथ विनोद के प्रयोग राजनारायण और लालू प्रसाद जैसे राष्ट्रीय स्तर पर लोकप्रिय नेताओं ने भी किये। परिणाम यह हुआ कि जिस तरह चुटकलेबाजों ने कविता के मंच से गम्भीर साहित्य को बाहर कर दिया, ठीक उसी तरह राजनीतिक मंच की इस चुटकलेबाजी ने वैचारिक राजनीति को हाशिये पर धकेल दिया।  
       देश में प्रारम्भिक आम चुनावों के बाद हम लोग एक दर्जन से अधिक आम चुनावों से गुजर चुके हैं और इस दौरान न केवल शिक्षा व साक्षरता में संख्यात्मक व गुणात्मक परिवर्तन आया है अपितु सूचना और संचार के साधनों का भी तेज विकास हुआ है किंतु हमारे कुछ राजनीतिक दल व राजनेता अभी भी जनता को तरह तरह के तमाशों और शब्द जालों में उलझा, वोट झटक कर सत्ता हथियाने की तरकीबों का प्रयोग करने में लगे हैं। दुर्भाग्य यह है कि भौतिक विकास के कई सोपान चढ जाने के बाद भी देश में राजनीतिक चेतना को विकसित करने की दिशा में समुचित काम नहीं हुआ और लटकों झटकों व तमाशों की राजनीति करने वाले व्यक्ति व दल दुनिया में हमें शर्मसार कर रहे हैं। अडवाणीजी एक डीजल चालित वाहन को रथ के रूप में परिवर्तित कराते हैं और एक विवादित मस्ज़िद को ध्वंश कराने के उद्देश्य से दशहरा आदि की शोभायात्राओं की तरह रामलीला के पात्रों जैसे पूरे देश की यात्रा करते हैं। इस तरह एकत्रित भीड़ की ओट में दूसरे समुदाय के खिलाफ अप्रिय नारे लगा उन्हें उत्तेजित कर दंगों की देशव्यापी श्रंखला बनायी जाती है। उनके उक्त वाहन पर उनकी पार्टी का चुनाव चिन्ह बना होता था। उनकी आम सभाओं में एक विशालकाय चित्र चलता था जिसमें वैष्णवों के आराध्य श्रीराम को सलाखों के पीछे कैद दिखाया जाता था और उनकी कल्पित मुक्ति के लिए संघर्ष का आवाहन होता था। वे एक-एक घर से मन्दिर निर्माण के लिए ईँट एकत्रित करने के बहाने अपना चुनाव प्रचार करते हैं और सर्वाधिक अविकसित बीमारू राज्यों के सीधे सरल धर्मप्राण लोगों को ध्रुवीक्रत करके लोकसभा में अपनी संख्या दो से दो सौ तक बढा लेते हैं, व क्रमशः देश की सत्ता प्राप्त करने के लिए अपने प्रमुख मुद्दों को स्थगित करने का समझौता कर लेते हैं। आज भी नेता आदिवासी पट्टी पर जाकर तीरकमान उठा कर फोटो खिंचवाते हैं या तलवार लिए मंच पर खड़े हो जाते हैं। स्थानीय लोगों से एकजुटता दुखाने के लिए वे उनकी ढीली-ढाली पोषाक पहिन कर बागड़ बिल्ले की तरह दिखते हैं।
       उक्त रथयात्रा का दौर वही दौर होता है जब देश में एक निर्माणाधीन लोकतंत्र की इमारत कमजोर होने लगती है और आन्ध्र में तेलगुदेशम, उड़ीसा में बीजू जनता दल, तामिलनाडु में डीएमके, एआईडीएमके, केरल में केरल कांग्रेस, बंगाल में तृणमूल कांग्रेस, महाराष्ट्र में शिवसेना, पंजाब में अकालीदल, कश्मीर व उत्तरपूर्व में स्थानीय व अलगाववादी दल, उ,प्र, में यादववादी समाजवादी पार्टी, मुस्लिम लीग, रामदेव की स्वाभिमान पार्टी, आदि दल, राष्ट्रीय दलों और राष्ट्रीय सोच का स्थान हथियाने लगते हैं और इसके लिए वैसे ही हथकण्डे अपनाने लगते हैं जैसे कि भाजपा अपना कर सफल हो चुकी होती है। अभी नवोदित आम आदमी पार्टी भी उसी रास्ते से आगे बढने का प्रयास कर रही है। वे चलन से दूर हो चुकी गान्धीवादी टोपी को सिंथेटिक पेंट शर्ट के साथ पहिन कर अपनी पार्टी के चुनाव चिन्ह को अपने प्रतीक चिन्ह की तरह स्तेमाल करते हुए झाड़ू लहरा रहे हैं। मंत्रिमण्डल के सदस्य स्वयं संविधान की शपथ लेकर गैर संवैधानिक काम कर रहे हैं और जो आन्दोलन उनके दल को करना चाहिए उसे सस्ती लोकप्रियता के लिए मुख्यमंत्री कर रहे हैं। दुखद है कि अधिकांश दल फिल्मी और खेल की दुनिया से लेकर तरह तरह के लोकप्रिय गैर राजनीतिक व्यक्तियों की लोकप्रियता को वोटों में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।         
       अगर सत्ता पाने हेतु चुनाव जीतने के लिए दंगे करवाना और तमाशे करना जरूरी लगने लगे तो हमें अपनी लोकतांत्रिक प्रक्रिया पर दुबारा विचार करने और अविलम्ब आवश्यक सुधार करने की जरूरत है। राजनीतिक दलों के लिए एक साझा आचार संहिता बनायी ही जाना चाहिए जिससे कि लोकतंत्र तमाशों से न चलकर राजनीति से संचालित हो।
वीरेन्द्र जैन
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सोमवार, फ़रवरी 17, 2014

डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का हैडक्वार्टर

डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का हैडक्वार्टर
वीरेन्द्र जैन
       आतंकी बम विस्फोटों के लिए गिरफ्तार असीमानन्द के कैरवान में प्रकाशित साक्षात्कार के बारे में भाजपा नेताओं ने इसे कांग्रेस के डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का कारनामा बताया है। यह आरोप उस जगह से लगाया जा रहा है जहाँ इस डिपार्टमेंट का स्थापना स्थल और हैड क्वार्टर है। भाजपा के फूले से दिखते गुब्बारे में सारी हवा इसी डिपार्टमेंट के पम्प से भरी गयी है और यह काम आज से नहीं अपितु जनसंघ के समय से किया जा रहा है। आर एस एस को वर्षों से रियूमर स्पोंसरिंग संघ [अफवाह फैलाऊ संघ] के नाम से भी जाना जाता रहा है। पहले ये लोग मौखिक प्रचार के द्वारा अफवाहें फैलाते थे और बाद में कल्पित आईडी से सोशल मीडिया पर अफवाहें फैलाने और गाली गलौज का काम करने लगे। अपनी पहचान को छुपा कर रखना ही इनके अपराधबोध का प्रमाण है।
       पर सबसे पहले इस विषयगत साक्षात्कार को लिया जाये। कैरवान दिल्ली प्रैस प्रकाशन ग्रुप की पत्रिका है। इस ग्रुप की प्रमुख हिन्दी पत्रिका सरिता समेत इसमें प्रकाशित सम्पादकीय टिप्पणियों को देखा जाये तो हम पाते हैं कि यह ग्रुप कभी भी कांग्रेस का पक्षधर नहीं रहा है अपितु अधिकतर घटनाओं में इसकी सहमति भाजपा के साथ बनती रही है। इसके संस्थापक विश्वनाथ तो मुक्त कण्ठ से अटलजी के प्रशंसक रहे हैं और बामपंथ की ओर प्रतीत होते झुकाव के आरोप वाले दिनों में इन्दिरा गान्धी की रीतिनीति से गहरी असहमतियां प्रकट करते रहे हैं। अब जब कैरवान की किसी पत्रकार द्वारा गत दो वर्षों के दौरान लिये गये कथित साक्षात्कार से संघ परिवार को असुविधा हो रही है तब उसके लिए कांग्रेस को जिम्मेवार ठहराना और उसके पास गलत हथकण्डे वाला एक विभाग होने का मनगढंत आरोप लगाना बिल्कुल ही दूसरी बात है। स्मरणीय है कि पिछले दिनों जब भी कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिंह ने संघ परिवार के बारे में कुछ कहा है तो भाजपा ने उनके बयान का उत्तर देने की जगह उनके पास डर्टी ट्रिक्स डिपार्टमेंट का होना बताया था व छद्म पहचान वाले लोगों से सोशल मीडिया पर गाली गलौज करवाना शुरू करते रहे हैं। रोचक यह है कि जब पत्रकारों ने उनसे उक्त घटना के बारे में जाँच करने की मांग के बारे में सवाल किये तो उनके प्रवक्ताओं ने जाँच की मांग के प्रति कोई रुचि नहीं दर्शायी। स्मरणीय यह भी है कि आज से कुछ साल पहले तक संघ परिवार के लिए आतंकवाद सबसे बड़ा खतरा होता था किंतु जैसे ही असीमानन्द, दयानन्द पांडे, प्रज्ञा सिंह आदि की गिरफ्तारियों के माध्यम से आतंकी घटनाओं के नेपथ्य के दृष्य सामने आये तब से इन्होंने आतंकवाद को खतरा बताना बन्द कर दिया। राजनीति में हिंसा का सहारा लेना एक विचार हो सकता है और जो लोग इस विचार में विश्वास रखते हैं वे इसका खतरा उठाने के लिए भी तैयार रहते हैं किंतु अपने किये हुये काम से मुकरना और उसकी जिम्मेवारियां दूसरों पर डालना एक अपराध है जो डर्टी ट्रिक्स में आता है। मालेगाँव के गैर मुस्लिम आरोपियों के यहाँ मुसलमानों जैसी पोषाकें और नकली दाढियां भी बरामद की गयी थीं व मडगाँव में आरोपी किसी हिन्दू समारोह में साइकिल पर बाँध कर बम विस्फोट करके हिन्दुओं को उत्तेजित कर साम्प्रदायिक दंगे करवाना चाहते थे किंतु दुर्भाग्य से वह विस्फोट समयपूर्व ही हो गया और रहस्य खुल गया था। अगर ये डर्टी ट्रिक्स नहीं थीं तो आतंकवाद को देश की प्रमुख समस्या बताने वाले दिनों में उन्होंने इसकी निन्दा तक करने की जरूरत क्यों नहीं समझी? 
       ज़िस गुजरात का ये बार बार गुणगान करते हैं उसके तीन हजार लोगों की मौत के अगर ये जिम्मेवार नहीं थे तो इन्होंने इन हत्याओं के अपराधियों को पकड़ने के लिए अपने प्रचारित प्रशासनिक कौशल का उपयोग क्यों नहीं किया और बाद में जिन लोगों को अदालत ने दोषी माना व सजायें दीं उन्हें टिकिट देने ही नहीं अपितु मंत्री बनाने तक में संकोच नहीं किया। क्या उनकी जानकारियां इतनी कम थीं कि जिस सत्य को सारी दुनिया जान गयी हो उसे वहाँ की सरकार नहीं जानती थी।
       डर्टी ट्रिक्स का यह खेल भाजपा के जनसंघ काल से ही जारी है। इसी अफवाह फैलाऊ संघ के दुष्प्रचार का परिणाम ही महात्मा गान्धी की हत्या थी और आज़ादी के बाद जब देश में पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से विकास की नींव रक्खी गयी तब इन्होंने न केवल खाद के उपयोग के खिलाफ वातावरण बनाया था अपितु पनबिजली योजनाओं के खिलाफ किसानों के बीच यह प्रचार भी किया कि ये सरकार पानी में से बिजली निकाल लेती है जिससे वह सिंचाई के लिए अनुपयुक्त हो जाता है। जब कांग्रेस का चुनाव चिन्ह दो बैलों की जोड़ी या गाय बछड़ा हुआ करता था और मतपत्रों पर क्रास का निशान लगाकर मतदान होता था तब ये अफवाहें फैलाते थे कि किसी पशु को जब बध के लिए ले जाया जाता है तब उस पर क्रास का निशान बनाया जाता है और कांग्रेस को वोट देने का मतलब गौवंश की हत्या के पाप का भागीदार होना है। कम्युनिष्टों के खिलाफ ये प्रचार करते थे कि वे देश और धर्म द्रोही होते हैं और कम्युनिष्ट देशों में किसानों से जमीन छीन ली जाती है व वहाँ वृद्धों को गोली मार दी जाती है। हिन्दी हिन्दू हिन्दुस्तान का नारा लगाने वाले ये संग़ठन न केवल गैर हिन्दुओं के खिलाफ भेद करने में लगे थे अपितु गैर हिन्दी भाषी विशेष रूप से दक्षिण भारतीय लोगों के खिलाफ वातावरण बनाने में योगदान दे रहे थे। एक समय तो तामिल भाषियों का हिन्दी थोपने का विरोध इतना उग्र हो गया था कि देश विभाजन का खतरा उत्पन्न हो गया था। विभाजन की विभीषिका से आहत देश के लोगों को मुस्लिमों के खिलाफ भड़काने में ये कभी कोई कसर नहीं छोड़ते रहे हैं और मैचों के समय मुसलमानों को पाकिस्तान का पक्षधर प्रचारित कर युवाओं में नफरत के बीज बोते रहे हैं। रामजन्म भूमि मन्दिर के नाम पर इन्होंने जो कुछ किया वह अभी बहुत पुराना नहीं हुआ है। रथयात्रा, ईंटपूजा से लेकर अस्थिकलश यात्रा तक और बाद में गोधरा गुजरात तक सब इनके अफवाह फैलाऊ अभियान का परिणाम या प्रतिक्रियाओं की उपज रहे हैं। चुनाव में सबसे अधिक धन खर्च करके मतदाताओं के एक हिस्से को चारित्रिक पतन के लिए तैयार करने से लेकर हार जाने के बाद रूस से आयात स्याही और ईवीएम मशीनों की खराबी बताने तक सब इनके डर्टी ट्रिक्स का हिस्सा हैं। सोनिया गान्धी के प्रधानमंत्री बनने की सम्भावनाओं के सामने आते ही उन्हें विदेशी मूल के बताने फिर सुषमा स्वराज और उमा भारती द्वारा वैसी दशा में सिर मुढाने, जमीन पर सोने और चने खाकर रहने की घोषणाएं करवाना भी उन्हीं ट्रिकों में आता है। यही वह काल था जब ईसाइयों पर अचानक ही ‘धर्म परिवर्तन’ का आरोप लगने लगा था और चर्चों पर हमले होने लगे थे। ये हमले सोनिया गान्धी द्वारा प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर देने के बाद बन्द हो गये थे।
       एक समय था जब कसाव और अफज़ल गुरू की फाँसी इनका मुख्य फंडा बन गया था और उसमें देरी को वे न्यायिक प्रक्रिया के दोषों में न देख कर वे इसे तुष्टीकरण की राजनीति बता कर साम्प्रदायिकता पैदा कर रहे थे। तुष्टीकरण की राजनीति के आरोप के बहाने वे यह दर्शाना चाह रहे थे कि सारे मुसलमान कसाव के साथ हैं और उसे फाँसी में होने वाली देरी से वे खुश होते हैं। जबकि सच यह था कि मुम्बई के किसी भी कब्रिस्तान ने पाकिस्तान से आये हुये आतंकियों के शवों को दफनाने से मना कर दिया था।
       सच तो यह है कि डर्टी ट्रिक्स के मामले में भाजपा को प्रवीणता प्राप्त है। दूसरे दल अच्छे या बुरे हो सकते हैं किंतु संघ परिवार से अधिक बनावटी और दुहरे चरित्र का नहीं हो सकता।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, फ़रवरी 05, 2014

जहर की खेती और उत्तर प्रदेश का खेत

जहर की खेती और उत्तर प्रदेश का खेत
वीरेन्द्र जैन

       यदि उन्हें जहर की खेती नहीं करनी होती तो वे गुजरात के अनुभवी कृषक अमित शाह को गुजरात क्यों भेजते? क्या यहाँ कई योगी और 1992 के अनुभवी पहले से ही मौजूद नहीं थे। पर जिस तरह गाँजे अफीम की अवैध खेती से हमारे अन्नदाता कहलाने वाले कुछ किसान जल्दी रहीस हो जाना चाहते हैं उसी तरह कुछ रजनीतिक दल जहर की खेती करके जल्दी सत्ता हथिया लेना चाहते हैं। वाचाल, अशिष्ट और मुँहफट लोग ज्यादा जोर से बोल कर अर्थ का अनर्थ कर देने की भी पात्रता रखते हैं। जब राहुल गान्धी ने अपनी भावुक अभिव्यक्ति में अपनी माँ के ममत्व भरे उस वाक्य को सार्वजनिक किया था जिसमें उन्होंने सत्ता को शिव के गरल पान के अर्थ में लिया था जिसे सबजन हिताय पान करने से पहले उसकी गुणधर्मिता का ज्ञान जरूरी होता है। पर दूसरी बार जब उन्होंने जहर की खेती की बात की तब उसका अर्थ उन स्वार्थी लोगों के कामों से था जो अपने लाभ के लिए दूसरों की जान लेने के लिए उसे फैलाते हैं।        
       साम्प्रदायिक घटनाएं कभी कभी अनायास भी घट जाती हैं किंतु उनका त्वरित प्रसार और देर तक जारी रहना यह साबित करता है कि वे निहित स्वार्थों द्वारा योजना बना कर तैयार किये गये अपराधों की भूमिका हैं। साम्प्रदायिक घटनाओं में एक पक्ष ही ज़िम्मेवार नहीं होता किंतु जब कोई घटना योजना के साथ घटित होती है तो उसमें दूसरे पक्ष की तात्कालिक प्रतिक्रिया अपराध नहीं अपितु रक्षात्मक प्रयास होता है। हमारे देश में घटित प्रमुख साम्प्रदायिक हिंसा की घटनाओं में संघ परिवार पर इसीलिए आरोप अधिक लगते हैं क्योंकि वे ऐसी योजनाओं पर लगातार काम करते रहते हैं और उसकी ज़िम्मेवारी से बचने के लिए गलत इतिहास और कल्पित कथाएं फैलाते रहते हैं।
       घटनाएं संकेत करती हैं कि अगस्त 2013 के मुज़फ्फरनगर के साम्प्रदायिक दंगे की भूमिका मोदी को प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी बनाये जाने के विचार के समानांतर ही बनी होगी और उस पर काम हुआ होगा। यदि ऐसा है तो आगामी लोकसभा चुनाव से पहले समय रहते दूसरी योजनाओं का पता भी चलाना होगा। संघ परिवार द्वारा योजनाबद्ध ढंग से संचालित अयोध्या अभियान और फिर बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के घटनाक्रम इस बात के प्रमाण हैं कि राजनीतिक लाभ के इस खेल में वे किस कुटिलिता से षड़यंत्र बुनते, हुए जिम्मेवारी दूसरे पर थोपते हैं। दूसरे समुदाय की बस्तियों और इबादत स्थलों के सामने से प्रमुख समय पर उत्तेजित करने वाले अपमानजनक नारे लगाते हुए सशस्त्र जलूस निकालते हैं और सोचे समझे ढंग से माहौल तैयार कर देते हैं। 27 अगस्त 2013 को कवाल गाँव में छेड़छाड़ की जिस घटना में तीन युवक मारे गये थे और जिसके बाद वहाँ दंगा फैला था, उनमें दो एक ही समुदाय के थे तथा एक दूसरे समुदाय का था। उल्लेखनीय है कि शाब्दिक साम्प्रदायिकता में सिद्धहस्त यह संगठन ‘लव-ज़ेहाद’ जैसा शब्द गढ कर अंतर्जातीय प्रेम को साम्प्रदायिक रूप दे माहौल पहले से ही तैयार करता रहा है।
       27 अगस्त की उपरोक्त घटना से पूर्व 23 अगस्त 2013 के समाचार पत्रों में मुज़फ्फरनगर का समाचार प्रकाशित हुआ था कि जिले के सौरभ गांव में भाजपा के उमेश मलिक और छह अन्य को शाहपुर क्षेत्र में साम्प्रदायिक हिंसा फैलाने के जुर्म में हिरासत में लिया गया। इस मामले में पुलिस ने 150 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज़ किया जिसमें से 14 लोग गिरफ्तार किये जा चुके हैं [सन्दर्भ पत्रिका भोपाल]। यह वही समय था जब विश्व हिन्दू परिषद ने असमय चौरासी कोसी परिक्रमा करने की घोषणा की थी और यह चाहती थी कि उत्तर प्रदेश की सरकार उस पर रोक लगाये और इस रोक के बहाने वह हिन्दुओं के कथित धार्मिक कार्यों पर प्रतिबन्ध का राग अलाप कर सीधे सरल लोगों को उत्तेजित करे। इस यात्रा के बहाने उत्तेजना फैलाने का काम उक्त संगठनों ने तब भी किया था जब परिक्रमा के संयोजक महंत गयादास ने गत 19 जुलाई को आयोजित बैठक में विश्व हिन्दू परिषद के लोगों को बता दी थी कि चातुर्मास में यह आयोजन धर्म के विपरीत है।  
       इससे पहले 14 जुलाई 2013 को प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री मायावती ने लखनऊ में आयोजित एक प्रैस कांफ्रेंस में भाजपा पर उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक उन्माद फैलाने का आरोप लगाया था जिसके उत्तर में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष ने मायावती को हिन्दूवादी संगठनों पर केन्द्र सरकार से रोक लगवाने हेतु पत्र लिखने की चुनौती भरी सलाह दी थी। यह अनायास नहीं था कि दंगे भड़कने के तुरंत बाद भाजपा विधायक संगीत सोम ने इंटरनेट पर एक फर्ज़ी वीडियो अपलोड करके हिन्दुओं को उत्तेजित कर दंगों में झौंकने का षड़यंत्र रचा जिसके लिए बाद में उन्हें  गिरफ्तार किया गया था। ऐसी घटनाएं संकेत देती हैं कि साम्प्रदायिक लोग दूसरे समुदाय के लोगों से ज्यादा अपने समुदाय के लिए खतरनाक होते हैं क्योंकि वे उन्हें उस घटना के लिए ईंधन बना कर झौंकने के लिए तैयार करते हैं जिसका कोई अस्तित्व ही नहीं होता। जाँच का विषय यह है कि ऐसे वीडियो उनके पास कहाँ से आये! जब उत्तर प्रदेश में इतने सारे वरिष्ठ नेताओं के होते हुए भी गुजरात के दागी मंत्री अमित शाह को प्रदेश प्रभारी बनाया जाता है तो बाबरी मस्ज़िद ध्वंस की अभियुक्त रही मध्य प्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती को मुख्यमंत्री पद प्रत्याशी घोषित कर एक विधायक के रूप में चुनवाना भी सन्देह पैदा करता है। उल्लेखनीय है कि गत 19 जनवरी 2013 को हिन्दू साध्वी भेषधारी उमा भारती ने मुज़फ्फर नगर जिले के खतौली कस्बे में जैन समाज के एक सम्मेलन में भाग लेते हुए उनके सबसे सम्मानित संत विद्या सागर में अपनी गहरी आस्था व्यक्त की थी। साथ ही उनकी भावनाओं को बल देने के बाद बहुत ही आक्रामक भाषण दिया था जो रामजन्म भूमि अभियान वाले दिनों की याद दिला गया था। जैन समाज के शाकाहार सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए उन्होंने पश्चिमी उत्तर प्रदेश में साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण को हवा देते हुए कहा था कि इस दोआब क्षेत्र में खेतीबाड़ी की जगह पशुओं के नित नये खुल रहे कत्लखाने चिंता का विषय हैं। दिल्ली में भाजपा की सत्ता आयी तो जीवित गाय तो दूर कागज़ पर भी बनी गाय की तस्वीर काटने पर भी पाबन्दी लगाई जायेगी। यह खबर देते हुए जनसत्ता ने अपने 21 जनवरी 2013 के अंक में टिप्पणी की थी कि पश्चिमी उत्तर प्रदेश में भाजपा की जीत की सम्भावनाएं हिन्दू मतों के ध्रुवीकरण से ही मजबूत होती हैं।
       मुज़फ्फरनगर दंगों के बाद जब उन्हें भड़काने के आरोप में विधायक हुकुम सिंह [विधायक दल के नेता], संगीत सोम, और सुरेश राणा को लखनऊ में विधानसभा के बाहर गिरफ्तार करने की तैयारी पुलिस ने की थी तो शपथ लेने के बाद कभी उत्तर प्रदेश विधानसभा नहीं पहुँची उमाभारती ने वहाँ पहुँच कर योजना बनायी कि सभी विधायक साथ में बाहर निकलेंगे ताकि गिरफ्तारी पर हंगामा हो सके और विशेषाधिकार का मामला बने, जिससे हिन्दू जनता उत्तेजित हो। उन्होंने बाहर पार्टी कार्यकर्ताओं को भी बुला लिया था। स्थिति देख कर पुलिस को आरोपियों को गिरफ्तार करने की योजना को टालना पड़ा था। गत साल भर से वे प्रदेश में साम्प्रदायिक आधार पर उत्तेजित करने का कोई भी मौका हाथ से नहीं जाने दे रहे हैं। मुज़फ्फरनगर अंतर्जातीय विवाहों और सगोत्र विवाहों के प्रति सामाजिक असहिष्णुता के रूप में लगातार खबरों में बना रहता है पर अगर ये अंतर्जातीय विवाह हिन्दू मुसलमानों के बीच हों तो परम्परावादी समाज को सरलता से उत्तेजित किया जा सकता है। भाजपा इसी उत्तेजना को साम्प्रदायिक दंगों में बदलकर अपनी गुजरात 2002 की योजना को दुहराना चाहती है। एक कमजोर मुख्यमंत्री के राज्य में उसे प्रारम्भिक सफलता मिल चुकी है, इसलिए अगर मुज़फ्फरनगर से सबक लेते हुए उत्तर प्रदेश सरकार समय से न चेती तो वे और प्रयोग कर सकते हैं। इन प्रयोगों की सफलता देश के भविष्य के लिए खतरनाक होगी।
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, जनवरी 24, 2014

कुमार विश्वास प्रसंग और मंच के कवियों का मूल्यांकन

कुमार विश्वास प्रसंग और मंच के कवियों का मूल्यांकन
वीरेन्द्र जैन
       जब साठ के दशक में चीन के साथ सीमा पर विवाद हुआ तब जनता में राष्ट्रभक्ति और देश प्रेम की भावना को प्रोत्साहित करने के लिए बड़े पैमाने पर कवि सम्मेलन आयोजित किये गये थे। उस दौर से हिन्दी की गीत कविता के सरल सहज रूप का तेजी से विकास हुआ। इन कवि सम्मेलनों से कवियों को मार्गव्यय व स्वागत सत्कार के अलावा कुछ पारश्रमिक मिलना भी प्रारम्भ हो गया था जिसका परिणाम यह हुआ कि यश के साथ धन के आकांक्षी अनेक लोग हिन्दी कविता के इस उद्यम से जुड़ने लगे। इस घटना विकास ने हिन्दी साहित्य के महारथियों को  सीधे सीधे दो भागों में बाँट दिया और मंच के कवि दोयम दर्जे के साहित्यकार माने जाने लगे। बच्चन जी के बाद मंच पर जाने वालों और मंच के अनुकूल रचनाएं लिखने वालों को कवि की जगह कलाकार माना जाने लगा जिनसे अपने श्रोता और दर्शक समुदाय को संतुष्ट करने वाली कविताएं सुनाने की अपेक्षा की जाती थी। यह एक वाचिक परम्परा थी इसलिए स्पष्ट व शुद्ध उच्चारण के साथ कविता गायन ही नहीं उसकी वेषभूषा भी कवि को विशिष्ट बनाती थी। इन मंच के कवियों ने अपनी गीत कविता के अनुरूप कविता वाचन की अनेक शैलियां विकसित कीं। मंच की कविता के श्रोताओं में समझ और संवेदना के कई स्तरों के लोग बैठे होते थे और कवि के लिए जरूरी होता था कि वह ऐसी सतही संवेदना का समावेश करे जिसे ग्रहण करने में अधिक बुद्धि की जरूरत नहीं होती। यही कारण रहा कि इन कविताओं में सतही श्रंगार, भावुक वीरता, व सहज हास्य की कविताएं चल पड़ीं। इनसे ऊब कर साहित्यिक रुचि वाले सुधी श्रोताओं ने भी मंचीय कविता से दूरी बना ली और मंच की कविता के श्रोता और कलाकार कवि एक ही स्तर के हो गये। इन मनोरंजक कार्यक्रमों में नवधनाड्य लोगों ने भी रुचि ली और वे अपनी पसन्द के इन कवि-कलाकारों को अधिक पारश्रमिक देकर बुलवाने लगे। सेठों की तौंदों को गुदगुदाने और क्षणिक मादकता पैदा करने वाली कथित कविता ऊंचे दामों पर बिकने लगी तो उसका उत्पादन भी भरपूर होने लगा व प्रतिद्वन्दता भी बड़ने लगी। भारी पारश्रमिक के साथ कवि हवाई जहाज में यात्रा करने और अच्छे होटलों में रुकने लगे व अभिजात्य वर्ग के क्लबों में अपनी प्रस्तुतियां देने लगे जिससे उनके सम्पर्क समाज के सम्पन्न वर्ग के साथ हो गये। दूसरी ओर गम्भीर साहित्य के समीक्षकों ने मंचीय कवियों को साहित्य के इतिहास में कोई स्थान नहीं दिया, पाठ्यक्रमों से उन्हें दूर रखा व वे साहित्यिक पत्रिकाओं तक में प्रकाशित होने से वंचित रहे।
       नाम, नामा, और उच्चवर्ग से निरंतर सम्पर्क कुछ लोगों में इतनी महात्वाकांक्षाएं जगा देता है कि वे भ्रमित हो जाते हैं और बहुत जल्दी अपनी क्षमता से अधिक पा लेना चाहते हैं। कुमार विश्वास भी ऐसे ही लोगों में से एक हैं। वे मंच के एक सफल कवि-कलाकार थे जो किशोर वर्ग के युवाओं या उम्रदराज किशोरों में लोकप्रिय थे और इसी लोकप्रियता की सीढियां चढते हुए वे एक कविसम्मेलन का पारश्रमिक एक लाख के आस पास तक माँगने लगे थे। अन्ना आन्दोलन को मिली लोकप्रियता के रथ पर सवार होकर वे अपने कविता व्यवसाय की सफलता को और बढाना चाहते थे कि इस बीच घटे घटनाक्रम में वे अरविन्द केजरीवाल के अधिक निकट हो गये और दिल्ली विधानसभा में केजरीवाल की पार्टी की जीत ने उन्हें देश की सबसे बड़ी पार्टी के अघोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी राहुल गान्धी के विरुद्ध खड़े होने की घोषणा करने को उत्साहित कर दिया। इसके साथ वे दूसरी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा के घोषित प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी नरेन्द्र मोदी को भी उसी क्षेत्र से चुनाव लड़ने की चुनौती देने लगे। कहा जाता है सूप बोले तो बोले पर छलनी क्या बोले जिसमें सौ छेद, सो कुमार विश्वास को उनके कद का अहसास कराने के प्रयास शुरू हो गये। कवि सम्मेलनों के मंच पर लुत्फगोई के अन्दाज़ में की गयी उनकी टिप्पणियों को यूट्यूब पर देखा गया व उसके आधार पर उनके द्वारा केरल के रंगरूप पर की गयी खराब टिप्पणियों और दलितों को मिले आरक्षण पर की गयी टिप्पणियों के आधार पर उनकी वैचारिक पहचान की गयी। केरल में नर्सों के संगठन ने विरोध प्रदर्शन किया व उनसे माफी मांगने की मांग रखी। किसी कलाकार द्वारा अभिनीत कुछ भूमिकाएं भी उस कलाकार के व्यक्तित्व की पहचान बन जाती हैं। रामायण में दीपिका चिखलिया द्वारा की गयी सीता की भूमिका उन जैसी गैरराजनीतिक अभिनेत्री को संसद सदस्य चुनवा देती है। अपने बचाव में कुमार विश्वास को वह सच बोलना पड़ा जिसे मंच के कवि अब तक छुपाते आ रहे थे और गम्भीर साहित्य के क्षेत्र में अपनी उपेक्षा को ईर्षा बतला रहे थे। उन्होंने कहा कि मंच पर वर्षों पूर्व निर्वाह की गयी भूमिका के लिए क्या किसी कलाकार को सजा दी जा सकती है जैसे कि ‘इंसाफ का तराजू’ फिल्म में निभाये गये बलात्कारी की भूमिका के लिए राज बब्बर को सजा नहीं दी सकती, उसी तरह मंच पर की गयी उनकी भूमिका को उनका विचार नहीं माना जा सकता। इस तरह उनका तर्क इस बात की पुष्टि करता है कि मंच के कवियों की कविता में उनका विचार नहीं होता अपितु वह क्षणिक मनोरंजन भर होता है व उसके लिए उन्हें दण्डित नहीं किया जा सकता। इसी तर्क के आधार पर उन्हें पुरस्कृत न किया जाना भी ठीक लगने लगता है।
       कुमार विश्वास के नाम से जाने जाने वाले विकास कुमार शर्मा के कथन से यदि यह तय होता है कि वे कविता के मंच पर केवल भूमिकाओं का ही निर्वहन करते हैं तो वे यह स्पष्ट क्यों नहीं करते कि आप पार्टी में उनकी सक्रियता को उनकी भूमिका ही क्यों न समझा जाये। इस पार्टी के उदय से पूर्व उनकी राजनीतिक सक्रियता और राजनीतिक विचारधारा के कोई प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं और देश के सबसे बड़े पद के सम्भावित उम्मीदवार के खिलाफ अपनी उम्मीदवारी घोषित करने के लिए उनके पास एक लोकप्रिय मंचीय कवि-कलाकार होने के अलावा क्या पात्रता है? वे पिछले दिनों बाबा रामदेव की राजनीतिक महात्वाकांक्षा और उनकी व्यावसायिक कमियों से उत्पन्न विसंगतियों के साक्षी रहे हैं। राजनीति में काँच के मकानों में रह कर दूसरों के घरों पर पत्थर फेंकने वालों के साथ यह होना अस्वाभाविक नहीं है। उल्लेखनीय है कि 1969 में [कुमार विश्वास के जन्म से एक वर्ष पूर्व] जब जगजीवन राम ने कांग्रेस के विभाजन के समय श्रीमती इन्दिरा गान्धी की नई कांग्रेस का साथ देने की घोषणा की थी तो मंत्रिमण्डल से बाहर किये गये मोरारजी देसाई ने याद दिला दिया था कि उन्होंने पिछले दस सालों से टैक्स नहीं भरा है। राजनीति में आने वालों को अपनी पिछली भूलों का प्रायश्चित करने में संकोच नहीं करना चाहिए तब ही उनकी भूलें अपराध की परिभाषा से बाहर आ सकती हैं।                 
वीरेन्द्र जैन
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केजरीवाल की तेजी कहीं उम्मीद की भ्रूणहत्या न कर दे

केजरीवाल की तेजी कहीं उम्मीद की भ्रूणहत्या न कर दे
वीरेन्द्र जैन
       अरविन्द केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी आज एक व्यक्ति या पार्टी का नाम नहीं अपितु एक उस  उम्मीद का नाम है जो लम्बे समय से छले जाते नाउम्मीद लोगों ने एक बार फिर से बाँधी है। राजतंत्र से निकल कर आये देश ने लोकतंत्र का अर्थ अपने शासक के चयन का अधिकार समझा और पुराने राजा की जगह अपनी पसन्द का ‘राजा’ चुनने लगे, व समय समय पर उन्हें बदल कर देखने लगे, जबकि लोकतंत्र में जनता की भूमिका को बदलना चाहिए था, जो यथावत प्रजा बनी रही। समय समय पर निराशा की अवस्था में जनता ने कभी समाजवाद और गरीबी हटाओ वाली नई कांग्रेस से, सम्पूर्ण क्रांति का नारा देने वाले जय प्रकाश नारायण से, तो कभी स्वच्छ सरकार और रोजगार का अधिकार देने का वादा करने वाले वीपी सिंह से उम्मीदें बाँधी थीं पर यथास्थिति ने उनके प्रयासों को अपने में वैसे ही समाहित कर लिया जैसे कि कुछ हलचल के बाद कबीर नानक जैसे भक्त कवियों और आर्यसमाज व रामकृष्ण मिशन जैसे सामाजिक आन्दोलनों को पचा लिया गया था।
        बताया जाता है कि आम आदमी पार्टी के कनाट प्लेस स्थित कार्यालय में डेड़ सौ से अधिक आईटी प्रशिक्षित कर्मचारी मनोयोग से काम करते हुये सभी उपयोगी जानकारी एकत्रित करते हैं और नीतियां व कार्यक्रम बनाते हैं जिनमें मीडिया से लेकर राजनीतिक और प्रशासनिक आवश्यक सूचनाओं का भंडार रहता है। यही कारण है कि अरविन्द केजरीवाल को मात्र एक युवा उत्साही, हवाई आदर्शवादी, या नौसिखिया राजनीतिज्ञ भर नहीं समझा जा सकता। कोई उन्हें किताबी राजनीतिज्ञ कह कर भले ही अवमूल्यित करने की कोशिश करे किंतु आईआईटी से निकले इस व्यक्ति ने इनकम टैक्स कमिश्नर, आरटीआई एक्टिविस्ट के रूप में मैगसेसे पुरस्कार विजेता, अन्ना के आन्दोलन के सूत्रधार और फिर उचित अवसर देख कर एक राजनीतिक पार्टी के गठन, विधानसभा चुनाव में सफल भागीदारी और फिर दिल्ली में सरकार बनाने तक की सीढियां क्रमशः चढी हैं। अब यह साफ है कि अन्ना हजारे केवल एक गान्धी टोपीधारी, स्वच्छ छवि, अनशन विशेषज्ञ मुखौटे के रूप में चुने गये थे जिन्होंने अपने गाँव और प्रदेश में समाज सुधार के कुछ महत्वपूर्ण काम किये थे। अनुभव को ऊर्जा से अधिक महत्व देने वाले हमारे समाज में उनकी छवि एक बुजुर्ग नेतृत्व के रूप में प्रभावकारी तो थी किंतु जनलोकपाल आन्दोलन का सारा संचालन केजरीवाल मित्र मण्डल के पास ही था।
       यह आन्दोलन जानसमझ कर चलाया गया कि लोकपाल विधेयक का विचार दशकों से लम्बित है और कई बार सरकारें बदलने के बाद भी इसे पास नहीं किया गया क्योंकि ऐसा करना अनेक शासकों, प्रशासकों के पक्ष में नहीं है। विसंगति यह थी कि इसके महत्व से कोई इंकार ही नहीं कर सकता था इसलिए इस विधेयक में भांजी मारने वाले राजनेता भी मौखिक रूप से इसकी पक्षधरता करते नजर आते थे। राजनेताओं का यही दोहरापन इस आन्दोलन की जान था क्योंकि इसके स्वरूप पर मतभेद रखने के बहाने जो इसे पास ही नहीं होने देना चाहते थे वे इसका खुला विरोध नहीं कर पा रहे थे। केजरीवाल ने सोचे समझे ढंग से इसे गैरराजनीतिक रखा और हर आन्दोलन को हड़पने का प्रयास करने वाले संघ परिवार से परोक्ष मदद लेकर भी सार्वजनिक रूप से उसके नेताओं को मंच पर नहीं चढने दिया व उमा भारती, रामदेव आदि को कार्यकर्ताओं ने खदेड़ दिया था भले ही बाद में अन्ना हजारे ने पत्र लिख कर खेद व्यक्त कर दिया हो। स्वामी अग्निवेश जैसे लोगों पर आन्दोलनकारियों ने सतर्क निगाह रखी और उनके फोन का वीडियो बना कर उसे सार्वजनिक कर दिया जिसके बाद वे लम्बे समय तक सार्वजनिक मंचों पर नहीं दिख सके। रामदेव ने अपना अलग मंच बना कर अपनी जो फजीहत करायी तो उसके बाद अनेक सरकारी विभागों का ध्यान उनके संस्थानों की ओर गया और जाँच के बाद कर चोरी के अनेक प्रकरण सामने आये। उनके गुरु के गायब होने की जाँच भी उन्हें सन्देह के घेरे में ले गयी जिससे उबरने के लिए उन्हें भाजपा का शरणागत होकर मोदी की अन्धभक्ति में ही बचाव का रास्ता दिखायी दिया। इसी दौरान उन्होंने तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और अम्बानी परिवार से जुड़े कुछ आर्थिक खुलासे किये।
       अन्ना हजारे बहुत ही सरल और गैरराजनीतिक व्यक्ति हैं इसलिए उन्हें यह गलतफहमी हो गयी थी कि लोकपाल का सारा आन्दोलन उनके विचार और नेतृत्व का परिणाम है जब कि यह सच नहीं था। आन्दोलन के दबाव में जब सरकार लोकपाल विधेयक लायी तो केजरीवाल ने उसे कमजोर विधेयक बता कर उसका विरोध किया ताकि आन्दोलन ज़िन्दा रहे। इस पर स्वाभाविक रूप से संसद के पक्ष और विपक्ष द्वारा यह कहा गया कि कानून बनाने का अधिकार संसद का होता है और अपनी पसन्द का विधेयक लाने के लिए आन्दोलनकारियों को चुनाव का सामना करते हुए संसद में पहुँच कर अपना विधेयक लाना होगा। यह सलाह उन्हें राजनीतिक दल बनाने का नैतिक आधार देती थी इसलिए उन्होंने राजनीतिक दल बनाने की मजबूरी दर्शाते हुये आम आदमी पार्टी की नींव रख ली और इस विचार से असहमत अन्ना हजारे के मुखौटे से मुक्ति पा ली। आन्दोलन का शेष बचा समर्थन भी केजरीवाल ने अपना लिया। यूपीए गठबन्धन के मंत्रियों के भ्रष्टाचार के खुलासे और मँहगाई के कारण जो लोग कांग्रेस से नाराज थे वही लोग भाजपा की राज्य सरकारों के भ्रष्टाचार और कुप्रशासन से भी नाराज थे ऐसे में एक भ्रष्टाचार के खिलाफ लोकपाल बिल के लिए आन्दोलन करने वाली तीसरी बेदाग अछूती पार्टी की ओर उम्मीद से देखा जाना स्वाभाविक ही था। आम आदमी पार्टी ने अपना पहला चुनाव केवल दिल्ली विधानसभा के लिए लड़ने की समझदारी दिखायी जबकि उसी समय पाँच विधान सभाओं के चुनाव हो रहे थे। वे जानते थे कि दिल्ली में राजनीतिक वोट अधिक है जबकि पिछड़े राज्यों में जाति, धर्म, क्षेत्र,  धन और भय के प्रभाव से पड़ने वाले वोट राजनीतिक आधार पर दिये गये वोटों को निर्मूल कर देते हैं और यही कारण है कि वामपंथी यहाँ कभी सफल नहीं हो सके। दिल्ली में 28 विधान सभा सीटों की विजय के बाद उनका राजनीतिक पक्ष पूरे देश में चर्चा का विषय बना जबकि 350 से अधिक सीटों पर जीतने वाली भाजपा की जीत का राजनीतिक मूल्यांकन नहीं हुआ। दिल्ली में उन्होंने प्राप्त किये 29 प्रतिशत वोटों में साढे ग्यारह प्रतिशत मत कांग्रेस के व ढाई प्रतिशत मत भाजपा के मतों में से जुटाये। आम आदमी पार्टी ने दक्षिण और वाम दोनों से ही दूर रहने की नीति अपनायी ताकि किसी की पक्षधरता का नुकसान दूसरी ओर से न उठाना पड़े। रहन सहन, सादगी, संघर्ष और ईमानदारी में वे वामपंथियों जैसे दिखे तो नई आर्थिक नीतियों में वे दक्षिणपंथियों के पक्ष में खड़े हुये। भाजपा और कांग्रेस दोनों से ही उन्होंने सरकार बनाने के लिए सहयोग न लेने का संकल्प दुहराया और खुद मांगी भी नहीं। कांग्रेस द्वारा स्वयं दिये सहयोग को स्वीकारने से पहले दूसरे चुनाव खर्च से बचने के नाम पर जनता से पूछने का विकल्प दिया। लालबत्ती की गाड़ी न लेने, बड़े बंगले न लेने, कम वेतन लेने, के साथ साथ उन्होंने रामलीला मैदान में शपथ लेने का प्रदर्शन किया व शपथ के बाद जो गाना गाया उसके बोल थे- इंसान का इंसान से हो भाईचारा, यही पैगाम हमारा। यह गाना साम्प्रदायिक सद्भाव वाला फिल्मी गाना है जिसके बोल साम्प्रदायिकता की राजनीति करने वाली भाजपा को लक्ष्य बनाते हैं। बाद में दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के नाम पर पुलिस और केन्द्र सरकार से टकराव लिया और कांग्रेस से दूरी का संकेत भी दिया। इसके लिए धरना स्थल का चुनाव भी वह स्थान रखा जहाँ देश के सबसे बड़े पर्व का आयोजन होना था और मीडिया समेत देश भर से लोग जुटने वाले थे।            
       आगामी लोकसभा चुनाव के लिए तैयारी में जुटी आम आदमी पार्टी के सबसे प्रमुख सहयोगी गैर सरकारी संगठन हैं जिनकी संख्या देश के प्राथमिक स्कूलों से भी अधिक है और जो देशव्यापी हैं। सदस्यता अभियान सब के लिए खुला और निःशुल्क है व उसके बहाने लाखों लोगों के मोबाइल नम्बर प्राप्त कर लिये गये हैं और उम्मीदवारी के लिए भी एक हजार लोगों के पते व मोबाइल नम्बरों सहित जनप्रस्ताव की शर्त रखी गयी है, जिससे बड़ी संख्या में लोगों के साथ एसएमएस सम्पर्क की सुविधा स्थापित हो गयी है, यह नई तकनीक का उपयोग है। उग्र वामपंथ के कुछ संगठनों की सहानिभूति भी इस पार्टी के साथ है जो  प्राथमिक रूप से व्यवस्था विरोधी प्रतीत होती है। प्रशासनिक भ्रष्टाचार और राजनेताओं की सादगी मध्यमवर्ग को खूब भाती है। अपनी जीत के लिए बार बार भगवान, खुदा और वाहेगुरु का आभारी होना धार्मिक लोगों को लुभाता है। सब मिला कर यह पार्टी एक शोले जैसी फिल्म है जिसमें सारे फिल्मी मसाले डाल दिये गये हैं।
       इतने सारे कोणों से काम करने वाला व्यक्ति सीधा सरल दिख सकता है, हो नहीं सकता। उसने मध्यमवर्ग में उम्मीदों के जीएम बीज बोये हैं और वह फसल काटने की बहुत जल्दी में प्रतीत होता है। यह फसल स्वास्थ के लिए कैसी होगी यह भविष्य के गर्त में है।
वीरेन्द्र जैन
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