बुधवार, अक्टूबर 02, 2019


 गांधीजी- राजनीति और समाजसेवा की परस्परता
                                                                   वीरेन्द्र जैन

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       गांधी पिछली सदी के महानतम नेताओं में से एक थे। अपने समय के सबसे सशक्त साम्राज्यवाद के साथ उन्होंने सहज ढंग से उपलब्ध साधनों से ऐसी लड़ाई लड़ी है कि उनके शत्रु भी उनसे खीझते भले रहे हों पर उनकी निन्दा करने का अवसर नहीं पाते थे। एक अतिसहनशील और परिवर्तनों के प्रति उदासीन समाज को लड़ाई में साथ लेने की रणनीति तैयार कर लेने में उनका कोई सानी नहीं था। गांधीजी जब अफ्रीका से लौट कर आये और उन्होंने अपना काम करना प्रारम्भ किया तो तिलक ने उन्हें सलाह दी कि पहले वे पूरे हिन्दुस्तान को देखें और समझें। सलाह का पालन करते हुये गांधीजी ने दो वर्ष तक घूम घूम कर गांवों से शहर तक पूरे देश के जनजीवन को अपनी पूरी गहरी संवेदनशीलता के साथ देखा व बिना किसी पूर्वाग्रह के लोगों के मानस को पढा। बिहार के चम्पारन जिले में जब एक महिला को उन्होंने नदी तट पर आधी धोती को धोते ओर सुखाने के बाद शेष आधी धोती को धोते देखा व जाना कि ऐसा करने के पीछे उसके पास एक ही धोती का होना है तब उनकी समझ में आ गया कि इस देश के लिये उन्हें क्या करना है।

       गांधीजी ने उस दौरान ही समझ लिया था कि बिना सामाजिक परिवर्तन के राजनीतिक लड़ाई नहीं लड़ी जा सकती। वे विचारों की जड़ता को पसन्द नहीं करते थे और अनुभवों से निकाले गये निष्कर्षों के आधार पर कभी भी अपने विचार बदल सकते थे। अपने काम के दौरान उन्हें यह भी समझ में आ गया कि सामाजिक परिवर्तन के लिये समान स्तर पर उतरकर सम्वाद बनाने की जरूरत होती है व सम्वाद बनाने के लिये न केवल समान भाषा में बातचीत करने की जरूरत होती है अपितु अपने रहन सहन और पहनावे को सामने वाले के अनुरूप लाये बिना असरकारी सम्वाद नहीं बनाया जा सकता। जहां नेहरू और जिन्ना का प्रभाव केवल अंग्रेजी ढंग से पढे लिखे लोगों तक पड़ा वहीं गांधी आम आदमी के पास पहुंचने में सफल हो सके। इंगलैण्ड में पढे और अफ्रीका में बैरिस्ट्री कर चुके गांधी ने सूट पैंट छोड़ कर धोती लाठी को अपनाया और खुद की काती हुयी मोटी खादी से बुने हुये कपड़ों को ख़ुशी-खुशी पहना। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि ऐसा उन्होंने तात्कालिक दिखावे या कूटनीति के रूप में नहीं किया, जैसा कि आज के चुनावी नेता, चुनाव के समय करते हैं अपितु इसके महत्व को स्वीकारते हुये उन्होंने इसे दिल से अपना लिया था। जहां नेहरू और जिन्ना के बौद्धिक आतंक और नफासत से आम आदमी एक दूरी बना कर चलता था वहीं गांधी उसे अपने आदमी लगते थे। गांधी ने न केवल आम आदमी की भाषा और भूषा का ही स्तेमाल किया अपितु सरल व सस्ते भोजन के लिये उन्होंने शाकाहार को अपनाया। पर ऐसा नहीं कि वे शाकाहार को सब पर लादते हों। उनके साथ रहने वाले नेहरूजी प्रति दिन एक अन्डे का सेवन जिन्दगी भर करते रहे और उनके सबसे समर्पित साथी खान अब्दुल गफ्फार खां जिन्हें खुद सीमांत गांधी के नाम से जाना गया व जो ऐसे अकेले नेता थे जो विभाजन स्वीकार कर लेने पर गांधीजी के कंधे पर सिर रख कर फूट-फूट रोये थे,जिन्दगी भर मांसाहारी बने रहे। एक बार बचपन में इंदिरागांधी ने उनसे पूछा था कि क्या मैं अंडा खा सकती हूं तो बापू ने कहा था कि यदि तुम्हारे घर में खाया जाता है तो तुम खा सकती हो। गांधीजी ने दूध के लिये भारत के पुराने पौराणिक पशु गाय को नहीं चुना अपितु उन्होंने सस्ते सुलभ व कम से कम देख भाल की जरूरत वाली बकरी को पाला ,क्योंकि वह ही गरीब की मां हो सकती थी।
       गांधीजी ने लोगों के दिल में इसलिये जगह बनायी क्योंकि वे लोगों के साथ केवल दिमाग से नहीं जुड़े अपितु दिल और दिमाग दोनों से जुड़े। राजनीति के साथ समाज सेवा करने  की आवश्यकता उन्होंने इस कारण महसूस की ताकि लोग राजनीतिक बात सुनने की स्थिति में तो आयें। वे जानते थे कि कोई भी सम्वाद तभी बनाया जा सकता है जब सम्बोघित किया जाने वाला व्यक्ति सुनने की स्थिति और तैयारी में हो। सम्वाद वन वे ट्रैफिक नहीं हो सकता। वे पहले अपने श्रोता की सुनना और उसे समझना ज्यादा जरूरी समझते थे। ऐसा ही वे अपने तत्कालीन शासकों से चाहते थे। गांधीजी जब माउंटबेटन से मिलने गये तो वहां कूलर चल रहा था। फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक लपियर कालिन्स के अनुसार तब सम्भवत: वह भारत में चलने वाला एकमात्र कूलर रहा होगा। गांधीजी बोले- मुझे सर्दी लग रही है- यह कह कर उन्होंने बातचीत से पहले वहां कूलर बन्द करवा दिया व माउंटबेटन को बातचीत के मेज पर बराबरी का अहसास करा दिया। वे यह सन्देश देना चाहते थे कि तुम्हारी मशीनों से चमत्कृत हो मैं अपने यथार्थ को नहीं भूल सकता हूं। उनका एक चम्मच था जिससे वे दही खाते थे। जब चम्मच टूट गया तब उन्होंने उसमें एक खपच्ची बांध ली थी और लगातार उसीसे नाशता करते थे। जब लेडी माउंटबेटन ने मेज पर नाश्ता लगवाया तो उन्होंने थैली में से अपना टूटा चम्मच और दही निकाल लिया। फिर बोले कि मैं अपना नाश्ता अपने साथ लाया हूं। जिस साम्राज्य में सूरज नहीं डूबता था उसके प्रतिनिधि के सामने ऐसी विनम्र चुनौती रखने वाले गांधी सम्वाद में बराबरी का महत्व समझते थे व दूसरों को भी उसका अहसास कराते रहते थे।
             गांधीजी समाज को एक जीवित इकाई की तरह समझते थे और मानते थे कि यदि शरीर की एक उंगली में दर्द हो तो उसका असर पूरे अंगों पर होता है व उस अंग को ठीक रखे बिना दूसरे अंगों को ठीक रखना संभव नहीं हो सकता इसलिये वे समाज से केवल गुलामी का ही दर्द नहीं हटाना चाहते थे अपितु छुआछूत, जातिभेद, गरीबी और रोगों आदि के साथ समांतर संघर्ष चलाते थे। तत्कालीन समाज में अस्पृश्य मानी जानी वाली जातियों के साथ बैठकर भोजन करने वाले व अपना पाखाना स्वयं साफ करने की परम्परा डालने वाले गांधी अछूतोद्धार को भी राजनीतिक लड़ाई से कम महत्वपूर्ण नहीं मानते थे। वे अपने को आस्तिक ही नहीं वैष्णव भी बतलाते थे और रोज  प्रार्थना करते थे ,पर यह प्रार्थना सामूहिक होती थी जिसमें सभी धर्मों की प्रार्थनाएं सम्मलित थीं। उनके एक भजन में अल्लाह ईश्वर एकहि नाम के शब्द आते थे। उनका यह ढंग समाज के सभी समुदायों को जोड़ने वाला था।
             अंग्रेजी साम्राज्यवाद से अहिंसक लड़ाई लड़ने वाला यह योद्धा उपर से ठन्डा दिख सकता था क्योंकि उसके पास अपने सिद्धांतों और विश्वासों की मजबूती थी। वह इन आन्दोलनों के दौर में भी कुष्टरोगियों की सेवा भी करता है और अखबार का सम्पादन भी करता है। आज के पूर्णकालिक राजनेता जो अपने भाषणों में गरीब निर्धन और दलितों के लिये निरंतर घड़ियाली आंसू बहाते हैं ना तो पर्ल्स पोलियो के दिन बच्चों को पोलियो ड्राप पिलवाने के लिये निकलते हैं और ना ही सम्पूर्ण साक्षरता आन्दोलन के दौरान लोगों को साक्षरता हेतु अपने प्रभाव का कोई प्रयास करते नजर आते हैं। यदि राजनेताओं ने गरीबी हटाओं  और स्वरोजगार योजनाओं को लागू करवाने को एक राजनीतिक आन्दोलन की तरह लिया होता तो समाज और उन नेताओं के प्रति विश्वास में जबरदस्त फर्क आया होता। एक ताजा सर्वेक्षण के अनुसार पचासी प्रतिशत लोग आज के नेताओं की बातों पर भरोसा नहीं करते हैं। आज  राजनीति का अर्थ हो गया है कि सत्ता में अपने आप को अपनी क्षमताओं से अधिक ऊंचे स्थान पर फिट करने के लिये प्रयत्नशील रहना व ऐसा होने में अवरोध बनने वालों का विरोध करना। जिस दल के कार्यकर्ता सत्ता के लाभों के अभ्यस्त हो जाते हैं वे सत्ता चली जाने के बाद लुंजपुंज हो जाते हैं जबकि लोगों को उनके विधिसम्मत अधिकार दिलवाने के लिये संघर्ष करने का यह सर्वोत्तम अवसर होता है। भाषणों में देश के लिये खून की एक एक बूंद देने का दावा करने वाले यदि राष्ट्रीय त्योहारों पर रक्तदान की परंपरा ही डालें तो इस देश के किसी अस्पताल को कभी रक्त की कमी न पड़े और प्रतिवर्ष हजारों जानें बच सकें। गांधीजी अगर आज होते तो उन्होंने ऐसा ही कोई ढंग चुना होता। किस पार्टी के कार्यकर्ताओं ने वर्ष में कितना रक्त दान किया है इसका आंकड़ा न केवल उस पार्टीवालों का देशवासियों के प्रति समर्पण ही प्रकट करेगा अपितु उनके त्याग की परीक्षा भी करेगा। श्री नरेन्द्र मोदी भी स्वच्छता को भाजपा का कार्यक्रम नहीं बना सके हैं, जो केवल सरकारी तमाशा बन कर रह गया है।
             खेद की बात तो यह है कि जिन लोगों के पास गांधी की विरासत थी वे उसका उपयोग नहीं कर रहे हैं और गांधीवाद के शत्रु उनकी रणनीतियों का सर्वाधिक कुटिलतापूर्वक स्तेमाल कर रहे हैं। जब ग्यारह सितम्बर दो हजार दो को वर्ल्ड ट्रेड सैंटर पर आतंकियों ने हमला किया तो उसमें सबसे अधिक उल्लेखनीय तथ्य यह था कि उन हमलावरों ने अमेरिका के ही विमानों का अपहरण करके और उनके महत्वपूर्ण स्थलों पर टकराकर धाराशायी कर दिया। मुझे इस घटना के समय इन अर्थों में गांधीजी की याद आयी कि अगर किसी के पास इरादे हों तो संघर्ष के लिये बाहरी संसाधनों की जरूरत नहीं होती और अपनी जान को दांव पर लगा देने के आगे सारे हथियार बेकार होते हैं। गांधीजी इसे अपने अच्छे कार्यों के लिये अच्छे ढंग से प्रयोग करते थे। चुनाव के समय जनता की सेवा के दावे करने वाले नेता चुनाव हार जाने पर जनता की सेवा से दूर क्यों हो जाते हैं या केवल छुटपुट विरोध प्रर्दशनों तक अपने को सीमित क्यों कर लेते हैं? क्या जनता की सेवा किसी पद के लिये चुने जाकर ही की जा सकती है?गांधी बिना किसी पद पर रहे कुष्टरोगियों की सेवा करते थे, अछूतोद्धार करते थे, सूत कातते थे और हिन्दी प्रचार सभा चलवाते थे। आज यदि साम्प्रदायिक संगठन अपनी जगह बना सके हैं तो उसके पीछे उनका जनसेवा के स्थलों पर दिखना भी है। उनको निर्मूल करने की इच्छा रखने वालों को गांधी के रास्ते पर चलकर सबसे पहले समाजसेवा में उनसे आगे निकल कर दिखाना होगा। समाजसेवा के कार्यों को सरकारी मशीनरी के भरोसे नहीं छोड़ा जा सकता तथा सरकारी मशीनरी के द्वारा वांछित परिणाम पाने के लिये राजनीतिक संगठनों का सक्रिय हस्तक्षेप अनिवार्य हो गया है। पर, किसी भी दल की घोषणाओं में सरकार से बाहर रहते हुये किये जाने वाले सामाजिक कार्यक्रमों की चर्चा तक नहीं की जाती। गांधीजी दहेजप्रथा, सतीप्रथा आदि कुरीतियों से टकराने को सदैव तत्पर रहते थे पर आज उनके नाम पर राजनीति करने वाले वोटों के लालच में विभिन्न समाजों की कुप्रथाओं को न केवल संरक्षण देते हैं अपितु कानूनी दायरे में आने पर उन्हें बचाने का काम भी करते हैं।

             गांधीवादी राजनीति का दावा करने वाले दलों के सदस्य यदि प्रतिमाह केवल एक सामाजिक कार्य में ईमानदारी से सहयोंगी होने का कार्यक्रम बनाकर चलें तो उनकी लोकप्रियता में गुणात्मक परिवर्तन दिख सकता है। गांधीवाद की सबसे बड़ी विशेषता सिद्धांतों और व्यवहारिकता को समानान्तर ढंग से चलाना है। गांधीजी ने अपनी जिन्दगी में इसे सफलतापूर्वक करके दिखाया है।

वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, सितंबर 20, 2019

मूर्तियों का आकार

मूर्तियों का आकार
वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भोपाल में गणेश की एक विशालकाय मूर्ति का विसर्जन करते हुए नाव पलट गयी थी और उसमें बारह युवा असमय ही मृत्यु का शिकार हो गये। ऐसे में जैसा कि होता है सत्ता में बैठे नेताओं ने जनभावनाओं के अनुरूप मुआवजे की बड़ी राशि देने की घोषणा करते हुए मृतक के परिवार के सदस्य को सरकारी नौकरी देने तक के वादे किये। कुछ लापरवाह छोटे प्रशासनिक अधिकारियों पर कार्यवाही की और नियमों को कठोर बनाने की घोषणा भी की। दूसरी ओर विपक्ष में बैठे नेताओं ने अपना कर्तव्य निभाते हुए दिये गये मुआवजे को कम बताते हुये उससे दुगनी राशि देने की मांग कर डाली और राजनीति करते हुये जिम्मेवारी को उच्च अधिकारियों से लेकर मंत्रियों तक फैलाने की कोशिश की, भले ही उनके कार्यकाल में घटित ऐसी ही दुर्घटनाओं में मुआवजे की राशि बहुत कम रही थी। सुधार की जो त्वरित घोषणाएं की गयीं उनमें मूर्ति का आकार छह फीट तक रखने की बात भी घोषित की गयी। घटना की सनसनी एक सप्ताह तक रही।
कुछ ही दिन बाद नवरात्रि पर्व का प्रारम्भ होने जा रहा है, जिसके लिए मूर्तियों का निर्माण अपने अंतिम दौर पर हैं। एक मीडिया रिपोर्ट के अनुसार केवल भोपाल ही में दस फीट और उससे अधिक ऊंचाई की पाँच सौ से अधिक मूर्तियां निर्मित हो रही हैं। प्रशासन में इतहा साहस नहीं है कि वह इन मूर्तियों का निर्माण रुकवा सके या इनके विसर्जन को रोक सके। सरकार के सुधारात्मक सुझाव को भी धार्मिक मामला बता कर धार्मिक उन्मादियों ने सरकार के खिलाफ बयान देना शुरू कर दिया है। तय है कि विसर्जन का कार्यक्रम प्रति वर्ष की भांति ही होगा और दुर्घटनाओं की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता। धर्मदण्ड के आगे दण्डवत हो जाने वाले पुलिस बल से यह उम्मीद भी नहीं की जा सकती कि वह धर्म के नाम पर कुछ भी बेतुके काम किये जाने को रोकने की कोशिश करे, भले ही उस काम की कोई सुदीर्घ परम्परा न हो। 
मूर्ति पूजा का उद्देश्य अतीत के पौराणिक देवताओं को वर्तमान समय में महसूस करना होता है इसलिए यथा सम्भव उनका स्वरूप वैसा ही बनाये जाने की कोशिश की जाती है जैसा कि पुराणों में उनका वर्णन किया गया है। वैसा ही रूप, वैसे ही वस्त्र, वैसे ही शस्त्र, वाहन, और उनके चरित्र के अनुसार उनकी मुख मुद्राएं बनायी जाती हैं। किंतु जब से राजनीति में धर्म की भूमिका ने प्रवेश किया है तब से उसका स्वरूप ही बदल गया है। आज से लगभग सौ वर्ष पूर्व तिलक ने गणपति समारोहों का प्रारम्भ महाराष्ट्र में इसलिए किया था ताकि सार्वजनिक स्थान पर हर जाति धर्म के लोग स्वतंत्रता की लड़ाई में साथ आ सकें। आजादी के बाद आयी वोटों की राजनीति में लाभ लेने हेतु एक हिन्दुत्ववादी पार्टी ने पूरे हिन्दीभाषी क्षेत्र में इसका विस्तार किया। वर्षा की ऋतु के बाद सभी जगह उत्सव मनाने की परम्परा थी किंतु प्रत्येक क्षेत्र में ये उत्सव अलग अलग तरह से मनाये जाते थे। महाराष्ट्र में गणपति की स्थापना के रूप में होता था तो बंगाल में दुर्गा पूजा के रूप में, गुजरात में नवरात्रि में देवीपूजा के साथ गरवा के रूप में होता था तो हिन्दीभाषी क्षेत्र में रामलीलाएं व दशहरा उत्सव होते थे, कांवड़ यात्रा भी निकलती थी। केरल में मनाये जाने वाला ओणम भी इसी महीने पड़ने वाला त्योहार है। वोटों की राजनीति में धर्म के प्रयोग ने सभी जगह सभी तरह के उत्सव मनाये जाने शुरू करवा दिये व कुछ लोगों को इन उत्सवों का व्यापार करना सिखा दिया।
व्यापारिक मनोवृत्ति ने निर्धन, दलित, और पिछड़े वर्ग के बेरोजगार युवाओं को झांकी सजाने और निकालने का स्वरोजगार दे दिया। वे धर्म की राजनीति करने वाले नेताओं के संरक्षण में अपने समूह की ताकत के बल पर बिना हिसाब किताब का चन्दा एकत्रित करने लगे और धार्मिक भावनाओं का छोंक लगा होने से सरलता से वसूलने भी लगे। यह जानना रोचक हो सकता है कि सर्वाधिक आकर्षण वाली झांकियां बाजारों के आसपास ही लगायी जाती हैं क्योंकि व्यापारिक अनिश्चितता में जी रहा दुकानदार युवा समूह से किसी प्रकार का टकराव नहीं चाहता। ज्यादा चन्दा वसूलने के लिए झांकियों में प्रमुख तीर्थों की प्रतिकृतियों के साथ साथ मूर्तियों का आकार भी विशाल से विशालतर होता गया। आयोजक यह भूलते गये कि किसी मूर्ति का आकार धार्मिक पुराणों में रचे गये पात्रों के अनुरूप ही होना चाहिए। पुराणों में देवताओं का आकार सामान्य मानवाकार ही दर्शाया गया है जबकि राक्षसों या खलनायकों को विशाल आकार में बताया गया है। राजनीतिक व्यापार के चक्कर में वे देवताओं का स्वरूप ही बदले दे रहे हैं। उल्लेखनीय है कि देश में लाखों लोगों की पूज्य वैष्णो देवी की मूर्तियां आकार में सामान्य होते हुए भी महत्व में बड़ी हैं। दशहरा में रावण, मेघनाथ और कुम्भकरण के पुतले लम्बे से और और लम्बे बनाये जाते रहे हैं जिनसे सामान्य आकार के पात्र ही संहार कर मुक्ति दिलाते हैं।
गणपति उत्सव, नवरात्रि उत्सव, गरवा आदि की व्यावसायिकता में कोई पंडित या विद्वान यह बताने आगे नहीं आता कि इन उत्सवों को मनाने की शास्त्रोक्त सही विधि क्या हो सकती है, और इसमें आयी विकृतियों को रोका जाना चाहिए। उन्हें ऐसा करने पर धर्मविरोधी ठहराये जाने का खतरा महसूस होता है इसलिए वे दबंगों द्वारा राजनीतिक व्यापार के हित में बनायी जा रही व्यवस्थाओं को चलाने लगते हैं। दुकानदार भी अपने बाज़ार के आसपास ऐसे उत्सव आयोजित कराने में रुचि रखते हैं ताकि भक्तों और ग्राहकों के बीच बचे खुचे भेद को भी मिटाया जा सके। त्योहारों के दौरान दैनिक उपयोग की वस्तुएं मंहगी बिकने लगती हैं, भले ही उत्सवों, व्रतों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं हो। कारण पूछने पर वे बताते हैं कि उन्हें उत्सव के लिए चन्दा भी देना पड़ता है। कुल मिला कर इन उत्सवों का बोझ भी आम आदमी पर पड़ता है। उत्सवों के दौरान उचित दामों में सामग्री मिलने का कोई अभियान कभी नहीं चला जबकि उसे महूर्त बता कर हर व्यापारी अपना कीमती सामान बेचने के विज्ञापन देने लगता है। पितृपक्ष के दौरान नया सामान न खरीदे जाने का विश्वास लोगों में रहा है किंतु पिछले कुछ वर्षों से इसी दौरान कुछ लोकप्रिय बाबा बयान देते हैं कि पितृपक्ष में नया सामान खरीदने में कोई दोष नहीं है। जाहिर है कि उक्त अनावश्यक बयान व्यापारियों द्वारा दिलाये गये होते हैं। उत्तर भारत में नये नये फैले गणेश, दुर्गा, और गरवा उत्सवों के बीच में हमारी रामलीला विलीन हो गयी जो उत्तर भारत का सबसे पुराना जननाट्य था।
जो नये उत्सव आये हैं उनकी आचार संहिता भी बनना चाहिए और उसे अनैतिक व्यापार बनने से रोकने के लिए उसके हिसाब किताब और प्रबन्धन की देख रेख करने वाली भी कोई संस्था होनी चाहिए। अब प्रत्येक मुहल्ले के दबंगों को धन एकत्रित करने के लिए यह साधन बनता जा रहा है। धर्म की राजनीति करने वाले भी अपना प्रभावशाली कैडर भी इसी भीड़ से चुनने लगे हैं।
वीरेन्द्र जैन
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बुधवार, सितंबर 18, 2019

श्रद्धांजलि स्मृति शेष माणिक वर्मा भोपाल में वे मेरे पड़ोसी भी रहे

श्रद्धांजलि स्मृति शेष माणिक वर्मा
भोपाल में वे मेरे पड़ोसी भी रहे

वीरेन्द्र जैन
माणिक वर्मा मंचों पर उस दौर के व्यंग्यकारों में शामिल हैं जब छन्द मुक्त व्यंग्य विधा को स्वतंत्र स्थान मिलने लगा था। एक ओर हास्य कविता में काका हाथरसी, निर्भय हाथरसी, गोपाल प्रसाद व्यास रमई काका शैल चतुर्वेदी हुल्लड़ मोरादाबादी आदि थे तो दूसरी ओर देवराज दिनेश, माणिक वर्मा, सुरेश उपाध्याय, ओम प्रकाश आदित्य, गोविन्द व्यास, आदि थे जिनमें माणिक वर्मा जी का विशेष स्थान था। बाद में अशोक चक्रधर, प्रदीप चौबे, मधुप पांडेय आदि जुड़े । इसके बाद की पीढी में तो फूहड़ चुटकलों ने ही कविता की जगह लेना शुरू कर दिया था। सबसे वरिष्ठ श्री मुकुट बिहारी सरोज इन सब में अलग थे जिन्होंने गीत में सार्थक व्यंग्य रचा।
मेरी पद्य और गद्य व्यंग्य रचनाएं 1971 से ही कादम्बिनी धर्मयुग, माधुरी, रंग आदि में प्रकाशित होने लगी थीं इसलिए मैं खुद को इस खानदान का सदस्य मान कर चलता था। व्यवस्था के खिलाफ मुखर रूप से लिखने वाले माणिक वर्मा मेरे पसन्दीदा कवि भी थे और हमविचार भी लगते थे। अनेक समारोहों में उनसे भेंट होती रही थी किंतु अपने संकोची स्वभाव के कारण मैं जल्दी घुल मिल नहीं पाता था, इसलिए रिश्ता दुआ सलाम तक सीमित रहा था। सरोज जी के प्रति उनकी श्रद्धा देख कर मुझे बहुत अच्छा लगता था जब वे उनसे आशीर्वाद स्वरूप थोड़ा सा पेय पदार्थ मांग रहे होते थे और अपनी तरह से प्रशंसा करने वाले सरोज जी कह रहे होते, कि तुम्हें तब तक एक बूंद नहीं दूंगा जब तक कि तुम वादा नहीं करते कि इतना अच्छा नहीं लिखोगे, आखिर तुम क्यों इतना अच्छा लिखते हो! बहुत भावुक आत्मीयता महसूस होती थी जब माणिक जी उन से कह रहे होते थे कि – बप्पा थोड़ी सी दे दो, आपका आशीर्वाद तो चाहिए ही है मुझे!
इस बीच काफी समय गुजर गया। कवि सम्मेलनों में कवि के रूप में स्थापित होने की मेरी वासना शांत हो चुकी थी व उसी अनुपात में मंच के कवियों के प्रति आकर्षण भी खत्म हो गया था। मैं 2001 में बैंक की नौकरी छोड़ कर भोपाल आकर रहने लगा था और कविता छोड़ कर गद्य लेखन की ओर चला गया था। इसी बीच पता चला कि माणिक वर्मा जी भोपाल में ही रहने लगे हैं और मेरे पड़ोस में ही रहते हैं। पंजाबी बाग की लाजपत राय कालोनी में नीले रंग से पुता हुआ जो मकान है वह उन्हीं का है। मंच के एक कवि श्री दिनेश प्रभात के माध्यम से उनसे पुनः भेंट का मौका मिला और मेरे निकट ही रहने की बात जान कर वे बोले – भैय्या आ जाया करो कभी। पुराने माणिक वर्मा की तुलना में वे बीमार से लगे थे और उम्र का प्रभाव भी दिखा था।
इसी बीच कवि और समाजवादी राजनेता उदयप्रताप सिंह को म.प्र. में समाजवादी पार्टी की ओर से चुनाव का प्रभारी नियुक्त किया गया। वे मेरे पूर्व परिचित थे इसलिए उन्होंने इस प्रवास के दौरान प्रतिदिन मिलने का आग्रह किया ताकि दिन भर की राजनीतिक उठापटक के बाद शाम को साहित्यिक संवाद हो सके। इसी क्रम में एक दिन माणिक वर्मा जी से मिलने का कार्यक्रम भी बना। हम उनके घर पहुंचे और काफी देर बैठे। उस दिन उनके आते रहने के पुनः आग्रह में मुझे औपचारिकता की जगह सच्चाई नजर आयी। इसी मुलाकात में पता चला कि उनके प्रिय पुत्र नीरज कैंसर की बीमारी से ग्रस्त हैं जिनकी देख रेख में चिंतित वे कवि सम्मेलनों से भी दूर रहने लगे थे, और ऐसे कार्यक्रमों में ही जाते थे जहाँ वायुमार्ग से जाकर चौबीस घंटे के अन्दर वापिस आ सकें। यही कारण था कि उन्हें सचमुच ही वार्तालाप करने के लिए आत्मीय मित्रों की जरूरत थी। मैंने उनके यहाँ जाना शुरू किया तो उनकी आदत में शामिल होता गया। अंतराल होने पर वे खुद ही फोन करके आने का आग्रह करने लगे। कुछ समय बाद ही उनके पुत्र की मृत्यु हो गयी।
अपनी प्रारम्भिक जीवन संघर्ष कथा सुनाते हुए उन्होंने बताया था कि वे बचपन में ही बम्बई चले गये थे जहाँ वे टेलरिंग का काम करने लगे थे। जिस दुकान पर वे यह काम करते थे वहीं के टेलर मास्टर ने उनके शायर होने की प्रतिभा को पहचाना था और प्रोत्साहित किया था। वे मूल रूप से गज़लकार ही थे। अभी भी वे लगातार गज़लें कहते थे। कवि सम्मेलनों के आकर्षण ने उन्हें व्यंग्य कवि बना दिया था। उन्होंने बताया था कि कभी नीरजजी आदि को कवि सम्मेलन में सुनने के लिए वे तीस तीस किलोमीटर साइकिल से जाया करते थे। जब मैंने उन्हें सीपीएम के पाक्षिक पत्र लोकजतन का सदस्य बनाया तो उन्होंने बताया था कि वे कभी कम्युनिष्ट पार्टी के सदस्य हुआ करते थे और कामरेड शाकिर अली खान हरदा में क्लास लेने के लिए आते थे। उन्होंने कभी सोवियत भूमि पत्रिका के पचासों ग्राहक बनाये थे। बातचीत में पता लगा कि उनके छोटे बेटे इन्दौर में ही एडीजे हैं और दामाद कहीं कलैक्टर के समतुल्य पद पर पदस्थ हैं। उनके मूल निवास हरदा में उनका पैतृक मकान और खेती है। बहू भी स्कूल टीचर है। दिल्ली के एक कवि व प्रकाशक [शायद उनका नाम श्याम निर्मम था] ने उनका समग्र प्रकाशित करने का फैसला किया था किंतु उनके आकस्मिक निधन से वह प्रकाशन स्थगित हो गया था।
बीएचईएल भोपाल में हरवर्ष 26 जनवरी को कवि सम्मेलन होता है। ज्ञान चतुर्वेदी बीएचईल के ही कस्तूरबा अस्पताल में वरिष्ठ चिकित्सक रहे हैं और संस्थान की साहित्यिक गतिविधियों के लिए प्रबन्धन उनसे सलाह लेता रहा था। एक किसी वर्ष ज्ञान चतुर्वेदी का फोन मेरे पास आया कि माणिक वर्मा के साथ कवि सम्मेलन सुनने आ जाना। इसके साथ ही यह भी बताया कि उनके स्थानीय होने के कारण पिछले वर्ष प्रबन्धन ने उनके द्वारा चाही गयी पन्द्रह हजार की राशि देना मंजूर नहीं किया था किंतु इस वर्ष मैंने उन्हें बीस हजार देना मंजूर करवा लिया। वे आगे बोले जब प्रबन्धन सुरेन्द्र शर्मा को इक्वायन हजार दे रहा है तो मैंने कहा कि माणिक वर्मा को तो बीस हजार मिलने ही चाहिए। यह ज्ञान चतुर्वेदी का उनके प्रति सम्मान का प्रदर्शन था।
उनके साथ बैठ कर कवि सम्मेलनों और विभिन्न कवियों के बारे में ढेर सारी जानकारियां सुनने को मिलीं। जिस दिन वे भोपाल छोड़ कर जा रहे थे उस दिन उन्होंने मुझे फोन किया था किंतु मैं किसी कार्यक्रम में था और उसे अटैंड नहीं कर पाया था, अगले दिन पता चला कि वे तो भोपाल छोड़ कर चले गये हैं।  मुझे श्रद्धांजलि देने के लिए उनका ही वह शे’र याद आ रहा है-
ज़िन्दगी चादर है धुल कर साफ हो जायेगी कल
इसलिए ही हमने उसमें दाग लग जाने दिये  
वीरेन्द्र जैन
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मंगलवार, सितंबर 17, 2019

समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक


समीक्षा – जिन्हें जुर्मे इश्क पे नाज था 





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संवेदनात्मक ज्ञान को चरितार्थ करती पुस्तक
वीरेन्द्र जैन
मुक्तिबोध ने कहा था कि साहित्य संवेदनात्मक ज्ञान है। उन्होंने किसी विधा विशेष के बारे में ऐसा नहीं कहा अपितु साहित्य की सभी विधाओं के बारे में टिप्पणी की थी। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिस रचना में ज्ञान और संवेदना का संतुलन है वही साहित्य की श्रेणी में आती है।  
खुशी की बात है कि विधाओं की जड़ता लगातार टूट रही है या पुरानी विधाएं नये नये रूप में सामने आ रही हैं। दूधनाथ सिंह का आखिरी कलाम हो या कमलेश्वर का कितने पाकिस्तान , काशीनाथ सिंह का काशी का अस्सी हो या वीरेन्द्र जैन [दिल्ली] का डूब, सबने यह काम किया है। पंकज सुबीर की ‘जिन्हें जुर्म-ए-इश्क पे नाज़ था’ इसीकी अगली कड़ी है।
       अमूमन उपन्यास अनेक चरित्रों की अनेक कहानियों का ऐसा गुम्फन होता रहा है जिनके घटित होने का कालखण्ड लम्बा होता है और जो विभिन्न स्थलों पर घटती रही हैं। यही कारण रहा है कि उसे उसकी मोटाई अर्थात पृष्ठों की संख्या देख कर भी पहचाना जाता रहा है। चर्चित पुस्तक भी उपन्यास के रूप में सामने आती है। इसका कथानक भले ही छोटा हो, जिसका कालखण्ड ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘नरक यात्रा’ की तरह एक रात्रि तक सिमिटा हो किंतु तीन सौ पृष्ठों में फैला इसमें घटित घटनाओं से जुड़ा दर्शन और इतिहास उसे सशक्त रचना का रूप देता है भले ही किसी को उपन्यास मानने में संकोच हो रहा हो। ईश्वर की परिकल्पना को नकारने वाली यह कृति विश्व में धर्मों के जन्म, उनके विस्थापन में दूसरे धर्मों से चले हिंसक टकरावों, पुराने के पराभवों व नये की स्थापना में सत्ताओं के साथ परस्पर सहयोग का इतिहास विस्तार से बताती है। देश में स्वतंत्रता संग्राम से लेकर समकालीन राजनीति तक धार्मिक भावनाओं की भूमिका को यह कृति विस्तार से बताती है। इसमें साम्प्रदायिक दुष्प्रचार से प्रभावित एक छात्र को दुष्चक्र से निकालने के लिए उसके साथ किये गये सम्वाद के साथ उसके एक रिश्तेदार से फोन पर किये गये वार्तालाप द्वारा लेखक ने समाज में उठ रहे, और उठाये जा रहे सवालों के उत्त्तर दिये हैं। पुस्तक की भूमिका तो धार्मिक राष्ट्र [या कहें हिन्दू राष्ट्र] से सम्बन्धित एक सवाल के उत्तर में दे दी गयी है, जिससे अपने समय के खतरे की पहचान की जा सकती है।
 
       “जब किसी देश के लोग अचानक हिंसक होने लगें। जब उस देश के इतिहास में हुए महापुरुषों में से चुन-चुन कर उन लोगों को महिमा मंडित किया जाने लगे, जो हिंसा के समर्थक थे। इतिहास के उन सब महापुरुषों को अपशब्द कहे जाने लगें, जो अहिंसा के हामी थे। जब धार्मिक कर्मकांड और बाहरी दिखावा अचानक ही आक्रामक स्तर पर पहुँच जाए। जब कलाओं की सारी विधाओं में भी हिंसा नज़र आने लगे, विशेषकर लोकप्रिय कलाओं की विधा में हिंसा का बोलबाला होने लगे। जब उस देश के नागरिक अपने क्रोध पर क़ाबू रखने में बिलकुल असमर्थ होने लगें। छोटी-छोटी बातों पर हत्याएँ होने लगें। जब किसी देश के लोग जोम्बीज़ की तरह दिखाई देने लगें, तब समझना चाहिए कि उस देश में अब धार्मिक सत्ता आने वाली है। किसी भी देश में अचानक बढ़ती हुई धार्मिक कट्टरता और हिंसा ही सबसे बड़ा संकेत होती है कि इस देश में अब धर्म आधारित सत्ता आने को है।’’ रामेश्वर ने समझाते हुए कहा।     

इस पुस्तक में टेलीफोन के इंटरसेप्ट होने के तरीके से इतिहास पुरुषों में ज़िन्ना, गाँधी, नाथूराम गोडसे के साथ सम्वाद किया गया है जैसा एक प्रयोग फिल्म ‘लगे रहो मुन्नाभाई’ में किया गया था। इस वार्तालाप से उक्त इतिहास पुरुषों के बारे में फैलायी गयी भ्रांतियों या दुष्प्रचार से जन्मे सवालों के उत्तर मिल जाते हैं। कथा के माध्यम से निहित स्वार्थों द्वारा कुटिलता पूर्वक धार्मिक प्रतीकों के दुरुपयोग का भी सजीव चित्रण है।
नेहरूजी के निधन पर अपने सम्वेदना सन्देश में डा. राधाकृष्णन ने कहा था कि “ टाइम इज द एसैंस आफ सिचुएशन, एंड नेहरू वाज वैल अवेयर ओफ इट”। महावीर के दर्शन में जो सामायिक है वह बतलाता है कि वस्तुओं को परखते समय हम जो आयाम देखते हैं, उनमें एक अनदेखा आयाम समय भी होता है क्योंकि शेष सारे आयाम किसी खास समय में होते हैं। जब हम उस आयाम का ध्यान रखते हैं तो हमारी परख सार्थक होती है। पंकज की यह पुस्तक जिस समय आयी है वह इस पुस्तक के आने का बहुत सही समय है। कुटिल सत्तालोलुपों द्वारा न केवल धार्मिक भावनाओं का विदोहन कर सरल लोगों को ठगा जा रहा है, अपितु इतिहास और इतिहास पुरुषों को भी विकृत किया जा रहा है। पुराणों को इतिहास बताया जा रहा है और इतिहास को झुठलाया जा रहा है। आधुनिक सूचना माध्यमों का दुरुपयोग कर झूठ को स्थापित किया जा रहा है जिससे सतही सूचनाओं से कैरियर बनाने वाली पीढी दुष्प्रभावित हो रही है जिसका लाभ सत्ता से व्यापारिक लाभ लेने वाला तंत्र अपने पिट्ठू नेताओं को सत्ता में बैठा कर ले रहे हैं। ऐसे समय में ऐसी पुस्तकों की बहुत जरूरत होती है। यह पुस्तक सही समय पर आयी है। हर सोचने समझने वाले व्यक्ति की जिम्मेवारी है कि इसे उन लोगों तक पहुँचाने का हर सम्भव प्रयास करे जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। शायद यही कारण है कि देश के महत्वपूर्ण चिंतकों ने सुबीर को उनके साहस के लिए बधाई देते हुए उन्हें सावधान रहने की सलाह दी है।       
इस कृति की कथा सुखांत है, किंतु इसके सुखांत होने में संयोगों की भी बड़ी भूमिका है। कितने शाहनवाजों को रामेश्वर जैसे धैर्यवान उदार और समझदार गुरु मिल पाते हैं! कितने जिलों के जिलाधीश वरुण कुमार जैसे साहित्य मित्र होते हैं, विनोद सिंह जैसे पुलिस अधीक्षक होते हैं, और भारत यादव जैसे रिजर्व फोर्स के पुलिस अधिकारी मिल पाते हैं, जो रामेश्वर के छात्र भी रहे होते हैं व गुरु की तरह श्रद्धाभाव भी रखते हैं। आज जब देश का मीडिया, न्यायव्यवस्था, वित्तीय संस्थाएं, जाँच एजेंसियों सहित अधिकांश खरीदे जा सकते हों या सताये जा रहे हों, तब ऐसे इक्का दुक्का लोगों की उपस्थिति से क्या खतरों का मुकाबला किया जा सकता है या इसके लिए कुछ और प्रयत्न करने होंगे?
वीरेन्द्र जैन
2/1 शालीमार स्टर्लिंग, रायसेन रोड
अप्सरा टाकीज के पास भोपाल [म.प्र.] 462023
मो. 09425674629

बुधवार, सितंबर 04, 2019

संस्मरण धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, कनु प्रिया


संस्मरण
धर्मवीर भारती, पुष्पा भारती, कनु प्रिया

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वीरेन्द्र जैन
गत दिनों भारत भवन में इला अरुण, के के रैना द्वारा परिकल्पित और निर्देशित नाटक ‘शब्द लीला’ के मंचन का समाचार पढने को मिला। पिछले कुछ वर्षों में भारत भवन में आमंत्रण भेजे जाने वाली सूची में संशोधन किया गया था और गत दो दशक की परम्परा को तोड़ते हुए मुझ जैसे लोगों को आमंत्रण भेजना बन्द कर दिया गया था, इनमें म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ के प्रदेश अध्यक्ष व ऎतिहासिक वसुधा पत्रिका के सम्पादक राजेन्द्र शर्मा भी सम्मलित हैं। यदि समय पर सूचना मिल गयी होती तो इसे देखने मैं अवश्य ही गया होता।
मेरी रुचि का कारण इसका विषय है। यह नाटक धर्मवीर भारती की प्रसिद्ध रचना ‘कनु प्रिया’ पर आधारित बताया गया है जिसके बाद में ‘अन्धायुग’ का मंचन भी किया गया था। कहा जाता है कि ‘कनु प्रिया’ रचने की प्रेरणा भारती जी को अपने निजी जीवन में उठे द्वन्द और उसे हल करने के प्रयासों से प्राप्त जीवन अनुभवों से मिली। वे इलाहाबाद विश्व विद्यालय में हिन्दी के प्राध्यापक थे और पुष्पा भारती उनकी कक्षा की सबसे सुन्दर लड़कियों में से एक थीं। पूर्व से विवाहित भारती जी को उनके रूप और इस आकर्षण को मिले प्रतिदान ने द्वन्द में डाल दिया था। उन दिनों इलाहाबाद हिन्दी साहित्य की राजधानी थी जहाँ भारती जी के अलावा निराला, फिराक गोरखपुरी, हरिवंशराय बच्चन, सुमित्रा नन्दन पंत, महादेवी वर्मा, उपेन्द्र नाथ अश्क, भैरव प्रसाद, मार्कण्डेय, कमलेशवर, दुष्यंत कुमार त्यागी, ज्ञानरंजन, रवीन्द्रनाथ त्यागी आदि आदि लोग सक्रिय थे। अपनी प्रेमिका छात्रा पुष्पा भारती से विवाह करने के विचार पर नैतिकतावादी भारती गहरे द्वन्द से घिरे रहे पर अंततः उनका प्रेम जीता और उन्होंने पुष्पा जी से विवाह कर लिया।
एक बार धर्मयुग में उन्होंने लोहिया जी पर एक संस्मरणात्मक लेख लिखा। इस लेख में उन्होंने लिखा था कि अपने दूसरे विवाह के सम्बन्ध में उन्होंने लगभग समस्त परिचितों और आदरणीयों से सलाह चाही थी किंतु किसी ने भी खुल कर मेरा समर्थन नहीं किया था। किंतु जब उन्होंने लोहिया जी से सलाह मांगी तब उनकी सहमति ने उन्हें बल दिया था और वे निष्कर्ष पर पहुँचे थे। जैसा कि मैं पहले भी एक संस्मरण में जिक्र कर चुका हूं कि जब पुष्पा भारती जी भोपाल आयीं थीं, और दुष्यंत संग्रहालय में मुझे उनसे बातचीत का अवसर मिला था तो मैंने उनसे भारती जी की राजनीति के बारे में जानना चाहा था। उनका उत्तर था कि भारतीजी किसी राजनीति विशेष से जुड़े हुए नहीं थे और उनके घर पर तो हर तरह की राजनीति के लोग आते थे। इस पर मैंने कुरेदते हुए लोहिया जी से उनके सम्बन्धों के बारे में जनना चाहा तो उन्होंने एक संस्मरण सुनाया।
“भारतीजी तब मुम्बई [तब की बम्बई] आ चुके थे। लोहिया जी मुम्बई आये हुये थे और रेलवे स्टेशन के रिटायरिंग रूम में रुके हुये थे। हम दोनों उनसे मिलने गये और भारती जी ने मेरा परिचय कराया तो उन्होंने छूटते ही कहा चीज तो बहुत अच्छी है। यह सुन कर मुझे आग लग गयी। जब भारतीजी ने बाहर ले जाकर मुझसे पूछा कि क्या आज शाम इन्हें खाने पर बुला लें तो मैंने साफ मना कर दिया कि इस आदमी को तो मैं कतई खाना नहीं खिला सकती। फिर भारतीजी ने कभी ऎसा प्रस्ताव नहीं किया।“
इस पर जब मैंने पुष्पाजी को धर्मयुग में लिखे भारतीजी के संस्मरण के बारे में बताते हुए यह भी बताया कि आपसे शादी का अंतिम निर्णय लोहिया जी की सलाह के बाद ही हुआ था तो उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ, क्योंकि उन्हें यह बात पता ही नहीं थी। वे बोलीं, तो ये बात थी। शायद उन्हें अफसोस हुआ हो।
भारतीजी की पहली पत्नी का नाम कांता था जिसे समाचार में भूल से कामता लिख दिया गया है। उन्होंने ‘रेत पर तड़फती हुयी मछली’ नाम से एक उपन्यासनुमा रचना लिखी है। इस कृति के बारे में कहा जाता है कि वह उनकी आत्मकथा है। भारतीजी से द्वेष रखने वाले किसी विश्वविद्यालय के चयनकर्ताओं ने उसे कभी कोर्स में भी लगा दिया था। कांता जी की एक लड़की भी थी जो काफी समय तक मुम्बई में रही।
भारतीजी जितने अच्छे साहित्यकार थे उतने ही अच्छे सम्पादक भी थे। मैं यह बात निजी अनुभव से कह सकता हूं कि उन्होंने देश भर में हजारों लेखकों को मांजा है, संवारा है, और पहचान दी है। छोटी छोटी पर्चियों पर लिखी उनकी संक्षिप्त टिप्पणियां आज भी मेरी धरोहर हैं।
इसी मुलाकात में पुष्पाजी ने एक और संस्मरण साझा किया था जो उन्हें लता मंगेशकर ने फोन करके बताया था। एक बार लताजी पुणे से लौट रही थीं कि दो लड़कियां लिफ्ट मांगने का इशारा करते हुयीं दिखीं तो उन्होंने ड्राइवर से उन्हें बैठा लेने को कहा। ड्राइवर ने बेमन से आदेश का पालन किया। लताजी उन लड़कियों से उनके बारे में पूछ ही रही थीं कि ड्राइवर ने सीडी प्लेयर चालू कर दिया जिसमें लताजी का ही गीत आ रहा था। उन लड़्कियों ने उन्हें रोकते हुए कहा कि रुकिए, लताजी का गीत आ रहा है। गीत समाप्त होने के बाद उन्होंने पूछा कि क्या तुम लोगों को लताजी पसन्द हैं? उत्तर में उन्होंने कहा कि वे तो हमारे लिए भगवान हैं। लताजी ने पूछा कि अगर तुम्हें लताजी से मिलवा दें तो? उन लड़कियों ने ऐसा भाव प्रकट किया कि यह तो सम्भव ही नहीं है। तब लताजी न कहा कि मैं ही लता मंगेशकर हूं तो दोनों ने इसे सबसे बड़ा चुटकला सुन लेने के अन्दाज़ में खुले मुँह पर चार उंगलियां रख कर उपहास भाव प्रकट किया। लता जी ने उनके विश्वास को तोड़ने की कोशिश न करते हुए ड्राइवर से कहा कि मुझे घर छोड़ते हुए इन्हें इनके गंतव्य तक पहुंचा देना। ड्राइवर ने जब उनके घर पर छोड़ा, जिसके बारे में वे लड़कियां शायद पहले से जानती होंगीं, तो उनकी हालत देखने लायक थी।
राजीव गाँधी ने प्रधानमंत्री बनने के बाद हिन्दी में सबसे पहला साक्षात्कार पुष्पा भारती को ही दिया था। इसकी व्यवस्था तत्कालीन सांसद अमिताभ बच्चन ने की थी जो उन्हें बड़ी बहिन मानते रहे हैं। स्मरणीय है कि अमिताभ की शादी के समय उन्होंने इसी भूमिका का निर्वाह किया था। अपने समय की बहुचर्चित पुष्पाजी मुम्बई में ही रहती हैं। कामना है वे स्वस्थ रहें और उम्रदराज हों।   
वीरेन्द्र जैन
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शुक्रवार, अगस्त 23, 2019

संस्मरण – बाबूलाल गौर वे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सच्चे चेहरे थे

संस्मरण – बाबूलाल गौर
वे लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व के सच्चे चेहरे थे
वीरेन्द्र जैन






 बाबूलाल गौर नहीं रहे।
हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लोकतंत्र की कल्पना की थी, उसके अनुरूप कम प्रतिनिधि ही सामने आये हैं, किंतु बाबूलाल गौर उनसे भिन्न थे। वे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था के सच्चे प्रतिनिधि थे। वे इतने अधिक पदों पर रहे कि उनके साथ अनेक विशेषण जुड़ते हैं। वे पार्षद से शुरू करते हैं और फिर विधायक, विधानसभा में विपक्ष के नेता, मंत्री, मुख्यमंत्री और फिर मंत्री व केवल विधायक तक पहुँचते हैं किंतु कभी भी पद का अभिमान नहीं रखा। कपड़ा मिल में काम करते हुए जिस ट्रेड यूनियन के नेता का स्वरूप ग्रहण किया था उसे ही हमेशा बनाये रखा। उनसे कभी भी कोई मिल सकता था या वे किसी के भी घर जा सकते थे। यही कारण था कि उन्होंने लगातार विधायक चुने जाने का विश्व रिकार्ड बनाया। जिसे उनकी पार्टी की सदस्यता का पता न हो वह उनके आचरण से पता नहीं लगा सकता था कि वे भाजपा में हैं, काँग्रेस में हैं या किसी समाजवादी दल में हैं। भोपाल में रहने वाले सक्रिय लोगों से उनकी मुलाकात हो जाना सहज सम्भव थी। वे मुझे निजी तौर पर नहीं जानते थे किंतु जब जब भी मुलाकात हुयी तो बातचीत या व्यवहार से ऐसा नहीं लगा कि वे किसी अपरिचित से बात कर रहे हैं। वे हमेशा देशी आदमी की तरह सरल सहज रहे।
यह संस्मरण एक घटना विशेष से जुड़ा है। भूमिका भी बता दूं। मैं बैंक की नौकरी से वीआरएस लेकर 2001 में यह सोच कर भोपाल आया था कि लेखन और पत्रकारिता करने का पुराना सपना पूरा कर सकूं। यहाँ आकर निदा फाजली के शे’र का मतलब समझ में आया – यहाँ किसी को कोई रास्ता नहीं देता / मुझे गिराकर अगर तुम सम्हल सको तो चलो। पहले कभी लोकल अखबारों में सम्पादकीय पृष्ठ पर छपने वाले विचार परक लेख लिखता था, कभी कभी सम्पादकीय भी लिख देता था, सो सोचा था कि जब पूर्णकालिक पत्रकार ही बनना है तो बड़े अखबार में प्रवेश का रास्ता बनाया जाये। दैनिक भास्कर सबसे ज्यादा सरकुलेशन वाला अखबार था। उसमें सम्पादकीय पृष्ठ पर व्यंग्य का कालम आता था सो उससे ही शुरुआत हुयी। उनकी सीमा थी कि वे लगातार किसी एक व्यक्ति को नहीं छाप सकते थे सो मैं महीने में दो तीन बार ही छप पाता था जबकि मैं रोज लिखा करता था। सम्पादक से बात हुयी तो वे एक दो महीने में उस पृष्ठ पर छपने वाले दो मुख्य लेखों में से दूसरा लेख छापने लगे। इससे भी मेरा मन नहीं भरा। उन दिनों पाठकों के पत्र समुचित संख्या में छपते थे और उनमें से एक शिखर पर खास चिट्ठी के रूप में बाक्स में छपता था। इसमें कोई बन्दिश नहीं थी, इसलिए मैं सम्पादकीय की तरह इसमें लगभग नित्य लिखने लगा। यह व्यंग्य और सम्पादकीय का मिला जुला संक्षिप्त रूप होता था। इसे काफी पढा जाने लगा। उन दिनों मेरे पास इंटरनैट सुविधा नहीं थी और मैं अपना पत्र लेकर भरी दुपहरी में भास्कर कार्यालय जाया करता था किंतु अच्छा रिस्पोंस होने के कारण अखरता नहीं था।
इसी बीच दो घटनाएं घटीं। एक बयान में तत्कालीन मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने भाजपा से सवाल पूछा कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की परिभाषा क्या है, और दूसरी घटना में भाजपा के पार्षदों के बीच आपस में मारपीट हो गयी जिसमें एक का सिर फट गया। इनको मिला कर मैंने एक व्यंग्यात्मक टिप्पणी लिखी जिसे भास्कर ने खास चिट्ठी की तरह प्रकाशित की। उस समय भाजपा ने गौरी शंकर शेजवार को हटा कर गौर साहब को विपक्ष के नेता की जिम्मेवारी दे दी थी। उनके पास कैबिनेट मंत्री को मिलने वाली सारी सुविधाएं थीं। मेरे पत्र के प्रतिवाद में गौर साहब ने एक लम्बा पत्र लिखा। सम्पादकीय पृष्ठ देख रहे श्री राजेश पांडेय ने मुझे बुला कर वह लेखनुमा पत्र पढवाया। मैंने कहा कि जब पत्र के उत्तर में यह आया है तो इसे पत्र के कालम में ही छपना चाहिए।
पत्रनुमा लेख बड़ा था, इसलिए उसे संक्षिप्त किया गया और पत्र की तरह ही छापा गया। इस पत्र में गौर साहब की प्रतिभा और ज्ञान का परिचय मिलता है।
2005 में मैंने राज्य स्तरीय स्वतंत्र पत्रकार के रूप में अधिमान्यता के लिए आवेदन दिया था। इसमें विलम्ब होने पर मैंने मुख्यमंत्री कार्यालय को शिकायत लिख दी। खुशी है कि मेरी शिकायत पर तुरंत कार्यवाही हुयी और विशेष मीटिंग बुला कर मुझे अधिमान्यता दी गयी।
[ संलग्न तीन कटिंग्स ]

शनिवार, अगस्त 17, 2019

कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना - यह राजनीति है या कूटनीति


कहीं पर निगाहें कहीं पर निशाना - यह राजनीति है या कूटनीति
वीरेन्द्र जैन

रामकथा का कथानक ऐसा कथानक है जिस पर लगभग तीन सौ रचनाएं लिखी गयी हैं जो सभी अनूठी हैं। यही कारण है कि राष्ट्रकवि मैथिली शरण गुप्त जिन्होंने खड़ी बोली में इस कथानक पर महाकाव्य रचा, कहते हैं –
राम तुम्हारा चरित स्वयं ही काव्य है
कोई कवि बन जाय, सरल सम्भाव्य है
इस कथानक पर रची गयी सभी रचनाओं में एक बात साझा है कि रावण ने जब सीता का अपहरण किया था, तब वह साधु का भेष धर कर आया था। हमारे देश में पिछले दिनों घटित राजनीतिक घटनाओं में यह प्रवृत्ति निरंतर देखी जा रही है।
इसकी शुरुआत तो श्रीमती इन्दिरा गाँधी के सत्ता संघर्ष के दौर से हो गयी थी जिन्होंने अपनी ही पार्टी के एक गुट को परास्त करने के लिए खुद को समाजवाद की अग्रदूत बताना शुरू कर दिया था व कम्युनिष्टों से समर्थन पाने के लिए राष्ट्रपति पद पर उनके उम्मीदवार का समर्थन कर दिया था, बैंक व बीमा कम्पनियों का राष्ट्रीयकरण कर दिया था तथा पूर्व राजा महाराजाओं के प्रिवीपर्स व विशेष अधिकारों को समाप्त कर दिया था। अपनी छवि बनाने के लिए उन्होंने एक कम्युनिष्ट पार्टी [सीपीआई] के साथ भी गठबन्धन कर लिया था। समाजवादी होने की छवि का भ्रम काफी समय तक बना रहा था, जब तक कि इमरजैंसी में संजय गाँधी ने काँग्रेस के असली चरित्र को प्रकट नहीं कर दिया था। बाद में सीपीआई को समझ आयी थी और 1978 के पंजाब अधिवेशन में उन्होंने अपनी भूल स्वीकारी थी और कुछ वरिष्ठ नेताओं को पार्टी से निकाला था जिनमें वरिष्ठ कम्युनिष्ट नेता श्रीपाद अमृत डांगे भी थे।
तत्कालीन जनसंघ जो बाद में भारतीय जनता पार्टी के रूप में उभरी वह देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में कांग्रेस की सबसे बड़ी प्रतिद्वन्दी रही। संविद शासन के प्रयोगों में वह इकलौती संगठित पार्टी के रूप में उभरी क्योंकि उसके पीछे आरएसएस का मजबूत संगठन था। यही कारण रहा कि उसने कम्युनिष्ट पार्टी को छोड़ कर शेष सारे राजनीतिक दलों में सेंध लगा ली। समाजवादियों के दसियों दल धीरे धीरे उसमें समाते गये या निर्मूल होते गये।
भाजपा [ तब जनसंघ ] ने सबसे पहला भ्रम जनता पार्टी के गठन के समय जनता में पैदा किया और अपनी पार्टी को जनता पार्टी में विलीन कर दिया पर वे उसके सीमित कार्यकाल में भी गुपचुप रूप से अलग गुट बने रहे। जब उनके इस अलगाव की पहचान हो गयी तब उन्हें जनता पार्टी छोड़ना पड़ी और इसी कारण से पहली गैर कांग्रेसी सरकार का पतन हुआ। इसके कुछ समय बाद ही उन्होंने भारतीय जनसंघ से भारतीय लेकर और जनता पार्टी जोड़ कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया। श्रीमती इन्दिरा गाँधी के समाजवाद का प्रभाव वे देख चुके थे इसलिए उन्होंने अपने घोषणा पत्र में अपने समाजवाद विरोधी चेहरे पर गांधीवादी समाजवाद का मुखौटा लगा लिया। यह मुखौटा फिट नहीं बैठा इसलिए इसे जल्दी ही उतारना पड़ा।
पंजाब में खालिस्तानी आन्दोलन के दौर में वे निशाने पर थे किंतु सत्तारूढ न होने के कारण सारे हमले कांग्रेस की ओर मुड़ गये। इस अलगाववादी आन्दोलन से भाजपा के लोग कभी सीधे नहीं टकाराये इसलिए नुकसान केवल कांग्रेस और कम्युनिष्टों को ही झेलना पड़ा। स्वर्ण मन्दिर पर आपरेशन ब्ल्यू स्टार का कहर श्रीमती इन्दिरा गाँधी को झेलना पड़ा जिसमें उनकी हत्या हो गयी। दिल्ली में सिख विरोधी नरसंहार हुआ किंतु भाजपा के लोग निष्क्रिय बने रहे। जब वे बुरी तरह चुनाव हार गये और लोकसभा में उनके कुल दो सदस्य चुने गये तो उन्होंने नई नीति के रूप में राम मन्दिर का मुद्दा तलाशा जो असल में कथित राम जन्मभूमि मन्दिर की जमीन के मालिकाना हक का मामला था जिसे अयोध्या में राम मन्दिर निर्माण का नाम दे दिया। इससे लाखों लोगों की भावनाएं भड़कीं। निशाने पर ध्रुवीकरण था जिससे हिन्दू बहुसंख्यक समाज में उन्हें समर्थन मिलता गया।
उन्होंने अपने सहयोगी संगठन विश्व हिन्दू परिषद को आगे करके उन्हीं मन्दिरों का मुद्दा उठाया जो विवादास्पद थे और अतीत में कभी भी मुसलमानों के साथ विवाद रहा था। प्रत्यक्ष में हिन्दू धर्मस्थलों की रक्षा थी किंतु परोक्ष में ध्रुवीकरण का लक्ष्य प्राप्त करना था।
मोदी शाह सरकार आने के बाद इस परम्परा को और अधिक करीने से लागू किया गया। ध्रुवीकरण के लिए उन्होंने ऐसे मुद्दे चुने जो प्रत्यक्ष में तो एक आदर्श उपस्थित करते दिखते थे किंतु उसके पीछे मुस्लिम समाज की विसंगतियां उभारना और उसमें अंतर्निहित भेद को बढाना था। तीन तलाक का मुद्दा भी ऐसा ही मुद्दा था। यह मुस्लिम समाज में ऐसी बुरी प्रथा है जो पीड़ित महिला को अधर में निराश्रित छोड़ देती है। किंतु किसी घटना के बाद पूरे मुस्लिम समाज से बदला लेने के लिए निरपराध लोगों को औरतों बच्चों और उनकी सम्पत्तियों को जला देने वालों के पक्षधरों से यह उम्मीद बेमानी थी कि वे उनके भले के लिए यह कदम उठा रहे हैं। इससे प्रगतिशीलता का दावा करने वाले अन्य विपक्षी दलों को विभूचन में छोड़ दिया। उस हिन्दू समाज में जिसके प्रतिनिधि होने का ये दावा करते हैं, में ढेर सारी गलत परम्पराएं हैं, किंतु देवदासियों से लेकर महिलाओं के मन्दिर प्रवेश तक पर ये सुप्रीम कोर्ट का आदेश तक मानने को तैयार नहीं।
धारा 370 को हटाने की तैयारी इसके लागू करते समय ही थी, और इसी कारण इसमें अस्थायी शब्द जोड़ा गया था। इसके बहुत से प्रावधान जैसे राज्यपाल की जगह राष्ट्रपति होना या मुख्यमंत्री की जगह प्रधानमंत्री होने को पहले से ही हटाया जा चुका था। कश्मीर में भारत के विलय के समर्थक सभी राष्ट्रीय दल थे और सब चाहते थे कि उचित समय पर इसे हटा दिया जाना चाहिए। किंतु इसे जिस तरह से प्रस्तुत किया गया उससे ऐसी छवि बनी कि शेष विपक्षी दल इसे हटाना नहीं चाहते और वे पाकिस्तान के पक्ष के समर्थन में हैं। दूसरी ओर वे यह भी प्रचारित करते हैं कि विपक्षी दल ऐसा वोट बैंक के लालच में कर रहे हैं अर्थात देश के सारे मुसलमान देश्द्रोही हैं व पाकिस्तान समर्थक हैं जो इसी आधार पर गैरभाजपा दलों को समर्थन देते हैं। सीमित सूचनाओं वाले लोग इस पर भरोसा भी कर लेते हैं।
गाँधी नेहरू परिवार का स्वतंत्रता संग्राम में गौरवशाली इतिहास रहा है जिसके प्रति पूरा देश उपकृत महसूस करता रहा है। उनके बाद की पीढी ने उनके इस इतिहास को हद से अधिक भुनाया और कांग्रेस में दूसरा नेत्रत्व ही विकसित नहीं हो सका। ऐसे लोग भी नेतृत्व में आ गये जो इस ऎतिहासिक पार्टी का नेतृत्व करने में उतने सक्षम नहीं थे जितने की आवाश्यकता थी। एक रणनीति के रूप में भाजपा परिवार ने इतिहास को विकृत करते हुए नेहरू जी की छवि को झूठे किस्सों से बिगाड़ने का सोचा समझा खेल खेला। इनका पूरा जोर उन मतदाताओं को फुसलाना होता है जिनकी जानकारियों के स्त्रोत सीमित हैं। इन सीमित स्त्रोतों को भी खरीद कर उनकी सोच को एक अवैज्ञानिक धारा में कैद कर दिया गया है।
भाषा से लेकर प्रतीकों तक ऐसा खेल रचा जा रहा है जिसमें सच को विलोपित किया जा रहा है और झूठ को स्थापित किया जा रहा है। यह सबकुछ चुनावी बहुमत हस्तगत करने के गुणाभाग के अनुसार सोच समझ कर किया जा रहा है। जब उनका ध्यान सच की ओर आकर्षित किया जाता है तो उनका उत्तर होता है कि इसी को तो राजनीति कहते हैं। यह एक गलत उत्तर है, यह राजनीति नहीं कूटनीति है।
वीरेन्द्र जैन
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