बुधवार, नवंबर 12, 2014

इस आदमी की ज़ामातलाशी तो लीजिए



इस आदमी की ज़ामातलाशी तो लीजिए  
वीरेन्द्र जैन                                             
                        
       अखबार में कोई दिन ऐसा नहीं जाता जब कोई बाबा, पुजारी. संत, महंत, पादरी, मौलवी, योग गुरु, ज्योतिषी, चमत्कारी, या किसी न किसी पंथ की एजेंसी रखने वाला किसी अपराध में न पकड़ा जाता हो। मजे की बात यह है कि इन अपराधियों की पक्षधरता करने वाले वे लोग होते हैं जिनको ठगे जाने का नम्बर अभी नहीं लगा है और यह काम भविष्य में होने वाला है।
       जनसत्ता [10 नवम्बर 2014] में प्रकाशित समाचार के अनुसार पंजाब के मोहाली में पुलिस ने नवादा बिहार निवासी मन्दिर के एक ऐसे महंत को गिरफ्तार किया है जो मृत घोषित किया जा चुका था और उसकी कथित हत्या के आरोप में पाँच आरोपियों को आजीवन कारावास की सजा सुनायी गयी थी जिनमें से चार सगे भाई हैं। 1984 में उनके पिता की हत्या के आरोप में इसी कथित मृत फर्जी संत को सजा हुयी थी। 1994 में जमानत मिलते ही यह व्यक्ति गायब हो गया था व मोहाली के एक गाँव के मन्दिर में महंत बन गया था। योजना अनुसार उसके पुत्र ने अपने पिता की कथित हत्या के आरोप में उक्त पाँच लोगों पर आरोप लगाया व गिरफ्तार करा दिया। उसने अपने ड्रामे को विश्वसनीय बनाने के लिए पिता का श्राद्ध भी किया। ये आरोपी लम्बे समय से न्यायिक प्रक्रिया में उलझे रहे और लम्बे समय तक जेल काटी बाद में जब उन्हें पटना हाईकोर्ट से जमानत मिली तो उन्होंने स्वयं जाँच की और पाया कि कथित मृतक के बेटे बार बार पंजाब जाते हैं। खोज करने पर उन्हें पता चल गया कि वह हत्यारा व्यक्ति गोपालदास के नाम से मन्दिर का महंत बना बैठा है। पिछले दिनों तहलका में अयोध्या के महंतों के बारे में विस्तृत रिपोर्ट प्रकाशित हुयी थी जिसमें बताया गया था कि वहाँ सैकड़ों की संख्या में पूर्वी उत्तर प्रदेश, बुन्देलखण्ड, चम्बल, बिहार आदि के फरार अपराधी साधु भेष धरे मुफ्त की मलाई खा रहे हैं और सेवा करवा रहे हैं। गत वर्ष मध्य प्रदेश में एक मस्ज़िद के इमाम ने रिपोर्ट दर्ज करवायी थी कि घृणा के कुछ प्रचारक जिनके आतंकी समर्थक  होने का संदेह है जमात में शामिल होकर घूम रहे हैं व मस्जिदों में ठहर रहे हैं। खालिस्तानी आतंकियों को अगर स्वर्ण मन्दिर में आश्रय न मिला होता तो न तो आपरेशन ब्लूस्टार जैसी घटना घटती और न ही देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री की हत्या होती। पिछले वर्षॉं में मध्य प्रदेश के ओंकारेश्वर में एक साध्वी के निर्माणाधीन आश्रम में राजस्थान का एक हत्यारा पकड़ा गया था।  
       पिछले दिनों चले स्वच्छता अभियान में गुजरात से भाजपा सांसद और ओह माई गाड जैसी फिल्मों के अभिनेता परेश रावल ने कहा था कि हमारे मन्दिरों में सबसे अधिक गन्दगी रहती है और वहाँ सफाई की ज्यादा जरूरत है। इसी क्रम में अगर आगे बढा जाये तो कहा जा सकता है कि धार्मिक संस्थान जनता की सबसे अधिक श्रद्धा के केन्द्र हैं और वहाँ भी सफाई की जरूरत है। स्वच्छता की परिभाषा हमारे समाज की नैतिकता से जुड़ी है। स्वच्छता का मतलब है कि जैसा होना चाहिए वैसा नहीं होना, और वैसा बनाने के लिए जो भी अवांछित है उसे हटाना। अगर धर्म के क्षेत्र में भी उसके आचरणों व आदर्शों से विचलित अनावश्यक लोग अतिक्रमण करके गन्दगी फैला रहे हैं तो उन्हें हटाने का काम किया जाना चाहिए ताकि मानव श्रद्धा के केन्द्रों को स्वच्छ किया जा सके। उल्लेखनीय है कि पिछले वर्ष जब आसाराम को एक किशोरी के यौन शोषण के आरोप में गिरफ्तार किया गया था तब भाजपा के बड़े बड़े नेता जिनमें से कई आज केन्द्र में मंत्री भी बने बैठे हैं, उनके पक्ष में खड़े हो गये थे। संयोगवश हमारे आज के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी उनके पक्ष में नहीं थे और उसी दौरान उन्हें प्रधानमंत्री पद प्रत्याशी चयनित किया गया था जिसके लिए सबका एक सुर में बोलना अनिवार्य बना दिया गया था। यही कारण रहा कि उन्हें चुप्पी ओढना पड़ी, यदि ऐसा नहीं होता तो आज भाजपा के अनेक नेता उनकी पक्षधरता के बहाने धर्मनिरपेक्षता विरोधी राजनीति कर रहे होते। स्मरणीय है कि जब एक शंकराचार्य पर हत्या आदि के आरोप लगे थे और उनके जेल जाने की स्थिति बनी थी तब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी समेत भाजपा के बड़े बड़े नेता कानून को अपना काम करने देने की जगह दिल्ली में अनशन पर बैठ गये थे। जब आसाराम जी गिरफ्तार हो गये और कानून व्यवस्था को जाँच की स्वतंत्रता मिली तो जाँच एजेंसियों को इतने सारे तथ्य मिले कि अब लगता है कि पीड़ितों को अपेक्षाकृत बेहतर न्याय मिल सकेगा व अवैध रूप से हथियायी हुयी चल अचल सम्पत्ति मुक्त हो सकेगी।
धर्म में श्रद्धा रखने वालों को यह बात समझने की जरूरत है कि नकली भेष धारण कर धर्म के नाम पर अनेक लोग उसके स्वयंभू ठेकेदार बन व्यापार कर रहे हैं जो धर्म की मूल भावना को नुकसान पहुँचा रहा है। यदि इस तंत्र में से गलत, अपराधी, और धनपशुओं को दूर कर दिया जाये तो वह अधिक दया, करुणा, और मानवीय मूल्यों से युक्त हो सकेगा। तुलसीदास ने रामचरित मानस में कहा है कि- परहित सरस धरम नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
       जो धर्म करोड़ों लोगों की श्रद्धा का केन्द्र है, जिसके नाम पर लोग मरने कटने को तैयार हो जाते हैं और जो देश के लोकतंत्र से लेकर आंतरिक व बाह्य सुरक्षा तक को प्रभावित कर रहा है उसे अपराधियों के हाथों में कैसे छोड़ा जा सकता है। उसकी स्वच्छता को पहली प्राथमिकता पर रखा जाना चाहिए। जो लोग भी सच्चे संत और सन्यासी हैं उनका जीवन पारदर्शी होना चाहिए व श्रद्धालुओं को यह पता होना चाहिए कि जीवन की कैसी कैसी चुनौतियों का सामना करते हुए उन्हें अंतर्ज्ञान प्राप्त हुआ है। पौराणिक कथा नायकों से लेकर महावीर, बुद्ध, ईसामसीह, रामकृष्ण परम हंस, विवेकानन्द, स्वामी दयानन्द, गुरुनानक, मुहम्मद साहब, आदि सबका जीवनवृत्त खुला रहा है इसलिए यह जरूरी है कि धर्मों से जुड़े लोगों का पूरा जीवनवृत्त उसके श्रद्धालुओं को ज्ञात हो। कानून व्यवस्था के रखवालों का भी यह कर्तव्य बनता है कि वह ऐसे लोगों का जीवनवृत्त पता करने के लिए स्थानीय पत्रकारों व जीवनी लेखकों को प्रोत्साहित करने हेतु आवश्यक व्यवस्था करें व प्राप्त जानकारी की पुष्टि करें। कैसी विडम्बना है कि देश के प्रधानमंत्री तक पहुँच रखने वाले व उनके शपथ ग्रहण समारोह में सम्मलित होने वाले आचार्य बालकृष्ण की नागरिकता तक विवादित रही है व उन्हें इसके लिए पुलिस प्रताड़ना भी सहनी पड़ी है। एक टीवी कार्यक्रम में कई कलाकारों के पूछने पर भी सर्वाधिक सक्रिय बाबा रामदेव अपनी उम्र नहीं बताते।उन्होंने अचानक गायब हो गये अपने परम्पूज्य गुरु के प्रति कभी सार्वजनिक चिंता प्रकट नहीं की और न ही इसके लिए स्थानीय सरकार की आलोचना की।
       सार्वजनिक जीवन में रहने वाले लोगों का पूरा जीवन पारदर्शी होना चाहिए। दुष्यंत कुमार ने कहा है- फिरता है, कैसे कैसे खयालों के साथ वो, इस आदमी की ज़ामातलाशी तो लीजिए। 
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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सोमवार, नवंबर 10, 2014

मंत्रिमण्डल के ऐसे विस्तार से उठते सवाल



मंत्रिमण्डल के ऐसे विस्तार से उठते सवाल

वीरेन्द्र जैन
       गोआ के मुख्यमंत्री मनोहर पार्रिकर को मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दिलाकर केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में सम्मलित किया गया है। आई आई टी की डिग्री वाले वे ऐसे नेता हैं जिनकी ईमानदारी, सादगी, लगन और कर्तव्यनिष्ठा बेदाग है और उन पर व्यापक भरोसा है। अगर कोई सवालिया निशान बनता है तो सिर्फ यह कि वे अमित शाह की अध्यक्षता वाले उस दल और संगठन में कैसे हैं, जहाँ वे इतने अकेले पड़ जाते हैं कि उनके मुखौटे का स्तेमाल करने के लिए उनकी नापसन्दगी के बाबजूद गोआ छुड़ा कर उस दिल्ली में बुलाना पड़ता है, जहाँ का वातावरण उन्हें पसन्द नहीं। बहरहाल पूरे मंत्रिमण्डल के विस्तार को देखते हुए ऐसा लगता है कि श्री पार्रीकर के व्यक्तित्व का उपयोग दूसरे अनेक मंत्रियों के चरित्रों को ढंकने के लिए किया गया है। आखिर क्या कारण था कि जिस विस्तार में चार केबिनेट मंत्रियों समेत  इक्कीस मंत्रियों को शपथ लेना थी उनमें सबसे आगे पार्रीकर का नाम ही लीक किया गया, और उसे कई दिनों तक चर्चा में बनाये रखा गया।   
     2014 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबन्धन इस तरह जीत कर उभरा कि उसमें भाजपा को अकेले ही स्पष्ट बहुमत प्राप्त हुआ था। भले ही उसे कुल पड़े मतों में से भी इकतीस प्रतिशत मत मिले हैं पर राजनीतिक बहसों में उनका अंतिम अस्त्र यही होता है कि उन्हें मतदाताओं ने जिता कर उन पर और उनकी नीतियों पर विश्वास प्रकट किया है, इसलिए उनकी हर बात मान्य है। ऐसे समय वे चुनाव में वांछित सुधारों और चुनाव प्रबन्धन के कौशल के उन आरोपों को याद नहीं करते जिनकी चर्चा वे तब निरंतर करते रहे हैं जब विपक्ष में होते हैं। मंत्रिमण्डल का गठन प्रधानमंत्री का अधिकार होता है पर मंत्रि परिषद के सदस्यों की अधिकतम संख्या तय है। उल्लेखनीय है कि यह संख्या भी देश की संसद को तब तय करना पड़ी थी जब दलबदल से बनी उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार ने सारे दलबदलुओं को मंत्री पद देकर सौ लोगों को मंत्री बना दिया था जिनमें से कई मंत्रियों का कहना था कि छह महीने में उनके पास एक भी फाइल दस्तखत होने नहीं आयी है। अधिकतम संख्या तय होने के कारण तरह तरह से जुटाये गये बहुमत के सारे लोगों को मंत्री नहीं बनाया जा सकता इसलिए सदन के सदस्यों या प्रत्याशित सदस्यों से मंत्रियों का चयन करना पड़ता है। यह चयन इस बात का संकेतक होता है कि सरकार का प्रमुख अपनी सरकार से क्या और कैसा काम लेना चाहता है। प्रतीक्षित वर्तमान विस्तार के बाद मोदी मंत्रिमण्डल का जो स्वरूप उभरा है वह उन लोगों को भी निराश करता है जिन्होंने उनसे बहुत सारी उम्मीदें लगा ली थीं और आशा कर रहे थे कि उन्हें अपेक्षाकृत एक बेहतर सरकार मिलेगी।   
    मंत्रिमण्डल गठन के पहले दौर में जब संख्या से कम मंत्री बनाये गये थे तब यह उम्मीद जगी थी कि प्रधानमंत्री अपने वादे के अनुसार मंत्रालयों का समन्वय करना चाहते हैं और देश में मंत्रिपरिषद के अनावश्यक बोझ को कम करना चाहते हैं। किंतु जब उन्होंने चुने हुये सदस्यों की तुलना में पराजित और प्रत्याशित सदस्यों को मंत्रिमण्डल में महत्वपूर्ण स्थान दिया तब यह भूल गये कि वे स्वयं ही जनता की पसन्दगी और उसके चयन के प्रति सन्देह व्यक्त कर रहे थे। उल्लेखनीय है कि अपने पहले गठन में उन्होंने लोकसभा चुनाव में पराजित अरुण जैटली, स्मृति ईरानी, समेत प्रत्याशित प्रकाश जावडेकर को सबसे महत्वपूर्ण विभाग दिये जबकि जनता से चुन कर आये अनेक अनुभवी और वरिष्ठ लोगों को हाशिये पर डाल दिया। दूसरे गठन में भी किसी भी सदन के सदस्य न होने वाले मनोहर पार्रीकर, सुरेश प्रभु, आदि को कैबिनेट में महत्वपूर्ण स्थान देते समय यह साबित किया कि चुन कर आने वाले लोग केवल बहुमत बनाने के लिए हैं। अन्य अनेक मंत्री बनाते समय भी योग्यता, क्षमता, आदि को दरकिनार करते हुए लोकप्रियता, जातिवादी व क्षेत्रवादी समीकरण, पर जोर देते हुए उनके चरित्रों और आरोपों पर ध्यान देने की जरूरत नहीं समझी।
       पिछली अनेक गठबन्धन सरकारों के समीकरणों के कारण सदन के प्रत्येक सदस्य का महत्व बहुत बढ गया था व मोदी के लिए बहुमत बनाने वाले अनेक सदस्य उसी प्रत्याशा में दल बदल कर भाजपा में आये थे और इसी कारण से कई कलाकारों ने अपनी लोकप्रियता को उनके लिए झौंक दिया था। दल बदल कर आने वालों में से कई तो पिछली सरकार में महत्वपूर्ण मंत्रालय सम्हाल रहे थे। उदितराज जैसे दलित आन्दोलन के एक्टविस्ट अपनी सोच के विपरीत भाजपा में इसीलिए सम्मलित हुये होंगे ताकि अपने काम को आगे बढा सकें किंतु ऐसे लोग भी हाशिए पर डाल दिये गये हैं।
         यद्यपि यह स्वाभाविक है कि जब गठबन्धन में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत मिल जाता है तो दूसरे दल किनारे कर दिये गये महसूस करने लगते हैं। शिवसेना और अकाली दल तो छिटक ही चुके हैं, गठबन्धबन के दूसरे दलों में भी बेचैनी है। ऐसे में जब बहुमत वाले दल के भी ढेर सारे सदस्य असंतुष्ट हो रहे हों तब सरकार की स्थिरिता पर सन्देह बनने लगता है। अगर पार्रीकर के सहारे गिरिराज सिंह, संजीव बालियान, निहाल चन्द, निरंजन ज्योति, जेपी नड्डा जैसे दर्ज़नों मंत्रियों को ओट में किया जा सकता है तो सवाल यह भी उठता है कि इनके साथ शपथ लेते समय क्या पार्रीकर का व्यक्तित्व कमजोर नहीं हुआ है। प्रथम बार लोकसभा का सदस्य बनते ही प्रधानमंत्री बनने वाले मोदी ने कई ऐसे ही लोगों को मंत्री भी बनाया है, किंतु पूर्णकालिक राजनीति करने वाले और बारह साल तक मुख्यमंत्री रहने वाले मोदी की तुलना में दूसरे नये मंत्रियों का तो कोई अनुभव ही नहीं है व कई तो अपनी लोकप्रियता भुनाने के लिए ही चुनाव लड़े थे। स्मृति ईरानी, बाबुल सुप्रियो, राज्यवर्धन सिंह, या निरंजन ज्योति आदि कैसे मंत्री साबित होंगे यह भविष्य बतायेगा। जिन विजय सांपला को सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय मिला है वे ग्यारह साल सऊदी अरब में प्लम्बर की नौकरी करते बताये जा रहे हैं। सदानन्द गौड़ा का मंत्रालय जिन कारणों से बदला गया है उनके आधार पर उन्हें कानून और न्याय मंत्रालय मिलना कहाँ तक उचित है!           
        मंत्री चुनना भले ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री का विशेष अधिकार हो किंतु उसके मंत्रि परिषद गठन के उद्देश्यों को देखते हुए कुछ पात्रताएं तय की जाना चाहिए जो सभी पर लागू हों। लोकतंत्र में विशेष अधिकार भी ऐसे अनुत्तरदायी नहीं हो सकते जिनमें राजशाही या तानाशाही की गन्ध आती हो।
वीरेन्द्र जैन                                                                          
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मंगलवार, नवंबर 04, 2014

शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था



शिवसेना का संकुचन ; कभी मुँहफट होना उनका गुण था
वीरेन्द्र जैन

                एक गुर्राता हुआ शेर शिवसेना का प्रतीक था जो बाला साहब ठाकरे के बयानों और कामों से साम्य रखता था किंतु पिछले दिनों घटे घटनाक्रम को देखते हुए अपने दिन गिनता हुआ यही शेर अब शिवसेना के साथ एक व्यंगचित्र की तरह नज़र आने लगा है।
                बाला साहब ठाकरे ने अपना कैरियर एक कार्टूनिस्ट के रूप में प्रारम्भ किया था और दूसरों की गलतियों और दोहरे चरित्रों को उजागर करने का साहस उनमें था। जैसे जैसे उन्होंने राजनेता के रूप में अपना चरित्र विकसित किया यही गुण उनके लेखन और बयानों में दिखने लगा। वे इस मामले में किसी का भी लिहाज नहीं करते थे। अपने मन की बात कहने के लिए उन्होंने कभी भी लाभ-हानि की परवाह नहीं की। वे यह जानते हुए भी कि उनके बहुत सारे काम हमारे राष्ट्रीय आदर्शों से मेल नहीं खाते व इसके लिए उन्हें अपने साथियों और विरोधियों की आलोचना पड़ेगी, वे उन्हें करने में हिचकते नहीं थे। बहुत सारे लोगों को उनका यह दुस्साहस पसन्द आता था। उनकी पार्टी एक छोटी सी क्षेत्रीय पार्टी थी जो बाद में भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए का हिस्सा बनी, पर उन्होंने कभी भी खुद को भाजपा का छोटा भाई नहीं बनाया, और जहाँ भी जरूरत समझी वहाँ उनकी खुल कर चुभने वाले शब्दों में आलोचना की।
       उल्लेखनीय है कि एक बार भाजपा उत्तरप्रदेश विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी किंतु उनकी सरकार बिना किसी दूसरी पार्टी की मदद के नहीं बन सकती थी इसलिए उन्होंने बहुजन समाज पार्टी से समझौता किया। बहुजन समाज पार्टी ने इसके लिए शर्त रखी कि दोनों दल क्रमशः सरकार बनायेंगे और उनसे कम सीटें जीतने वाली बहुजन समाज पार्टी की सरकार पहले बनेगी। सत्ता के लिए किसी भी तरह का समझौता करने वाली भाजपा ने यह शर्त मान ली पर यह अवधि छह-छह महीने शासन की रखी। यह एक अभूतपूर्व हास्यास्पद समझौता था जिस पर व्यंग करते हुए बाला साहब ठाकरे ने कहा था कि भाई ये छह छह महीने का समझौता क्या होता है! अरे अगर कुछ पैदा ही करना था तो कम से कम नौ नौ महीने का समझौता करना था।  
       अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री रहते हुए जब राष्ट्रपति मुशर्रफ भारत आये थे और आगरा में द्विपक्षीय वार्ता हुयी थी तब तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज का उन्हें आदाब करता हुआ एक चित्र समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था जिस पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने कहा था कि ये मुजरा करने वाली मुद्रा में मियाँ मुशर्रफ के आगे झुकने की क्या जरूरत थी? प्रमोद महाजन के संचार मंत्री रहते हुए उन्होंने अपने पिता पर डाक टिकिट जारी करवा लिया। इसी तरह श्रीमती प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति की उम्मीदवारी के समय उन्होंने भाजपा के उम्मीदवार की जगह काँग्रेस के उम्मीदवार का समर्थन किया था। उल्लेखनीय है कि वे शरद पवार को आलू का बोरा कहा करते थे। दिलीप कुमार उनके हमप्याला मित्र रहे तो अमिताभ बच्चन को उनका स्नेह हमेशा मिला, पर समय समय पर ये लोग भी उनकी समीक्षा से बच नहीं सके। बहुत सारी फिल्में उनके विरोध के कारण नहीं बन सकीं व कई अच्छे कलाकारों को उनके विरोध के कारण फिल्म इंडस्ट्री में काम मिलना बन्द हो गया था। श्रीकृष्ण आयोग की रिपोर्ट में वे मुम्बई की साम्प्रदायिक घटनाओं के लिए दोषी ठहराये गये थे तो बाबरी मस्ज़िद ध्वंस के समय भाजपा के लीपापोती वाले रुख से अलग उन्होंने चारों ओर से हो रही आलोचना के बीच कहा था कि इस काम के लिए उन्हें शिव सैनिकों पर गर्व है। पाकिस्तान की टीम के भारत में खेलने के विरुद्ध वे क्रिकेट मैदान की पिच खुदवा सकते थे और गुलाम अली का प्रोग्राम स्थगित करा सकते थे तहा दूसरी ओर माइकिल जैक्शन का स्वागत कर सकते थे। मीडिया के अनेक लोगों और मीडिया कार्यालयों पर शिवसैनिकों ने हमले किये जिसके लिए उन्होंने कभी खेद व्यक्त नहीं किया। वे अपने विरोधियों और सरकार दोनों पर ही अपनी मनमानी थोपते रहते थे। शायद यही निर्भीकता उनके स्थानीय क्षेत्रीयतावादी समर्थकों को बहुत भाती भी थी, और ऐसा लगता था कि बहुत सारे काम वे इसी पसन्दगी को बनाये रखने के लिए करते भी थे।
       पिछले दो दशकों से शिवसेना का जो क्षरण शुरू हुआ वह बाला साहब के निधन के बाद तेज हो गया जिसे न समझ पाने के कारण काँग्रेस एनसीपी सरकार की एंटी इनकम्बेंसी का लाभ भाजपा ने उठा लिया व शिवसेना से समझौता किये बिना ही वह विधानसभा चुनाव में सबसे बड़े दल के रूप में उभरी। शिवसेना से विद्रोह करके पिछड़े वर्ग के नेता छगन भुजबल बाहर निकले थे, बाद में तो नारायण राणे भी बाहर आ गये। विरासत के सवाल पर उनके भतीजे राज ठाकरे ने भी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना बना ली और पुत्र मोह से ग्रस्त उम्रदराज होते बाला साहब कमजोर पड़ते गये, पर उनके वचनों में अंतर नहीं आया। उद्धव ठाकरे के अस्वस्थ होने पर उन्होंने राज ठाकरे से मार्मिक अपील करते हुए पुकार लगायी कि उद्धव को तुम्हारी जरूरत है। इस अपील पर राज ठाकरे उन्हें देखने तो आये पर उन्हें अपना नेता स्वीकार नहीं कर सके। उनकी बहू के काँग्रेस की ओर झुकाव की खबरें आयीं तो उनकी पौत्री के अंतर्धार्मिक विवाह की खबरें भी उनकी कमजोरी की प्रतीक की तरह देखी गयीं। प्रमोद महाजन और गोपीनाथ मुंडे के असामायिक निधन से भाजपा शिवसेना को जोड़े रखने वाली कड़ी क्रमशः कमजोर होती गयी।    
       इतना सब होने पर भी उद्धव ठाकरे बाला साहब की पुरानी ठसक से भरे रहे और लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर के सहारे मिली जीत को उन्होंने अपनी जीत समझा। एनडीए की जीत में पाँच प्रतिशत हिस्सेदारी के बाद भी जब केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में कुल एक स्थान मिला तो यह उनके लिए संकेतक था। भाजपा के खिलाफ उन्होंने बाला साहब के पुराने अन्दाज़ में मोर्चा खोलना चाहा और शाल साड़ी डिप्लोमेसी की आलोचना कर डाली जिसके विरोध में मोदी को कठोर सन्देश भिजवाना पड़ा था कि इस मामले में उनकी माँ को न घसीटा जाये। यह वही समय था जब अपने सहयोगियों द्वारा विरोध के प्रति कठोर मोदी ने शिवसेना के पर कतरने का फैसला कर लिया। इसी बीच शिवसेना के संसद राजन विचारे ने महाराष्ट्र सदन में एक रोजेदार के मुँह में रोटी ठूंसने की घटना की जो चहुँ ओर निन्दित हुयी पर भाजपा ने अपने एनडीए के साथी का बचाव नहीं किया। शिव सैनिकों द्वारा टोल न चुकाने और माँगने पर तोड़फोड़ की जाती रही जिसे बाद में राज ठाकरे ने भी अपना लिया था।
       किंतु मोदी उद्धव ठाकरे और बाला साहब के अंतर को जानते थे और उद्धव की गलतफहमियों को दूर करना चाहते थे इसलिए उन्होंने विधानसभा चुनावों में शिव सेना की शर्तों को मानने से साफ इंकार कर दिया। न तो मुख्यमंत्री का पद देना जरूरी समझा और ना ही उनके द्वारा मांगी गयी सीटें ही उन्हें दीं। उद्धव ने भाजपा से कहा कि वह हवा में तलबारबाजी न करे व ज़मीन पर पैर रखे। गठबन्धन रहे या न रहे पर मुख्यमंत्री शिवसेना का ही होगा। उन्होंने यह भी कहा कि भाजपा ने राजनीतिक फायदे के लिए हिन्दुत्व का स्तेमाल किया। उन्हें अफज़ल खान बताते हुए यह भी कहा कि जो भी महाराष्ट्र को जीतने आये वे यहीं दफन हो गये। गठबन्धन टूटने के बाद भी शिवसेना के मंत्री अनंत गीते ने मोदी मंत्रिमण्डल से स्तीफा नहीं दिया। बयानों में कटु होते हुए बात नरेन्द्र मोदी के पिता तक भी पहुँची तो नफरत गहरी होती गयी पर कूटनीतिक भाजपा ने संयम बनाये रखा। शिवसेना ने भाजपा समर्थक दलित नेता रामदास अठावले को जोकर भी कहा और उन्हें शोषित जातियों के प्रति धोखा देने वाला भी बताया।
       इतना सब होने के बाद भी शिवसेना का भाजपा के साथ फिर से पींगें बढाना खतरनाक है क्योंकि जो लोग मोदी को जानते हैं वे बताते हैं कि मोदी न तो कभी माफी माँगते हैं और न करते हैं। मोदी दोस्ती या विरोध दोनों ही तरीकों से शिवसेना को मिटा कर भाजपा में समाहित कर लेंगे। वचनों में बाला साहब की तरह कठोर होना उद्धव वहन नहीं कर सकते। एनडीए के सारे ही दल क्रमशः टूटने की दशा में पहुँचा दिये गये हैं।
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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शनिवार, नवंबर 01, 2014

स्वच्छ भारत अभियान का निहितार्थ



स्वच्छ भारत अभियान का निहितार्थ
वीरेन्द्र जैन
स्वच्छता सुन्दरता की पहली सीढी है। ब्रेख्त ने कहा है- सुन्दरता संसार को बचायेगी।
गालिब के इस व्यंग्य में दर्द था कि- दरो-दीवार पर उग आया है सब्जा गालिब, हम बियावाँ में हैं और घर में बहार आयी है. या- है खबर गर्म उनके आने की, आज ही घर में बोरिया न हुआ।
श्रीलाल शुक्ल के कालजयी व्यंग्य उपन्यास रागदरबारी में लोग जगह जगह खुले आम ठोस द्रव बहाते दिखते हैं या सड़क के किनारे औरतें गठरी बनी बैठी हुयी रहती हैं। मैथली शरण गुप्त के अहा ग्राम्य जीवन के आदर्श सौन्दर्य के विपरीत इस यथार्थवादी कृति में गाँव के कुछ घूरे, घूरों से भी बदतर मिलते हैं। यह सभी गाँवों की कहानी है।
आमिरखान और विद्या बालन कई वर्षों से पर्यटकों के विकर्षण या बाहर शौच करने से होने वाली बीमारियों के बारे में स्वच्छता के महत्व का सूचना माध्यमों के द्वारा प्रचार कर रहे हैं। विन्देश्वरी पाठक ने तो सुलभ शौचालयों के माध्यम से देश में जो काम किया है उसका डंका दुनिया भर में बजा है, क्योंकि इस अभियान ने परोक्ष में सिर पर मैला ढोने की प्रथा से मुक्ति दिलाने की ओर भी कदम बढाया है। प्रधान मंत्री श्री नरेन्द्र मोदी का स्वच्छता अभियान कोई नया अभियान नहीं है, किंतु, इस अभियान ने उसी तरह सर्वाधिक ध्यान आकर्षित किया है जिस तरह से कि पतंजलि के योग का प्रचार भले ही दशकों पहले धीरेन्द्र ब्रम्हचारी भी दूरदर्शन पर कर चुके हों पर नई पीढी उसे बाबा रामदेव द्वारा अविष्कृत समझ कर चल रही है क्योंकि उन्होंने उसके सही ग्राहकों के बीच उनके सर्वथा उपयुक्त प्रचार माध्यमों के द्वारा सही समय पर प्रचारित किया।
खुश्बू को फैलने का बहुत शौक है, मगर
मुमकिन नहीं हवाओं से रिश्ता किये बगैर
मोदी भी इन दिनों देश के सर्वाधिक प्रचार कुशल नेता हैं, और जैसा कि राहुल गाँधी ने काँग्रेस के एक अधिवेशन में स्वीकारा था कि हमारे विरोधी गंजों को भी कंघी बेच सकने का कौशल रखते हैं। यही उनकी सफलता का राज भी है। दैनिक भास्कर भोपाल में प्रकाशित एक सूचना के अनुसार मोदी ने अपनी प्रारम्भिक अमेरिका यात्रा के दौरान प्रचार का कोई डिप्लोमा भी लिया था। बहरहाल नकारात्मक आधार पर चर्चाओं में बने रहने के बीच एक सकारात्मक कार्यक्रम के आधार पर जनता के बीच जाना एक अच्छा कदम है और लोकप्रियता की परीक्षा भी है।
सफाई किसे पसन्द नहीं होती। कहावत है कि कुत्ता भी अपने बैठने की जगह को पूँछ से साफ करके बैठता है। हम देखते हैं कि हिन्दुओं में दीवाली के समय, मुसलमानों में ईद के समय, मलयाली लोगों में ओणम के समय और बंगालियों में दुर्गापूजा के समय अपने अपने घरों को सिरे से साफ करने और सजाने की परम्परा है। पर यही समय इनके परिवेश के सबसे अधिक गन्दा होने का समय भी होता है क्योंकि लोग अपने घर का कचरा साफ करके सड़कों, गलियों में फेंकते रहते हैं जिन्हें छुटभैये नेताओं की लूट के संस्थानों में बदल चुकी नगरपालिकाएं तुरंत साफ कराने में सक्षम नहीं होतीं। भारत स्वच्छ अभियान का मुख्य मुद्दा व्यक्तिगत स्वच्छता से ऊपर उठकर सार्वजनिक स्थलों को उसी तरह से स्वच्छ रखने की भावना का विकास करना है। इस अभियान का लक्ष्य लोगों को यह सन्देश पहुँचाना भी है कि परिवेश को स्वच्छ रखे बिना अपनी और अपने घर की स्वच्छता का लाभ दूरगामी नहीं हो सकता।
       इस देश में अटल बिहारी वाजपेयी के मंत्रिमण्डल में केबिनेट मंत्री कुमार मंगलम की मृत्यु राजधानी के एक नामी अस्पताल में मलेरिया से हो जाती है व प्रधान मंत्री मनमोहन सिंह के दो रिश्तेदारों को डेंगू हो सकता है तो स्पष्ट है कि व्यक्तिगत स्वच्छता काफी नहीं होती। कोई कितना भी एसी कमरों में बन्द रह ले या बन्द एसी गाड़ियों में यात्राएं करता रहे पर खुली हवा में तो कुछ देर आना ही पड़ेगा। और यदि परिवेश गन्दा है तो व्यक्तिगत स्वच्छता का लाभ कमजोर हो जाता है। गन्दे नाले के पानी से धुली बाज़ार में बिकती सब्जियां, हमारे वाटर प्यूरीफायर के उपयोग को बेकार कर देती हैं।
इस अभियान की सफलता, व्यक्तिगत को सामाजिक बना सकने की सफलता से जुड़ी है। इस तरह यह आन्दोलन एक सामाजिक आन्दोलन ही नहीं एक राजनीतिक आन्दोलन भी है। विडम्बना यह है कि इसे एक दक्षिणपंथी और साम्प्रदायिक माना जाने वाला दल संचालित करने चला है जिसने सदैव ही व्यक्तिगत हित को सामाजिक हित से ऊपर माना है, व एक सम्प्रदाय के हितों को दूसरे सम्प्रदाय के हितों से ऊपर माना है। सातवें दशक में जब सार्वजनिक क्षेत्रों का विकास किया जा रहा था तब सार्वजनिक क्षेत्र की सबसे बड़ी विरोधी भाजपा ही थी जिसका उस समय नाम जनसंघ था, और जो स्वतंत्र पार्टी की सहयोगी थी। इस पार्टी ने अपना विस्तार बैंकों के राष्ट्रीयकरण और पूर्व राजाओं के प्रिवी पर्सों व विशेष अधिकारों को समाप्त करने से प्रभावित उस दौर के पूंजीपतियों और पूर्व समंतों के प्रवक्ता बन कर किया था। केन्द्र में जब जब इनकी सरकार रही तब तब इन्होंने सार्वजनिक क्षेत्रों को बेचने का ही काम किया और मोदी सरकार ने भी वही काम प्रारम्भ कर दिया है। उल्लेखनीय है कि अटल निहारी वाजपेयी की सरकार दुनिया की ऐसी इकलौती सरकार थी जिसने सार्वजनिक क्षेत्र को बेचने के लिए विनिवेश मंत्रालय बनाया था।
स्वच्छता एक मनोवृत्ति है और सफाई उसका प्रकटीकरण है। अगर मनोवृत्ति सही नहीं होगी तो प्रकटीकरण केवल दिखावा हो कर रह जायेगा। इसलिए स्वच्छता के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए व्यक्तिगत हित की भावना को सामाजिक हित की भावना में बदलने के क्रांतिकारी कदम उठाने होंगे, अन्यथा सारी कार्यवाही सतही और दिखावटी हो कर रह जायेगी। सत्तारूढ दल को सत्ता में बने रहने का नैतिक अधिकार तभी मिल सकता है जब वह अपने संगठनों को सार्वजनिक हितों के लिए सक्रिय कर सके। इस की कमी ही काँग्रेस सरकारों की असफलता का कारण बनी पर क्या दूसरी सरकारें इससे कुछ सबक लेने को तैयार हैं?
वीरेन्द्र जैन                                                                           
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